दयामय ! दया चहौं नहिं न्याय |

दयामय ! दया चहौं नहिं न्याय |

नहिं पैहौ प्रभु ! पार न्याय करि, एतिक मम अन्याय |बिनु जाने अपराध करत जो, सोऊ दंडहिं पाय |पुनि जो जानि जानि कर पापन, नाथ ! कौन गति वाय |न्याय होत जगहूँ, पै तुम तो, करुणाकर कहलाय |कहत ‘कृपालु’ न चतुराइहिं कछु, देखहु उर पुर आय  ||


भावार्थ  -  हे दयासिन्धु श्यामसुन्दर ! मैं दया चाहता हूँ, न्याय नहीं चाहता | हे प्रभो ! यदि न्याय करोगे तो मेरे अगणित पापों की गणना भी न कर सकोगे | जब अनजाने में ही अपराध करने पर आपके यहाँ दण्ड अवश्य भोगना पड़ता है तब फिर जो जान - जान कर पाप करता है, हे नाथ ! उसकी क्या गति होगी | न्याय तो संसार में यथा शक्ति होता ही है, किन्तु तुम तो अकारण - करुण हो इसका ख्याल करो | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैं कुछ चतुराई से नहीं कह रहा हूँ, मेरे हृदय में झाँक कर देख लो  | 


( प्रेम रस मदिरा   दैन्य  -  माधुरी )
  जगद्गुरूत्तम  श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति

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