♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
*अक्षय नवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!* 👣🪷💖✨
*शरद पूर्णिमा साधना शिविर - पहला सत्र*
💫नवम्बर 10, 2024: सुबह की भावपूर्ण साधना के मुख्य आकर्षण🎼
🌷✨जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की जय!✨🌷
*जगद्गुरु आदेश:*
साधना शिविर में लापरवाही क्यों? -
ये श्री महाराज जी का विनम्र निवेदन है - साधना के समय अनुशासन का पालन कीजिये। जब साधना करने के लिए शिविर में घर छोड़कर आये हैं, तो कोई किसी से बात न करें, किसी की बात न सुनें। केवल भगवान् के नाम गुण लीलादि का संकीर्तन करें और अगर थक जाएँ तो सुनें, रूपध्यान करें। दृढ़ प्रतिज्ञा कर लें कि हम हॉल में ही रहेंगे ताकि बाहर जाकर कुछ सुनना या बोलना न पड़े। कार्यकर्ताओं को छोड़कर कोई हॉल से बाहर न जाएँ। उनको भी अगर कुछ बोलना हो तो इशारों में या लिखकर बता दें। मौन व्रत का पालन करें।
भगवान् के धाम में आकर अपने टीचर की बात नहीं मानी तो राधारानी दुःखी होंगी। इससे श्री महराज जी को दुःख होता है। गुरु के अनुयायी होने का मतलब 100% आज्ञा पालन होता है। अनंत जन्म हमने बर्बाद कर दिये, अब थोड़े समय के लिए राधारानी के धाम पर आये हैं तो इसका उपयोग करना चाहिए। ज़बान और कान पर कण्ट्रोल करना चाहिए।
द्वौ निषेद्य यन् मन्त्रयेते तद् राजा वेद (ऋग्वेद)
जब दो आदमी प्राइवेट में बात करते हैं और ये सोच रहे होते हैं की तीसरा कोई सुन नहीं रहा, तो ठाकुर जी हसते हैं कि मैं तेरे अंदर बैठकर सुन रहा हूँ, तू धोखे में है।
हमें समझना चाहिए कि गुरु और भगवान् हर समय हमारे आइडियाज़ और कर्म को नोट कर रहे हैं।
साधना क्लास में समय पर आना चाहिए। संसार में तो हम बड़ी सावधानी से रहते हैं। संसार में सर्वत्र हमारा मन वश में रहता है। हर जगह हम टाइम से पहले पहुँचते हैं, अनुशासन में रहते हैं, नियम का पालन करते हैं चाहे ट्रेन पकड़ना हो या बस या जहाज़। बल्कि वहाँ तो हम आधा घंटा पहले पहुँच जाते हैं इस डर से कि जहाज़ छूट न जाये, या ऑफिस में ससपेंड ने हो जाएँ। तो भगवान् के एरिया में आए तो ऐसे क्यों सोचते हो कि - 'मेरा मन कर रहा है...।' कम से कम ऐसे कर्म तो करें जिससे अगले जन्म में मानव देह तो मिले।
हमें ये अहंकार हो जाता है कि हम सब कुछ जानते हैं - ये ज्ञानाभिमान कहलाता है - जब गुरु आदेश और वेद शास्त्र का पालन नहीं कर रहे हैं तो हमें क्या तत्त्वज्ञान है? और अगर सब जानकर आज्ञा पालन नहीं करेंगे तो ये और बड़ा अपराध है। संसार में रहकर पाप करने और धाम में आकर पाप करने के फल में बहुत बड़ा अंतर है - इसको नामापराध कहते हैं । भगवान् के निमित्त जीवन में कुछ घंटे हम देते हैं, उसमें भी हम लापरवाही करते हैं। तत्त्व ज्ञान को बार-बार सुनो, बार-बार मनन करो (श्रोतव्य:, मंतव्य:, आवृत्तिरस्कृत् उपदेशात्) तब डिसीज़न पक्का होगा, तब पालन होगा। सिद्धांत बलिये चित्त न कर आलस।
गुरु और भगवान् की कृपा पाने के लिए कुछ करना पड़ता है। शरणागति का अर्थ मनमानी करना या चोरी-चोरी बात करना नहीं है। अगर हमें वही लाभ चाहिए जो शरणागत जीवों को मिलता है, तो शास्त्र वेद और गुरु के आदेशानुसार चलना चाहिए। साधना करने आये हैं तो करके दिखाओ। इस दुष्ट मन की एक न सुनो। ज़बान को बाँध लो। कान में रुई लगाकर चलो। ज़िद्द कर लो कि हम किसी की नहीं सुनेंगे। साधना के समय महाराज जी या भगवान् की भी बातें न करें। जब अजामिल सरीका महापापात्मा भगवत्प्राप्ति कर सकता है, तो क्या हम बिना बोले नहीं रह सकते? भगवान्नाम न ले सकें तो कम से कम भगवान् का चिंतन तो करें।
*कीर्तन:*
- मन करु सुमिरन राधे रानी के चरण (ब्रज रस माधुरी, भाग 1, पृष्ठ सं. 125, संकीर्तन सं. 58)
- मेरी राधे मेरी राधे मेरी राधे मेरी राधे (ब्रज रस माधुरी, भाग 3, पृष्ठ सं. 164, पद सं. 97)
- रहो रे मन गौर चरन लव लाई (प्रेम रस मदिरा, सिद्धान्त माधुरी, पद सं. 91)
- पाहि मां श्यामा श्याम (युगल माधुरी, पृष्ठ सं. 139, पद सं. 43)
- हरे राम संकीर्तन
*Happy Akshaya Navami!* 👣🪷💖✨
*Sharad Poornima Sadhana Shivir - First Session*
💫November 10, 2024: Highlights of soulful morning sadhana🎼
🌷✨Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj ki Jai!✨🌷
*Jagadguru Aadesh:*
Carelessness in Sadhana Shivir -
This is a humble request from Shri Maharaj Ji - please follow discipline during sadhana. Having left your homes to attend Sadhana Shivir for devotional practice, you must not engage in conversation or listen to others. Dedicate yourself solely to singing God's names, qualities, and pastimes. If you get tired, then listen to kirtan and do Roopdhyan. Make a firm resolution to remain within the sadhana hall to avoid hearing or talking to others outside. Except for the volunteers, no one should leave the hall. If communication is absolutely necessary, use gestures or written notes. Complete silence must be observed during sadhana shivir.
Not following your teacher's instructions after coming to God's abode brings sadness to Radharani, which deeply pains Shri Maharaj Ji. Being a guru's disciple means complete obedience. After wasting countless lifetimes, now that you have reached Radharani's abode for this brief period, utilize it fully by controlling your tongue and ears.
dvau niṣedya yan mantrayete tad rājā veda (Rigveda)
When two people converse privately, thinking they are unheard, Thakur Ji smiles and says, "I am present within, listening to you. You are deceived."
Remember that the Guru and God are always aware of our thoughts and actions.
Come on time for the sadhana class. You exercise great care in worldly matters - arriving early for trains, buses, flights, and work commitments to avoid missing them or risking your employment. Why, then, do you follow your whims when in Dhaam? At a minimum, perform actions that ensure a human birth in your next life.
Becoming proud thinking that we know everything is called 'gyanabhimaan' - What philosophical knowledge do you possess if you don't follow these teachings? Moreover, possessing knowledge but failing to apply it is an even greater offense. The consequences of sins committed in dhaam are more severe than those in the material world - this constitutes nāmāparādh. You dedicate only a few hours to God, yet remain negligent even in that time. Repeatedly listen to philosophical knowledge and repeatedly contemplate on it (śrotavya:, maṃtavya:, āvṛttiraskṛt upadeśāt). Only then can you form a firm resolve and follow through. siddhāṃta baliye citta na kara ālasa।
Attaining the blessings of Guru and God requires effort. Surrender does not mean following your mind's desires or conversing secretly. If you wish to attain the same benefit surrendered souls receive, follow the scriptures, Vedas, and your Guru's instructions. When you have come to do sadhana, focus solely on that. Don't listen to this evil mind. Tie your tongue, and put cotton in the ears. Be stubborn that you will not listen to anyone. Do not talk about Maharaj Ji or even God during sadhana.
If a great sinner like Ajamil could attain God, why can't you remain silent? If you cannot speak out God's name, at least maintain a loving remembrance of God.
*Kirtan:*
- Mana karu sumiran Radhey Rani ke charan (Braj Ras Madhuri, part 1, page no. 125, sankirtan no. 58)
- Meri Radhey meri Radhey meri Radhey meri Radhey (Braj Ras Madhuri, part 3, page no. 164, pad no. 97)
- Raho re man Gaur charan lava laai (Prem Ras Madira, Siddhant Madhuri, pad no. 91)
- Paahi maam Shyama Shyam (Yugal Madhuri, page no. 139, kirtan no. 43)
- Hare Ram Sankirtan
http://jkp.org.in/live-radio
एक बार एक रामायण सम्मेलन में श्री महाराज जी को बुलाया गया था। उस सम्मेलन में बिन्दु गोस्वामी भी आये हुए थे, जो उस समय रामायण कथा वाचकों में चोटी के कथा वाचक माने जाते थे। कहते हैं उस समय श्री बिन्दु गोस्वामी एक दिन के कथा का तीन सौ रूपया दक्षिणा लिया करते थे। उस सम्मेलन में बिन्दु गोस्वामी ने कहा कि इस समय जो सम्मेलन हो रहा है इसमें भारत के समस्त मानस मर्मज्ञ आये हुए हैं। मानस पर किसी को कोई भी शंका हो तो वह समाधान कर ले। इसके बाद आपको (श्री महाराज जी) बोलना था। आप बोले, मैं सारे मानस मर्मज्ञों को चैलेंज करता हूँ कि वे रामायण की किसी एक चौपाई का सही सही अर्थ कर दे। किन्तु शर्त यह है कि वह अर्थ, नाना पुराण निगमागम सम्मत होना चाहिए। अपने मन का अर्थ नहीं सुना जायेगा महापुरुष की वाणी के अर्थ को महापुरूष ही सही सही समझ सकता है। कोई कथा वाचक इसे कैसे समझ सकता है। अतः यदि वह महापुरुष नहीं है तो उसे यह कहना चाहिए, जितनी हमारी बुद्धि है उसके अनुसार हम समझा रहे हैं। बिन्दु गोस्वामी ने श्री महाराज जी को एक पर्ची धीरे से लिख कर दिया कि यह चैलेंज आपके लिए थोड़ी ही थी।
🌻महाराज जी स्वयं बताते हैं एक बार रायपुर में हम कीर्तन करा रहे थे। सायंकाल प्रवचन होता था। उस समय हम जगद्गुरु के सिंहासन से बोल रहे थे, कीर्तन में श्री शम्भू शास्त्री भी आते थे। शास्त्री जी महू में हमें संस्कृत पढा चुके थे। आप वहाँ पुलिया आश्रम में प्रधानाध्यापक थे चेहरे और आवाज से हमें पहचान रहे थे। हमारे स्थान पर हमसे मिलने आये, किन्तु भीड़ के कारण उनकी हिम्मत आगे आने की नहीं पड़ रही थी। उन्होंने हमारे एक सत्संगी से कहलाया। महू के शम्भू नाथ शास्त्री आपसे मिलना चाहते हैं। हम तुरन्त उठे, उनके पास गये और उनके चरण छूने को झुके कि उन्होने हमें उठा लिया आैर कहा कि अब तो आप जगद्गुरु हैं। हमारे पूजनीय हैं आपको ऐसा नहीं करना चाहिए। बाद में हमारे पास आकर बैठे और विभोर होते रहे। हमने उन्हें अपने से ऊँचे स्थान पर बैठाया और उनका उचित सम्मान किया।
🌻एक बार महाराज जी जगद्गुरु होने के पहले रायगढ़ गये थे। वहां 15 दिन का प्रवचन भुजी भवन में रखा गया था एक सत्संगी बताती हैं कि महाराज जी उस समय दुबले पतले श्वेत वस्त्रों आकृत पालथी मारे आँखें बन्द करके बोलते थे। एक बार श्यामा टाकीज के श्यामा जी को विचित्र लीला दिखाई दी। लीला में महाराज जी ने दिखाया कि जीव किस प्रकार प्रतिक्षण अपराध करता है और किस प्रकार भगवान् उसको क्षमा करता रहता है। कई दिन तक उनको स्पष्ट दिखता रहा।
भगवान् जीव को सदा सद्प्रेरणा देता रहता है। वह कभी उसके साथ जबरदस्ती नहीं करता। किन्तु गुरू रूप में वह सद्प्रेरणा अमल न करने पर अनेक प्रकार से सही रास्ते पर लाने के लिए प्रयत्न करता है। कभी डाटता है, कभी स्वयं समझाता है तो कभी दूसरे से समझवाता है, कभी उसके आस पास ऐसी परिस्थितियां पैदा कर देता है, जिससे साधक सही रास्ते पर चलने को विवश हो जाता है।
🌷॥हमारे प्यारे महाराज जी को बारम्बार प्रणाम॥🌷
♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
♻♻♻♻♻
आगरा की रहने वाली एक सत्संगी महिला सुश्री गौरी राय ने कहा कि महाराज जी को जब यह पता चला कि उनकी मां पूर्णतः उन्हीं पर आश्रित हैं तब महाराज जी ने उनसे कहा था, माँ को रोटी, कपड़ा, की कभी तंगी न होने देना और भविष्य में साधना के लिए पैसा जोड़ना। सुश्री गौरी राय ने महाराज जी से सवाल किया क्या जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आपके शरण में आना आवश्यक है। गौरी राय की इस बात का उत्तर देते हुए महाराज जी ने कहा कि यह जीव जिस प्रकार के परिवेश में रहता है, जिससे मन लगाता है वैसा ही वह बन जाता है। अतः सांसारिक बनने के लिए सांसारिक व्यक्तियों से नाता जोड़ना होगा और आध्यात्मिक लाभ लेने के लिए आध्यात्मिक व्यक्तियों के पास जाना होगा। गौरी राय का स्वयं कहना है कि वह जब पहली बार महाराज जी से मिली थी तब महाराज जी ने उनसे कहा था, मैं बहुत दिनों से तुम्हें परख रहा था, बहुत पहले ही तुम्हें मेरे पास आ जाना चाहिए था।
एक बार हमारे महाराज जी किसी सत्संगी महिला के घर गए अचानक बिना बताए पंहुच गये।
तो जब अचानक श्री महाराज जी उनके घर पहुचे तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। और महाराज जी ने आते ही कहा की मुझे बहुत जोर से भूख लगी है।
उस महिला की ख़ुशी और बढ़ गयी। वो सोचने लगी की मै जल्दी से क्या बना दू क्योंकि मेरे महाराज जी बहुत भूखे है उसे ख़ुशी के कारण कुछ समझ नही आ रहा था ।
फिर उसने सोचा की मै महांराज जी के लिए जल्दी से हलवा बना देती हूं।
वो हाथो से तो हलवा बना रही थी लेकिन मन से महाराज जी का चिन्तन कर रही थी।
तो उसने हलवे में चीनी की जगह नमक मिला दिया और उसको प्लेट में कर के महाराज जी के पास ले गयी।
जब महाराज जी ने हलवा एक चम्मच खाया तो उनको स्वाद बदला हुआ सा लगा।
महाराज जी ने दोबारा भी हलवा माँगा और वो बडी खुश होकर सारा हलवा ले आई कि महाराज जी को बहुत अच्छा लगा।
लेकिन उन्होंने उस महिला से कुछ् नही पता चलने दिया और पूरा का पूरा हलवा खा गए।
थोड़ी देर बाद महिला ने सोचा की महाराज जी ने इस प्लेट में खाया है इसी प्लेट में मै भी प्रसाद के रूप में खा लेती हूँ तो थोड़ा सा कहीं लगा रह गया था वो उसने चखा।
लेकिन जैसे ही उसने पोंछकर मुँह में डाला तो समझ में आया। तो महाराज जी कहते हैं। इतने प्यार से बनाया था, दुख न हो मैंने इसलिए पूरा खाया, कि हलवा पता ही नहीं चलेगा मीठा बना है या नमकीन जब रहेगा ही नहीं।
🌹ऐसी करूणा श्री महाराज जी के अतिरिक्त और कौन कर सकता है।🌹
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॥ कृपावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
बरसाना धाम ऑस्टिन टैक्सास अमेरिका
उत्तरी अमेरिका में स्थित बरसाना धाम जगद्गुरु कृपालु परिषत् का मुख्य केंद्र है। इसकी स्थापना जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के सर्वप्रथम शिष्य स्वामी प्रकाशानन्द सरस्वती जी द्वारा की गई है। यह अमेरिका वासियों के लिए ही नहीं पूरे विश्व के लिए एक महान तीर्थ स्थान बन गया है साथ ही एक अत्यधिक रमणीय दर्शनीय स्थल भी है जहाँ पँहुचते ही मन गौर श्याम प्रेम में विभोर हो दिव्यानन्द में डूब जाता है। पुष्पित लता वृक्षों से आच्छन्न इसकी शोभा अवर्णनीय है। इस हरियाली में मोरों का नृत्य, इस स्थान को ब्रज मण्डल का रूप दे देता है। श्यामा श्याम के प्रमुख लीला स्थलों जैसे कालिंदी तट, श्याम कुटी, प्रेम सरोवर, राधा कुण्ड, मोर कुटी, गोवर्धन पर्वत इत्यादि को भी यहां प्रतीक रूप में स्थापित किया गया है जिससे आने वाले यात्री अनुभव करते हैं कि वे ब्रज मण्डल में ही भ्रमण कर रहे हैं।
अमेरिका जैसी जगह में इस प्रकार का स्थान सनातन धर्मानुयायियों के लिये बहुत गौरव की बात है। श्री श्यामा श्याम अनुरागी तो इसे श्री कृष्ण की असीम अनुकम्पा का स्वरूप मानते हैं। बरसाना धाम में स्थित रासेश्वरी राधा रानी का मंदिर यहाँ का मुख्य आकर्षण का केन्द्र है। यहाँ स्थित श्री श्यामा श्याम का स्वरूप रासेश्वरी राधारानी की मनोहारी छवि तथा युगलावतार चैतन्य महाप्रभु का चित्ताकर्षक स्वरूप कुछ विलक्षण ही है जो चित्त को बरबस आकर्षित कर लेता है।
पिछले बीस वर्षों से बरसानाधामवासी अमेरिका में रहने वाले सभी साधक उस क्षण की प्रतीक्षा कर रहे थे जब रसिक शिरोमणि, प्रेम सिन्धुरसराज, ब्रज रस की वर्षा करने, अमेरिका वासियों को प्रेय से श्रेय की ओर प्रेरित करने आयेंगे, जिससे भोगविलास के क्षणिक सुख से विमुख होकर वे दिव्य अनन्त आनंदसिन्धु ब्रज राज के पाद पद्मों में अनुरक्त हो कर वास्तविक सुख का अनुभव कर सकें जिससे वे सर्वथा अनभिज्ञ हैं।
आखिर वह क्षण आ ही गया। 19 अप्रैल 2005 को परम करूणामय, भक्तियोग रसावतार, भक्तों के जीवन आधार, कलियुग पावनावतार महाप्रभु श्री कृपालु महाप्रभु बरसाना धाम पँहुचे।
सम्पूर्ण वातावरण आनन्द की लहरों से तरंगित हो गया। आज बरसाना की धरती ने नववधू का रूप धारण करके नव श्रृंगार किया है, चहूँ ओर रंग बिरंगे सुवासित पुष्पों से आच्छादित धरती मानो प्रियतम की अगवानी कर उल्लसित हो रही है। आनंदसिन्धु में आज ज्वार आ गया है। सभी साधक हर्षोल्लास से झूम झूम कर आचार्य श्री के स्वागतार्थ नृत्य कर रहे हैं। कोई आरती का थाल लिये खडा है तो कोई पुष्पों से ग्रन्थित माला आचार्य श्री के चरणों ने पूरे बरसाना धाम का निरीक्षण किया। उनके श्री अंग से विमुग्ध होकर मोरों ने नृत्य प्रारंभ कर दिया। जहां भी वे जाते पीछे पीछे यह मयूर समुदाय नृत्य करता हुआ उनका पीछा करता। ब्रज मण्डल का सा दृश्य उपस्थित हो गया जहां श्यामघन रूपी घनश्याम को देखकर मोर मतवाले हो नृत्य करते रहते हैं।
प्यारे-प्यारे महाराज जी की जय।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
दिनांक 4:4:2005 को श्री महाराज जी ने इंग्लैंड, वेस्ट इण्डीज, अमेरिका व कनाडा के सत्संगियो की चिरकाल की अभिलाषा पूर्ण करने व वहां के आश्रमों की धूलि को चरण रज का सम्मान देने हेतु रात्रि 2 बजे के विमान द्वारा प्रस्थान किया। प्रस्थान से पूर्व आपने दिनांक पूर्व 3.4.05 एवं 4.4.05 को गोलोक धाम दिल्ली में उपस्थित साधकों को अपना कृपा सानिध्य प्रदान किया। 4.4.05 को तो रात्रि 12 बजे तक आप संकीर्तन में स्वयं उपस्थित रहे। अत्यन्त अद्भुत संकीर्तन था। ब्रजरस की मूसलाधार वृष्टि हो रही थी मानो विदेश जाने से पहले सारा समुद्र उडेलना चाहते हों। जिससे उनकी अनुपस्थिति में भी साधक उसी रस सिन्धु में अवगाहन करते रहें। हवाई अड्डे पर सभी सत्संगियो ने अश्रुपूरित नेत्रों से हर्ष शोक मिश्रित भाव से गुरूदेव को विदाई दी। यद्यपि गुरूदेव के लिए कोई भी देश विदेश नहीं है, वह तो वसुधैव कुटुम्बकम का सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं तथापि सभी के हृदय में एक ही भाव है अब बहुत लम्बे समय तक गुरूदेव का सानिध्य प्राप्त नहीं हो पायेगा।
एक जगद्गुरु का भारत भूमि को छोडकर पाश्चात्य देशों का भ्रमण एक महान ऐतिहासिक घटना है। यह परम सौभाग्य की बात है कि उनके देश में प्रथम बार एक मूल जगद्गुरु का आगमन हो रहा है जबकि जगदगुरूओं के उत्तराधिकारी रूप से पदासीन जगद्गुरुओं का भी शुभागमन पाश्चात्य देशों में कभी-कभी ही हुआ है। ज्ञातव्य है कि जगद्गुरु स्वामी श्री कृपालु जी महाराज पूर्ववर्ती जगद्गुरुओं के उत्तराधिकारी मात्र नहीं है।
सर्वप्रथम इंग्लैंड को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ कि आचार्य श्री के श्री चरणों ने इस धरती को पावन किया। पांच अप्रैल को सुबह श्री महाराज जी हीथरो हवाई अड्डे पर पँहुचे। सुश्री डा० बागीश्वरी देवी जी जिनका इंग्लैंड में ही प्रचार क्षेत्र था उनके साथ कुछ सत्संगियो द्वारा भव्य स्वागत किया गया। पश्चात् शीघ्र ही आचार्य श्री ने एक हैलीकॉप्टर द्वारा नाटिंगमशायर ग्रोस लाॅज की ओर प्रस्थान किया। यहीं पर आचार्य श्री के रूकने की व्यवस्था की गयी थी।
जैसे ही हैलीकॉप्टर ग्रोस वह लाॅज के निकट आया समस्त साधक हर्षोल्लास से नाचने लगे। क्या हम स्वप्न देख रहे हैं अथवा वास्तव में करूणा सिन्धु हमारे गुरुदेव हमारे मध्य हम अधम जीवों पर कृपा करने के लिये आये हैं? नेत्रों को विश्वास नहीं हुआ कि गुरूदेव आज इंग्लैंड आ गये हैं। सभी हर्षोल्लास में नाच गान कर रहे थे।
गोविंद यू. के. आयो गोविंद यू. के. आयो।
गोविंद यू. के. आयो गोविंद यू. के. आयो।
भक्ति योग रसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु की जय। हमारे प्यारे गुरूदेव की जय।
इस प्रकार जयघोष से सम्पूर्ण वायुमंडल गुंजरित हो गया। यद्यपि लैस्टर में श्याम सदन के नाम से जगद्गुरु कृपालु परिषद् का केन्द्र है, किंतु पिपासु भक्तों की संख्या इतनी अधिक थी कि श्याम सदन में सत्संग की व्यवस्था नहीं हो सकती थी।
करूणावरूणालय प्रेम मूर्ति गुरूदेव एक दिन श्याम सदन भी गये। उस दिन वहां प्रतिष्ठापित श्यामा श्याम की छवि अनुपम ही थी। आज अपने अचल रूप को सचल रूप में देखकर वे अत्यधिक आनंदित हो रहे हैं।
पाँच छः दिन कैसे व्यतीत हो गये कुछ पता ही नहीं चला। कभी प्रवचन कभी संकीर्तन अनवरत सत्संग चलता रहा। पात्र अपात्र का विचार किये बिना गुरूदेव ब्रजरस की वर्षा करते रहे जिससे सभी भक्तों को अपार आनंद की अनुभूति हुई। शीघ्र ही वह घडी आ गयी जब आचार्य प्रवर ने ग्यारह अप्रैल को इंग्लैंड से न्यूयार्क पश्चात् वेैस्ट इंडीज के लिये प्रस्थान किया। वेैस्ट इंडीज से शीघ्र ही आचार्य श्री बरसाना धाम आस्टिन टैक्सास पधारे। इंग्लैंड के भक्तों की प्यास अभी बुझ नहीं पायी, बुझे भी कैसे क्योंकि-
राधे नाम रस ऐसा गोविंद राधे।
पिये जाओ पिये जाओ अन्त न बता दे।।
हमारे गुरुदेव श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
राधाष्टमी के अगले दिन सुबह गहवर वन जाने का प्रोग्राम बनाया गया। सूरज
निकलने के पहले ही साधकों ने रँगीली महल से गहवर वन की ओर राधे नाम का
कीर्तन करते हुये पैदल ही प्रस्थान किया। बरसाना की गलियों से गुजरते हुए
श्री राधारानी से सदा के लिये जुड जाने का एहसास होता है, और जब साँकरी खोर
रास्ते में पडा तब तो त्रिभंगी लाल और सखियों की अडबंगी लीलाओं का स्मरण
हो आया। गहवर वन में गहवर कुण्ड के निकट साधकों ने श्री महाराज जी के साथ
डेरा जमाया और रसमय कीर्तन के बाद वन में ही नाश्ते का भी आयोजन हुआ,
पिकनिक के रूप में यह घटना लगती है, पर इसका जो परमार्थिक महत्व है वह तो
इसमें गुरू के साथ सम्मिलित होने पर ही पता लगता है।
वहीं से ऊपर की ओर मान मन्दिर पर दृष्टि पडी तो श्री महाराज जी ने तुरन्त ही वहाँ पर भी चलने की आज्ञा दी, फिर क्या था, सब ही उत्साही साधक मंदिरों की सीढियों पर सारे इंतजामात लेकर दौड पडे। जब श्री महाराज जी वहां पँहुचे उस खुशी का वर्णन नहीं किया जा सकता जो उनके साथ रहकर इन दिव्य स्थानों पर होता है। यहीं पर किशोरी जी ने श्यामसुंदर से रूठकर मान किया था। मन्दिर का मान तो हमने अपने सद्गुरु की अभूतपूर्व असीम कृपा से ही कुछ कुछ जाना है। इस श्रृंखला में श्री महाराज जी अगले दिन साधकों को मोरकुटी भी लेकर गये।
अब इस अनवरत कृपा का कहां तक वर्णन करें, ये तो उन्हें ही अनुभव में आता है जो तन मन धन से गुरू के शरणागत हो कर राधाष्टमी के अवसर पर रँगीली महल बरसाना पँहुचते हैं। श्री राधारानी के तो हम सभी जीव हैं, वे तो हमें अपना मानती ही हैं बस हमें भी उन्हें अपना मानना है।
करूणावतार, श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
वहीं से ऊपर की ओर मान मन्दिर पर दृष्टि पडी तो श्री महाराज जी ने तुरन्त ही वहाँ पर भी चलने की आज्ञा दी, फिर क्या था, सब ही उत्साही साधक मंदिरों की सीढियों पर सारे इंतजामात लेकर दौड पडे। जब श्री महाराज जी वहां पँहुचे उस खुशी का वर्णन नहीं किया जा सकता जो उनके साथ रहकर इन दिव्य स्थानों पर होता है। यहीं पर किशोरी जी ने श्यामसुंदर से रूठकर मान किया था। मन्दिर का मान तो हमने अपने सद्गुरु की अभूतपूर्व असीम कृपा से ही कुछ कुछ जाना है। इस श्रृंखला में श्री महाराज जी अगले दिन साधकों को मोरकुटी भी लेकर गये।
अब इस अनवरत कृपा का कहां तक वर्णन करें, ये तो उन्हें ही अनुभव में आता है जो तन मन धन से गुरू के शरणागत हो कर राधाष्टमी के अवसर पर रँगीली महल बरसाना पँहुचते हैं। श्री राधारानी के तो हम सभी जीव हैं, वे तो हमें अपना मानती ही हैं बस हमें भी उन्हें अपना मानना है।
करूणावतार, श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज इस युग के वे सन्त हैं जिन्हें
आज विश्व के संतो तथा विद्वानों के मध्य सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया
है। जिस प्रकार क्रिश्चियन धर्म में पोप का स्थान समस्त धार्मिक नेताओं के
मध्य सर्वोच्च होता है, उसी प्रकार जगद्गुरु का स्थान भी समस्त संतो एवं
विद्वानों के मध्य सर्वोच्च होता है। जगद्गुरु का अर्थ ही है सम्पूर्ण
विश्व का गुरू।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज मात्र विद्वान ही नहीं हैं राधाकृष्ण भक्ति का मूर्तिमान स्वरूप हैं। इनके संकीर्तन का माधुर्य महाप्रभु चैतन्य देव की याद दिलाता है। हम लोग जब जगद्गुरु शंकराचार्य अथवा महाप्रभु चैतन्य जैसे महान संतो के विषय में पढते हैं तो स्वाभाविक रूप से यह लोभ जाग्रत होता है कि कितना अच्छा होता कि ऐसे संतो के जीवन काल में हम भी होते, हम भी उनके ही मुखारविन्द से भगवत चर्चा आदि सुनने का लाभ लेते। आज ऐसी ही विभूति इस समय भारत की वसुंधरा को पुनीत कर रही हैं। अकारण करूणावरूणालय ! श्री कृष्ण की असीम अनुकम्पा है कि हम उनके जीवन काल में हैं और उनके दर्शन व दार्शनिक विचारों का परम लाभ ले रहे हैं। समस्त शास्त्रों, वेदों का मंथन करके आचार्य श्री ने हमारे सन्मुख रख दिया है, जो अगनित जन्म माथापच्ची करके भी सम्भव नहीं है। उनके स्नेहमय व्यक्तित्व से प्रभावित होकर विदेशों में रहने वाले भारतीय ही नहीं अपितु अनेक विदेशी साधक भी उनके सत्संग का लाभ लेने के लिये आते हैं। यद्यपि बहुत से साधक हिन्दी भी नहीं जानते फिर भी प्रेम मूर्ति आचार्य श्री के दर्शन मात्र से ऐसा अनुभव करते हैं कि उनको कोई अमूल्य निधि प्राप्त हो रही है। कोई कहता है ये सौन्दर्य माधुर्य सार सुधा सिन्धु बलबन्धु श्री कृष्ण ही हैं। किसी को कृपा शक्ति राधारानी का मूर्ति मान स्वरूप प्रतीत होते हैं तो कोई कहता है नहीं, नहीं, यह तो युगल अवतार श्री चैतन्य हैं। वस्तुतः-
जाकी रही भावना जैसी,
प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।
इन विदेशी साधकों का श्री महाराज जी से कोई वार्तालाप भी नहीं होता। फिर भी ये अनुभव करते हैं कि हृदय प्रेम रस में डूबता जा रहा है, एक अद्भुत आनंद की अनुभूति हृदय तन्त्री के तारों को झंकृत कर रही है।
सर्वस्व न्यौछावर करने के लिये आतुर ये सभी साधक पिछले लगभग बीस वर्षों से आचार्य श्री से उनके देश की भूमि काे अपने चरण स्पर्श से पावन करने की प्रार्थना करते चले आये हैं किन्तु आचार्य श्री ने भारत छोडकर कभी भी बाहर जाना स्वीकार नहीं किया आखिर भक्त वत्सल प्रभु को भक्तों के प्रेम के कारण हार माननी ही पडी।
प्रबल प्रेम के पाले पडकर प्रभु को नियम बदलते देखा।
भक्त वत्सल श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज मात्र विद्वान ही नहीं हैं राधाकृष्ण भक्ति का मूर्तिमान स्वरूप हैं। इनके संकीर्तन का माधुर्य महाप्रभु चैतन्य देव की याद दिलाता है। हम लोग जब जगद्गुरु शंकराचार्य अथवा महाप्रभु चैतन्य जैसे महान संतो के विषय में पढते हैं तो स्वाभाविक रूप से यह लोभ जाग्रत होता है कि कितना अच्छा होता कि ऐसे संतो के जीवन काल में हम भी होते, हम भी उनके ही मुखारविन्द से भगवत चर्चा आदि सुनने का लाभ लेते। आज ऐसी ही विभूति इस समय भारत की वसुंधरा को पुनीत कर रही हैं। अकारण करूणावरूणालय ! श्री कृष्ण की असीम अनुकम्पा है कि हम उनके जीवन काल में हैं और उनके दर्शन व दार्शनिक विचारों का परम लाभ ले रहे हैं। समस्त शास्त्रों, वेदों का मंथन करके आचार्य श्री ने हमारे सन्मुख रख दिया है, जो अगनित जन्म माथापच्ची करके भी सम्भव नहीं है। उनके स्नेहमय व्यक्तित्व से प्रभावित होकर विदेशों में रहने वाले भारतीय ही नहीं अपितु अनेक विदेशी साधक भी उनके सत्संग का लाभ लेने के लिये आते हैं। यद्यपि बहुत से साधक हिन्दी भी नहीं जानते फिर भी प्रेम मूर्ति आचार्य श्री के दर्शन मात्र से ऐसा अनुभव करते हैं कि उनको कोई अमूल्य निधि प्राप्त हो रही है। कोई कहता है ये सौन्दर्य माधुर्य सार सुधा सिन्धु बलबन्धु श्री कृष्ण ही हैं। किसी को कृपा शक्ति राधारानी का मूर्ति मान स्वरूप प्रतीत होते हैं तो कोई कहता है नहीं, नहीं, यह तो युगल अवतार श्री चैतन्य हैं। वस्तुतः-
जाकी रही भावना जैसी,
प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।
इन विदेशी साधकों का श्री महाराज जी से कोई वार्तालाप भी नहीं होता। फिर भी ये अनुभव करते हैं कि हृदय प्रेम रस में डूबता जा रहा है, एक अद्भुत आनंद की अनुभूति हृदय तन्त्री के तारों को झंकृत कर रही है।
सर्वस्व न्यौछावर करने के लिये आतुर ये सभी साधक पिछले लगभग बीस वर्षों से आचार्य श्री से उनके देश की भूमि काे अपने चरण स्पर्श से पावन करने की प्रार्थना करते चले आये हैं किन्तु आचार्य श्री ने भारत छोडकर कभी भी बाहर जाना स्वीकार नहीं किया आखिर भक्त वत्सल प्रभु को भक्तों के प्रेम के कारण हार माननी ही पडी।
प्रबल प्रेम के पाले पडकर प्रभु को नियम बदलते देखा।
भक्त वत्सल श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
किशोरी जी के जन्म दिवस पर उनके अपने ही धाम में स्थित रंगीली महल, बरसाना में उनके आगमन का उत्साह पूर्व संध्या में ही दिखायी पड़ रहा था। साधना हाल में बैठने की जगह न पाकर लोग बाहर ही खडे होकर कीर्तन का श्रवण कर रहे थे। महाराज जी ने तो इस युग में श्री राधारानी के नाम का डंका बजाने का बीडा उठाया ही है। शायद ही किसी महापुरुष ने इतने स्पष्ट रूप से श्री राधा महिमा को जन जन में व्यक्त किया है। ये उनकी अहैतुकी कृपा ही तो है कि जो श्री राधातत्व हमारे धर्म शास्त्रों में परम गूढ तत्त्व रूप में छिपा हुआ है, उसे श्री महाराज जी ने अपने प्रवचनों, पद, नाम संकीर्तन द्वारा इतना सुगम कर दिया है कि साधकजन राधे नाम में भी वही रस पाते हैं कि जो स्वयं उन रसअम्बुधि श्री राधारानी में है।
जैसा कि श्री महाराज जी का कृपालु स्वभाव है, उसी के वशीभूत होकर उन्होंने रात भर साधक जन के साथ साधना हाल में व्यतीत किया। इस सौभाग्य का वर्णन तब ही हो सकता है जब जीव अपने गुरू की शरण में रहकर साधना करता है और रोकर अपने जीवनधन प्राण प्यारी स्वामिनी श्री राधारानी को पुकारता है। श्री महाराज जी तो प्यारी जू के प्रेम डूबे झूम झूम कर कीर्तन करा रहे थे और वह प्रेम छलक कर अधिकारी साधकों पर पड रहा था और पूरा वातावरण भगवन्नमय हो गया।
साधकों ने तरह-तरह के संकीर्तन एवं पद के अनुरूप भाव बनाकर अपने हृदय में श्री राधारानी को तो बिठा ही लिया। प्रातः चार बजे बडे ही जोर शोर से इस बात का खुलासा गुरूवर ने केक काटकर किया और हमारी छोटी सी कीर्तिकुमारी, फूलों में सजी पालने पर विराजमान हो गई तथा साधकजन ने गदगद होकर आरती की।
फिर तो उत्साह की शुरूआत ही थी, दिनभर पूजन आदि में लोगों ने अपने जीवन को धन्य किया। सजे धजे रँगीली महल में समय समय पर श्री महाराज जी ने अपने दर्शन देकर साधकों को अनुग्रहीत किया। पर हमारे महाराज जी तो जैसे अपनी ही कृपा शक्ति से होड में लगे रहते हैं इसी से तो उनका नाम ही कृपालु महाप्रभु है। हम अल्पज्ञ जीवों को अगाध समुद्र स्वरूप आध्यात्मिक जगत् में से वे श्री राधा तत्व के मोती चुन चुन कर लाकर देते हैं। संध्या काल में उन्होंने अपने प्रवचन में एक बार फिर अपनी अलौकिक वाणी एवं तत्वज्ञान में राधा अष्टमी के पावन पर्व की महिमा एवं श्री राधातत्व के दिव्य ज्ञान का आभास साधकों को कराया। गुरू के इस ऋण से तीनों लोकों को उन पर न्यौछावर कर के भी उऋण नही हुआ जा सकता। उनकी अनवरत कृपा हम जीवों पर बरसती ही रहती है कोई भी श्री महाराज जी के जीवन का ऐसा क्षण नहीं है जब वह जीव कल्याण हेतु प्रयत्नशील न हो। इसके अगले दिन गहवर वन जाने का प्रोग्राम बनाया गया।
कृपा सिन्धु, दीनन रखवार श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
क्रमशः
अगर कोई सरल जिज्ञासु भाव से श्री महाराज जी के पास पँहुचा तो वह भगवत् क्षेत्र में मालामाल हो जाता है। और यदि कहीं उसको हरि गुरू कृपा से साधना शिविर में श्री महाराज का दर्शन प्राप्त हो गया तो उसके भाग्य का क्या कहना।
साधना कक्ष में प्रतिक्षण श्री महाराज जी की कृपा की वर्षा होती ही रहती है। इस समय पूरे विश्व में इस ब्रज रस के दाता केवल श्री महाराज जी ही हैं। ब्रज रस क्या है? यह तो बस वही जान सकता है जिसको इसकी कुछ झलक प्राप्त है। यह अनुभव जन्य होते हुए भी बताने के काबिल नहीं है और छुपाने के काबिल भी नहीं है। तभी तो श्री महाराज जी के विषय में लिखा है-
तेरे रस का लगा चस्का जिसको,
लगता बैकुंठ फीका सा उसको।
डूबकर कोई बाहर न आया,
इसमें भँवरे हैं साहिल नहीं है।
हमारे गुरूदेव साधक को जीव के परम चरम लक्ष्य निष्काम भक्ति (श्यामा श्याम की निष्काम सेवा) प्राप्ति हेतु साधना करवाते हैं। श्री गुरूदेव चाहते हैं कि उनके सभी बच्चे परम चरम लक्ष्य पर पँहुचे, उसके नीचे कोई अटकने न पाये, इसलिए उन्हें बहुत प्रयत्न करना पडता है।
जीव कल्याण के लिए इतना प्रयत्न शायद ही किसी अवतार ने किया हो। इतनी करूणा व कृपा तो केवल हरि अवतारी में ही हो सकती है। हमारे श्री गुरूदेव तो करूणा और कृपा के सिन्धु हैं, संसार में भी मां बाप को अपने बच्चे के अच्छे भविष्य के लिए बहुत परिश्रम करना पडता है, प्यार, दुलार, डांट, फटकार, अच्छी पुस्तकें, आदर्श जीवनी आदि का सहारा लेना पडता है। हमारे गुरूदेव भी अपने बच्चों के हित के लिए विविध विधा का उपयोग करते हैं।
हमारे प्यारे महाराज जी की जय ।
करूणावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
गुरू पूर्णिमा महोत्सव
(30 जुलाई 1996)
आज विशाल जनसमूह एकत्र है, श्यामा श्याम धाम वृन्दावन में।
श्री गुरुवे नमः। श्री गुरुवे नमः।
चारों ओर से ये ध्वनि सुनाई दे रही है। कोई फूल माला लिये हुए है, कोई मोती की माला, चन्दन केसर और इत्र।
गुरूः कृपालुर्मम शरणं,
वन्देsहं सद्गुरुचरणम्।
औरन को गुरू हों या न हों,
गुरू मेरो 'कृपालु' सौभाग्य हमारो।
आनंद और उल्लास का समुद्र उमड़ रहा है सभी व्याकुल हैं गुरू चरण दर्शन के लिये। प्रातः चार बजे घंटी बज गयी। ओह ! चलो ! चलो ! पहले मैं, पहले मैं, एक लम्बी कतार लग गयी गुरूदेव के कक्ष के बाहर, गुरूवर प्रेम और कृपा के साक्षात् स्वरूप, शान्त मुद्रा में अपने कक्ष में विराजमान हैं। एक एक करके सभी भक्त चरण स्पर्श का सुख प्राप्त कर रहे हैं। आनंद की लहरें, प्रेम के समुद्र में ऊँची ऊँची उठ रही हैं मानों पूरे ब्रज मण्डल को उस अद्भुत रस में डुबोना चाहती हैं।
कतार समाप्त हो ही नहीं रही। गुरूदेव प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए हैं। किसी की ओर देखकर, कभी मुस्कुरा कर, कभी पीठ थपथपा कर विभिन्न प्रकार से भक्तों पर कृपा कर रहे हैं। देश विदेश से काफी मात्रा में भक्त आये हुए हैं। केवल एक झलक देखने को बच्चे बूढ़े युवक, युवतियां, गरीब, अमीर, ज्ञानी, अज्ञानी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र, हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई सभी धर्मों के लोग आज यहां एकत्र हुए है।और कृपालु की कृपा प्राप्त कर रहे हैं।
जाऊं गुरू चरण कमल बलिहार।
शाम तक यही क्रम चलता रहा है। हाल में कीर्तन भी हो रहा है, नये उत्साह से सभी भक्त करूण पुकार कर रहे हैं-
अब तो दया करो दयामय।
जय जय मम सद्गुरु सरकार।
तुम ही ब्रह्म सगुण साकार
उऋण नाहिं तुम्हरे उपकार,
तुम ही दीन जनन रखवार।
धन्य धन्य जगद्गुरु तुम्हारी महिमा का गुणगान कोई नहीँ कर सकता। शाम हो गई लेकिन अभी भी कतार लगी है, गुरूदेव के कक्ष के सामने। तभी घंटी लगी, आठ बज गया है सब लोग हाल में आ जाइये, अभी कुछ ही क्षणों में मंझली दीदी का प्रवचन होने जा रहा है। सभी भक्त हाल में आ जाते हैं।
हाल (जिसमें लगभग पांच हजार लोग आ सकते हैं) खचाखच भरा हुआ है। बाहर चारों ओर बरामदे, प्रांगण सभी जगह भक्त खडे हैं।
मंझली दीदी ने गुरू तत्त्व पर प्रकाश डाल कर सभी भक्तों को हर्ष और उल्लास से भर दिया।
इसके बाद राधाष्टमी के सुअवसर पर छोटी दीदी का अगोचर, अगम्य अद्भुत श्री राधा तत्त्व का मार्मिक विवेचन प्रस्तुत कर रही हैं।
परम धन राधे नाम आधार,
अगनित रूप धरे नन्दनन्दन तऊ न पायो पार।
वेद भागवत के पचासों श्लोक, व दृष्टांत के द्वारा ऐसे कठिन विषय को जिस ढंग से छोटी दीदी ने समझाया कि सवा घंटे श्रोतागण मन्त्र मुग्ध बैठे रहे।
श्रीमद् सद्गुरु सरकार की जय।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
(30 जुलाई 1996)
आज विशाल जनसमूह एकत्र है, श्यामा श्याम धाम वृन्दावन में।
श्री गुरुवे नमः। श्री गुरुवे नमः।
चारों ओर से ये ध्वनि सुनाई दे रही है। कोई फूल माला लिये हुए है, कोई मोती की माला, चन्दन केसर और इत्र।
गुरूः कृपालुर्मम शरणं,
वन्देsहं सद्गुरुचरणम्।
औरन को गुरू हों या न हों,
गुरू मेरो 'कृपालु' सौभाग्य हमारो।
आनंद और उल्लास का समुद्र उमड़ रहा है सभी व्याकुल हैं गुरू चरण दर्शन के लिये। प्रातः चार बजे घंटी बज गयी। ओह ! चलो ! चलो ! पहले मैं, पहले मैं, एक लम्बी कतार लग गयी गुरूदेव के कक्ष के बाहर, गुरूवर प्रेम और कृपा के साक्षात् स्वरूप, शान्त मुद्रा में अपने कक्ष में विराजमान हैं। एक एक करके सभी भक्त चरण स्पर्श का सुख प्राप्त कर रहे हैं। आनंद की लहरें, प्रेम के समुद्र में ऊँची ऊँची उठ रही हैं मानों पूरे ब्रज मण्डल को उस अद्भुत रस में डुबोना चाहती हैं।
कतार समाप्त हो ही नहीं रही। गुरूदेव प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए हैं। किसी की ओर देखकर, कभी मुस्कुरा कर, कभी पीठ थपथपा कर विभिन्न प्रकार से भक्तों पर कृपा कर रहे हैं। देश विदेश से काफी मात्रा में भक्त आये हुए हैं। केवल एक झलक देखने को बच्चे बूढ़े युवक, युवतियां, गरीब, अमीर, ज्ञानी, अज्ञानी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र, हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई सभी धर्मों के लोग आज यहां एकत्र हुए है।और कृपालु की कृपा प्राप्त कर रहे हैं।
जाऊं गुरू चरण कमल बलिहार।
शाम तक यही क्रम चलता रहा है। हाल में कीर्तन भी हो रहा है, नये उत्साह से सभी भक्त करूण पुकार कर रहे हैं-
अब तो दया करो दयामय।
जय जय मम सद्गुरु सरकार।
तुम ही ब्रह्म सगुण साकार
उऋण नाहिं तुम्हरे उपकार,
तुम ही दीन जनन रखवार।
धन्य धन्य जगद्गुरु तुम्हारी महिमा का गुणगान कोई नहीँ कर सकता। शाम हो गई लेकिन अभी भी कतार लगी है, गुरूदेव के कक्ष के सामने। तभी घंटी लगी, आठ बज गया है सब लोग हाल में आ जाइये, अभी कुछ ही क्षणों में मंझली दीदी का प्रवचन होने जा रहा है। सभी भक्त हाल में आ जाते हैं।
हाल (जिसमें लगभग पांच हजार लोग आ सकते हैं) खचाखच भरा हुआ है। बाहर चारों ओर बरामदे, प्रांगण सभी जगह भक्त खडे हैं।
मंझली दीदी ने गुरू तत्त्व पर प्रकाश डाल कर सभी भक्तों को हर्ष और उल्लास से भर दिया।
इसके बाद राधाष्टमी के सुअवसर पर छोटी दीदी का अगोचर, अगम्य अद्भुत श्री राधा तत्त्व का मार्मिक विवेचन प्रस्तुत कर रही हैं।
परम धन राधे नाम आधार,
अगनित रूप धरे नन्दनन्दन तऊ न पायो पार।
वेद भागवत के पचासों श्लोक, व दृष्टांत के द्वारा ऐसे कठिन विषय को जिस ढंग से छोटी दीदी ने समझाया कि सवा घंटे श्रोतागण मन्त्र मुग्ध बैठे रहे।
श्रीमद् सद्गुरु सरकार की जय।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
सायंकाल चार बजे आरती हुई। पाँच बजे सभी साधकों ने श्री महाराज जी के साथ
संकीर्तन करते हुए भक्ति धाम की परिक्रमा की और भक्ति मन्दिर में पँहुच कर
श्री युगल चरणों में प्रणाम किया। पश्चात् सभी ने भोजनालय में प्रसाद पाया
और साढ़े 6 बजे पुनः साधना प्रारंभ हो गयी जो रात्रि 10 बजे तक चली। ये
प्रतिदिन की दिनचर्या है। प्रातः एवं सायंकाल दोनों समय भक्ति धाम की
परिक्रमा एवं भक्ति मन्दिर के दर्शन के लिए अवश्य सभी भक्त पँहुचते हैं।
2 मार्च 11 को महा शिवरात्रि का पावन पर्व हर हर महादेव जय घोष एवं ऊँ नमः शिवाय के मधुर संकीर्तन के साथ बडे धूम धाम से मनाया गया। प्रातः 1 बजे से गुरूदेव के सो कर उठते ही भगवान् शंकर की गुण महिमा सम्पूर्ण भक्ति धाम में गूँजने लगी। सभी भक्त साधकों ने प्रातः 1 बजे गुरूदेव के दर्शन कर भगवान् शंकर के विवाह की बधाई दी। अनेक भक्त साधकों ने भूत, चुडैलों एवं देवी देवताओं का स्वरूप धारण कर ॐ नमः शिवाय का कीर्तन करते हुए नृत्य द्वारा अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए श्री महाराज जी को प्रसन्न करने का प्रयास किया। श्री महाराज जी ने अपने महल के आँगन में सभी को टॉफियाँ, बिस्किट, मिठाइयां लुटाई और भक्तों ने भर भर झोली लूटा।
प्रातः चार बजे साधना हाल में सभी ने गुरू वन्दना की।
जयति गुरुवर जयति गुरुवर जयति गुरुवर प्यारे।
तू ही ब्रह्मा, तू ही विष्णु, तू ही शंकर प्यारे।।
आप ही हमारे साक्षात् ब्रह्मा हैं, साक्षात् विष्णु हैं और साक्षात् भगवान् शंकर का स्वरूप हैं, आप ही हमारे सर्वस्व हैं, त्रैलोक्य में आपसे बडा कोई नहीं हैं आप में ही सारे स्वरूप अवस्थित हैं। इस भाव के साथ सभी ने आरती की। और श्री चरणों में प्रणाम किया। भक्ति मय संगीत और नृत्य से साधना हाल आनंदित हो उठा। पश्चात् भक्ति मन्दिर में श्री युगल चरणों का पूजन अर्चन कर गुरूदेव के हाथों से प्रसाद ग्रहण किया।
श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
अलबेली सरकार की जय।
2 मार्च 11 को महा शिवरात्रि का पावन पर्व हर हर महादेव जय घोष एवं ऊँ नमः शिवाय के मधुर संकीर्तन के साथ बडे धूम धाम से मनाया गया। प्रातः 1 बजे से गुरूदेव के सो कर उठते ही भगवान् शंकर की गुण महिमा सम्पूर्ण भक्ति धाम में गूँजने लगी। सभी भक्त साधकों ने प्रातः 1 बजे गुरूदेव के दर्शन कर भगवान् शंकर के विवाह की बधाई दी। अनेक भक्त साधकों ने भूत, चुडैलों एवं देवी देवताओं का स्वरूप धारण कर ॐ नमः शिवाय का कीर्तन करते हुए नृत्य द्वारा अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए श्री महाराज जी को प्रसन्न करने का प्रयास किया। श्री महाराज जी ने अपने महल के आँगन में सभी को टॉफियाँ, बिस्किट, मिठाइयां लुटाई और भक्तों ने भर भर झोली लूटा।
प्रातः चार बजे साधना हाल में सभी ने गुरू वन्दना की।
जयति गुरुवर जयति गुरुवर जयति गुरुवर प्यारे।
तू ही ब्रह्मा, तू ही विष्णु, तू ही शंकर प्यारे।।
आप ही हमारे साक्षात् ब्रह्मा हैं, साक्षात् विष्णु हैं और साक्षात् भगवान् शंकर का स्वरूप हैं, आप ही हमारे सर्वस्व हैं, त्रैलोक्य में आपसे बडा कोई नहीं हैं आप में ही सारे स्वरूप अवस्थित हैं। इस भाव के साथ सभी ने आरती की। और श्री चरणों में प्रणाम किया। भक्ति मय संगीत और नृत्य से साधना हाल आनंदित हो उठा। पश्चात् भक्ति मन्दिर में श्री युगल चरणों का पूजन अर्चन कर गुरूदेव के हाथों से प्रसाद ग्रहण किया।
श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
अलबेली सरकार की जय।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
दोपहर 12 बजे श्री महाराज जी साधना हाल में संकीर्तन के माध्यम से ब्रजरस
की वर्षा कर रहे थे कि अचानक आपकी दृष्टि अपने बचपन के सहपाठी बाल सखा श्री
रमाशंकर शुक्ल, गढगढा, मनगढ़ पर पडी जो घायलावस्था में आपके दर्शन के लिए आ
रहे थे। आप तुरन्त मंच से उतरकर अपने मित्र के पास गये और उन्हें हृदय से
लगाते हुए करूण स्वर में पूछा कि अरे ये क्या हो गया, कैसे हो गया?
उन्होंने बताया कि अभी दो दिन पूर्व एक्सीडेंट हो गया था। उन्हें स्वयं ही
बडे प्यार से पकड कर लाये और अपने पास कुर्सी पर बैठाया, उन्हें आप बडी
करूणा एवं अपनत्व से निहारते रहे। यह दृश्य इतना हृदय स्पर्शी था कि सभी
साधकों की आँखों से आँसू बहने लगे कि आज हम साक्षात् कृष्ण सुदामा की जोडी
के दर्शन कर रहे हैं। आपने तुरन्त अपने ड्राइवर को बुलाया और उससे कहा कि
इन्हें हमारी कार से घर छोडकर आना और अपने सखा से कहा कि अब तुम इस उम्र
में साइकिल मत चलाया करो।
इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है, श्री रमाशंकर शुक्ल जिन्हें बाल्यावस्था में ही श्री महाराज जी ने अपनी दिव्य भगवत्ता के अनेक बार साक्षात् अनुभव कराये हैं और हृदय से आप ये मानते रहे हैं कि मेरा सहपाठी साधारण नहीं ये भगवान् है। एक बार, पुरानी बात है कि श्री महाराज जी कृष्ण कुँज में बैठे थे। आपने श्री महाराज जी से कई महत्वपूर्ण प्रश्न किये और श्री महाराज जी ने बडे ही सहज भाव से आपके प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा कि हमें रूपध्यान पूर्वक राधाकृष्ण की भक्ति करनी है, कोरे कर्म काण्ड से और शुष्क ज्ञान से कुछ नहीं मिलेगा। इस प्रकार श्री महाराज जी ने तत्वज्ञान कराया, बस उसी समय आपने श्री महाराज जी के चरण पकड लिये और भाव विभोर होकर कहा कि आज से आप मेरे गुरू है और मैं आपका शिष्य हूं। तब से आप श्री महाराज जी को अपना गुरू मानकर उनके श्री चरणों में नित्य प्रणाम करते हैं।
कृपावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है, श्री रमाशंकर शुक्ल जिन्हें बाल्यावस्था में ही श्री महाराज जी ने अपनी दिव्य भगवत्ता के अनेक बार साक्षात् अनुभव कराये हैं और हृदय से आप ये मानते रहे हैं कि मेरा सहपाठी साधारण नहीं ये भगवान् है। एक बार, पुरानी बात है कि श्री महाराज जी कृष्ण कुँज में बैठे थे। आपने श्री महाराज जी से कई महत्वपूर्ण प्रश्न किये और श्री महाराज जी ने बडे ही सहज भाव से आपके प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा कि हमें रूपध्यान पूर्वक राधाकृष्ण की भक्ति करनी है, कोरे कर्म काण्ड से और शुष्क ज्ञान से कुछ नहीं मिलेगा। इस प्रकार श्री महाराज जी ने तत्वज्ञान कराया, बस उसी समय आपने श्री महाराज जी के चरण पकड लिये और भाव विभोर होकर कहा कि आज से आप मेरे गुरू है और मैं आपका शिष्य हूं। तब से आप श्री महाराज जी को अपना गुरू मानकर उनके श्री चरणों में नित्य प्रणाम करते हैं।
कृपावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
गुरूर्बह्मा गुरूर्विष्णु गु्रूर्देवो महेश्वरः।
गुरूः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
इस संसार सागर में डूबते हुए निराश्रित जीवों के गुरूदेव ही एकमात्र आश्रय हैं। गुरूदेव ही बहते हुए, डूबते हुए, बिलखते हुये, अकुलाते हुये, बिलबिलाते हुये अचेतन हुये जीवों को भव वारिधि से बांह पकडकर बाहर निकाल सकने में समर्थ हो सकते हैं। त्रैलोक्य पावन गुरूदेव की कृपा के बिना जीव इस अपार दुर्गम पयोधि के पार नहीं जा सकता। वे अखिल विश्व ब्रह्मांडो के विधाता विश्वम्भर ही भाँति भाँति के रूप धारण करके गुरू रूप से जीवों को प्राप्त होते हैं और उन्हीं के पाद पद्मों का आश्रय ग्रहण करके मुमुक्षु जीव बात की बात में इस अपार उदधि को तर जाते हैं। किसी मनुष्य की सामर्थ्य ही क्या है जो एक भी जीव का निस्तार कर सके? जीवों का कल्याण तो वे ही परम गुरू श्री हरि ही कर सकते हैं। इसीलिए मनुष्य गुरू हो ही नहीं सकता। जगद्गुरु तो वे ही श्री हरि हैं, वे ही जिस जीव को संसार बन्धन से छुडाना चाहते हैं, उसे गुरू रूप से प्राप्त होते हैं। अन्य साधारण बद्ध जीवों की दृष्टि में तो वह साधारण जीवों की ही भांति प्रतीत होता है, किन्तु जो अनुग्रह सृष्टि के जीव हैं, जिन्हें वे श्री हरि स्वयं ही कृपापूर्वक वरण करना चाहते हैं उन्हें उस रूप में साक्षात् श्री सनातन पूर्णब्रह्म के दर्शन होते हैं। इसीलिए गुरू, भक्त और भगवान्, ये मूल में एक ही पदार्थ के लोक भावना के अनुसार तीन नाम रख दिये गये हैं। वास्तव में तीनों में कोई अन्तर नहीं। इस भाव को अनुग्रह सृष्टि के ही जीव समझ सकते हैं। अन्य जीवों के वश की यह बात नहीं है।
आइये प्रेमावतार रसावतार करूणा वरूणालय सहज सनेही भक्त वांछा कल्पतरू कृपालु महाप्रभु की अनन्त, नित्य, नवायमान लीलाओं का रसास्वादन करें।
आमार माधुर्य नित्य नव नव होय।
स्व स्व प्रेम अनुरूप भक्ते आस्वादय।।
चैतन्य महाप्रभु ने कहा था कि हमारी माधुर्यमयी लीलायें अनन्त, नित्य और नवीन रस वैलक्षण्य से परिपूर्ण हैं, जिनका आस्वादय मेरी कृपा से मेरे भक्त करते हैं। श्री महाराज जी की माधुर्यमयी रसमयी लीलाएँ भी हम सभी साधकों का आधार हैं जिनको जानने, सुनने, देखने की ललक हम सबके अन्दर सदा नित्य बनी रहती है।
1 मार्च 2011 से श्री महाराज जी के सानिध्य में भक्ति धाम मनगढ़ में साधना शिविर प्रारंभ हुआ, जो 20 मार्च तक चला। प्रातः 4:30 बजे दैनिक प्रार्थना से साधना प्रारंभ हुई, जिसमें सभी साधकों ने श्री महाराज जी के युगल चरणों में प्रणाम करते हुए निष्काम प्रेम एवं नित्य सेवा की भिक्षा माँगी। पश्चात् प्रिया प्रियतम और भगवती मैया की आरती हुई। श्री महाराज जी ने एक दोहा बोलकर साधना सन्देश दिया।
नाम में है नामी वास गोविंद राधे।
यह सिद्धांत दृढ बुधि में बिठा दे।।
प्रातः 6 बजे सभी साधक भक्ति मन्दिर पँहुचे जहां संकीर्तन के साथ सभी ने भक्ति रस में डूबते हुए गुरूदेव एवं युगल सरकार के श्री चरणों में प्रणाम किया। पश्चात् भक्ति मन्दिर की कैंटीन में सभी को अपने हाथों से प्रसाद बाँटा। पश्चात् भोजनालय में आकर भोग लगाया और भक्तों ने उच्छिष्ट प्रसाद रूप में ग्रहण किया।
करूणावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
क्रमशः
प्रेम मन्दिर बन रहा था तब की बात है। एक सत्संगी बरसाने गए थे तो वे रात
को 9 बजे अपने घर को चलने वाले थे उनके पास आठ सौ रूपये बच रहे थे।
अगले दिन कुछ गरीबों को महाराज जी को कुछ बाँटना था और वो सत्संगी रूक नहीं पा रहे थे अगले दिन तक। तो उन्होंने सोचा कि ये कम से कम जो रूपये है ये ही दे जाते।
रात को सात बजे दीदी लोग भी दिखाई नहीं दी तो किसे दें ये रुपया । कि इतने में एक गरीब जो बैसाखी से चल रहा था। दोनों पैर खराब थे। वो कीर्तन में आकर बैठ गया। उधर उस सत्संगी को ये चिन्ता हो रही थी कि ये रू० घर न लौटकर जायें। तभी महाराज जी उसे अपाहिज व्यक्ति से पूछते हैं बहुत दुखी होकर कि ये पैर तुम्हारे ठीक नहीं हो सकते क्या ? तो उसने बताया कि महाराज जी 25 हजार रू० लगेंगे तो महाराज जी को दया आई और महाराज जी ने सबसे कहा कि सब लोग जो संकीर्तन में बैठे थे कि इनको अभी 25 हजार रुपये इकट्ठे कर के सभी लोग दो। इसका आपरेशन होना है। और वो सत्संगी के वो 800 रू० इसी तरह महाराज जी ने सेवा में ही लगा लिये। 800 रू० कोई बडी दौलत नहीं होती है लेकिन बस मन बनाना होता है।
तो महाराज जी ने केवल सत्संगियों पर ही कृपा की हो ऐसा नहीं है उनको सबके प्रति करूणा है ।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय ।
अगले दिन कुछ गरीबों को महाराज जी को कुछ बाँटना था और वो सत्संगी रूक नहीं पा रहे थे अगले दिन तक। तो उन्होंने सोचा कि ये कम से कम जो रूपये है ये ही दे जाते।
रात को सात बजे दीदी लोग भी दिखाई नहीं दी तो किसे दें ये रुपया । कि इतने में एक गरीब जो बैसाखी से चल रहा था। दोनों पैर खराब थे। वो कीर्तन में आकर बैठ गया। उधर उस सत्संगी को ये चिन्ता हो रही थी कि ये रू० घर न लौटकर जायें। तभी महाराज जी उसे अपाहिज व्यक्ति से पूछते हैं बहुत दुखी होकर कि ये पैर तुम्हारे ठीक नहीं हो सकते क्या ? तो उसने बताया कि महाराज जी 25 हजार रू० लगेंगे तो महाराज जी को दया आई और महाराज जी ने सबसे कहा कि सब लोग जो संकीर्तन में बैठे थे कि इनको अभी 25 हजार रुपये इकट्ठे कर के सभी लोग दो। इसका आपरेशन होना है। और वो सत्संगी के वो 800 रू० इसी तरह महाराज जी ने सेवा में ही लगा लिये। 800 रू० कोई बडी दौलत नहीं होती है लेकिन बस मन बनाना होता है।
तो महाराज जी ने केवल सत्संगियों पर ही कृपा की हो ऐसा नहीं है उनको सबके प्रति करूणा है ।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय ।
श्री महाराज जी ने एक बार साधना प्रारंभ होने से पूर्व बताया था।
(1)कृपालु के यहाँ उधार नहीं होता। जितनी आज्ञा पालन करोगे, तुरन्त उसका फल मिलेगा। पूरे समय में कोई साधक एक समान दत्तचित्त से साधना नहीं कर सकता किन्तु अपनी पूरी शक्ति लगाकर जो भी वह प्रयत्न करता है उसका फल उसे तुरंत मिलता है।
(2)महाराज जी ने कहा किसी से राग द्वेष नही करना है।
(3)तीसरी बात उन्होंने रूपध्यान की कही, संसार की प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति में भगवान का अनुभव करने को कहा।
जब हम उनकी कोई आज्ञापालन करने चलते हैं तो वे उस आज्ञा पालन में भी हमारी सहायता करते हैं। अपने किये को जीव का किया समझकर वे भगवान के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम और जन में आसक्ति के रूप में प्रेमदान करते जाते हैं तथा वेद वाक्य को चरितार्थ करके दिखा देते हैं।
जीव को ज्ञान नहीं कि महापुरुष मनुष्य के इतने कुसंस्कारो और खतरों से लडता और उसकी रक्षा करता है। उसकी गलतियों के लिए मुझे ही उसे दुःख में पडा देखकर तकलीफ होती है, किन्तु हतोत्साहित नहीं होता। लेकिन गुरू हमेशा जीव कल्याण की ही सोचता है। देखा जाये तो जीव भी जब किसी सद्गुरु के श्री चरणों में बैठता है तो उसे असीम शांति का ही अनुभव होता है।
हमारे प्यारे प्यारे महाराज जी की सदा ही जय।
(1)कृपालु के यहाँ उधार नहीं होता। जितनी आज्ञा पालन करोगे, तुरन्त उसका फल मिलेगा। पूरे समय में कोई साधक एक समान दत्तचित्त से साधना नहीं कर सकता किन्तु अपनी पूरी शक्ति लगाकर जो भी वह प्रयत्न करता है उसका फल उसे तुरंत मिलता है।
(2)महाराज जी ने कहा किसी से राग द्वेष नही करना है।
(3)तीसरी बात उन्होंने रूपध्यान की कही, संसार की प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति में भगवान का अनुभव करने को कहा।
जब हम उनकी कोई आज्ञापालन करने चलते हैं तो वे उस आज्ञा पालन में भी हमारी सहायता करते हैं। अपने किये को जीव का किया समझकर वे भगवान के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम और जन में आसक्ति के रूप में प्रेमदान करते जाते हैं तथा वेद वाक्य को चरितार्थ करके दिखा देते हैं।
जीव को ज्ञान नहीं कि महापुरुष मनुष्य के इतने कुसंस्कारो और खतरों से लडता और उसकी रक्षा करता है। उसकी गलतियों के लिए मुझे ही उसे दुःख में पडा देखकर तकलीफ होती है, किन्तु हतोत्साहित नहीं होता। लेकिन गुरू हमेशा जीव कल्याण की ही सोचता है। देखा जाये तो जीव भी जब किसी सद्गुरु के श्री चरणों में बैठता है तो उसे असीम शांति का ही अनुभव होता है।
हमारे प्यारे प्यारे महाराज जी की सदा ही जय।
जून 2013 के प्रथम सप्ताह में मानसून के आगमन के साथ ही भयंकर प्राकृतिक
आपदा ने पूरे उत्तराखंड को हिला दिया। केदारनाथ में केवल भगवान् शंकर के
मंदिर को छोडकर सभी घर परिवार नष्ट हो गये। ऐसे ही उत्तराखंड के अनेक
स्थलों पर बादलों के फट जाने के कारण हजारों घर के घर इन्सानों के साथ बह
गये। इस आकस्मिक दुर्घटना से श्री महाराज जी का कोमल हृदय द्रवीभूत हो गया
और आपने निश्चय किया कि मैं मसूरी फादर्स डे के बाद 18 जून को जाऊँगा।
हैलीकॉप्टर करने का आदेश दे दिया।
16 जून को पहली बार मनगढ़ में फादर्स डे भी मनाया गया। प्रातः सभी साधकों ने अपने पिता सम गुरू को उपहारों के साथ फादर्स डे की बधाईयाँ दी, आरती की और प्रणाम किया। ब्राह्मणों, गरीबों और साधकों को खीर पूरी की दावत मिली।
ब्राह्मणों, गरीबों और ग्राम वासियों को भोजनोपरान्त दक्षिणा भी दी गई। सभी साधकों को भी प्रसाद स्वरूप उपहार दिये गये। 18 जून को गुरूदेव प्रातः साढ़े ग्यारह बजे मनगढ़ से देहरादून के लिए हवाई मार्ग से प्रस्थान कर गये और डेढ बजे तक देहरादून पँहुच गये। देहरादून से कार द्वारा आप सायं 4 बजे तक मसूरी पँहुच गये। सभी मसूरी वासियों ने अपने भक्त वत्सल गुरूदेव का हृदय से स्वागत किया।
विदेशों से अनेक सत्संगी आपके दर्शन एवं सत्संग का विशेष लाभ लेने राधाकुँज, मसूरी पहुंच गए। मनगढ़ से अचानक आपका मसूरी जाने का निश्चय स्पष्टतः ये संकेत दे रहा है कि आप अस्वस्थ होते हुए भी उत्तराखंड की रक्षा के लिए मसूरी पँहुचे हैं। क्योंकि जिस दिन से श्री महाराज जी मसूरी पँहुचे हैं उस दिन से पूरे उत्तराखंड में भयंकर वर्षा थम गई और दैवी आपदा शान्त हो गई और आसमान खुल गया, धूप निकलने लगी। आपने 24 जून 2013 को उत्तराखंड की रक्षा के लिए एक करोड़ का दान श्री अखिलेश यादव, मुख्यमंत्री, उत्तरप्रदेश सरकार के माध्यम से बाढ पीढितों के लिए भिजवाया। मसूरी के चेयरमैन को भी आपने पाँच लाख रूपया राहत कार्य के लिए दिया।
करूणावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
16 जून को पहली बार मनगढ़ में फादर्स डे भी मनाया गया। प्रातः सभी साधकों ने अपने पिता सम गुरू को उपहारों के साथ फादर्स डे की बधाईयाँ दी, आरती की और प्रणाम किया। ब्राह्मणों, गरीबों और साधकों को खीर पूरी की दावत मिली।
ब्राह्मणों, गरीबों और ग्राम वासियों को भोजनोपरान्त दक्षिणा भी दी गई। सभी साधकों को भी प्रसाद स्वरूप उपहार दिये गये। 18 जून को गुरूदेव प्रातः साढ़े ग्यारह बजे मनगढ़ से देहरादून के लिए हवाई मार्ग से प्रस्थान कर गये और डेढ बजे तक देहरादून पँहुच गये। देहरादून से कार द्वारा आप सायं 4 बजे तक मसूरी पँहुच गये। सभी मसूरी वासियों ने अपने भक्त वत्सल गुरूदेव का हृदय से स्वागत किया।
विदेशों से अनेक सत्संगी आपके दर्शन एवं सत्संग का विशेष लाभ लेने राधाकुँज, मसूरी पहुंच गए। मनगढ़ से अचानक आपका मसूरी जाने का निश्चय स्पष्टतः ये संकेत दे रहा है कि आप अस्वस्थ होते हुए भी उत्तराखंड की रक्षा के लिए मसूरी पँहुचे हैं। क्योंकि जिस दिन से श्री महाराज जी मसूरी पँहुचे हैं उस दिन से पूरे उत्तराखंड में भयंकर वर्षा थम गई और दैवी आपदा शान्त हो गई और आसमान खुल गया, धूप निकलने लगी। आपने 24 जून 2013 को उत्तराखंड की रक्षा के लिए एक करोड़ का दान श्री अखिलेश यादव, मुख्यमंत्री, उत्तरप्रदेश सरकार के माध्यम से बाढ पीढितों के लिए भिजवाया। मसूरी के चेयरमैन को भी आपने पाँच लाख रूपया राहत कार्य के लिए दिया।
करूणावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
सायंकाल चार बजे आप पुनः अपने महल के आँगन में भक्तों के मध्य बैठे और सभी
को एक लम्बे समय के बाद अर्थात 18 मार्च के बाद अपने प्राण प्यारे आनंद
दाता गुरूदेव के दर्शन का अनन्त सुख प्राप्त हुआ। पश्चात् श्री महाराज जी
अपने सभी प्यारे साधकों को लेकर भक्ति भवन पँहुचे जहाँ मधुरातिमधुर भावमय
संकीर्तन का आनंद रस बरसता रहा।
एक अप्रैल को प्रातः साढे चार बजे भक्ति भवन में आरती हुई और 6 बजे तक संकीर्तन चलता रहा। पश्चात् सभी ने नाश्ता किया और पुनः आठ बजे साधना प्रारम्भ हो गयी। 3 अप्रैल प्रातः 9 बजे स्वामी मुकुंदानन्द जी के साथ विभिन्न देशों विदेशों एवं अनेक शहरों से करीब 1200 साधक साधना हेतु भक्ति धाम मनगढ़ में पँहुचे और उन्होंने तीन दिन पाँच अप्रैल तक भक्ति भवन में अपने विश्व विख्यात पंचम मूल जगद्गुरु के सानिध्य में साधना करने का अभूतपूर्व अमूल्य अवसर प्राप्त किया। श्री महाराज जी अपने दिव्य अलौकिक प्रवचनों और संकीर्तन से सभी को भक्ति रस से सराबोर कर दिया। पांच अप्रैल की रात्रि में श्री मुकुंदानन्द जी के साथ आये साधक वापिस वृन्दावन चले गए।
6 अप्रैल से नित्य साधना प्रोग्राम भक्ति महल में प्रारंभ हो गया। एकादशी के दिन श्री महाराज जी ने ब्राह्मणों को फल और मिष्ठान्न दान स्वरूप दिये। गरीब ग्रामवासियों को भी दान दक्षिणा दी गयी।
8 अप्रैल को सायंकाल 5 बजे श्री महाराज जी भक्ति मन्दिर गये वहां सभी ने युगल सरकार के श्री चरणों का पूजन अर्चन किया। पश्चात् सभी भक्त साधकों के साथ भक्ति धाम की परिक्रमा की।
19 अप्रैल को राम नवमी महोत्सव बडे ही उत्साह पूर्वक मनाया गया। प्रातः चार बजे भक्ति भवन में श्री महाराज जी ने सभी भक्तों के साथ राम जी की आरती की। पश्चात् भक्ति मन्दिर में पँहुच कर श्री सीता राम के श्री विग्रह के दर्शन पूजन अर्चन किये। भोजनालय में महाभोग का आयोजन अपने आप में विशेष था। जिसमें स्वयं श्री महाराज जी ने भोग लगाया और अपने हाथों से सभी साधकों को महाप्रसाद बाँटा। प्रातः 8 बजे से भक्ति भवन में श्री राम जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में संकीर्तन प्रारम्भ हो गया। साढ़े ग्यारह बजे राम लला का प्राकट्य हुआ, केक काटा गया और श्री महाराज जी ने स्वयं अपने भक्तों के साथ श्री राम जी की आरती की।
बधाइयाँ गाई जाने लगी। श्री महाराज जी ने सभी को मिष्ठान्न, फल लुटाये और बाद में सभी को प्रसाद बाँटा गया। ब्राह्मणों, गरीबों को दान दक्षिणा के साथ साथ मिष्ठान्न, फल भी दिये।
रात्रि में साढे सात बजे श्री महाराज जी ने राम तत्त्व पर अपना दिव्य अलौकिक प्रवचन दिया। जो नौ बजे तक चला। विषय पूरा न होने पर श्री महाराज जी ने कहा कि शेष प्रवचन 20 अप्रैल को होगा। अतः 20 अप्रैल को राम तत्व पर शेष प्रवचन धारा रात्रि साढे सात बजे से सवा 9 बजे तक, करीब पौने दो घंटे तक चली। जबकि डाॅक्टर्स ने आपको कहा था कि आप पन्द्रह बीस मिनट से ज्यादा न बोलें। लेकिन आपने डाॅक्टर्स को चैलेंज कर दिया इतने लंबे लम्बे प्रवचन देकर।
ऐसे हमारे महाराज जिन्होंने जीव कल्याण के लिए अपने कष्ट को भी नहीं ध्यान दिया।
प्यारे प्यारे श्री महाराज जी जय
एक अप्रैल को प्रातः साढे चार बजे भक्ति भवन में आरती हुई और 6 बजे तक संकीर्तन चलता रहा। पश्चात् सभी ने नाश्ता किया और पुनः आठ बजे साधना प्रारम्भ हो गयी। 3 अप्रैल प्रातः 9 बजे स्वामी मुकुंदानन्द जी के साथ विभिन्न देशों विदेशों एवं अनेक शहरों से करीब 1200 साधक साधना हेतु भक्ति धाम मनगढ़ में पँहुचे और उन्होंने तीन दिन पाँच अप्रैल तक भक्ति भवन में अपने विश्व विख्यात पंचम मूल जगद्गुरु के सानिध्य में साधना करने का अभूतपूर्व अमूल्य अवसर प्राप्त किया। श्री महाराज जी अपने दिव्य अलौकिक प्रवचनों और संकीर्तन से सभी को भक्ति रस से सराबोर कर दिया। पांच अप्रैल की रात्रि में श्री मुकुंदानन्द जी के साथ आये साधक वापिस वृन्दावन चले गए।
6 अप्रैल से नित्य साधना प्रोग्राम भक्ति महल में प्रारंभ हो गया। एकादशी के दिन श्री महाराज जी ने ब्राह्मणों को फल और मिष्ठान्न दान स्वरूप दिये। गरीब ग्रामवासियों को भी दान दक्षिणा दी गयी।
8 अप्रैल को सायंकाल 5 बजे श्री महाराज जी भक्ति मन्दिर गये वहां सभी ने युगल सरकार के श्री चरणों का पूजन अर्चन किया। पश्चात् सभी भक्त साधकों के साथ भक्ति धाम की परिक्रमा की।
19 अप्रैल को राम नवमी महोत्सव बडे ही उत्साह पूर्वक मनाया गया। प्रातः चार बजे भक्ति भवन में श्री महाराज जी ने सभी भक्तों के साथ राम जी की आरती की। पश्चात् भक्ति मन्दिर में पँहुच कर श्री सीता राम के श्री विग्रह के दर्शन पूजन अर्चन किये। भोजनालय में महाभोग का आयोजन अपने आप में विशेष था। जिसमें स्वयं श्री महाराज जी ने भोग लगाया और अपने हाथों से सभी साधकों को महाप्रसाद बाँटा। प्रातः 8 बजे से भक्ति भवन में श्री राम जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में संकीर्तन प्रारम्भ हो गया। साढ़े ग्यारह बजे राम लला का प्राकट्य हुआ, केक काटा गया और श्री महाराज जी ने स्वयं अपने भक्तों के साथ श्री राम जी की आरती की।
बधाइयाँ गाई जाने लगी। श्री महाराज जी ने सभी को मिष्ठान्न, फल लुटाये और बाद में सभी को प्रसाद बाँटा गया। ब्राह्मणों, गरीबों को दान दक्षिणा के साथ साथ मिष्ठान्न, फल भी दिये।
रात्रि में साढे सात बजे श्री महाराज जी ने राम तत्त्व पर अपना दिव्य अलौकिक प्रवचन दिया। जो नौ बजे तक चला। विषय पूरा न होने पर श्री महाराज जी ने कहा कि शेष प्रवचन 20 अप्रैल को होगा। अतः 20 अप्रैल को राम तत्व पर शेष प्रवचन धारा रात्रि साढे सात बजे से सवा 9 बजे तक, करीब पौने दो घंटे तक चली। जबकि डाॅक्टर्स ने आपको कहा था कि आप पन्द्रह बीस मिनट से ज्यादा न बोलें। लेकिन आपने डाॅक्टर्स को चैलेंज कर दिया इतने लंबे लम्बे प्रवचन देकर।
ऐसे हमारे महाराज जिन्होंने जीव कल्याण के लिए अपने कष्ट को भी नहीं ध्यान दिया।
प्यारे प्यारे श्री महाराज जी जय
18 मार्च को प्रातः महाराज जी आरती में आये और सभी साधकों को श्री युगल
चरणों में प्रणाम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। लेकिन अचानक प्रातः आठ बजे
ज्ञात हुआ कि महाराज जी को श्वास लेने में बहुत तकलीफ हो रही है। तुरन्त
आॅक्सीजन आपको लगा दी गई। लेकिन आपका स्वास्थ्य अधिक बिगडने लगा तो हृदय
रोग विशेषज्ञ डॉ० खन्ना ने कहा कि महाराज जी को शीघ्र ही अपोलो अस्पताल
दिल्ली चैकअप के लिए लाना पडेगा। उन्होंने एयर एम्बुलेंस इलाहाबाद भेज दी
और गुरूदेव को एयर एम्बुलेंस से दिल्ली लाया गया जहां सारे चैकअप के बाद
ज्ञात हुआ कि आपके लंग्स में पानी भर गया है। उससे आपके हृदय पर दबाव पडने
के कारण श्वास लेने में कठिनाई होने लगी थी।
18 मार्च सायंकाल से 25 मार्च तक अपोलो अस्पताल, दिल्ली में रहे जहां आपके प्रतिदिन सारे टैस्ट होते रहे।
अस्पताल में भी सुबह 1 बजे जो हम लोगों के लिए रात्रि है, कमरे के बाहर बरामदे में जब वाॅक के लिए निकलते, सारे आस पास वाले मरीज बाहर खडे हो जाते इनके दर्शन के लिये और किसी मरीज के सेवादार उनसे प्रार्थना करते कृपया आप हमारे मरीज को भी दर्शन दे दीजिएगा। कुछ कमरों में चले जाते दर्शन के लिए।
26 मार्च को सायंकाल सात बजे आप अपोलो अस्पताल से छुट्टी पाकर गोलोक धाम दिल्ली पँहुचे। गोलोक धाम में पँहुचते ही आपने अपने सभी भक्तों को अपने पास प्रणाम के लिए बुला लिया।
27 मार्च को होली के पावन पर्व पर सभी भक्त साधकों ने चन्दन का टीका लगाकर प्रणाम किया। इधर भक्ति धाम मनगढ़ में साधना शिविर लगातार चलता रहा और सभी हजारों भक्त साधकों ने रूपध्यान पूर्वक रो रो कर साधना करते हुए अपने प्राण प्यारे गुरूदेव के शीघ्र ही स्वस्थ हो जाने की प्रार्थना भक्ति मन्दिर में युगल सरकार के श्री चरणों में की।
30 मार्च को श्री महाराज जी हैलीकॉप्टर से बरसाना पँहुचे, जिनका प्रत्येक क्षण जीव कल्याणार्थ ही समर्पित है। अस्वस्थ होते हुए भी अपने आपको रोक नहीं पाये और प्रवचन देना शुरू कर दिया।
रात्रि में भी आपने बरसाना वासियों के मध्य सुमधुर संकीर्तन के द्वारा ब्रजरस की वर्षा की। उन्हें ये अनुभव नहीं होने दिया कि आप इतने लंबे समय से अस्वस्थ थे।
31 मार्च को भी प्रातःकालीन आरती के बाद भी आपने 25 मिनट का सारगर्भित प्रवचन दिया। 31 मार्च को ही प्रातः दस बजे आप बरसाना से हवाई मार्ग द्वारा ग्यारह बजकर चालीस मिनट पर आप दिव्य धाम मनगढ़ पँहुच गये। श्री महाराज जी को देखकर सभी मनगढ़ वासी एवं उपस्थित जनसमुदाय अत्यधिक आनंदित हुए।
जिनका प्रत्येक क्षण केवल जीव कल्याणार्थ ही होता है।
श्री गुरूदेव के चरणों में कोटि कोटि नमन।
18 मार्च सायंकाल से 25 मार्च तक अपोलो अस्पताल, दिल्ली में रहे जहां आपके प्रतिदिन सारे टैस्ट होते रहे।
अस्पताल में भी सुबह 1 बजे जो हम लोगों के लिए रात्रि है, कमरे के बाहर बरामदे में जब वाॅक के लिए निकलते, सारे आस पास वाले मरीज बाहर खडे हो जाते इनके दर्शन के लिये और किसी मरीज के सेवादार उनसे प्रार्थना करते कृपया आप हमारे मरीज को भी दर्शन दे दीजिएगा। कुछ कमरों में चले जाते दर्शन के लिए।
26 मार्च को सायंकाल सात बजे आप अपोलो अस्पताल से छुट्टी पाकर गोलोक धाम दिल्ली पँहुचे। गोलोक धाम में पँहुचते ही आपने अपने सभी भक्तों को अपने पास प्रणाम के लिए बुला लिया।
27 मार्च को होली के पावन पर्व पर सभी भक्त साधकों ने चन्दन का टीका लगाकर प्रणाम किया। इधर भक्ति धाम मनगढ़ में साधना शिविर लगातार चलता रहा और सभी हजारों भक्त साधकों ने रूपध्यान पूर्वक रो रो कर साधना करते हुए अपने प्राण प्यारे गुरूदेव के शीघ्र ही स्वस्थ हो जाने की प्रार्थना भक्ति मन्दिर में युगल सरकार के श्री चरणों में की।
30 मार्च को श्री महाराज जी हैलीकॉप्टर से बरसाना पँहुचे, जिनका प्रत्येक क्षण जीव कल्याणार्थ ही समर्पित है। अस्वस्थ होते हुए भी अपने आपको रोक नहीं पाये और प्रवचन देना शुरू कर दिया।
रात्रि में भी आपने बरसाना वासियों के मध्य सुमधुर संकीर्तन के द्वारा ब्रजरस की वर्षा की। उन्हें ये अनुभव नहीं होने दिया कि आप इतने लंबे समय से अस्वस्थ थे।
31 मार्च को भी प्रातःकालीन आरती के बाद भी आपने 25 मिनट का सारगर्भित प्रवचन दिया। 31 मार्च को ही प्रातः दस बजे आप बरसाना से हवाई मार्ग द्वारा ग्यारह बजकर चालीस मिनट पर आप दिव्य धाम मनगढ़ पँहुच गये। श्री महाराज जी को देखकर सभी मनगढ़ वासी एवं उपस्थित जनसमुदाय अत्यधिक आनंदित हुए।
जिनका प्रत्येक क्षण केवल जीव कल्याणार्थ ही होता है।
श्री गुरूदेव के चरणों में कोटि कोटि नमन।
आइये भक्ति योग रसावतार, करूणा वरूणालय, सहज सनेही भक्तवांछा कल्पतरू गुरूदेव की अनन्त, नित्य, नवायमान लीलाओं का रसास्वादन करें।
आमार माधुर्य नित्य नव नव होय।
स्व स्व प्रेम अनुरूप भक्ते आस्वादय।
चैतन्य महाप्रभु ने कहा था कि हमारी माधुर्यमयी लीलायें अनन्त, है, नित्य और नवीन रस वैलक्षण्य से परिपूर्ण हैं जिनका आस्वादन मेरी कृपा से ही मेरे भक्त करते हैं।
श्री महाराज जी की माधुर्यमयी रसमयी लीलाएं भी हम सभी साधकों के जीवन का आधार है जिनको जानने, सुनने, देखने की ललक हम सबके अन्दर सदा नित्य बनी रहती है।
होली साधना शिविर
9 मार्च 2013 को श्री महाराज जी हवाई मार्ग से भक्ति धाम मनगढ़ पंहुचे। जहां सभी धाम वासियों ने रसमय संकीर्तन के साथ गुरूदेव का भव्य स्वागत किया, आरती उतारी और श्री चरणों में पूजन अर्चन करते हुए, निष्काम अनन्य प्रेम की याचना की।
रात्रि 7 बजे संकीर्तन प्रारंभ हो गया। रात्रि साढे आठ बजे श्री महाराज जी ने साधना सम्बन्धी निर्देश देते हुए कहा -
कल से महाशिवरात्रि के दिन से साधना शिविर प्रारंभ होने जा रहा है। आप लोग साधना के नियमों का पालन करते हुए मौन रह कर रूपध्यान पूर्वक साधना कीजिए। फिर देखिये 15 दिन की साधना में आपको कितना भक्ति रस का आनन्द मिलता है।
लेकिन 9 मार्च को अर्द्ध रात्रि में ही श्री महाराज जी को डायरिया हो गया। जिसके कारण आप वाॅक करने भी नहीं आ पाये और प्रातःकाल आरती में में भी नहीं आ सके। आपके दर्शन के बिना महाशिवरात्रि का पर्व फीका पड़ गया। किन्तु प्रत्येक वर्ष की भाँति इस वर्ष भी होली साधना शिविर का शुभारंभ हुआ।
लगातार डायरिया होने के कारण आप इतने अस्वस्थ एवं कमजोर हो गये कि आप कमरे से बाहर नहीं आ सके। फिर भी आपने अपने अकारण करूण स्वभाव के कारण सभी साधकों को कमरे में प्रणाम करने के लिये बुला लिया। 14 मार्च तक श्री महाराज जी कमरे से बाहर नहीं निकले।
15 मार्च को थोड़ा स्वस्थ अनुभव करने पर प्रातः आरती में आये। सभी साधकों ने श्री चरणों में प्रणाम किया। मन ही मन आपके पूर्णतः स्वस्थ हो जाने की कामना की। प्रातः साढे नौ बजे आप पुनः संकीर्तन में आये और विशेष ब्रजरस की वर्षा की। संकीर्तन के मध्य भक्ति मन्दिर के युगल सरकार के परिधान, श्रृंगार एवं आभूषण प्रसादी में सौभाग्यशाली भक्तों को अपने हाथों से दिये और उनका महत्व बताया।
पुनः 16, 17 मार्च को अधिक कमजोरी आ जाने के कारण बाहर दर्शन देने नहीं आ सके। सभी साधकों ने कमरे में ही जाकर श्री चरणों में ही प्रणाम किया।
ऐसे श्री गुरूदेव को बारम्बार प्रणाम है।
आमार माधुर्य नित्य नव नव होय।
स्व स्व प्रेम अनुरूप भक्ते आस्वादय।
चैतन्य महाप्रभु ने कहा था कि हमारी माधुर्यमयी लीलायें अनन्त, है, नित्य और नवीन रस वैलक्षण्य से परिपूर्ण हैं जिनका आस्वादन मेरी कृपा से ही मेरे भक्त करते हैं।
श्री महाराज जी की माधुर्यमयी रसमयी लीलाएं भी हम सभी साधकों के जीवन का आधार है जिनको जानने, सुनने, देखने की ललक हम सबके अन्दर सदा नित्य बनी रहती है।
होली साधना शिविर
9 मार्च 2013 को श्री महाराज जी हवाई मार्ग से भक्ति धाम मनगढ़ पंहुचे। जहां सभी धाम वासियों ने रसमय संकीर्तन के साथ गुरूदेव का भव्य स्वागत किया, आरती उतारी और श्री चरणों में पूजन अर्चन करते हुए, निष्काम अनन्य प्रेम की याचना की।
रात्रि 7 बजे संकीर्तन प्रारंभ हो गया। रात्रि साढे आठ बजे श्री महाराज जी ने साधना सम्बन्धी निर्देश देते हुए कहा -
कल से महाशिवरात्रि के दिन से साधना शिविर प्रारंभ होने जा रहा है। आप लोग साधना के नियमों का पालन करते हुए मौन रह कर रूपध्यान पूर्वक साधना कीजिए। फिर देखिये 15 दिन की साधना में आपको कितना भक्ति रस का आनन्द मिलता है।
लेकिन 9 मार्च को अर्द्ध रात्रि में ही श्री महाराज जी को डायरिया हो गया। जिसके कारण आप वाॅक करने भी नहीं आ पाये और प्रातःकाल आरती में में भी नहीं आ सके। आपके दर्शन के बिना महाशिवरात्रि का पर्व फीका पड़ गया। किन्तु प्रत्येक वर्ष की भाँति इस वर्ष भी होली साधना शिविर का शुभारंभ हुआ।
लगातार डायरिया होने के कारण आप इतने अस्वस्थ एवं कमजोर हो गये कि आप कमरे से बाहर नहीं आ सके। फिर भी आपने अपने अकारण करूण स्वभाव के कारण सभी साधकों को कमरे में प्रणाम करने के लिये बुला लिया। 14 मार्च तक श्री महाराज जी कमरे से बाहर नहीं निकले।
15 मार्च को थोड़ा स्वस्थ अनुभव करने पर प्रातः आरती में आये। सभी साधकों ने श्री चरणों में प्रणाम किया। मन ही मन आपके पूर्णतः स्वस्थ हो जाने की कामना की। प्रातः साढे नौ बजे आप पुनः संकीर्तन में आये और विशेष ब्रजरस की वर्षा की। संकीर्तन के मध्य भक्ति मन्दिर के युगल सरकार के परिधान, श्रृंगार एवं आभूषण प्रसादी में सौभाग्यशाली भक्तों को अपने हाथों से दिये और उनका महत्व बताया।
पुनः 16, 17 मार्च को अधिक कमजोरी आ जाने के कारण बाहर दर्शन देने नहीं आ सके। सभी साधकों ने कमरे में ही जाकर श्री चरणों में ही प्रणाम किया।
ऐसे श्री गुरूदेव को बारम्बार प्रणाम है।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
प्रेम मन्दिर का उद्घाटन था तो भीड तो बहुत थी। तो वाॅलन्टियर बने दो
सत्संगी आपस में बात कर रहे थे, कि इतनी भीड में दर्शन कहां मिलेंगे इसलिये
मेहनत से सेवा करो जो महाराज जी की कृपा से मिली है। गर्व भी कर रहे थे कि
आखिर प्रेम मन्दिर में सेवा मिली है। अब महाराज जी तो उन दोनों के बीच भी
सब खडे होकर सब नोट कर रहे थे। तो जब सब उद्घाटन हो चुका अगली सुबह महाराज
जी साढे चार के स्थान पर चार बजे ही आकर बैठ गए जैसे ही महाराज जी ने माइक
पर लाडलि लाल की जय, बोला, वो दोनों सत्संगी अपने ठिकाने की जगह से चल चुकी
थी। जैसे ही महाराज जी की आवाज सुनी और उन्होंने दौड लगाई। कि महाराज जी आ
गये लगता है। देखा तो हाॅल में न कोई भीड। कुछ ही लोग थे। तभी एकदम भीड
प्रणाम के लिए उठ खडी हुई, कुछ नृत्य करने लगे, तभी महाराज जी ने उन दोनों
को इशारा करके बुलाया और बोले संभालो कहाँ हैं वाॅलन्टियर। बस महाराज जी के
बेड के पास भीड सँभालने के लिए सेवा महाराज जी के द्वारा मिल गयी। महाराज
जी के दर्शन से कृतार्थ हो गये वो दोनों।
करूणावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
करूणावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
एक सत्संगी जिनके हाथ में फ्रेक्चर हुआ था। हथेली के ऊपर कलाई पर दो जगह
से हथेली बिलकुल लटक गयी थीं। दो आपरेशन करने पडे थे।. तो राखी पर महाराज
जी के पास नहीं जा पायी थी। तो उन्होंने अपनी मम्मी से कहा कि मेरी राखी
महाराज जी से ले लेना। तो उनकी मम्मी राखी लेकर आयीं उन्होंने बताया कि
उसके हाथ में परेशानी है तो उसने राखी मँगवाई है तो महाराज जी ने राखी देते
हुये कहा कि परेशान न हो जल्दी ठीक हो जायेगी। और जब वो दो महीने बाद
मनगढ़ गयी ठीक होने के बाद तो प्रणाम किया तो महाराज जी ने सबसे पहले यही
पूछा कि हाथ कैसा है अब ठीक हो गया। ऐसा कोई नातेदार होगा जिसे अपने बच्चों
की हर घडी फिक्र रहती है।
एक बार पहले इन्हीं का एक और अनुभव है। ये करनाल से 15 साल पहले मनगढ़ गयीं थी। इनकी सर्विस लगी ही थी, तो इन्होंने सब रूपये वहां खर्च कर लिये पर किराये और रास्ते में खर्च के अलावा इन पर 800 रूपये और बचे रह गये, वहां कुछ देर पहले ही प्रचारक दीदी ने कलियुग के दान के महत्व को लेक्चर में भी बोला, पहले तो इन्होंने सोचा कि इनको यहीं महाराज जी के आश्रम में दे कर चलो फिर सोचा कि घर पर भी जरूरत पडेगी सभी रू० ले आये हैं।बहुत देर सोचते-सोचते उन्होंने यह डिसीजन लिया कि घर पर भी जरूरत रहेगी और वो 800 रू० लेकर वो घर के लिए चल दीं। रास्ते में कभी उतरती नहीं थी उसदिन वो चाय के लिए ट्रेन से उतरीं वहीं पैर मुड गया और उनके पैर में फ्रेक्चर हुआ और महाराज जी का तब और ज्यादा स्मरण हुआ जब फ्रेक्चर में पूरे 800 रू० ही लगे। तब समझ में आया क्या गलती की।
उनका कहना था कि अगर महाराज जी ने तब ये अक्ल न सिखाई होती कि धाम में आकर भी घर के लिए रू० बचाकर ले जाना कितना बडा अपराध है। जबकि अगले क्षण का भी पता नहीं है।
जबकि कलियुग में दान ही सर्वोपरि है। तो हरि गुरू कभी दण्ड से सिखाते हैं, कभी प्यार से सिखाते, कभी गुस्से से सिखाते हैं। ये वो ही जानते हैं किसके लिये क्या सही है।
इसलिए गुरू की प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक व्यवहार कृपा ही होती है।कभी विपरीत चिन्तन से अपना नुकसान नहीं करना चाहिए।
हमारे सर्वज्ञ श्री महाराज जी की जय।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
एक बार पहले इन्हीं का एक और अनुभव है। ये करनाल से 15 साल पहले मनगढ़ गयीं थी। इनकी सर्विस लगी ही थी, तो इन्होंने सब रूपये वहां खर्च कर लिये पर किराये और रास्ते में खर्च के अलावा इन पर 800 रूपये और बचे रह गये, वहां कुछ देर पहले ही प्रचारक दीदी ने कलियुग के दान के महत्व को लेक्चर में भी बोला, पहले तो इन्होंने सोचा कि इनको यहीं महाराज जी के आश्रम में दे कर चलो फिर सोचा कि घर पर भी जरूरत पडेगी सभी रू० ले आये हैं।बहुत देर सोचते-सोचते उन्होंने यह डिसीजन लिया कि घर पर भी जरूरत रहेगी और वो 800 रू० लेकर वो घर के लिए चल दीं। रास्ते में कभी उतरती नहीं थी उसदिन वो चाय के लिए ट्रेन से उतरीं वहीं पैर मुड गया और उनके पैर में फ्रेक्चर हुआ और महाराज जी का तब और ज्यादा स्मरण हुआ जब फ्रेक्चर में पूरे 800 रू० ही लगे। तब समझ में आया क्या गलती की।
उनका कहना था कि अगर महाराज जी ने तब ये अक्ल न सिखाई होती कि धाम में आकर भी घर के लिए रू० बचाकर ले जाना कितना बडा अपराध है। जबकि अगले क्षण का भी पता नहीं है।
जबकि कलियुग में दान ही सर्वोपरि है। तो हरि गुरू कभी दण्ड से सिखाते हैं, कभी प्यार से सिखाते, कभी गुस्से से सिखाते हैं। ये वो ही जानते हैं किसके लिये क्या सही है।
इसलिए गुरू की प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक व्यवहार कृपा ही होती है।कभी विपरीत चिन्तन से अपना नुकसान नहीं करना चाहिए।
हमारे सर्वज्ञ श्री महाराज जी की जय।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
एक बार एक सत्संगी करीब 6 साल पहले मनगढ़ जब गयीं तो वहां पर चित्रकूट की चर्चा हुई।
मनगढ़ में लेक्चर से पहले चित्रकूट का ही वर्णन किया गया। तो दिमाग इसी बात पर लगा रहा कि चित्रकूट के जंगलो में आखिर क्या है? महाराज जी का फोटो देखकर हाथ ऊपर किये हुए वो देखकर वो वापिस मनगढ़ से आने लगीं साथ में एक और सत्संगी भी थे। उनसे भी ट्रेन आने तक इसी विषय पर चर्चा होती रही। ट्रेन में हम वैठ गये दोनों। दोनों महाराज जी का चित्रकूट के शरभंग आश्रम का ही चिन्तन कर रहे थे। एक घण्टे के सफर के बाद एक सज्जन उनकी सामने वाली सीट पर बैठे थे। उन्हें कुछ हमारी बातों से लगा कि ये लोग महाराज जी के यहाँ से आयें हैं। तो वो कहने लगे कि महाराज जी के यहाँ जा नहीं पाये हैं पर बडा सुना है उनके बारे में। आगे उन्होंने बताया कि वो चित्रकूट के जंगल में हर साल जाते हैं। सत्संगियो की जिज्ञासा बढी चित्रकूट का नाम सुनकर। तो हम उन 60 साल के सज्जन से बोले क्या है वहाँ पर।
तब उन्होंने जो बताया उनके रिक्वेस्ट पर वो बता रहे हैं।
वो बोले कि एक बार वो पांच साल के थे और उनके भाई 6 साल के। तो उनके पिता तीन दिन घर पर नहीं आये। और जब तीन दिन बाद घर आये तो गुमसुम रहने लगे जैसे उनका कोई नहीं, हम लोगों से उनका कोई मतलब नहीं है। तो वो चित्रकूट के जंगल में रास्ता भटक गये। वहां अंदर उन्हें चारों ओर जंगल के अलावा कुछ नहीं नजर आ रहा था। तीन दिन उन्हें इसी तरह भटकते हो गया। तो तीसरे दिन उनकी एक पेड से टक्कर हो गयी और वो ऋषि के रूप में प्रकट हो गए और वो ऋषि कहते हैं कि कुछ खिला तो उन्होंने कहा कि यहाँ तो जंगल है, तो वो बोले यहाँ तो सब जंगल है तो ऋषि ने कहा कि पीछे देख तो, वहाँ एक मिठाई की दुकान देखने को मिली। जबकि वहां कोई दुकान नहीं थी। फिर वो ऋषि ने कहा हम यहाँ तपस्या कर रहे हैं यहाँ दिखता है पेड, पर यहाँ कोई पेड नहीं हैं सब जन्मों से साधना कर रहे हैं लेकिन तुम ये किसी को बताना नहीं। तुम्हें तो पता चल गया है। नहीं तो तुम्हारी जीवन काल वहीं समाप्त हो जायेगा। जब वो घर आये तो केवल अपनी पूजा, साधना, स्मरण करें वाकी कुछ नहीं गुमसुम रहें। तो वो ट्रेन में बोले कि हम पाँच साल के थे जिद करके बैठ गए कि पापा बताओ क्या हुआ था आप कहां रहे तीन दिन तो बहुत टालने की कोशिश करते रहे लेकिन बहुत आग्रह पर उन्होंने बताया चित्रकूट की बात, लेकिन अगले दिन पिताजी नहीं रहे।
तब हम लोगों को एहसास हुआ कि महाराज जी ने हमारे अन्दर जो प्रश्न था उसका जबाब दिलवाया। जहां महाराज जी जाते थे चित्रकूट के जंगल में वहां क्या है। किसे सुख प्रदान करने जाते थे। किसको दर्शन देने जाते थे ।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
मनगढ़ में लेक्चर से पहले चित्रकूट का ही वर्णन किया गया। तो दिमाग इसी बात पर लगा रहा कि चित्रकूट के जंगलो में आखिर क्या है? महाराज जी का फोटो देखकर हाथ ऊपर किये हुए वो देखकर वो वापिस मनगढ़ से आने लगीं साथ में एक और सत्संगी भी थे। उनसे भी ट्रेन आने तक इसी विषय पर चर्चा होती रही। ट्रेन में हम वैठ गये दोनों। दोनों महाराज जी का चित्रकूट के शरभंग आश्रम का ही चिन्तन कर रहे थे। एक घण्टे के सफर के बाद एक सज्जन उनकी सामने वाली सीट पर बैठे थे। उन्हें कुछ हमारी बातों से लगा कि ये लोग महाराज जी के यहाँ से आयें हैं। तो वो कहने लगे कि महाराज जी के यहाँ जा नहीं पाये हैं पर बडा सुना है उनके बारे में। आगे उन्होंने बताया कि वो चित्रकूट के जंगल में हर साल जाते हैं। सत्संगियो की जिज्ञासा बढी चित्रकूट का नाम सुनकर। तो हम उन 60 साल के सज्जन से बोले क्या है वहाँ पर।
तब उन्होंने जो बताया उनके रिक्वेस्ट पर वो बता रहे हैं।
वो बोले कि एक बार वो पांच साल के थे और उनके भाई 6 साल के। तो उनके पिता तीन दिन घर पर नहीं आये। और जब तीन दिन बाद घर आये तो गुमसुम रहने लगे जैसे उनका कोई नहीं, हम लोगों से उनका कोई मतलब नहीं है। तो वो चित्रकूट के जंगल में रास्ता भटक गये। वहां अंदर उन्हें चारों ओर जंगल के अलावा कुछ नहीं नजर आ रहा था। तीन दिन उन्हें इसी तरह भटकते हो गया। तो तीसरे दिन उनकी एक पेड से टक्कर हो गयी और वो ऋषि के रूप में प्रकट हो गए और वो ऋषि कहते हैं कि कुछ खिला तो उन्होंने कहा कि यहाँ तो जंगल है, तो वो बोले यहाँ तो सब जंगल है तो ऋषि ने कहा कि पीछे देख तो, वहाँ एक मिठाई की दुकान देखने को मिली। जबकि वहां कोई दुकान नहीं थी। फिर वो ऋषि ने कहा हम यहाँ तपस्या कर रहे हैं यहाँ दिखता है पेड, पर यहाँ कोई पेड नहीं हैं सब जन्मों से साधना कर रहे हैं लेकिन तुम ये किसी को बताना नहीं। तुम्हें तो पता चल गया है। नहीं तो तुम्हारी जीवन काल वहीं समाप्त हो जायेगा। जब वो घर आये तो केवल अपनी पूजा, साधना, स्मरण करें वाकी कुछ नहीं गुमसुम रहें। तो वो ट्रेन में बोले कि हम पाँच साल के थे जिद करके बैठ गए कि पापा बताओ क्या हुआ था आप कहां रहे तीन दिन तो बहुत टालने की कोशिश करते रहे लेकिन बहुत आग्रह पर उन्होंने बताया चित्रकूट की बात, लेकिन अगले दिन पिताजी नहीं रहे।
तब हम लोगों को एहसास हुआ कि महाराज जी ने हमारे अन्दर जो प्रश्न था उसका जबाब दिलवाया। जहां महाराज जी जाते थे चित्रकूट के जंगल में वहां क्या है। किसे सुख प्रदान करने जाते थे। किसको दर्शन देने जाते थे ।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
आत्मीय पत्र
श्री महाराज जी द्वारा साधकों को लिखे गये पत्रों के अंश
तुमने अपना जीवन सफल बना लिया है क्योंकि तुम निष्कपट भाव से सेवा कर रहे हो। मैं तुमसे बहुत खुश हूँ। राधे राधे बोलते रहो।
तुम कृष्ण दास रूप आत्मा हो। अतएव संसार में तुम्हारा विषय नहीं है। अतएव दिव्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध द्वारा ही आत्मा की तृप्ति होगी। संसार शरीर के लिये है अतएव श्री कृष्ण उनके नाम, रूप, लीला, गुण, धाम और जन में ही मन लगाओ।
तुम तो बडे भाग्यशाली हो जो अपने जीवन को गुरू के लिए अर्पित कर दिया है। बस थोडा सा और सुधार कर लो। सदा अपने आप को अपने इष्टदेव के साथ ही मानो। दोषों से बचो।
मानव देह क्षणभंगुर है, ऐसा सोचकर जीवन का एक एक क्षण अपने लक्ष्य में ही लगाओ। पर दोष न देखो। अपने दोष ही देखो। क्रोध आदि भूल कर न करो। सदा अपने शरण्य को अपने साथ मानो। अपने शेष जीवन का महत्व सोचकर क्षण क्षण अपने शरण्य के चिन्तन में व्यतीत करो। मन को खाली न रहने दो। निराशा न आने पाये। अन्तिम काल का चिन्तन ही प्रमुख काम देता है।
तुम्हारी सेवा से मैं बहुत खुश हूं तुम मेरे सच्चे शिष्य बनोगे। तुम्हारी सेवा का सदा ऋणी रहूंगा। तुम घर के सब काम देखते रहना एवं सबसे प्रेम और दीनता से बात करना। तुम्हारा तो जीवन ही मेरे लिए अर्पित है। बस इसे निभाना।
मुझे जो करना है वह तो मैं करता ही हूं, करूँगा ही। किन्तु तुमको जो साधना बतायी गयी है वह करते रहो।
तुमको सब कुछ मिल चुका है। बस अपने जीवन धन को जीवन मान कर सेवा करो।
तुम मन को सदा सेवा में ही लगाये रहो। तुम्हारे समान भाग्यशाली इने गिने लोग ही विश्व भर में हैं। तुम मीठा बोलने एवं दीनता का अभ्यास बढाओ।
अपने आपको अपने शरण्य की धरोहर मान कर उनकी नित्य सेवा करने में ही अपना भूरि भाग्य मानों। सदा यही सोचो कि मेरे जीवन का एक क्षण भी बिना सेवा के नष्ट न हो। सदा उन्हीं का चिन्तन आदि करते रहो।
मानव देह मिला, गुरू मिला संसार से पृथक हो गये। सेवा मिली। इतनी सारी कृपा करोडों मनुष्यों में से भी किसी को नहीं मिलती। अतएव इस सुवर्ण अवसर को काम में लो।
24 घंटे में कितने घंटे राधाकृष्ण का चिन्तन करते हो। बस इसी प्रश्न का का उत्तर एकान्त में सोचो। और यदि बारह घंटे भी नहीं करते हो तो क्या चाह है, सोचो।
प्रतिक्षण अपने शरण्य का ही चिन्तन करो। सदा सर्वदा उनको अपने साथ रखो।
तुम्हारे काम का मैं ऋणी हूं। बस स्नेह बढाते जाओ। एक दिन श्याम कृपा होगी।
गुरूदेव तुम्हारी जय होवे।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
तुमने अपना जीवन सफल बना लिया है क्योंकि तुम निष्कपट भाव से सेवा कर रहे हो। मैं तुमसे बहुत खुश हूँ। राधे राधे बोलते रहो।
तुम कृष्ण दास रूप आत्मा हो। अतएव संसार में तुम्हारा विषय नहीं है। अतएव दिव्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध द्वारा ही आत्मा की तृप्ति होगी। संसार शरीर के लिये है अतएव श्री कृष्ण उनके नाम, रूप, लीला, गुण, धाम और जन में ही मन लगाओ।
तुम तो बडे भाग्यशाली हो जो अपने जीवन को गुरू के लिए अर्पित कर दिया है। बस थोडा सा और सुधार कर लो। सदा अपने आप को अपने इष्टदेव के साथ ही मानो। दोषों से बचो।
मानव देह क्षणभंगुर है, ऐसा सोचकर जीवन का एक एक क्षण अपने लक्ष्य में ही लगाओ। पर दोष न देखो। अपने दोष ही देखो। क्रोध आदि भूल कर न करो। सदा अपने शरण्य को अपने साथ मानो। अपने शेष जीवन का महत्व सोचकर क्षण क्षण अपने शरण्य के चिन्तन में व्यतीत करो। मन को खाली न रहने दो। निराशा न आने पाये। अन्तिम काल का चिन्तन ही प्रमुख काम देता है।
तुम्हारी सेवा से मैं बहुत खुश हूं तुम मेरे सच्चे शिष्य बनोगे। तुम्हारी सेवा का सदा ऋणी रहूंगा। तुम घर के सब काम देखते रहना एवं सबसे प्रेम और दीनता से बात करना। तुम्हारा तो जीवन ही मेरे लिए अर्पित है। बस इसे निभाना।
मुझे जो करना है वह तो मैं करता ही हूं, करूँगा ही। किन्तु तुमको जो साधना बतायी गयी है वह करते रहो।
तुमको सब कुछ मिल चुका है। बस अपने जीवन धन को जीवन मान कर सेवा करो।
तुम मन को सदा सेवा में ही लगाये रहो। तुम्हारे समान भाग्यशाली इने गिने लोग ही विश्व भर में हैं। तुम मीठा बोलने एवं दीनता का अभ्यास बढाओ।
अपने आपको अपने शरण्य की धरोहर मान कर उनकी नित्य सेवा करने में ही अपना भूरि भाग्य मानों। सदा यही सोचो कि मेरे जीवन का एक क्षण भी बिना सेवा के नष्ट न हो। सदा उन्हीं का चिन्तन आदि करते रहो।
मानव देह मिला, गुरू मिला संसार से पृथक हो गये। सेवा मिली। इतनी सारी कृपा करोडों मनुष्यों में से भी किसी को नहीं मिलती। अतएव इस सुवर्ण अवसर को काम में लो।
24 घंटे में कितने घंटे राधाकृष्ण का चिन्तन करते हो। बस इसी प्रश्न का का उत्तर एकान्त में सोचो। और यदि बारह घंटे भी नहीं करते हो तो क्या चाह है, सोचो।
प्रतिक्षण अपने शरण्य का ही चिन्तन करो। सदा सर्वदा उनको अपने साथ रखो।
तुम्हारे काम का मैं ऋणी हूं। बस स्नेह बढाते जाओ। एक दिन श्याम कृपा होगी।
गुरूदेव तुम्हारी जय होवे।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
आत्मीय पत्र
श्री महाराज जी द्वारा साधकों को लिखे गये पत्रों का अंश
आशा है तुम अपने कृपालु को भूले नहीं होंगे। भूल भी नहीं सकते। साहस हो तो भुला कर देखो। वे स्वयं भी तो अपनी याद दिलाते रहते हैं। मैं आज ही प्रयाग आया हूं। वज्र हृदय होते हुये भी मेेै तुम्हें भुला नहीं पाता हूं। तुम भी अपने कृपालु को अपना बनाकर भूल मत जाना। अपनी आत्मा के समान उसे भी अपने साथ सदा रखना। मैं सदा सदा तुम्हारा हूँ।
हमारी इच्छा में इच्छा रखने की बात को जानकर बड़ा हर्ष हुआ। यही तो साधक की कसौटी है।
............. के यहाँ ठहरने की बात तो परिहास मात्र ही थी। तुमने अतिशय प्यार के कारण दूसरा कुछ समझ लिया और अगर कहीं ठहरेंगे भी तो 2 या 3 दिन को ही होगा। शरद्पूर्णिमा के पूर्व ही आऊँगा। तब प्रोग्राम के बारे में बातें करूँगा।
साधना सामूहिक या व्यक्तिगत दोनों ठीक हैं किन्तु अपने अपने संस्कार के कारण अपने प्रत्यक्ष लाभ पर निर्भर है।
भक्त चरित्र भी वही वस्तु है, जिससे लाभ हो वही ठीक है।
किसी सांसारिक व्यक्ति के रूप, शब्द आदि में लगाव करते हुए, ईश्वरीय भाव में आना कठिन एवं हानिकारक हो सकता है। किन्तु सांसारिक वस्तु में यह होना ठीक है।
ll सबसे राधे राधे ll
प्रिय !
शरण्य के प्रति जीव की नित्य शरणागति ही साधना है एवं शरणागति द्वारा शरण्य की नित्य सेवा ही जीव का चरम लक्ष्य है।
अपने इष्टदेव की नित्य सेवा ही तुम्हारा चरम लक्ष्य है।
कर्म मात्र करते हुये फल की इच्छा न करते हुए असंग व्यवहार करना है।
ll तुम्हारा कृपालु ll
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय
श्री महाराज जी द्वारा साधकों को लिखे गये पत्रों का अंश
आशा है तुम अपने कृपालु को भूले नहीं होंगे। भूल भी नहीं सकते। साहस हो तो भुला कर देखो। वे स्वयं भी तो अपनी याद दिलाते रहते हैं। मैं आज ही प्रयाग आया हूं। वज्र हृदय होते हुये भी मेेै तुम्हें भुला नहीं पाता हूं। तुम भी अपने कृपालु को अपना बनाकर भूल मत जाना। अपनी आत्मा के समान उसे भी अपने साथ सदा रखना। मैं सदा सदा तुम्हारा हूँ।
हमारी इच्छा में इच्छा रखने की बात को जानकर बड़ा हर्ष हुआ। यही तो साधक की कसौटी है।
............. के यहाँ ठहरने की बात तो परिहास मात्र ही थी। तुमने अतिशय प्यार के कारण दूसरा कुछ समझ लिया और अगर कहीं ठहरेंगे भी तो 2 या 3 दिन को ही होगा। शरद्पूर्णिमा के पूर्व ही आऊँगा। तब प्रोग्राम के बारे में बातें करूँगा।
साधना सामूहिक या व्यक्तिगत दोनों ठीक हैं किन्तु अपने अपने संस्कार के कारण अपने प्रत्यक्ष लाभ पर निर्भर है।
भक्त चरित्र भी वही वस्तु है, जिससे लाभ हो वही ठीक है।
किसी सांसारिक व्यक्ति के रूप, शब्द आदि में लगाव करते हुए, ईश्वरीय भाव में आना कठिन एवं हानिकारक हो सकता है। किन्तु सांसारिक वस्तु में यह होना ठीक है।
ll सबसे राधे राधे ll
प्रिय !
शरण्य के प्रति जीव की नित्य शरणागति ही साधना है एवं शरणागति द्वारा शरण्य की नित्य सेवा ही जीव का चरम लक्ष्य है।
अपने इष्टदेव की नित्य सेवा ही तुम्हारा चरम लक्ष्य है।
कर्म मात्र करते हुये फल की इच्छा न करते हुए असंग व्यवहार करना है।
ll तुम्हारा कृपालु ll
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय
लगभग 500 वर्ष पूर्व स्वयं हरि अवतारी चैतन्य महाप्रभु राधाकृष्ण मिलित
स्वरूप में ब्रजरस के रसास्वादन एवं वितरण हेतु अवतरित हुए थे। जीव तो केवल
कुँज रस तक का अनुभव प्राप्त कर सकता है। ब्रज रस की प्राप्ति के लिए जीव
को ऐसे ही गुरू की आवश्यकता होती है जो सबसे ऊपर के भाव का रसिक शिरोमणि
हो। पूर्वजन्म की साधना से जब कुछ जीवों के अंतःकरण गोपी प्रेम प्राप्त
करने की कक्षा में प्रवेश के योग्य होता है। तो हरि अवतारी महाप्रभु को
गुरू रूप में अवतार लेना पडता है। करीब पांच हजार वर्ष पूर्व अश्विनी शुक्ल
पूर्णिमा की रात्रि को हरि अवतारी श्री कृष्ण ने गोपियों को महारास प्रदान
किया था। आज ही के दिन सन् 1922 की अश्विनी शुक्ल पूर्णिमा को रस सिन्धु
भक्ति योग रसावतार हमारे गुरूदेव श्री कृपालु जी का आविर्भाव हुआ।
भारत वर्ष के उत्तर प्रदेश प्रान्त में, जिला प्रतापगढ़, तहसील कुण्डा में स्थित मनगढ़ ग्राम चिन्मय दिव्य धाम बन गया। अहो भाग्य हमारे! कि हम जैसों को उनकी अहैतुकी कृपा का प्रसाद मिला।
मनगढ़ ऐसा धाम गोविंद राधे।
जहाँ हरि गुरू बिनु माँगे कृपा दे।।
हमारे गुरूदेव का आध्यात्मिक परिचय तो केवल उनकी कृपा से ही थोडा बहुत जाना जा सकता है। जब किसी के मन में उनके प्रति तीव्र लालसा का उदय होगा वह श्री कृपालु महाप्रभु तक आ ही जाता है या यूँ कहें कि वह स्वयं चलकर उस तक पहुंच जाते हैं। लेकिन मायावश अगर उनसे किसी ने संसार मांग लिया जैसे मान सम्मान, आर्थिक लाभ, रिद्धि सिद्धि, स्वास्थ्य लाभ आदि तो फिर गुरूदेव अपने आपको छिपा लेते हैं। उसके साथ ऐसा व्यवहार होगा कि वह वापस होकर ही रहेगा। यहाँ तो जिसे भक्ति चाहिए, भगवत् प्रेम चाहिये, केवल वही टिक सकता है, ऐसा न होता तो अब तक करोड़ो की भीड होती। यहां तो श्री राधे श्याम की निष्काम भक्ति व नित्य उनकी सेवा माँगने वाले ही टिक सकते है।।ऐसे दयालु कृपालु सहज सनेही गुरूदेव की शरण में रहना अहो भाग्य हमारे।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय
भारत वर्ष के उत्तर प्रदेश प्रान्त में, जिला प्रतापगढ़, तहसील कुण्डा में स्थित मनगढ़ ग्राम चिन्मय दिव्य धाम बन गया। अहो भाग्य हमारे! कि हम जैसों को उनकी अहैतुकी कृपा का प्रसाद मिला।
मनगढ़ ऐसा धाम गोविंद राधे।
जहाँ हरि गुरू बिनु माँगे कृपा दे।।
हमारे गुरूदेव का आध्यात्मिक परिचय तो केवल उनकी कृपा से ही थोडा बहुत जाना जा सकता है। जब किसी के मन में उनके प्रति तीव्र लालसा का उदय होगा वह श्री कृपालु महाप्रभु तक आ ही जाता है या यूँ कहें कि वह स्वयं चलकर उस तक पहुंच जाते हैं। लेकिन मायावश अगर उनसे किसी ने संसार मांग लिया जैसे मान सम्मान, आर्थिक लाभ, रिद्धि सिद्धि, स्वास्थ्य लाभ आदि तो फिर गुरूदेव अपने आपको छिपा लेते हैं। उसके साथ ऐसा व्यवहार होगा कि वह वापस होकर ही रहेगा। यहाँ तो जिसे भक्ति चाहिए, भगवत् प्रेम चाहिये, केवल वही टिक सकता है, ऐसा न होता तो अब तक करोड़ो की भीड होती। यहां तो श्री राधे श्याम की निष्काम भक्ति व नित्य उनकी सेवा माँगने वाले ही टिक सकते है।।ऐसे दयालु कृपालु सहज सनेही गुरूदेव की शरण में रहना अहो भाग्य हमारे।
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय
दिनांक 24.10.64 प्रातःकाल, स्थान ब्रह्माण्ड घाट
लेकिन देखिये उद्धव सरीखे परमहंस के लिये गोपियां कह रही हैं कि तुम कुछ नहीं समझते हो। लेकिन आप लोग दावा करते है कि हम सब समझते हैं।
अभी मैने एक स्फुलिंग छोडी थी कि जो समय पर नहीं आये उसको सत्संग से निकाल दिया है, वे लोग अपने अपने हृदय पर हाथ रखकर सोचें कि क्या उन्होंने इसको अपना परम सौभाग्य समझा ? महाराज जी कितनी ममता रखते हैं, उनका यह दंड शिरोधार्य है, या आपने अपने मन में उससे एतराज किया। हमसे आपको यह मालूम होगा कि आप कहां खडे हैं। किसी को नहीं निकाल रहा हूँ। इस बार माफ कर दिया है, सब को। दो तीन आदमियों के मन में दुर्भावना भी शुरू हो गयी और सोचने लगे, कि अच्छा अब कभी भी महाराज जी के पास नहीं आयेंगे और गडबडी में पड गये।
यहां आपके ब्रज की बात है। रूप गोस्वामी ने एक ग्रन्थ, भक्ति रसामृत सिन्धु लिखा। एक पंडित आया। कहा कि हमको भी सुनाओ। उन्होंने सुना और कहा कि यह बिल्कुल गलत है, उनके चेले भी प्रकाण्ड पंडित थे, यह सुनकर उनके दिल में आग लग गयी। जब पंडित जी रूप गोस्वामी के पास से चले गये तो शिष्य ने उनसे जाकर कहा, कि पंडित जी उसमें क्या गलत था, आइये शास्त्रार्थ कर लीजिये।
पंडित जी हार गये। पंडित जी ने कहा मेरा ऐसा ख्याल था लेकिन वह ठीक था। वह अपने गुरू रूप गोस्वामी के पास गया और यह बात उनको बता दी। गुरू जी मैंने पंडित को धर दबाया। उसने जो गलत बताया था उसको मैनें सिद्ध कर दिया और वह इस बात को मान गया। रूप गोस्वामी ने कहा कि यह तो ठीक है कि वह मान गया लेकिन तुम्हारे अन्दर यह बीमारी एतराज की क्यों भरी हुई है। वह पंडित अपना काम करता है और हम अपना काम करते हैं लेकिन तूने क्या अपने आपको दीन फील किया, क्या तूने साधना को छोड़कर लापरवाही नहीं की है ? तू वृन्दावन में रहने लायक नहीं है। यह हैं रूप गोस्वामी गौरांग महाप्रभु के परिकर। उन्होंने उसे वृन्दावन से बाहर कर दिया और गुनाह कुछ नहीं। भला उसने कौन सा गुनाह किया था.?
इतनी सी बात पर उसका परित्याग कर दिया। वह वृन्दावन से बाहर चला गया और उसने कुछ भी एतराज नहीं किया। लेकिन यहाँ कुछ लोग एतराज कर रहे थे। दो एक आदमी तो कमर कसे बैठे थे, महाराज जी यहाँ से निकालें तो लेकिन मैंने उनसे पहले ही माफी मांग ली। जब आपको साधना करनी नहीं थी, तो घर छोडकर क्यों आये? तुमको तो घंटी बजने से पहले ही आना चाहिए था। मैं देखता हूँ, समय से पहले ही छोटे-छोटे बच्चे कीर्तन करते रहते हैं लेकिन बडे बूढे देख रहे हैं कि अभी महाराज जी कमरे से आये या नहीं?
सफाई देने को सब तैयार हो जाते हैं कि हम निरपराध हैं हां, दो तीन आदमी ऐसे भी हैं जिनके मुंह से गलती से कोई बात निकल गयी थी तो हमको उन्होंने लिखकर दिया कि आज गलती से एक वाक्य मुहँ से निकल गया। लेकिन कुछ लोग बाकायदा बातें करते हैं। लेकिन फील नहीं करते हैं भला ऐसे लोग यहाँ क्यों आते हैं जिनको कोई नियम पालन नहीं करना है और जिनकी जुबान ऐसी तेज है सरस्वती की तरह? अगर आज्ञा का उल्लंघन करना है तो इससे अच्छा तो यह है कि अपने घर चले जाओ। मेरा नाम कृपालु है तो इसका अर्थ बिल्कुल ये न लगा लेना। हां यह मानता हूँ कि यह मेरी कमजोरी है लेकिन फिर भी कोई सीमा तो होती है। जब यहां घर छोड़कर आये ही हो तो क्यों नहीं इन 15 दिनों के 24 घंटे भगवद् विषय में लगा देते हो और अब तो केवल 5, 6 दिन और बचे हैं इसलिए आपस में कोई एक शब्द भी न बोले। और सारा समय साधना में लगाये।
हमारे प्यारे कृपावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय
♻पार्ट 1♻
नाना प्रकार के मजहब, धर्मो आदि के विभिन्न उपासक, साधक, जो उन्हें अपना गुरू, रहवर मानकर साधना करते हैं, उन्हें अपने अनुभवों के आधार पर कोई नानक, कोई ईसा, कोई अल्लाह तो कोई राम, अथवा कृष्ण का अवतार बताता है। बजरंग बली के भक्त उन्हें हनुमान रूप में, शैव लोग उन्हें शिव रूप में, शक्ति की उपासना करने वालों को वे दुर्गा स्वरूप में अनुभूत होते हैं। माधुर्य भक्ति परायण साधक उन्हें श्री राधे रानी का अवतार बताते है। तो कोई उन्हें नदिया में 500 वर्ष पूर्व अवतरित हुए राधावतार श्री मन् गौरांग महाप्रभु का ही पुनः अवतार बताता है। इस प्रकार विभिन्न धर्म, मजहब, आदि के विभिन्न साधकों द्वारा भिन्न भिन्न स्वरूपों में अनुभूत होने वाले अद्वितीय श्री कृपालु महाप्रभु ही मेरे प्राण प्रिय गुरुदेव हों।
पापीजन (वे कितने भी बडे पापी क्यों न हों) जो उनकी शरण में चले जाते हैं,
उनके लिए वे श्री कृपालु महाप्रभु (आवागमन रूपी संसार से) दिव्य धाम तक
पहुंचाने वाली सीढी हैं। इतना ही नहीं, सच्चे हृदय से बिलख बिलख कर
प्रायश्चित के आँसू बहाते हुये आर्तनाद कर जो भी पापात्मा एक बार भी उनके
चरणों में त्राहि माम पाहि माम पुकारते हुये गिर (झुक) जाता है अर्थात उनकी
शरण में आ जाता है, तो श्री कृपालु महाप्रभु उसकी कातर पुकार सहन नहीं कर
पाते, विह्वल होकर न केवल उसे गले ही लगा लेते है, बल्कि उसके हाथ बिककर
अपने आपको ही उसे समर्पित कर देते हैं।
पतितों को प्यार करने वाले, उनके सच्चे उद्धारक ऐसे सच्चे दीन बन्धु अद्वितीय श्री कृपालु महाप्रभु के इन दिव्य गुणों को जानकर भी जो जीव उनकी शरण ग्रहण नहीं करते, वे मेरी दृष्टि में ऐसे परम दुर्भागी (हतभागी ) हैं जिनके प्रति विधाता बाम (उल्टा) हो गया है। परमहंस जो आत्माराम जैसे दुर्लभ पद पर आसीन होने पर भी श्री कृपालु महाप्रभु की कृपा की कातर दृष्टि से बाट जोहते हैं कि वे कृपालु महाप्रभु हम को भी युगल प्रेम रस मदिरा की कुछ बूंदें पिला दें किन्तु करोडों करोड़ परमहंसो में से किसी एक की यह कामना अत्यन्त कठिनता पूर्वक श्री कृपालु महाप्रभु की कृपा से पूर्ण होती है। परमहंसो को भी दुर्लभ ऐसे श्री कृपालु महाप्रभु , श्री राधाकृष्ण भक्ति रस की चाह रखने वालों के लिये न केवल अत्यन्त सुलभ हैं, वरन श्यामा श्याम के निष्काम प्रेम के उन प्यासों के लिये वे कामधेनु के समान हैं अर्थात उन्हें स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग, भावावेश आदि का जी भर स्निग्ध दुग्ध रस पान कराने तथा अन्यान्य विलक्षण लीला व सेवा रस प्रदान करने में सक्षम हैं l ऐसे अद्वितीय श्री कृपालु महाप्रभु ही मेरे (प्राणप्रिय) गुरूदेव हैं।
- एक प्रचारक 1998
क्रमश:
पतितों को प्यार करने वाले, उनके सच्चे उद्धारक ऐसे सच्चे दीन बन्धु अद्वितीय श्री कृपालु महाप्रभु के इन दिव्य गुणों को जानकर भी जो जीव उनकी शरण ग्रहण नहीं करते, वे मेरी दृष्टि में ऐसे परम दुर्भागी (हतभागी ) हैं जिनके प्रति विधाता बाम (उल्टा) हो गया है। परमहंस जो आत्माराम जैसे दुर्लभ पद पर आसीन होने पर भी श्री कृपालु महाप्रभु की कृपा की कातर दृष्टि से बाट जोहते हैं कि वे कृपालु महाप्रभु हम को भी युगल प्रेम रस मदिरा की कुछ बूंदें पिला दें किन्तु करोडों करोड़ परमहंसो में से किसी एक की यह कामना अत्यन्त कठिनता पूर्वक श्री कृपालु महाप्रभु की कृपा से पूर्ण होती है। परमहंसो को भी दुर्लभ ऐसे श्री कृपालु महाप्रभु , श्री राधाकृष्ण भक्ति रस की चाह रखने वालों के लिये न केवल अत्यन्त सुलभ हैं, वरन श्यामा श्याम के निष्काम प्रेम के उन प्यासों के लिये वे कामधेनु के समान हैं अर्थात उन्हें स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग, भावावेश आदि का जी भर स्निग्ध दुग्ध रस पान कराने तथा अन्यान्य विलक्षण लीला व सेवा रस प्रदान करने में सक्षम हैं l ऐसे अद्वितीय श्री कृपालु महाप्रभु ही मेरे (प्राणप्रिय) गुरूदेव हैं।
- एक प्रचारक 1998
क्रमश:
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
♻पार्ट 2 ♻
जिन्होंने मेरा सर्वस्व(यानि मेरा मायिक तन, मन, धन) जबर्दस्ती (छलादि द्वारा) हरण कर लिया। क्योकि अज्ञानता वश मैं इनको अपना मानकर अपना ही समझकर इस ईश्वर को जिसकी ये वस्तुएं वास्तव में हैं, सहर्ष दान नहीं करना चाहता था और उन गुरूदेव कृपालु महाप्रभु की महानता तो देखिये कि मेरे उस तुच्छ सर्वस्व हरण के बदले मुझे अपना सर्वस्व प्रदान कर दिया। यानि अपना दिव्य धाम, दिव्य ज्ञान, दिव्य नित्य किशोर शरीर, और और योगिन्द्रो, मुनीन्द्रों को भी अप्राप्य दिव्य भक्ति। ऐसे अद्वितीय श्री कृपालु महाप्रभु ही मेरे प्राणप्रिय गुरूदेव हैं।
सदा सदा को धन्य हुआ मैं (एक प्रचारक) अब श्री कृपालु महाप्रभु के दास के
दास का दास बनकर रहने की ही एकमात्र तमन्ना रखता हूँ। क्योंकि मैं अपने
मायिक चमड़े (शरीर) व प्राण को (अनन्त अनंत बार भी) आहुति देकर श्री कृपालु
महाप्रभु का अनन्त काल तक ऋणी ही बना रहूँगा। क्योंकि गुरूदेव श्री कृपालु
महाप्रभु द्वारा अनन्त काल के लिये अनन्त दिव्य विभूतियों के दान का
प्रतिदान जीव के किसी भी मायिक अल्पकालिक दान द्वारा संभव ही नहीं है। अतः
मैं अब सच में ही श्री कृपालु महाप्रभु के गुलामों जो अपना जीवन सदा सदा को
उनके चरणों में देकर उनके क्रीत दास बन गये हैं। तथा स्व, सुख, वासना, गंध
लेश शून्य हो, उन्हीं के सुखार्थ उनकी सेवा में अहर्निश तत्पर रहते हैं
उनके गुलाम का गुलाम बनकर रहने की इच्छा रखता हूँ। इस आशा से कि श्री
कृपालु महाप्रभु के गुलामों के गुलाम की अनन्त काल तक गुलामी कर श्री
महाप्रभु को सुख देने से उनका ये कभी न चुकने वाला ऋण शायद कुछ कम हो जाये।
l l एक प्रचारक l l
( सन 1998 )
- मुख्य अंश -
प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय
l l एक प्रचारक l l
( सन 1998 )
- मुख्य अंश -
प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
पार्ट 1
🔆अचल जगन्नाथ जी सचल हो गये🔆
(20 जनवरी से 8 फरवरी, 2006)
श्यामा श्याम धाम, भुवनेश्वर, उडीसा
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
पुनः उडीसा में आनंद की लहर उमड़ पडी जब ये शब्द लोगों के कान में पडे कि साक्षात् आनन्दमूर्ति हमारे श्री कृपालु महाप्रभु 4 जनवरी को भुवनेश्वर पंहुच रहे हैं l सारा उडीसा उमड़ पडा अपने प्राण प्रिय गुरूदेव के स्वागत के लिए, दर्शन के लिये, जैसे ही सायं 6:30 पर हवाई जहाज, हवाई अड्डे, भुवनेश्वर पर उतरा, चारों तरफ से पुष्प वर्षा होने लगी, शंख ध्वनि गूँजने लगी l
उच्च स्वर से जय जयकार के उदघोष ने सबके मन को मोहित कर दिया कि हम भी जगद्गुरु जी के दर्शन पाकर धन्य हो गये। जैसे ही श्यामा श्याम रूप श्री गुरूदेव, श्यामा श्याम धाम पँहुचे, परम अनुराग के मधुर सागर में डूबे सभी साधक विभोर हो नृत्य करने लगे।
गौरांग महाप्रभु की जय। भक्तियोग रसावतार की जय।
राधाकृष्ण के मूर्तिमान स्वरूप हमारे सन्मुख हैं धन्य हैं हम उडीसा वासी। आपकी करूणा का विलास अद्भुत है। गौरांग महाप्रभु के समय हम भी होते l यह अभिलाषा हृदय को व्याकुल करती रहती थी। आज आपको देखकर मानस पटल पर उन्हीं गौरांग महाप्रभु की दिव्य छवि अंकित हो गयी। तुम कितना भी छिपाओ अपने आपको, उडीसा की धरती तुम्हें जानती है, तुम वही हो नदिया बिहारी, तुम वही हो अवध बिहारी, तुम वही हो वृन्दावन बिहारी। जय, जय गुरूदेव, जय गुरूदेव की ध्वनि से वातावरण गूँज गया। सभी साधकों ने अपने अाराध्य गुरूदेव का अभिवादन किया, आरती की और पाद पद्मों में प्रणाम किया और गुरू आदेश से संकीर्तन प्रारम्भ हो गया जो रात्रि 10 बजे तक श्री महाराज जी के प्रचारकों के निर्देशन में चला। प्रातः 3 बजे गुरूदेव सुश्री रासेश्वरी एवं युगलशरण जी के साथ टाँगी के लिये प्रस्थान किया, भक्तों ने अश्रुपूरित नेत्रों से गुरूदेव की विदाई दी। श्री महाराज जी ने अपने भाव विह्वल भक्तों से कहा कि मैं 15 दिन बाद पुनः लौटकर आ रहा हूं तब यहाँ बहुत दिन रहूँगा।
अपने शब्दों के संकल्प के साथ 20 जनवरी 2006 को प्रातः बेला में ही हमारे अकारण करूण महाप्रभु श्यामा श्याम धाम भुवनेश्वर पँहुच गये, सभी साधकों ने भाव विभोर होकर गुरू देव की आरती की, प्रणाम किया l
तत्पश्चात् गुरूदेव की आज्ञा से साधना कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। जिसका प्रभार ब्रज चकोरी जी ने संभाला। साधना के अलावा आधे घंटे सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे, जिसमे उडीसा के बच्चे एवं युवा अपनी नृत्य एवं अभिनय कला से सबका मनोरंजन करते थे। गुरूदेव सबकी सांस्कृतिक प्रतिभा को देखकर बडे प्रसन्न होते और अपने करकमलों से सबको उपहार देते।
श्री कृपालु महाप्रभु की जय
श्यामा श्याम धाम, भुवनेश्वर, उडीसा
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
पुनः उडीसा में आनंद की लहर उमड़ पडी जब ये शब्द लोगों के कान में पडे कि साक्षात् आनन्दमूर्ति हमारे श्री कृपालु महाप्रभु 4 जनवरी को भुवनेश्वर पंहुच रहे हैं l सारा उडीसा उमड़ पडा अपने प्राण प्रिय गुरूदेव के स्वागत के लिए, दर्शन के लिये, जैसे ही सायं 6:30 पर हवाई जहाज, हवाई अड्डे, भुवनेश्वर पर उतरा, चारों तरफ से पुष्प वर्षा होने लगी, शंख ध्वनि गूँजने लगी l
उच्च स्वर से जय जयकार के उदघोष ने सबके मन को मोहित कर दिया कि हम भी जगद्गुरु जी के दर्शन पाकर धन्य हो गये। जैसे ही श्यामा श्याम रूप श्री गुरूदेव, श्यामा श्याम धाम पँहुचे, परम अनुराग के मधुर सागर में डूबे सभी साधक विभोर हो नृत्य करने लगे।
गौरांग महाप्रभु की जय। भक्तियोग रसावतार की जय।
राधाकृष्ण के मूर्तिमान स्वरूप हमारे सन्मुख हैं धन्य हैं हम उडीसा वासी। आपकी करूणा का विलास अद्भुत है। गौरांग महाप्रभु के समय हम भी होते l यह अभिलाषा हृदय को व्याकुल करती रहती थी। आज आपको देखकर मानस पटल पर उन्हीं गौरांग महाप्रभु की दिव्य छवि अंकित हो गयी। तुम कितना भी छिपाओ अपने आपको, उडीसा की धरती तुम्हें जानती है, तुम वही हो नदिया बिहारी, तुम वही हो अवध बिहारी, तुम वही हो वृन्दावन बिहारी। जय, जय गुरूदेव, जय गुरूदेव की ध्वनि से वातावरण गूँज गया। सभी साधकों ने अपने अाराध्य गुरूदेव का अभिवादन किया, आरती की और पाद पद्मों में प्रणाम किया और गुरू आदेश से संकीर्तन प्रारम्भ हो गया जो रात्रि 10 बजे तक श्री महाराज जी के प्रचारकों के निर्देशन में चला। प्रातः 3 बजे गुरूदेव सुश्री रासेश्वरी एवं युगलशरण जी के साथ टाँगी के लिये प्रस्थान किया, भक्तों ने अश्रुपूरित नेत्रों से गुरूदेव की विदाई दी। श्री महाराज जी ने अपने भाव विह्वल भक्तों से कहा कि मैं 15 दिन बाद पुनः लौटकर आ रहा हूं तब यहाँ बहुत दिन रहूँगा।
अपने शब्दों के संकल्प के साथ 20 जनवरी 2006 को प्रातः बेला में ही हमारे अकारण करूण महाप्रभु श्यामा श्याम धाम भुवनेश्वर पँहुच गये, सभी साधकों ने भाव विभोर होकर गुरू देव की आरती की, प्रणाम किया l
तत्पश्चात् गुरूदेव की आज्ञा से साधना कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। जिसका प्रभार ब्रज चकोरी जी ने संभाला। साधना के अलावा आधे घंटे सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे, जिसमे उडीसा के बच्चे एवं युवा अपनी नृत्य एवं अभिनय कला से सबका मनोरंजन करते थे। गुरूदेव सबकी सांस्कृतिक प्रतिभा को देखकर बडे प्रसन्न होते और अपने करकमलों से सबको उपहार देते।
श्री कृपालु महाप्रभु की जय
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
पार्ट 2
पुरी आगमन श्री महाराज जी
29 जनवरी 2006 अरुणोदय हुआ भी नहीं था, पुरी से जगन्नाथ स्वामी ने अपने
सचल रूप को पुरी आने का निमंत्रण दिया, सभी भक्तजन जय जगन्नाथ, जय जगन्नाथ !
इस प्रकार जय घोष करते हुए गुरूदेव के साथ पुरी पँहुचे। आज श्री महाराज जी
के मुखमण्डल पर विशेष आभा थी, प्रभु के अंग प्रत्यंग की शोभा अनूठी ही थी,
रोम रोम से सुधा रस धारा प्रवाहित हो रही थी, कभी हरि बोल, हरि बोल, कभी
राधे राधे जय श्री राधे, कभी हरे कृष्ण हरे कृष्ण की मधुर ध्वनि रन्ध्रों
से जाकर हृदय को युगल प्रेम रस माधुरी में डुबा रही थी। प्रत्येक साधक
अश्रुधारा प्रवाहित करते हुये श्री महाराज जी की दिव्य अनुपम छवि का पान कर
रहे थे। अखिल रसामृत सिन्धु श्याम सुन्दर हैं या सौन्दर्य माधुर्य सार
श्री राधा जी, अथवा दोनों का मिलित अवतार श्री गौरांग महाप्रभु। भक्त
निर्निमेष दृष्टि से देख रहे थे कभी किसी रूप में कभी किसी रूप में।
प्रत्येक अंग ऐसा शोभायमान हो रहा था मानों समस्त महापुरुषों की करूणा श्री महाराज जी के अंगों में घनीभूत हो गयी है या कृपा शक्ति राधारानी स्वयं पुरी में विराजित हैं, हमारी ठकुरानी राधे रानी, हमारो पिय प्यारो मुरली वारो। कुछ समय यह छवि यह भाव तो दूसरी ओर भक्त मंडली भाव विभोर हो नृत्य करने लगी।
महाप्रभु चैतन्य हरि अवतारी l
आपुन भक्ति करें आपु मुरारी ll
कृपालु महाप्रभु अपने परिवार एवं भक्तों के साथ समुद्र के पास पँहुचे तो समुद्र में मानों ज्वार आ गया हो, जो महाभाव हिलोरें भरता हुआ अपने साक्षात् राधाकृष्ण भक्ति के मूर्तिमान स्वरूप भक्तियोग रसावतार कृपालु महाप्रभु के दिव्य पग प्रक्षालन के लिए मचल उठा, वह दृश्य अलौकिक था, भक्तगण कभी समुद्र को देख रहे थे, तो कभी अपने प्रभु को देख रहे थे, जब समुद्र अपनी लहरों के साथ सहज स्नेही साक्षात् मूर्तिमान भगवान् के चरण छू कर लौट गया, तब तो सभी भक्तों की आंखों से आंसू बहने लगे, धन्य है समुद्र, जिसने सहज ही भगवान् को पहचान लिया। समुद्र किनारे बैठकर सभी साधकों ने अपने गुरूदेव के सानिध्य में संकीर्तन किया। श्री महाराज जी ने स्वयं गाकर कीर्तन कराया, नये संकीर्तन की रचना की।
जगद्गुरुत्तम 1008 श्री कृपालु जी महाराज ने अपनी दिव्य वाणी से सभी को अभिभूत कर दिया। सायं 4 बजे सभी ने अपने गुरूदेव के साथ भुवनेश्वर के लिये प्रस्थान किया।
एक दिन प्रभु सभी भक्तों को लेकर नन्दन कानन गये। जहाँ मधुर संकीर्तन में गुरूदेव ने खूब ब्रजरस की वर्षा की। अपनी चंचल मनोहारी छटाओं से सबको मन्त्र मुग्ध कर दिया। सभी भक्तों ने अपने महाराज जी के साथ भोजन प्रसाद पाया।
🌹🌹🌹
भज गौरांग भजु गौरांग भजु गौरांगेर नाम रे।
🌹🌹🌹
प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय
प्रत्येक अंग ऐसा शोभायमान हो रहा था मानों समस्त महापुरुषों की करूणा श्री महाराज जी के अंगों में घनीभूत हो गयी है या कृपा शक्ति राधारानी स्वयं पुरी में विराजित हैं, हमारी ठकुरानी राधे रानी, हमारो पिय प्यारो मुरली वारो। कुछ समय यह छवि यह भाव तो दूसरी ओर भक्त मंडली भाव विभोर हो नृत्य करने लगी।
महाप्रभु चैतन्य हरि अवतारी l
आपुन भक्ति करें आपु मुरारी ll
कृपालु महाप्रभु अपने परिवार एवं भक्तों के साथ समुद्र के पास पँहुचे तो समुद्र में मानों ज्वार आ गया हो, जो महाभाव हिलोरें भरता हुआ अपने साक्षात् राधाकृष्ण भक्ति के मूर्तिमान स्वरूप भक्तियोग रसावतार कृपालु महाप्रभु के दिव्य पग प्रक्षालन के लिए मचल उठा, वह दृश्य अलौकिक था, भक्तगण कभी समुद्र को देख रहे थे, तो कभी अपने प्रभु को देख रहे थे, जब समुद्र अपनी लहरों के साथ सहज स्नेही साक्षात् मूर्तिमान भगवान् के चरण छू कर लौट गया, तब तो सभी भक्तों की आंखों से आंसू बहने लगे, धन्य है समुद्र, जिसने सहज ही भगवान् को पहचान लिया। समुद्र किनारे बैठकर सभी साधकों ने अपने गुरूदेव के सानिध्य में संकीर्तन किया। श्री महाराज जी ने स्वयं गाकर कीर्तन कराया, नये संकीर्तन की रचना की।
जगद्गुरुत्तम 1008 श्री कृपालु जी महाराज ने अपनी दिव्य वाणी से सभी को अभिभूत कर दिया। सायं 4 बजे सभी ने अपने गुरूदेव के साथ भुवनेश्वर के लिये प्रस्थान किया।
एक दिन प्रभु सभी भक्तों को लेकर नन्दन कानन गये। जहाँ मधुर संकीर्तन में गुरूदेव ने खूब ब्रजरस की वर्षा की। अपनी चंचल मनोहारी छटाओं से सबको मन्त्र मुग्ध कर दिया। सभी भक्तों ने अपने महाराज जी के साथ भोजन प्रसाद पाया।
🌹🌹🌹
भज गौरांग भजु गौरांग भजु गौरांगेर नाम रे।
🌹🌹🌹
प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय
सुश्री बृज गोचरी देवी जब 12 वर्ष की बालिका थीं तभी अपने पिता के माध्यम
से इन्हें श्री महाराज जी का प्रथम दर्शन प्राप्त हुआ। उन दिनों श्री
महाराज जी को न तो अपना ध्यान रहता था न तो अपने कपडे, खाने सोने का ध्यान।
वह परिवार में ऐसे घुलमिल गये थे कि इन्हें कभी लगा ही नहीं कि वे
जगद्गुरु हैं। श्री महाराज जी का बच्चों के साथ खेलना, स्वयं चौके में
स्टोर में घुस जाना, ढूँढना, खाना बनाने में सहायता करना आदि अनेक घटनायें
है जो दर्शाती है कि श्री महाराज जी कितना अपनत्व रखते थे। ये अब मनगढ़ वास
किये हैं। श्री महाराज जी इनके घर प्रायः आते जाते रहते थे, किन्तु उन
दिनों भी आते जब परीक्षा होती फिर पढाई कहां हो पाती, परन्तु परीक्षाफल
आश्चर्यजनक रूप से उत्तम होता। इनके साथ की लडकियां कहती गुरु जी पेपर आउट
करा देते हैं।
इनके महाराज जी के प्रति कुछ अनुभव इस प्रकार हैं-
एक बार कालेज से छुट्टी लेकर सत्संग में आयी थी, छुट्टी समाप्ति पर श्री महाराज जी ने एक सप्ताह को और रोक लिया। उनकी आज्ञा लेकर जब ये पुनः पँहुची तो ज्ञात हुआ कि हिन्दू मुसलमान दंगे के कारण कालेज 8 दिनों के लिए बन्द हो गया था।
एक बार कालेज में परीक्षा के दिनों के कारण छुट्टी नहीं मिल पा रही थी l किसी ने कहा पेट दर्द का बहाना बना दो। झूठ बोलने से इन्हें चिढ थी, इसलिए समस्या बनी हुई थी। घर आईं पेट में असहाय पीडा होने लगी छुट्टी लेनी पडी, इस तरह दूसरे दिन ये मनगढ़ पँहुच गयीं।
श्री महाराज जी उत्सवादि में लीलाभिनय करवाते हैं। इन्हें उद्धव लीला में सखि, अन्य लीला में कई बार कृष्ण की भी भूमिका मिलती थी, निर्देशन श्री महाराज जी का होता, जब ये लोग स्टेज पर आते, कोई भी लीलाभिनय होता, श्री महाराज जी उस समय सभी को उन भावों में भावित भी कर देते और वह नाटक नही रह जाता वह वास्तविकता ही हो जाती। उस लीला के पश्चात कभी कभी तो रात्रि भर उसी भाव में रोना गाना ही चलता रहता। सन 1986 में प्रचारक बनने के बाद इनका कहना था कि पतंग जो उँचे आकाश में उड़ रही है वह कमाल उसका नहीं है यह तो उडाने वाले का कमाल है जो डोर को थामें हुये है। मैं यन्त्र हूँ, वह यंत्री हैं, मैं कठपुतली हूं वह सूत्रधार हैं।
जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु की जय
इनके महाराज जी के प्रति कुछ अनुभव इस प्रकार हैं-
एक बार कालेज से छुट्टी लेकर सत्संग में आयी थी, छुट्टी समाप्ति पर श्री महाराज जी ने एक सप्ताह को और रोक लिया। उनकी आज्ञा लेकर जब ये पुनः पँहुची तो ज्ञात हुआ कि हिन्दू मुसलमान दंगे के कारण कालेज 8 दिनों के लिए बन्द हो गया था।
एक बार कालेज में परीक्षा के दिनों के कारण छुट्टी नहीं मिल पा रही थी l किसी ने कहा पेट दर्द का बहाना बना दो। झूठ बोलने से इन्हें चिढ थी, इसलिए समस्या बनी हुई थी। घर आईं पेट में असहाय पीडा होने लगी छुट्टी लेनी पडी, इस तरह दूसरे दिन ये मनगढ़ पँहुच गयीं।
श्री महाराज जी उत्सवादि में लीलाभिनय करवाते हैं। इन्हें उद्धव लीला में सखि, अन्य लीला में कई बार कृष्ण की भी भूमिका मिलती थी, निर्देशन श्री महाराज जी का होता, जब ये लोग स्टेज पर आते, कोई भी लीलाभिनय होता, श्री महाराज जी उस समय सभी को उन भावों में भावित भी कर देते और वह नाटक नही रह जाता वह वास्तविकता ही हो जाती। उस लीला के पश्चात कभी कभी तो रात्रि भर उसी भाव में रोना गाना ही चलता रहता। सन 1986 में प्रचारक बनने के बाद इनका कहना था कि पतंग जो उँचे आकाश में उड़ रही है वह कमाल उसका नहीं है यह तो उडाने वाले का कमाल है जो डोर को थामें हुये है। मैं यन्त्र हूँ, वह यंत्री हैं, मैं कठपुतली हूं वह सूत्रधार हैं।
जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु की जय
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
यह आख्यान अद्भुत है।
उनकेइ परम पवित्र चरित कहँ सुनिये और सुनाइये।
प्रति वर्ष की भाँति 2005 में भी साधना शिविर का आयोजन दशहरे से आरम्भ होकर कार्तिक पूर्णिमा (12 अक्टूबर,2005 से 15 नवम्बर, 2005 )तक हुआ। इस वर्ष का शिविर सद्गुरु सरकार की अनेकानेक नवीन लीलाओं व भक्ति मन्दिर के उद्घाटन समारोह के कारण अत्यन्त अनूठा रहा। आरम्भ में साधना से संबंधित नियमों को बताते हुये गुरुदेव ने, उनके परिपालन का आदेश दिया। श्री महाराज जी ने कहा कि मैं आशावादी हूँ। अगर भगवान् और महापुरुष आशावादी न हों तो वे इस संसार में आयें ही नहीं। यदि कोई विपरीत व्यवहार भी करता है तो भी मैं उसके प्रति आशावादी रहता हूं।
कल अपना सुधार कर लेगा। दिनाँक 16-10-2005 को भक्ति मन्दिर के शीर्ष कलश पर ध्वजारोहण हुआ। इस अवसर पर श्री महाराज जी ने स्वामी श्री प्रकाशानन्द जी की अहर्निश अथक सेवा की प्रशंसा करते हुए साधक जनों से कहा कि आप स्वामी जी की जय बोलिये। गुरूदेव के इस स्वभाव पर साधक जन बलिहार गये। देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन मध्यरात्रि के पश्चात् एक बजे घंटे घडियालों की ध्वनि ने सभी को आश्चर्य चकित कर दिया। गुरूदेव ने कुछ साधकों को आश्रमस्थ सभी कमरों में भेजा और आदेश दिया कि सूप पीटकर व घंटे की ध्वनि के साथ यह घोषणा करें कि माया जा, भगवान आ l इस प्रकार सांसारिक कामना सम्बन्धी एक अत्यन्त प्राचीन परंपरा को गुरूदेव ने भक्ति में परिवर्तित कर दिया।
🍁🍁🍁
मनगढ़ धाम की जय
🍁🍁🍁
भक्ति धाम की जय
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प्यारे प्यारे महाराज जी की जय
उनकेइ परम पवित्र चरित कहँ सुनिये और सुनाइये।
प्रति वर्ष की भाँति 2005 में भी साधना शिविर का आयोजन दशहरे से आरम्भ होकर कार्तिक पूर्णिमा (12 अक्टूबर,2005 से 15 नवम्बर, 2005 )तक हुआ। इस वर्ष का शिविर सद्गुरु सरकार की अनेकानेक नवीन लीलाओं व भक्ति मन्दिर के उद्घाटन समारोह के कारण अत्यन्त अनूठा रहा। आरम्भ में साधना से संबंधित नियमों को बताते हुये गुरुदेव ने, उनके परिपालन का आदेश दिया। श्री महाराज जी ने कहा कि मैं आशावादी हूँ। अगर भगवान् और महापुरुष आशावादी न हों तो वे इस संसार में आयें ही नहीं। यदि कोई विपरीत व्यवहार भी करता है तो भी मैं उसके प्रति आशावादी रहता हूं।
कल अपना सुधार कर लेगा। दिनाँक 16-10-2005 को भक्ति मन्दिर के शीर्ष कलश पर ध्वजारोहण हुआ। इस अवसर पर श्री महाराज जी ने स्वामी श्री प्रकाशानन्द जी की अहर्निश अथक सेवा की प्रशंसा करते हुए साधक जनों से कहा कि आप स्वामी जी की जय बोलिये। गुरूदेव के इस स्वभाव पर साधक जन बलिहार गये। देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन मध्यरात्रि के पश्चात् एक बजे घंटे घडियालों की ध्वनि ने सभी को आश्चर्य चकित कर दिया। गुरूदेव ने कुछ साधकों को आश्रमस्थ सभी कमरों में भेजा और आदेश दिया कि सूप पीटकर व घंटे की ध्वनि के साथ यह घोषणा करें कि माया जा, भगवान आ l इस प्रकार सांसारिक कामना सम्बन्धी एक अत्यन्त प्राचीन परंपरा को गुरूदेव ने भक्ति में परिवर्तित कर दिया।
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मनगढ़ धाम की जय
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भक्ति धाम की जय
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प्यारे प्यारे महाराज जी की जय
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
प्रथम दर्शन श्री महाराज जी का सुश्री बृजेश्वरी देवी की एक घटना इनके समय की
ब्रजेश्वरी देवी का उदगम एक विशिष्ट सुसंस्कृत शिक्षित परिवार में हुआ। माता कृष्णा और जे० पी०माथुर अपनी सौन्दर्य अमिता लाडली का लालन पोषण बडे मनोयोग से कर रहे थे, कि किशोरावस्था में ही इन्हें गुरूदेव मिल गये। 1968 की बात है, श्री महाराज जी उन दिनों देहरादून टाउन हाल में प्रवचन कर रहे थे। इनके माता पिता भी प्रतिदिन प्रवचन सुनने जाया करते थे और आकर प्रवचन की खूब प्रशंसा किया करते थे। इनकी भी लालसा हुई। यह प्रवचन सुनने गयी। श्री महाराज जी को देखा, चिरपरिचित से लगे, कहीं से भी अजनबी नहीं लगे, जैसे बहुत पुराना संबंध हो इनका। इन्हें श्री महाराज जी नील वर्ण के दिखे, नीलमणि की आभा युक्त श्याम सुंदर लगे। इनको श्री महाराज जी के सरल स्वभाव नें बहुत आकर्षित किया। ये प्रवचन क्या सुनती बस निहारती रहती थी। ये इतना प्रभावित हुई कि प्रतिदिन बडे मनोयोग से बेला की एक लम्बी माला बनाकर ले जातीं एक दिन कुछ बिलम्ब से जब ये साइकिल से पँहुची तो श्री महाराज जी ने मंच से इशारा किया कि माला पहना जाओ, जैसे वह भी इनकी प्रतीक्षा किया करते थे।
इनका मन चाहे कि सदा श्री महाराज जी के पास रहें। देहरादून से श्री महाराज जी के जाने के बाद इन्हें बहुत दुख हुआ। फिर भी संपर्क बना रहा और यह पढाई करती रहीं। पढाई पर श्री महाराज जी बहुत ध्यान देते हैं। इसलिए उन्हीं की प्रेरणा से इन्होंने एम-एससी, बी-एड किया वहीं देहरादून में डे बोर्डिंग स्कूल में अध्यापन करने लगीं। 1982 में फिजी में एक भारतीय सत्संगी के प्रयास से उन्हे एक भारतीय स्कूल में पढाने का ऑफर मिला, उन्हीं दिनों इनके पिता बीमार पड़ गये।
भगवन्नाम एवं हरि गुरू कृपा से सभी विघ्न बाधाएं समाप्त हो गयी और फरवरी 1982 में यह फिजी पंहुच गयी वहां जाकर शीघ्र ही भारत आने को उतावली हुई तो श्री महाराज जी ने लिखा, बिटिया थोडा समय अभी बाकी है। तब इन्हें आभास भी नहीं था कि ये प्रचारिका बनेगी। जनवरी 1984 में ये लौट आईं। तब तक संसार की चाकरी से इनका मन उचट चुका था। मँसूरी में इन्हें अनुवाद कार्य की सेवा मिली। श्री महाराज जी को ही पता है कि किससे कब क्या सेवा लेनी होगी। इन्हें प्रचारिका बनाने के लिये इन्हें मनगढ़ भेज दिया गया।
मनगढ़ में श्री गुरू चरणों में बैठकर ये वेद वेदान्त का अध्ययन करने लगीं। गुरू रूप इतना विलक्षण लगा कि ये जान बूझकर कर अध्ययन में लापरवाही करने लगीं। कि देर में विषय तैयार होगा तो देर में मनगढ़ छोडने को कहा जायेगा। परन्तु इन्हें 1985 में सन्यास वस्त्र मिल गये यह अध्ययन का बहाना बना मनगढ़ श्री गुरु चरणों में पडे रहना चाहती थी पर एकाएक इन्हें तखतपुर में प्रवचन देने की गुरू आज्ञा हुई।
इसी संदर्भ में ये बताती हैं कि ये नई नई प्रचारिका बनी थीं। श्री महाराज जी का नवद्वीप का प्रोग्राम बना। श्री महाराज जी कलकत्ता से कार द्वारा नवद्वीप पहले पँहुच गये। गुरूदेव ने इनसे कहा कि तुम ट्रेन से नवद्वीप चली आना। कुछ अन्य सत्संगियो ने मेटाडोर से नवद्वीप जाने का निश्चय किया। उनके अनुरोध पर कि संकीर्तन करते चलेंगे, यह भी उसी में बैठ गयीं। खिडकी के पास यह मजीरा बजा रहीं थीं कि एकाएक गाडी लैम्पपोस्ट से टकराई, यह गेंद की तरह उछलकर सिर के बल बाहर गिरी, पर इन्हें लगा श्री महाराज जी ने इन्हें फूल की तरह उठा लिया। बिल्कुल भी चोट नहीं आयी। बहुत से विचित्र अनुभव हैं इनके। श्री महाराज जी हल्दी वाला दूध बनवा कर बेसब्री से इन सबकी परीक्षा कर रहे थे। वह कृपालु रूप इन्हें आज भी नहीं भूलता। इनको यह भी ज्ञान हुआ कि ट्रेन से जाने का गुरु का निर्देश अकारण नहीं था। वैसे तो गुरू के प्रत्येक आदेश में हमारा हित निहित होता है परंतु हम लोग भला मानते कब हैं।
हमारे अकारण करूण, दीनबंधु, दीनानाथ, श्री कृपालु महाप्रभु की जय
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
श्री महाराज जी तो अपने जन को लेने स्वयं भी चले जाते हैं। सुश्री ब्रज
भास्करी देवी की माता संतों को अपने यहां घर में बुलाया करती थी। श्री
महाराज जी भी वहाँ पँहुच गये। प्रारंभ में सुश्री ब्रज भास्करी जी (तब
किशोरावस्था में) को महाराज जी में कुछ दृष्टिगोचर न हुआ बल्कि उन्होंने
श्री महाराज जी को तंग करना प्रारंभ कर दिया, उनको अपने यहाँ रुकने पर
विरोध प्रकट करने लगी। बिजली पंखा बन्द कर देती थी। किन्तु श्री महाराज जी
को तो अपने जन को ले जाना था वहां से। वहां कई दिनों तक रूकने लगे यहां तक
कि बुखार चढा लिया। जैसा कि सामान्य हिन्दू परिवार में होता है यह दुर्गा
सप्तशती पाठ, व्रत पूजा उपवास आदि करती थी, दुर्गा जी इनकी इष्ट थीं।
किन्तु भक्ति क्या है, इसका आभास तो इन्हें श्री महाराज जी के संपर्क में
आने पर ही हुआ। एक बार जब यह बांके बिहारी जी का दर्शन कर रहीं थी तो
उन्हें साक्षात् अनुभव हुआ कि श्री महाराज जी व बाँके बिहारी एक ही हैं।
इसके बाद विरोध तो लोप ही हो गया l अब तो ये श्री महाराज जी को साक्षात्
भगवान् मानने व जानने लगीं। श्री महाराज जी के बाल सुलभ सरल स्वभाव पर ये
मुग्ध थी। विशेषकर श्री महाराज जी का ठहाका लगाकर हँसना। बहुत पढने के बाद
भी इनको तो हरि गुरु सेवा में ही रूचि थी। जिसके लिये ये विकल रहने लगीं।
1981 दिसम्बर मे इनके मां बाप से श्री महाराज जी ने कहा, यह हरि गुरु की धरोहर थी, अब इसे अपनी सेवा में रखूँगा, और इन्हें वेदादि के अध्ययन के लिए मनगढ़ बुला लिया।
1982 में होली के अवसर पर इनको सन्यास वस्त्र और वास्तविक नाम ब्रज भास्करी मिल गया। ये मनगढ़ में ही रहना चाहती थी। इनको अकेले हांगकांग प्रचार करने के लिए भेज दिया जाता है। वहां सात दिनों तक इन्होंने खाना नहीं खाया। देवी जी शीघ्र श्री महाराज जी के पास लौट जाना चाहती थी।
कृपासागर श्री महाराज जी ने फोन पर इनसे अनुरोध किया। एक भीख दे दो, खाना खा लो, तब जाकर इन्होंने अन्न ग्रहण किया। ऐसे ही एक बार श्री महाराज जी मनगढ़ से कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहे थे, इन्होंने खाना आदि छोड दिया, किंतु उन्हीं दिनों श्री महाराज जी (जब मनगढ़ में नहीं थे) ने इनको विलक्षण अनुभव दिया।
मनगढ़ की प्रत्येक वस्तु चिन्मय दिखती थी सर्वत्र श्याम सुंदर एवं श्री महाराज जी ही दृष्टिगोचर होते थे। तब इन्होंने गोपाल बाबा से दही माँगी। गोपाल बाबा नाचने लगे लाली ने मुझसे दही माँगा, विभोर थे। कि महाराज जी के एक प्रिय जन ने कुछ माँगा। यह गोपाल बाबा की भक्ति देखकर नतमस्तक हो गई। भक्ति क्या होती है इसका आभास इन्हें तब हुआ। उसके बाद तो ये अपनी डिग्री आदि को धिक्कारने लगी।
प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय
1981 दिसम्बर मे इनके मां बाप से श्री महाराज जी ने कहा, यह हरि गुरु की धरोहर थी, अब इसे अपनी सेवा में रखूँगा, और इन्हें वेदादि के अध्ययन के लिए मनगढ़ बुला लिया।
1982 में होली के अवसर पर इनको सन्यास वस्त्र और वास्तविक नाम ब्रज भास्करी मिल गया। ये मनगढ़ में ही रहना चाहती थी। इनको अकेले हांगकांग प्रचार करने के लिए भेज दिया जाता है। वहां सात दिनों तक इन्होंने खाना नहीं खाया। देवी जी शीघ्र श्री महाराज जी के पास लौट जाना चाहती थी।
कृपासागर श्री महाराज जी ने फोन पर इनसे अनुरोध किया। एक भीख दे दो, खाना खा लो, तब जाकर इन्होंने अन्न ग्रहण किया। ऐसे ही एक बार श्री महाराज जी मनगढ़ से कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहे थे, इन्होंने खाना आदि छोड दिया, किंतु उन्हीं दिनों श्री महाराज जी (जब मनगढ़ में नहीं थे) ने इनको विलक्षण अनुभव दिया।
मनगढ़ की प्रत्येक वस्तु चिन्मय दिखती थी सर्वत्र श्याम सुंदर एवं श्री महाराज जी ही दृष्टिगोचर होते थे। तब इन्होंने गोपाल बाबा से दही माँगी। गोपाल बाबा नाचने लगे लाली ने मुझसे दही माँगा, विभोर थे। कि महाराज जी के एक प्रिय जन ने कुछ माँगा। यह गोपाल बाबा की भक्ति देखकर नतमस्तक हो गई। भक्ति क्या होती है इसका आभास इन्हें तब हुआ। उसके बाद तो ये अपनी डिग्री आदि को धिक्कारने लगी।
प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
महाराज जी ने कहा जब वह बनारस से परसों यहां आने लगे तो मेरे लिये वहां से
मगही पान लेती आये। इतना कह महाराज जी वहाँ से आगे बढ गये। यह सुन मैं मन
ही मन बहुत झल्लाया, कैसे सन्त हैं मेरा लड़का बीमार है, इनको अपने पान की
पडी है और फिर ( रे० )अब कैसे साधना में आयेंगी ? पुत्र की चिन्ता में
जैसे तैसे साढे तीन घण्टे बाद बदहवास, एस० पी० बनारस के यहाँ अपने साले के
घर पँहुचा l तो पता चला पुत्र वहां नहीं है। मैं बहुत घबराया l तो क्या
किसी नर्सिंग होम या अस्पताल में है ? घर में ही एस०पी०का एक आॅफिस भी था।
एक इंस्पेक्टर ने बताया, कुछ देर पहले तक तो वो यहीं थे पर अब कहीं फुटबाल खेलने गये हैं, मैं तो क्रोध से बौखला गया, घर के अन्दर जाकर साले से मिलते ही बोला, तुम लोग मुझे साधना भी नहीं करने देते l यह क्या मजाक है ? मुझे ऐसे क्यों बुलवाया, साले ने कहा, भाई साब कोई मजाक नहीं (म०) मेरा पुत्र सचमुच बहुत सीरियस था, हम सब लोग घबडा गये थे, परन्तु सुबह अचानक वह बिस्तर पर से उठ बैठा और हा हा कर हँसने लगा बोला मामा अब मैं बिल्कुल फिट और तंदुरूस्त हूं l मुझे आज फुटबाल खेलना था। मैं फुटबाल खेलने जा रहा हूँ, मेरे लाख समझाने पर भी वह मेरी बात नहीँ सुना और बोला कि जाना है मुझे फुटबॉल खेलने l मैने उससे ये भी कहा कि आप आ रहे होंगे वह माना नहीँ।
यह सुनते ही मुझे श्री महाराज जी का ध्यान हुआ, मैने पूछा, ऐसा कब हुआ ? तो साले ने बताया कि यही कोई नौ बजा होगा मैने तत्काल कनेक्ट (संबंध) किया श्री महाराज जी ने नौ बजे ही मगही पान लाने वाली बात कही थी मृत्यु शैय्या पर लेटा व्यक्ति अचानक उठकर फुटबाल खेलने लगे l ऐसा असम्भव तो हरि गुरू की अहैतुकी कृपा से ही संभव है। मुझे दृढ विश्वास है कि यह कमाल श्री महाराज जी का ही था। अपने आपको महाबुद्धिमान समझने वाला मैं अपनी बुद्धि को कोसने लगा, हाय! हाय ! मुझे गुरू में विश्वास नहीं था, जब श्री महाराज जी ने ये कहा कि परसों ( रे०) के हाथ मगही पान भेज देना उसका सरल अर्थ तो यही था कि घबडाओ नहीं कुछ नहीं होगा। मैं भी कितना मूर्ख और अपराधी हूँ, कि उनके कृपालु प्रकृति को नहीं समझा अपितु दुर्भावना कर बैठा। अब अनुमान से ऐसा लगता है कि जब संत कोई बडा प्रारब्ध, विपत्ति, आदि काटते हैं तो कुछ न कुछ पत्रं, पुष्पं, तोयं, आदि ले लेते हैं। पहले तो मेरे पुत्र को महाराज जी में एक प्रकार की अरूचि थी परन्तु आज ( म०) केवल उन्हीं के हैं।
हमारे प्यारे श्री महाराज जी की जय
एक इंस्पेक्टर ने बताया, कुछ देर पहले तक तो वो यहीं थे पर अब कहीं फुटबाल खेलने गये हैं, मैं तो क्रोध से बौखला गया, घर के अन्दर जाकर साले से मिलते ही बोला, तुम लोग मुझे साधना भी नहीं करने देते l यह क्या मजाक है ? मुझे ऐसे क्यों बुलवाया, साले ने कहा, भाई साब कोई मजाक नहीं (म०) मेरा पुत्र सचमुच बहुत सीरियस था, हम सब लोग घबडा गये थे, परन्तु सुबह अचानक वह बिस्तर पर से उठ बैठा और हा हा कर हँसने लगा बोला मामा अब मैं बिल्कुल फिट और तंदुरूस्त हूं l मुझे आज फुटबाल खेलना था। मैं फुटबाल खेलने जा रहा हूँ, मेरे लाख समझाने पर भी वह मेरी बात नहीँ सुना और बोला कि जाना है मुझे फुटबॉल खेलने l मैने उससे ये भी कहा कि आप आ रहे होंगे वह माना नहीँ।
यह सुनते ही मुझे श्री महाराज जी का ध्यान हुआ, मैने पूछा, ऐसा कब हुआ ? तो साले ने बताया कि यही कोई नौ बजा होगा मैने तत्काल कनेक्ट (संबंध) किया श्री महाराज जी ने नौ बजे ही मगही पान लाने वाली बात कही थी मृत्यु शैय्या पर लेटा व्यक्ति अचानक उठकर फुटबाल खेलने लगे l ऐसा असम्भव तो हरि गुरू की अहैतुकी कृपा से ही संभव है। मुझे दृढ विश्वास है कि यह कमाल श्री महाराज जी का ही था। अपने आपको महाबुद्धिमान समझने वाला मैं अपनी बुद्धि को कोसने लगा, हाय! हाय ! मुझे गुरू में विश्वास नहीं था, जब श्री महाराज जी ने ये कहा कि परसों ( रे०) के हाथ मगही पान भेज देना उसका सरल अर्थ तो यही था कि घबडाओ नहीं कुछ नहीं होगा। मैं भी कितना मूर्ख और अपराधी हूँ, कि उनके कृपालु प्रकृति को नहीं समझा अपितु दुर्भावना कर बैठा। अब अनुमान से ऐसा लगता है कि जब संत कोई बडा प्रारब्ध, विपत्ति, आदि काटते हैं तो कुछ न कुछ पत्रं, पुष्पं, तोयं, आदि ले लेते हैं। पहले तो मेरे पुत्र को महाराज जी में एक प्रकार की अरूचि थी परन्तु आज ( म०) केवल उन्हीं के हैं।
हमारे प्यारे श्री महाराज जी की जय
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
पार्ट 1
मगही पान
श्री महाराज जी आशीर्वाद आदि नहीं देते किन्तु अपने जन का योगक्षेम वहन करते हैं इसी संदर्भ में (रा०प्र०श्री) उन्हीं सज्जन ने एक और घटना का वर्णन किया।
अक्टूबर 1988 के मनगढ़ साधना में जाने के लिये मैने (रे०) से एक समझौता किया बच्चों को अकेले नहीं छोडना है, तुम साधना में पहले जाती हो तो आती ही नहीं, इसलिए पहले 10 दिन मैं साधना करूँगा उसके उपरांत तुम बाकी के 20-25 दिन की साधना करना, उन दिनों मैं कोटा (राजस्थान) में मुख्य अभियंता के रूप में कार्यरत था। साधना के आठवें दिन कुण्डा प्रतापगढ़ के एक पुलिसकर्मी मनगढ़ आये। वे आश्चर्यचकित थे कि उन्हें और वहाँ के पुलिस अधिकारी को इस बात का तनिक भी भान न था कि मनगढ़ में एेसा कोई आश्रम है जहाँ देश विदेश से हजारों लोग साधना करना आते हैं। पता लगा कि वो मुझे ही खोज रहे हैं। उनसे मिलने पर उन्होंने मुझे आश्वस्त करते हुये बतलाया।
एस०पी० बनारस का अभी-अभी मैसेज आया है कि आप का पुत्र बहुत सीरियस बीमार है, आप को तुरन्त बुलाया है। मेरा पुत्र उन दिनों बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (आई ०आई०टी०) में प्रथम वर्ष इंजीनियरिंग कर रहा था। प्रवेश परीक्षा के दिनों में भी वह बहुत बीमार पडा था। मृत्यु के मुख से बचकर निकला था। मैं बहुत घबडा गया।
उसी समय श्री महाराज जी साधना भवन से निकल अपने कक्ष की ओर जा रहे थे। मैंने बढकर उनसे अपनी व्यथा सुनाई। महाराज जी मेरा लड़का बनारस में बहुत बीमार है, महाराज जी पूर्ववत शांत थे l पूछा महाराज जी से तो।
मैं सकपका गया मैं तो उनसे सांत्वना आशीर्वाद आदि की आशा कर रहा था। निराश, गुरू आज्ञा आदि की आवश्यकता को ताक पर रख मैनें अपना संकल्प सुनाया, मैं अभी बनारस जा रहा हूँ, श्री महाराज जी ने टोका तुम तो दस दिन रहने वाले थे। और परसों रे० भी यहां आने वाली है मेरे मुख पर तो ? भाव उदित देख श्री गुरूदेव ने बात को आगे बढाया। रे० भी कोटा से बनारस पँहुचेगी ? मैनें संयत होकर हाँ ! की तो महाराज जी ने कहा, जब वह बनारस से परसों यहाँ आये, तो मेरे लिये वहाँ से मगही पान लेती आये। इतना कह महाराज जी आगे बढ गये।
मै अपनी बुद्धि को कोसने लगा हाय हाय मुझे गुरू में विश्वास नहीं था।
करूणावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय
क्रमशः
मगही पान
श्री महाराज जी आशीर्वाद आदि नहीं देते किन्तु अपने जन का योगक्षेम वहन करते हैं इसी संदर्भ में (रा०प्र०श्री) उन्हीं सज्जन ने एक और घटना का वर्णन किया।
अक्टूबर 1988 के मनगढ़ साधना में जाने के लिये मैने (रे०) से एक समझौता किया बच्चों को अकेले नहीं छोडना है, तुम साधना में पहले जाती हो तो आती ही नहीं, इसलिए पहले 10 दिन मैं साधना करूँगा उसके उपरांत तुम बाकी के 20-25 दिन की साधना करना, उन दिनों मैं कोटा (राजस्थान) में मुख्य अभियंता के रूप में कार्यरत था। साधना के आठवें दिन कुण्डा प्रतापगढ़ के एक पुलिसकर्मी मनगढ़ आये। वे आश्चर्यचकित थे कि उन्हें और वहाँ के पुलिस अधिकारी को इस बात का तनिक भी भान न था कि मनगढ़ में एेसा कोई आश्रम है जहाँ देश विदेश से हजारों लोग साधना करना आते हैं। पता लगा कि वो मुझे ही खोज रहे हैं। उनसे मिलने पर उन्होंने मुझे आश्वस्त करते हुये बतलाया।
एस०पी० बनारस का अभी-अभी मैसेज आया है कि आप का पुत्र बहुत सीरियस बीमार है, आप को तुरन्त बुलाया है। मेरा पुत्र उन दिनों बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (आई ०आई०टी०) में प्रथम वर्ष इंजीनियरिंग कर रहा था। प्रवेश परीक्षा के दिनों में भी वह बहुत बीमार पडा था। मृत्यु के मुख से बचकर निकला था। मैं बहुत घबडा गया।
उसी समय श्री महाराज जी साधना भवन से निकल अपने कक्ष की ओर जा रहे थे। मैंने बढकर उनसे अपनी व्यथा सुनाई। महाराज जी मेरा लड़का बनारस में बहुत बीमार है, महाराज जी पूर्ववत शांत थे l पूछा महाराज जी से तो।
मैं सकपका गया मैं तो उनसे सांत्वना आशीर्वाद आदि की आशा कर रहा था। निराश, गुरू आज्ञा आदि की आवश्यकता को ताक पर रख मैनें अपना संकल्प सुनाया, मैं अभी बनारस जा रहा हूँ, श्री महाराज जी ने टोका तुम तो दस दिन रहने वाले थे। और परसों रे० भी यहां आने वाली है मेरे मुख पर तो ? भाव उदित देख श्री गुरूदेव ने बात को आगे बढाया। रे० भी कोटा से बनारस पँहुचेगी ? मैनें संयत होकर हाँ ! की तो महाराज जी ने कहा, जब वह बनारस से परसों यहाँ आये, तो मेरे लिये वहाँ से मगही पान लेती आये। इतना कह महाराज जी आगे बढ गये।
मै अपनी बुद्धि को कोसने लगा हाय हाय मुझे गुरू में विश्वास नहीं था।
करूणावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय
क्रमशः
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
🍁जब महाराज की के दर्शन किसी दूसरे सत्संगी के यहाँ किये 🍁
पार्ट 2
मैं तो ऐसे सन्त को कभी न बुलाऊँ अपने घर। भगवद भक्ति मार्ग का अपने को महारथी समझने वाला कुछ भी तो नहीं जानता था। बिनु हरि कृपा मिलै नहिं संता। यह विशेष हरि कृपा, भगवद् प्रबल जिज्ञासा एवं पिपासा पर ही प्राप्त होती है। संत दर्शन देने के पहले ही बहुत कुछ हमारा बना चुके होते हैं, परीक्षा लेकर ही दर्शन देते है। दर्शनोपरांन्त तो उनका कृपा कार्य और सघन हो जाता है। माया मोह छुडाने और भगवद् बढाने का कार्य श्री महाराज जी प्रारंभ कर देते हैं। इन सब सिद्धांतो को तो मैं बिल्कुल नहीं जानता था।
पति के मना करने के उपरान्त श्रीमती रे० रोने बिलखने लगीं कि बुला लो। अचानक प्रेरणा हुई। मैं बोला, बुला ही लेते हैं। तुम्हें अब तक कोई गहना आदि नहीं दिया चलो आध्यात्मिक गहना पहना देते है। बुलाने का आग्रह लेकर पँहुचे तो पता चला श्री महाराज जी कल किसी अन्य के घर जा रहे हैं। उसके दूसरे दिन मेरे यहाँ जायेंगे।
प्रचारक ने उन सज्जन के यहाँ आयोजन दिखाने का मुझे निमन्त्रण दिया जिसे देखकर मैं आयोजन को ठीक-ठीक समझ सकूँ। मैं अधिक धन व्यय न हो जाये इससे अब भी आशंकित था। दूसरे दिन विलम्ब से, ढूंढते हुए अनुमान से भोर चार बजे उन सज्जन के घर पँहुचे l घर क्या था एक झोपड़ी थी जो सडक से एक पगडंडी से जुडी थी। पूरी पगडंडी पर चादर और साडि़यां बिछी थी।
पगडंडी के दोनों ओर कतार में स्नेह दीप जल रहे थे। स्वच्छ सुगंधित अल्पना युक्त कमरे में सुन्दर से आसन पर श्री महाराज जी विराजमान थे, कीर्तन चल रहा था, घर की मालकिन साधारण स्वच्छ सुरुचिपूर्ण वस्त्र पहिने थी। कानों में लोहे की बाला (आयरन इयरिंग) उसकी स्थिति दरसा रही थी। उनकी आँखों से अविरल अश्रुपात हो रहा था। वह मुग्ध अश्रु एवं जल से श्री महाराज जी का चरण पखार रहीं थी।पास में प्रसाद सामग्री के साथ श्री महाराज जी को देने के लिए भेटं भी रखी थी। जो भेंट मुझे देनी थी वही भेंट। प्रसाद के रूप में हम लोगों ने बहुत अच्छे व्यंजन पाये। जब श्री महाराज जी चलने लगे। तो दम्पति (दि०ख०)ने आग्रह किया, महाराज जी पुन शीघ्र आइयेगा। पता चला वर्षो पहले से श्री महाराज जी इनके घर आते रहते हैं और यह ऐसे ही अपनी सामर्थ्य से अधिक तन मन धन से सेवा करते हैं। मैं तो भौचक्का रह गया। मैंने तो ऐसी व्यवस्था करने का सोचा भी न था। मेरी आर्थिक स्थिति इनसे कई गुना अधिक थी पर मेरा दिल बहुत छोटा था, देना देना क्या होता है इसकी तो भनक भी न थी। ये सांसारिक दृष्टि से लोगों को निम्न दीन हीन दिख सकते हैं परन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में ये मालामाल हैं त्रिताप से मुक्त हैं हम तो अब भी इन लोगों से बहुत पीछे हैं। बहुत ग्लानि हुई अपने आप पर। उसके दूसरे दिन श्री महाराज जी मेरे यहाँ पधारे तब से हम लोग श्री महाराज जी के हैं।
ऐसे हमारे करूणावतार श्री महाराज जी की जय
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय
पार्ट 2
मैं तो ऐसे सन्त को कभी न बुलाऊँ अपने घर। भगवद भक्ति मार्ग का अपने को महारथी समझने वाला कुछ भी तो नहीं जानता था। बिनु हरि कृपा मिलै नहिं संता। यह विशेष हरि कृपा, भगवद् प्रबल जिज्ञासा एवं पिपासा पर ही प्राप्त होती है। संत दर्शन देने के पहले ही बहुत कुछ हमारा बना चुके होते हैं, परीक्षा लेकर ही दर्शन देते है। दर्शनोपरांन्त तो उनका कृपा कार्य और सघन हो जाता है। माया मोह छुडाने और भगवद् बढाने का कार्य श्री महाराज जी प्रारंभ कर देते हैं। इन सब सिद्धांतो को तो मैं बिल्कुल नहीं जानता था।
पति के मना करने के उपरान्त श्रीमती रे० रोने बिलखने लगीं कि बुला लो। अचानक प्रेरणा हुई। मैं बोला, बुला ही लेते हैं। तुम्हें अब तक कोई गहना आदि नहीं दिया चलो आध्यात्मिक गहना पहना देते है। बुलाने का आग्रह लेकर पँहुचे तो पता चला श्री महाराज जी कल किसी अन्य के घर जा रहे हैं। उसके दूसरे दिन मेरे यहाँ जायेंगे।
प्रचारक ने उन सज्जन के यहाँ आयोजन दिखाने का मुझे निमन्त्रण दिया जिसे देखकर मैं आयोजन को ठीक-ठीक समझ सकूँ। मैं अधिक धन व्यय न हो जाये इससे अब भी आशंकित था। दूसरे दिन विलम्ब से, ढूंढते हुए अनुमान से भोर चार बजे उन सज्जन के घर पँहुचे l घर क्या था एक झोपड़ी थी जो सडक से एक पगडंडी से जुडी थी। पूरी पगडंडी पर चादर और साडि़यां बिछी थी।
पगडंडी के दोनों ओर कतार में स्नेह दीप जल रहे थे। स्वच्छ सुगंधित अल्पना युक्त कमरे में सुन्दर से आसन पर श्री महाराज जी विराजमान थे, कीर्तन चल रहा था, घर की मालकिन साधारण स्वच्छ सुरुचिपूर्ण वस्त्र पहिने थी। कानों में लोहे की बाला (आयरन इयरिंग) उसकी स्थिति दरसा रही थी। उनकी आँखों से अविरल अश्रुपात हो रहा था। वह मुग्ध अश्रु एवं जल से श्री महाराज जी का चरण पखार रहीं थी।पास में प्रसाद सामग्री के साथ श्री महाराज जी को देने के लिए भेटं भी रखी थी। जो भेंट मुझे देनी थी वही भेंट। प्रसाद के रूप में हम लोगों ने बहुत अच्छे व्यंजन पाये। जब श्री महाराज जी चलने लगे। तो दम्पति (दि०ख०)ने आग्रह किया, महाराज जी पुन शीघ्र आइयेगा। पता चला वर्षो पहले से श्री महाराज जी इनके घर आते रहते हैं और यह ऐसे ही अपनी सामर्थ्य से अधिक तन मन धन से सेवा करते हैं। मैं तो भौचक्का रह गया। मैंने तो ऐसी व्यवस्था करने का सोचा भी न था। मेरी आर्थिक स्थिति इनसे कई गुना अधिक थी पर मेरा दिल बहुत छोटा था, देना देना क्या होता है इसकी तो भनक भी न थी। ये सांसारिक दृष्टि से लोगों को निम्न दीन हीन दिख सकते हैं परन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में ये मालामाल हैं त्रिताप से मुक्त हैं हम तो अब भी इन लोगों से बहुत पीछे हैं। बहुत ग्लानि हुई अपने आप पर। उसके दूसरे दिन श्री महाराज जी मेरे यहाँ पधारे तब से हम लोग श्री महाराज जी के हैं।
ऐसे हमारे करूणावतार श्री महाराज जी की जय
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
श्री महाराज जी के लिए तो गुल्लक में प्रेम से रखे चिल्लर का अधिक महत्व है। सत्संग भवन में अपने नाम की पट्टी चाहने वाले सेठों के करोड़ों ठुकरा देते हैं श्री महाराज जी। दीन हीन के घर जाने के लिये तो श्री गुरूदेव लालायित रहते हैं। कानपुर एवं मेरठ के दो भिन्न सतसंगियो के घर दो झाडू लगाने वालियों (रा०व शां०) के घर तो श्री महाराज जी स्वयं आग्रह कर, बिना शर्त गये। मेरठ में तो एक बार गुरू पूर्णिमा भी उसी झाडू लगाने वाली के यहां मनाई गयी। सम्पूर्ण व्यवस्था श्री गुरूदेव ने स्वयं की।
भगवान् दीनबंधु हैं किन्तु न हम अपने आपको पतित पावन मानने को राजी हैं न ही दीन बनना चाहते है। भगवद् मार्ग में दीनता सबसे बडी निधि है।
श्री महाराज जी के यहाँ स्वर्ग सम्राट हो या हो चाकर, तेरे दर पे है दर्जा बराबर,, सबको दीन बन व्याकुल हो आँसू बहाना होगा। गुरू का दीन बन्धुत्व एवं अकारण कृपा स्वरूप सदा प्रकट होता रहता है। इसके अनेक उदाहरण हैं। इसी संदर्भ में एक सज्जन ने (रा०प्र०श्री) ने बताया फरवरी 1987 नागपुर की बात है हमें उन्हीं दिनों श्री महाराज जी का प्रथम दर्शन हुआ था। निष्काम भक्ति का तो हमने नाम ही नहीं सुना था किन्तु घंटो प्रतिदिन पूजा ध्यान आदि वर्षो से कर रहा था। मेरी श्रीमती (रे०) ने इसके कुछ माह पहले , हनुमान जी का 21 शनिवार तक सिन्दूर सेवा व्रत उपरान्त हनुमान जी (बंदर रूप) को सवा मन चना खिलाने का उद्यापन संकल्प किया था। श्रीमती के बार बार अनुरोध को प्राथमिकता न दे मैं टालता चला आ रहा था। सोचा था फरवरी की मासिक राशि में से इसे पूर्ण करूँगा। श्रीमती जी को पूजा ध्यान या संतो में कोई रूचि नहीं थी, वरन् तीव्र विरोध था इनका भरसक प्रयत्न था कि मैं ये सब न करूँ। ये उच्च परिवार की शिक्षित माडर्न ख्याल की थी। मानी जानी साहित्यकार, टी० वी० रेडियो आर्टिस्ट, भारतीय काव्य सभा की अध्यक्ष आदि थी। मैं बाबा लोगों के चंगुल में न फँसू मुझे बचाने समझाने एवं प्रमाण जुटाने की ध्येय से ये मेरे साथ लगी लगी श्री महाराज जी तक पँहुची। इनके व्यवहार से मैं इतना दुखी था कि प्रथम मिलन में जब महाराज जी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं कुछ पूजा ध्यान आदि करता हूँ तो मैने कहा, मैं तो कुछ करता हूँ परन्तु महाराज जी इनको समझाइये। श्री महाराज जी ने मेरी सुन ली, कुछ क्षण मौन रहे पुनः कहा यह तो समझ गयी किन्तु प्रेम गली अति साँकरी वा में द्वेै न समाय। रेलवे के सेकेंड क्लास के डिब्बे में चढ़ना भी कठिन और उतरना भी कठिन। मैं हँसने लगा। मैं रेलवे से सम्बन्धित था, मैं ठीक ठीक आशय समझ न पाया। हरि और माया (मैं, पुत्र, पुत्री) आदि साथ-साथ नहीं रहते।
उसी क्षण से कुछ ऐसा हुआ कि श्रीमती जी भक्ति मार्ग में बहुत तीव्र गति से अग्रसर होने लगी। दूसरे दिन श्री महाराज जी लगभग मिलते ही (रे०) से बन्दर का अभिनय करते, कूदते हुये दाँत किचकिचा कर कहा। कब से कह रही है खिलायेगी, खिलायेगी कि नहीं ? बोल खिलायेगी कि नहीं ? यह तो हक्की बक्की रह गयीं। अचानक सवा मन चने खिलाने की मन्नत याद आयी। इन्होंने सोचा अरे ये तो हनुमान जी हैं ये तो अपना चना माँग रहे हैं।
पुनः श्री महाराज जी ने इन्हें श्रीमती जी को साक्षात् हनुमान जी के रूप में दर्शन दिया। ये हनुमान जी वाला अनुभव मुझे नहीं श्रीमती जी को हुआ। इन्होंने श्री महाराज जी को घर बुलाकर चना खिलाने का संकल्प कर लिया। एक प्रचारक से पता किया तो पता चला, श्री महाराज जी भोर में चरन डालते हैं उनको कुछ भेट भी देनी होती है। भेंट तो एक लीला थी उनके साथ। महाराज जी कब किसके यहां चले जाते हैं। भेंट की बात सुनते ही मैं तो भड़क उठा बोला, संतो को भेंट की क्या आवश्यकता ? मैं तो ऐसे सन्त को कभी न बुलाऊं अपने घर।
जब मुझे महाराज के दर्शन दोबारा किसी सत्संगी के यहाँ हुये............
क्रमशः
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
पार्ट 2
🍁इनके साथ हुई श्री महाराज जी से प्रथम दर्शन की लीला 🍁
एक महिला ने बताया कि स्वामी मुकुंदानन्द जी त्रिदंडी सन्यासी के रूप में बड़ा सा तिलक लगाए, जपमाला फेरते हुये श्री महाराज जी के प्रथम दर्शन हेतु प्रतीक्षारत बैठे हुये थे तो वह भी वहीं थीं। उन्होंने देखा, श्री महाराज जी अपने कक्ष से निकले, इनके निकट गये, चुपचाप इनकी जपमाला और उसकी मंजूषा ली। अपनी जेब में रखी और पुनः भीतर कक्ष में चले गये। अब इन सबका क्या अर्थ था ? क्या बुद्धि प्रधान विवेकी त्रिदंडी संन्यासी को वैधी वैधी भक्ति को अनुराग भक्ति में प्रवेश का निर्देश था या और कुछ ? ये तो गुरू ही जानता है, शिष्य भी अनुभव कर सकता है। हम तो गलत सही का अनुमान ही लगा सकते हैं।
श्री महाराज जी के निर्देशानुसार स्वामी जी उसी वर्ष मनगढ़ साधना प्रोग्राम में आ गये। मनगढ़ शिक्षा ग्रहण करते हुये श्री महाराज जी के अनन्त ज्ञान की झलक मिली। ये श्री महाराज जी का वेद वेदान्त का ही नहीं वरन् सभी धर्मों, पंथो के आप्त ग्रंथों, बाइबिल, कुरान आदि का पूर्ण ज्ञान देख कर चमत्कृत हो उठे। यह सर्वविदित है और सबका अनुभव है कि श्री महाराज जी को किसी ने भी कभी वेद वेदान्त या किसी आप्त ग्रन्थ को पढते नहीं देखा। ऐसा लगता है जैसे वेद की ऋचाएं और सभी आप्त ग्रन्थ हाथ जोडे खडे हैं कि हमारी ओर भी निहार लीजिये। निगमागम सिद्धांतो का विवेचन एवं समन्वय करते हुये आप्त ग्रन्थ से उद्धरण देते देख सरस्वती वृहस्पति भी चमत्कृत हो सकते हैं फिर हम सबकी क्या बिसात।
स्वामी श्री मुकुंदानन्द जी को इस्कॉन के जीवन काल में श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रगाढ़ प्रेम हो गया था। मनगढ़ में शिक्षा ग्रहण करते हुये और उसके बाद भी इन्हें बार बार ऐसा अनुभव हुआ जैसे राधाकृष्ण मिलित श्री चैतन्य महाप्रभु स्वरूप पुनः श्री कृपालु महाप्रभु स्वरूप में अवतरित हुए हों। फिर तो ये पूर्ण शरणागत हो गये l श्री महाराज जी द्वारा प्रदत्त अपना नया नाम श्री मुकुंदानन्द ले श्री महाराज जी के प्रेम रस सिद्धांत के प्रचार सेवा में 1990 से जुटे हैं। इनके शुरूआत के दिनों में प्रचार का कार्य उडीसा था। यह वह प्रदेश है, जहां जगन्नाथपुरी है जो चैतन्य महाप्रभु की लीला स्थली है। यहाँ के लोगों का महाप्रभु के प्रति विशेष अनुराग होना स्वाभाविक ही है। चैतन्य सिद्धांत एवं श्री महाराज जी का प्रेम रस सिद्धांत भी तो एक ही है। ऐसे श्री कृपालु प्रेम रस सिद्धांत का प्रचार करने एवं प्रेम रस मदिरा में डूबने और डुबाने का कुछ और ही रस है। इन्होंने गाँव गाँव जाकर अपनी मण्डली के साथ प्रचार प्रसार कार्य प्रारंभ कर दिया है। वर्तमान में देश विदेश के कोनों कोनों में श्री महाराज जी के तत्व दर्शन का प्रचार प्रसार कर रहे हैं l इनकी निश्चित मान्यता है कि श्री महाराज जी की प्रयोगात्मक साधना पद्धति, कृष्ण भक्ति प्रासंगिक और आज की आवश्यकता है। यही वह दर्शन है जिसकी मानवता को प्रतीक्षा थी।
जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु की जय
प्रेम रस सिद्धांत की जय
🍁इनके साथ हुई श्री महाराज जी से प्रथम दर्शन की लीला 🍁
एक महिला ने बताया कि स्वामी मुकुंदानन्द जी त्रिदंडी सन्यासी के रूप में बड़ा सा तिलक लगाए, जपमाला फेरते हुये श्री महाराज जी के प्रथम दर्शन हेतु प्रतीक्षारत बैठे हुये थे तो वह भी वहीं थीं। उन्होंने देखा, श्री महाराज जी अपने कक्ष से निकले, इनके निकट गये, चुपचाप इनकी जपमाला और उसकी मंजूषा ली। अपनी जेब में रखी और पुनः भीतर कक्ष में चले गये। अब इन सबका क्या अर्थ था ? क्या बुद्धि प्रधान विवेकी त्रिदंडी संन्यासी को वैधी वैधी भक्ति को अनुराग भक्ति में प्रवेश का निर्देश था या और कुछ ? ये तो गुरू ही जानता है, शिष्य भी अनुभव कर सकता है। हम तो गलत सही का अनुमान ही लगा सकते हैं।
श्री महाराज जी के निर्देशानुसार स्वामी जी उसी वर्ष मनगढ़ साधना प्रोग्राम में आ गये। मनगढ़ शिक्षा ग्रहण करते हुये श्री महाराज जी के अनन्त ज्ञान की झलक मिली। ये श्री महाराज जी का वेद वेदान्त का ही नहीं वरन् सभी धर्मों, पंथो के आप्त ग्रंथों, बाइबिल, कुरान आदि का पूर्ण ज्ञान देख कर चमत्कृत हो उठे। यह सर्वविदित है और सबका अनुभव है कि श्री महाराज जी को किसी ने भी कभी वेद वेदान्त या किसी आप्त ग्रन्थ को पढते नहीं देखा। ऐसा लगता है जैसे वेद की ऋचाएं और सभी आप्त ग्रन्थ हाथ जोडे खडे हैं कि हमारी ओर भी निहार लीजिये। निगमागम सिद्धांतो का विवेचन एवं समन्वय करते हुये आप्त ग्रन्थ से उद्धरण देते देख सरस्वती वृहस्पति भी चमत्कृत हो सकते हैं फिर हम सबकी क्या बिसात।
स्वामी श्री मुकुंदानन्द जी को इस्कॉन के जीवन काल में श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रगाढ़ प्रेम हो गया था। मनगढ़ में शिक्षा ग्रहण करते हुये और उसके बाद भी इन्हें बार बार ऐसा अनुभव हुआ जैसे राधाकृष्ण मिलित श्री चैतन्य महाप्रभु स्वरूप पुनः श्री कृपालु महाप्रभु स्वरूप में अवतरित हुए हों। फिर तो ये पूर्ण शरणागत हो गये l श्री महाराज जी द्वारा प्रदत्त अपना नया नाम श्री मुकुंदानन्द ले श्री महाराज जी के प्रेम रस सिद्धांत के प्रचार सेवा में 1990 से जुटे हैं। इनके शुरूआत के दिनों में प्रचार का कार्य उडीसा था। यह वह प्रदेश है, जहां जगन्नाथपुरी है जो चैतन्य महाप्रभु की लीला स्थली है। यहाँ के लोगों का महाप्रभु के प्रति विशेष अनुराग होना स्वाभाविक ही है। चैतन्य सिद्धांत एवं श्री महाराज जी का प्रेम रस सिद्धांत भी तो एक ही है। ऐसे श्री कृपालु प्रेम रस सिद्धांत का प्रचार करने एवं प्रेम रस मदिरा में डूबने और डुबाने का कुछ और ही रस है। इन्होंने गाँव गाँव जाकर अपनी मण्डली के साथ प्रचार प्रसार कार्य प्रारंभ कर दिया है। वर्तमान में देश विदेश के कोनों कोनों में श्री महाराज जी के तत्व दर्शन का प्रचार प्रसार कर रहे हैं l इनकी निश्चित मान्यता है कि श्री महाराज जी की प्रयोगात्मक साधना पद्धति, कृष्ण भक्ति प्रासंगिक और आज की आवश्यकता है। यही वह दर्शन है जिसकी मानवता को प्रतीक्षा थी।
जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु की जय
प्रेम रस सिद्धांत की जय
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
स्वामी श्री मुकुंदानन्द जी को प्रथम दर्शन श्री महाराज जी का
श्री प्रेम रस सिद्धांत का प्यार
पार्ट 1
भारत वर्ष (पंजाब) के एक विशिष्ट घराने में उत्पन्न श्री मुकुंदानन्द जी को जगत में वह सब कुछ प्राप्त था जिसके लिये हम लालायित रहते हैं l इन्होंने विश्वविख्यात इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (IIT) दिल्ली से बी.टेक. करने के उपरान्त देश के शीर्षस्थ इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (कलकत्ता) से एम०बी०ए० की डिग्री प्राप्त की। श्री स्वामी मुकुंदानन्द जी भी टाटा गु्प में एक एक्जीक्यूटिव के पद पर एक वर्ष तक कार्यरत रहे। परन्तु इनका मन कुछ और पाने को व्याकुल था, मायिक उपलब्धियां इन्हें बाँध नहीं पायीं l इनके संस्कार एवं विवेक ने इन्हें सत्य की खोज के लिये प्रेरित किया और कुछ ऐसी परिस्थितियां बनीं कि ये सब कुछ त्याग कर इस्कॉन (International Society of Krishna Consciousness) से जुड गये।( हरे राम हरे कृष्ण) नाम से विख्यात इस संस्था में भी ये शीघ्र विशेष हो गये। इन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया और त्रिदंडी संन्यासी बन गये। इन्होंने पांच वर्षो तक इस्कॉन में सेवा की, जिसमें तीन वर्षों तक तो ये इस्कॉन बाम्बे के अध्यक्ष के रूप में सेवारत थे। संयोगवश इनको प्रेम रस सिद्धांत पुस्तक देखने को मिली। पुस्तक के मुख्य आवरण पृष्ठ पर अंकित श्री महाराज जी की महाभाव मुद्रा की छवि ने इन्हें मन्त्रमुग्ध कर लिया। श्री महाराज जी का दर्शन पाने के लिये इनके मन में तीव्र उत्कंठा हुई, यह व्याकुल हो उठे। अब भला गुरूदेव इनकी पुकार कैसे न सुनते ?
कुछ ही दिनों के अन्तराल में इन्हें सुश्री ब्रज परिकरी देवी का प्रवचन सुनने का सुअवसर, वहीं बाॅम्बे मे प्राप्त हुआ। उनके प्रवचन से ये इतना प्रभावित हुये कि सोचने लगे, हमारी संस्था द्वारा लाखों रूपए का व्यय होता है, बड़े बड़े मन्दिर बनवाये जाते हैं फिर भी हम लोगों को भगवद् मार्ग पर आकर्षित नहीं कर पाते और इन देवी जी को देखो कितना अच्छा प्रचार कर रहीं हैं, अपने विलक्षण प्रवचन और संकीर्तन द्वारा सबका मन मोह ले रही हैं। यदि मैं इनके प्रवचन में झाडू भी लगाऊँ तो मेरी कृष्ण सेवा ज्यादा उच्चतर होगी ( धन्य है ऐसी दीनता को ) l इनकी व्याकुलता और भावना रंग लाई। लगभग तत्काल ही राम नवमी 1989 के अवसर पर बाॅम्बे में इन्हें अपने गुरूदेव के दर्शन हुये। प्रथम मिलन में ही श्री महाराज जी ने इन्हें अपनी सेवा में ले लिया और कहा कि मैं तुम्हें उचित शिक्षा दूँगा। तुम अक्टूबर की साधना में मनगढ़ आ जाओ। इसी संदर्भ में एक छोटी सी किन्तु विचित्र घटना का उल्लेख करना उचित लगता है, जो श्री महाराज जी से जुड़ी हैं।
प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय
क्रमशः
श्री प्रेम रस सिद्धांत का प्यार
पार्ट 1
भारत वर्ष (पंजाब) के एक विशिष्ट घराने में उत्पन्न श्री मुकुंदानन्द जी को जगत में वह सब कुछ प्राप्त था जिसके लिये हम लालायित रहते हैं l इन्होंने विश्वविख्यात इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (IIT) दिल्ली से बी.टेक. करने के उपरान्त देश के शीर्षस्थ इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (कलकत्ता) से एम०बी०ए० की डिग्री प्राप्त की। श्री स्वामी मुकुंदानन्द जी भी टाटा गु्प में एक एक्जीक्यूटिव के पद पर एक वर्ष तक कार्यरत रहे। परन्तु इनका मन कुछ और पाने को व्याकुल था, मायिक उपलब्धियां इन्हें बाँध नहीं पायीं l इनके संस्कार एवं विवेक ने इन्हें सत्य की खोज के लिये प्रेरित किया और कुछ ऐसी परिस्थितियां बनीं कि ये सब कुछ त्याग कर इस्कॉन (International Society of Krishna Consciousness) से जुड गये।( हरे राम हरे कृष्ण) नाम से विख्यात इस संस्था में भी ये शीघ्र विशेष हो गये। इन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया और त्रिदंडी संन्यासी बन गये। इन्होंने पांच वर्षो तक इस्कॉन में सेवा की, जिसमें तीन वर्षों तक तो ये इस्कॉन बाम्बे के अध्यक्ष के रूप में सेवारत थे। संयोगवश इनको प्रेम रस सिद्धांत पुस्तक देखने को मिली। पुस्तक के मुख्य आवरण पृष्ठ पर अंकित श्री महाराज जी की महाभाव मुद्रा की छवि ने इन्हें मन्त्रमुग्ध कर लिया। श्री महाराज जी का दर्शन पाने के लिये इनके मन में तीव्र उत्कंठा हुई, यह व्याकुल हो उठे। अब भला गुरूदेव इनकी पुकार कैसे न सुनते ?
कुछ ही दिनों के अन्तराल में इन्हें सुश्री ब्रज परिकरी देवी का प्रवचन सुनने का सुअवसर, वहीं बाॅम्बे मे प्राप्त हुआ। उनके प्रवचन से ये इतना प्रभावित हुये कि सोचने लगे, हमारी संस्था द्वारा लाखों रूपए का व्यय होता है, बड़े बड़े मन्दिर बनवाये जाते हैं फिर भी हम लोगों को भगवद् मार्ग पर आकर्षित नहीं कर पाते और इन देवी जी को देखो कितना अच्छा प्रचार कर रहीं हैं, अपने विलक्षण प्रवचन और संकीर्तन द्वारा सबका मन मोह ले रही हैं। यदि मैं इनके प्रवचन में झाडू भी लगाऊँ तो मेरी कृष्ण सेवा ज्यादा उच्चतर होगी ( धन्य है ऐसी दीनता को ) l इनकी व्याकुलता और भावना रंग लाई। लगभग तत्काल ही राम नवमी 1989 के अवसर पर बाॅम्बे में इन्हें अपने गुरूदेव के दर्शन हुये। प्रथम मिलन में ही श्री महाराज जी ने इन्हें अपनी सेवा में ले लिया और कहा कि मैं तुम्हें उचित शिक्षा दूँगा। तुम अक्टूबर की साधना में मनगढ़ आ जाओ। इसी संदर्भ में एक छोटी सी किन्तु विचित्र घटना का उल्लेख करना उचित लगता है, जो श्री महाराज जी से जुड़ी हैं।
प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय
क्रमशः
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
करीब 40 साल पहले की बात है। महाराज जी के पुराने घर में एक विग्रह था वो
इस तरह का था जैसे रोड के किनारे मूर्तिकार काली या गोल्डन कलर की मूर्ति
बनाते हैं वही विग्रह था गोल्डन कलर का उसकी सभी पूजा करते थे l महाराज जी
के पुराने घर के कमरे में। उनका हाथ एक निकल गया था। तो उस विग्रह को
महाराज जी के कमरे के बाहर कारनिस पर रख दिया। तो उन्हें एक रेलवे के
सत्संगी उठा लाये एक कपडे में लपेट कर।
अब आठ घंटे के सफर के बाद जब वो घर आये तो सब ने पूछा ये क्या है कपडे के अन्दर। तो उन्होंने बताया कि गंगा में प्रवाहित करने के लिए मैं ले आया क्योकि महाराज जी के कमरे के थे इसलिए श्रद्धा हो रही थी पर खंडित हो गये थे।
रात में घर के सभी लोग सो गये। रात को सपने में कहते हैं वो कृष्ण ! कि तुम्हारे बेटे का हाथ टूट जाता है तो तुम गंगा में फेंक देते हो क्या ? सुबह गंगा में प्रवाहित करने की जगह उनके पापा वो हाथ और विग्रह लेकर मूर्ति कारों के पास जुडवाने पँहुचे तो जब वो हाथ जुड गया तो रात को 2 बजे फिर सपने में उनके पापा से कहते हैं कि मुझे भूख लगी है। उन्होंने हलवा बनाया, जबकि उनकी रसोई जहां सब सोये थे उनको पार करके कमरे के बाहर थी, पर कोई भी जागा नहीं। उन्होंने रात को ही 2 बजे हलवा बनाया और श्री कृष्ण ने खाया भी। वो सारे काम आँसू बहाते हुये करते जा रहे थे और बनाते भी जा रहे थे, और रोते रोते ही खिलाया भी। जब वो एक कण हलवा परिवार के सदस्यों ने पोंछकर चाटा तो बताया उसका स्वाद ही अलग था। इन कृष्ण भगवान के विग्रह को वहीं स्थापित किया था जिस कमरे में महाराज जी रूकते थे l
अब वो तो नहीं रहे जो उनकी सेवा करते थे लेकिन अब जहां हैं, वहां पर इनका शृंगार बदल गया है। उन्होंने इनको नये रूप में में शृंगार किया। ऊपर वही विग्रह है।
श्री मनगढ़ धाम की जय
प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय
अब आठ घंटे के सफर के बाद जब वो घर आये तो सब ने पूछा ये क्या है कपडे के अन्दर। तो उन्होंने बताया कि गंगा में प्रवाहित करने के लिए मैं ले आया क्योकि महाराज जी के कमरे के थे इसलिए श्रद्धा हो रही थी पर खंडित हो गये थे।
रात में घर के सभी लोग सो गये। रात को सपने में कहते हैं वो कृष्ण ! कि तुम्हारे बेटे का हाथ टूट जाता है तो तुम गंगा में फेंक देते हो क्या ? सुबह गंगा में प्रवाहित करने की जगह उनके पापा वो हाथ और विग्रह लेकर मूर्ति कारों के पास जुडवाने पँहुचे तो जब वो हाथ जुड गया तो रात को 2 बजे फिर सपने में उनके पापा से कहते हैं कि मुझे भूख लगी है। उन्होंने हलवा बनाया, जबकि उनकी रसोई जहां सब सोये थे उनको पार करके कमरे के बाहर थी, पर कोई भी जागा नहीं। उन्होंने रात को ही 2 बजे हलवा बनाया और श्री कृष्ण ने खाया भी। वो सारे काम आँसू बहाते हुये करते जा रहे थे और बनाते भी जा रहे थे, और रोते रोते ही खिलाया भी। जब वो एक कण हलवा परिवार के सदस्यों ने पोंछकर चाटा तो बताया उसका स्वाद ही अलग था। इन कृष्ण भगवान के विग्रह को वहीं स्थापित किया था जिस कमरे में महाराज जी रूकते थे l
अब वो तो नहीं रहे जो उनकी सेवा करते थे लेकिन अब जहां हैं, वहां पर इनका शृंगार बदल गया है। उन्होंने इनको नये रूप में में शृंगार किया। ऊपर वही विग्रह है।
श्री मनगढ़ धाम की जय
प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
करीब सन् 2000 की बात है उस समय बरसाने में गुरू पूर्णिमा हो रही थी, भीड
अधिक होती थी। तो एक इंजीनियर थे, वो कभी भी गुरू पूर्णिमा नहीं छोडते थे।
अब गुरू पूर्णिमा आई और उसी दिन बदायूं में मुख्यमंत्री के आने का
प्रोग्राम था l छुट्टी मिलने का कोई मतलब ही नहीं।आॅफिस में कह दिया कि
तुम बार बार छुट्टी मांग रहे हो, तुम्हें मालूम नहीं कि मुख्य मन्त्री का
दौरा है ऐसे समय में छुट्टी नहीं मिल सकती।
वो बार बार सोच रहे थे कि ऐसे में क्या किया जाये। उन्होंने बहुत कोशिश की लेकिन ऐसे समय में छुट्टी नहीं मिली। आखिर उन्होंने कहा चाहे जो हो मुझे गुरू पूर्णिमा पर तो जाना ही है। ऐेसे में उन्होंने एप्लीकेशन दी और बिना मँजूरी के चल दिये, बोले नौकरी रहे चाहे जाये। महाराज जी के पास वहां गुरू पूर्णिमा से एक दिन पहले ये गये थे। तो अगले दिन गुरू पूर्णिमा के दिन इन्होंने सोचा कि पता तो किया जाये कि ऑफिस में क्या रहा, कहीं कुछ हुआ तो नहीँ ऑफिस के लोगों से बात करने पर पता चला कि मुख्यमंत्री के आने का प्रोग्राम आपके जाने के बाद तुरन्त ही कैंसिल हो गया था l
एक बार 8 साल पहले इनकी बेटी का अपेंडिक्स का दर्द उठा। तो काफी जगह दिखाया, आगरा भी दिखाया एडमिट रही फिर कैंसिल हो गया ऑपरेशन। दोबारा फिर डाक्टर ने ऑपरेशन के लिये बोला। चार दिन एडमिट रखने के बाद फ़िर उसने घर भेज दिया कि अब जरूरत नहीं है ऑपरेशन की। उस समय भी महाराज जी का कोई प्रोग्राम था तो जाने के लिए तैयार थे अचानक ऑपरेशन निकल आया। तो बाद में इन्होंने जाने की तैयारी कर ली ये सोचकर कि ऑपरेशन तो डाॅक्टर करेगा या मैं l मुझे तो जाना है महाराज जी के यहाँ और बस डिसीजन लेना हुआ है कि मुझे जाना है और इधर डाॅक्टर ने ग्लूकोज चढा कर और मना कर दिया कि अभी जरूरत नहीं है घर ले जाओ । और 8 साल से अभी तक कुछ भी नहीं हुआ।
महाराज जी कई बार हमारी परीक्षा के लिए कुछ क्षण ऐसे ला देते हैं कि क्या डिसीजन होगा ऐसी घडी में ये जीव कौन सा रास्ता चुनेगा। हरि गुरू का या संसारी रिश्तों का। इस तरह की परिस्थितियाँ तो अधिकांशत : सत्सँगियों के साथ देखी जाती हैं l
इसलिए गुरू की प्रत्येक क्रिया में कृपा है बस कृपा है।
हमारे प्यारे महाराज जी की जय
वो बार बार सोच रहे थे कि ऐसे में क्या किया जाये। उन्होंने बहुत कोशिश की लेकिन ऐसे समय में छुट्टी नहीं मिली। आखिर उन्होंने कहा चाहे जो हो मुझे गुरू पूर्णिमा पर तो जाना ही है। ऐेसे में उन्होंने एप्लीकेशन दी और बिना मँजूरी के चल दिये, बोले नौकरी रहे चाहे जाये। महाराज जी के पास वहां गुरू पूर्णिमा से एक दिन पहले ये गये थे। तो अगले दिन गुरू पूर्णिमा के दिन इन्होंने सोचा कि पता तो किया जाये कि ऑफिस में क्या रहा, कहीं कुछ हुआ तो नहीँ ऑफिस के लोगों से बात करने पर पता चला कि मुख्यमंत्री के आने का प्रोग्राम आपके जाने के बाद तुरन्त ही कैंसिल हो गया था l
एक बार 8 साल पहले इनकी बेटी का अपेंडिक्स का दर्द उठा। तो काफी जगह दिखाया, आगरा भी दिखाया एडमिट रही फिर कैंसिल हो गया ऑपरेशन। दोबारा फिर डाक्टर ने ऑपरेशन के लिये बोला। चार दिन एडमिट रखने के बाद फ़िर उसने घर भेज दिया कि अब जरूरत नहीं है ऑपरेशन की। उस समय भी महाराज जी का कोई प्रोग्राम था तो जाने के लिए तैयार थे अचानक ऑपरेशन निकल आया। तो बाद में इन्होंने जाने की तैयारी कर ली ये सोचकर कि ऑपरेशन तो डाॅक्टर करेगा या मैं l मुझे तो जाना है महाराज जी के यहाँ और बस डिसीजन लेना हुआ है कि मुझे जाना है और इधर डाॅक्टर ने ग्लूकोज चढा कर और मना कर दिया कि अभी जरूरत नहीं है घर ले जाओ । और 8 साल से अभी तक कुछ भी नहीं हुआ।
महाराज जी कई बार हमारी परीक्षा के लिए कुछ क्षण ऐसे ला देते हैं कि क्या डिसीजन होगा ऐसी घडी में ये जीव कौन सा रास्ता चुनेगा। हरि गुरू का या संसारी रिश्तों का। इस तरह की परिस्थितियाँ तो अधिकांशत : सत्सँगियों के साथ देखी जाती हैं l
इसलिए गुरू की प्रत्येक क्रिया में कृपा है बस कृपा है।
हमारे प्यारे महाराज जी की जय
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
🌷सुमिरन कर ले मना, छिन छिन राधा रमना।🌷
महाराज जी की स्वयं रचित बुक छप कर आयी थी। तो महाराज जी ने करूणावश कहा कि मेरी ये बुक सबके पास हो। महाराज जी बोले मैने इसमें समस्त तत्त्व ज्ञान भर दिया है और अपने सामने इतनी भीड में भक्ति भवन में बँटवाई। और बोले कि इसकी कीमत भी कोई नहीं है जिसके पास जितना हो सके पाँच रू० , दस रू० दे दो l छपाई भर के वर्ना ऐसे ही फ्री में ले जाओ। सबको लेनी है फिर मिलेगी नहीं याद करोगे। इतनी इम्पोर्टन्ट है। ये बात महाराज जी माइक से बोले थे और सभी ने ईमानदारी से एक एक पुस्तक ली थी।
श्री महाराज जी ने अनेकों ग्रन्थों की रचना की लेकिन इस कृति को श्री महाराज जी ने अपने सम्मुख वितरण कराया तब किसी की समझ में नहीं आया महाराज जी ऐसे क्यूँ कह रहे हैं। यह तो लोगों को बाद में समझ आया कि श्री महाराज जी ने ऐसा क्यों बोला था l
🌺🌺🌺
एक सत्संगी जो महाराज जी के यहाँ 40 साल पहले जाना ही शुरू हुई थी तो उसके बाद पता नहीं हार्ट प्रॉब्लम के कारण वो मर गयी थी तो बच्चे बहुत छोटे थेl तीनों बच्चे पाँच, छ: साल आठ साल के थे l बच्चे रोने लगे कि मम्मी को क्या हुआ। डॉक्टर आकर चैक करके मृत घोषित कर गया तो सब लोग परेशान हो रहे थे। इसी बीच वो एकदम आँखे खोलकर बोलने लगी तो जो बताया वो तो पर्सनल शब्द है नहीं बता सकते लेकिन विशेष बात यह है कि महाराज जी का चबाया हुआ पान ताजा उनकी मुट्ठी में बन्द था जिसको महाराज जी ने उनको खिलाया था जमीन में बैठकर। लेकिन उसके बाद वो आश्रम वासी हो गयीं क्योंकि संसार वाला शरीर तो तभी समाप्त हो गया था अब तो ये सेवा भक्ति के लिये ही है।
महाराज जी की स्वयं रचित बुक छप कर आयी थी। तो महाराज जी ने करूणावश कहा कि मेरी ये बुक सबके पास हो। महाराज जी बोले मैने इसमें समस्त तत्त्व ज्ञान भर दिया है और अपने सामने इतनी भीड में भक्ति भवन में बँटवाई। और बोले कि इसकी कीमत भी कोई नहीं है जिसके पास जितना हो सके पाँच रू० , दस रू० दे दो l छपाई भर के वर्ना ऐसे ही फ्री में ले जाओ। सबको लेनी है फिर मिलेगी नहीं याद करोगे। इतनी इम्पोर्टन्ट है। ये बात महाराज जी माइक से बोले थे और सभी ने ईमानदारी से एक एक पुस्तक ली थी।
श्री महाराज जी ने अनेकों ग्रन्थों की रचना की लेकिन इस कृति को श्री महाराज जी ने अपने सम्मुख वितरण कराया तब किसी की समझ में नहीं आया महाराज जी ऐसे क्यूँ कह रहे हैं। यह तो लोगों को बाद में समझ आया कि श्री महाराज जी ने ऐसा क्यों बोला था l
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एक सत्संगी जो महाराज जी के यहाँ 40 साल पहले जाना ही शुरू हुई थी तो उसके बाद पता नहीं हार्ट प्रॉब्लम के कारण वो मर गयी थी तो बच्चे बहुत छोटे थेl तीनों बच्चे पाँच, छ: साल आठ साल के थे l बच्चे रोने लगे कि मम्मी को क्या हुआ। डॉक्टर आकर चैक करके मृत घोषित कर गया तो सब लोग परेशान हो रहे थे। इसी बीच वो एकदम आँखे खोलकर बोलने लगी तो जो बताया वो तो पर्सनल शब्द है नहीं बता सकते लेकिन विशेष बात यह है कि महाराज जी का चबाया हुआ पान ताजा उनकी मुट्ठी में बन्द था जिसको महाराज जी ने उनको खिलाया था जमीन में बैठकर। लेकिन उसके बाद वो आश्रम वासी हो गयीं क्योंकि संसार वाला शरीर तो तभी समाप्त हो गया था अब तो ये सेवा भक्ति के लिये ही है।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
ये जो फ्रेम में गोपाल जी हैं इनको महाराज जी ने स्वयं बनाया है l महाराज
जी की ही पेंटिंग की हुई है महू, इन्दौर मध्य प्रदेश में गोपाल मन्दिर में
स्थापित है l गोपाल जी के फ्रेम के ऊपर 100 घडे पानी डाला गया, लेकिन
गोपाल जी की फोटो पर कुछ भी फर्क नहीं पड़ा।
🌺🌺🌺🌺
एक बार महाराज जी लखनऊ में एक सत्सन्गी के घर में पहली बार ट्रेन से आने वाले थे। वो महाराज जी को जब स्टेशन लेने जाते तो प्रोग्राम कैंसिल हो जाता और अगले दिन फिर जाते।
फिर जानकारी मिलती कि महाराज जी उस ट्रेन से नहीँ आ रहें l होता ये था जो इनकी काम वाली थी वो रोज कहती कि हमें भी महाराज जी को लेने के लिए साथ ले चलो l लेकिन ये घर के सब लोग चले जाते और उसे अकेला छोड जाते। तो वो कहती मुझे नहीं ले जाओगे तो देखना महाराज जी नहीं आयेंगे। तीन दिन तक ऐसा ही होता रहा और चौथे दिन जब कामवाली को लेकर गये तो महाराज जी उसी दिन आ गये। महाराज जी सुनकर बहुत हँसे इस बात पर कि उसे छोड़ जाते थे।
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महाराज जी तो मन के आइडिया नोट करते हैं, लगभग सन् 1995 की नये साल की बात है, श्री महाराज जी दावत के शुरू करने के समय सफेद कैप लगाकर श्यामा श्याम धाम वृन्दावन के हाॅल में आये। और जो कैप लगाकर आये वो सफेद रंग की ऐसी थी रोंयें वाली जैसे बुजुर्ग लोग जाडों में लगाते हैं। तो एक सत्संगी बस बोल ही पायी थी कि कैसी बुजुर्गों वाली कैप लगाकर महाराज जी आयें है।
श्यामा श्याम धाम भी नये साल पर छोटा पडता था तो लोग हाॅल के ऊपर बरामदे में रूक जाते थे। वो भी वहीं ऊपर से देखकर बोल पायी थीं तभी महाराज जी ने एक सरदार जी की अगले पल में ही पगडी लगा ली और महाराज जी को देखकर वो सरदार जी तो ऐसे विभोर हो रहे थे कि क्या मिल गया उनको। वो अलग विभोर थीं कि महाराज जी ने एकदम मन की बात नोट कर ली।
ऐसाे है रखवार हमारो
हमारे प्यारे महाराज जी की सदा कल ही जय
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एक बार महाराज जी लखनऊ में एक सत्सन्गी के घर में पहली बार ट्रेन से आने वाले थे। वो महाराज जी को जब स्टेशन लेने जाते तो प्रोग्राम कैंसिल हो जाता और अगले दिन फिर जाते।
फिर जानकारी मिलती कि महाराज जी उस ट्रेन से नहीँ आ रहें l होता ये था जो इनकी काम वाली थी वो रोज कहती कि हमें भी महाराज जी को लेने के लिए साथ ले चलो l लेकिन ये घर के सब लोग चले जाते और उसे अकेला छोड जाते। तो वो कहती मुझे नहीं ले जाओगे तो देखना महाराज जी नहीं आयेंगे। तीन दिन तक ऐसा ही होता रहा और चौथे दिन जब कामवाली को लेकर गये तो महाराज जी उसी दिन आ गये। महाराज जी सुनकर बहुत हँसे इस बात पर कि उसे छोड़ जाते थे।
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महाराज जी तो मन के आइडिया नोट करते हैं, लगभग सन् 1995 की नये साल की बात है, श्री महाराज जी दावत के शुरू करने के समय सफेद कैप लगाकर श्यामा श्याम धाम वृन्दावन के हाॅल में आये। और जो कैप लगाकर आये वो सफेद रंग की ऐसी थी रोंयें वाली जैसे बुजुर्ग लोग जाडों में लगाते हैं। तो एक सत्संगी बस बोल ही पायी थी कि कैसी बुजुर्गों वाली कैप लगाकर महाराज जी आयें है।
श्यामा श्याम धाम भी नये साल पर छोटा पडता था तो लोग हाॅल के ऊपर बरामदे में रूक जाते थे। वो भी वहीं ऊपर से देखकर बोल पायी थीं तभी महाराज जी ने एक सरदार जी की अगले पल में ही पगडी लगा ली और महाराज जी को देखकर वो सरदार जी तो ऐसे विभोर हो रहे थे कि क्या मिल गया उनको। वो अलग विभोर थीं कि महाराज जी ने एकदम मन की बात नोट कर ली।
ऐसाे है रखवार हमारो
हमारे प्यारे महाराज जी की सदा कल ही जय
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
अभी मार्च में कई सतसंगी लोग अयोध्या साधना में गये थे। तो कुछ लोगों ने
आश्रम की तरफ से अयोध्या जाने के लिये नाम लिखाया था और बसों से गये थे l
आश्रम की एक सत्संगी थी l वो अपने खर्च से जा रहीं थीं, वो इसलिए नहीं पहले
जा रही थी, कि महाराज जी का मनगढ़ का तीन दिन का प्रोग्राम छूट रहा था। बस
से जाने वाले चार दिन पहले ही गये थे। तो दीदी ने उनसे पूछा अरे तुम गयीं
नहीं अयोध्या। तो उन्होंने रोकर कहा, कैसी अयोध्या! हमारे जब राम ही
अयोध्या में नहीं गये तो कैसी अयोध्या ! हमारे लिए तो वहीं अयोध्या है जहां
आप और महाराज जी हैं। उन्होंने कहा दीदी जब आप और महाराज जी यहां हैं तो
हम क्या करते जा कर। हम तो आपके साथ ही जायेंगे।
कोई सोच नहीं सकता था ये सीधी सादी महिला इतना अनन्यता भरा उत्तर देंगी।
दीदी उसका उत्तर सुनकर बहुत विभोर हुई I
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गुरू पूर्णिमा पर जुलाई 2016 में इस बार एक सज्जन गये थे। पहले उनके पिता महाराज जी के दर्शन के लिए जाया करते थे। लेकिन इस बार बीमार होने के कारण नहीं जा पा रहे थे। तो उनके पिता ने कहा, कि कोई तो जाओ इतना बडा त्योहार है महाराज जी का l तो उन्होंने लडके को भेज दिया। वहां महाराज जी के आँगन में तीन बजे वाले नित्य क्रम के अनुसार कुछ प्रोग्राम चल रहा था तो तीनों दीदी भी वहीं महाराज जी के आँगन में थीं। तो उस प्रोग्राम में सबने कहा अन्दर चलो वो नहीं जा रहे थे। आखिर अन्त में उन्हें जबरदस्ती ले गये तो वहां बडी दीदी देखकर बोलीं अब आये हो 18 साल बाद महाराज जी से मिलने। अब तक याद नहीं आई थी जब उन्होंने बाहर आकर बताया कि समय पूरे 18 वर्ष का ही गुजर चुका था। और 18 साल बाद वो उम्र के अनुसार किसी की पहचान में नहीं आ रहे थे। अगर वो महाराज जी के आँगन में न जाते तो कैसे उन पर ये कृपा होती कि तुम आओ न आओ हम तुम्हे सदा याद करते हैं।
अपने आँगन में इसीलिए महाराज जी कृपा करने के लिए जबर्दस्ती बुला ही लिया।
ऐसाे है रखवार हमारो
हमारे प्यारे महाराज जी की सदा ही जय I
कोई सोच नहीं सकता था ये सीधी सादी महिला इतना अनन्यता भरा उत्तर देंगी।
दीदी उसका उत्तर सुनकर बहुत विभोर हुई I
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गुरू पूर्णिमा पर जुलाई 2016 में इस बार एक सज्जन गये थे। पहले उनके पिता महाराज जी के दर्शन के लिए जाया करते थे। लेकिन इस बार बीमार होने के कारण नहीं जा पा रहे थे। तो उनके पिता ने कहा, कि कोई तो जाओ इतना बडा त्योहार है महाराज जी का l तो उन्होंने लडके को भेज दिया। वहां महाराज जी के आँगन में तीन बजे वाले नित्य क्रम के अनुसार कुछ प्रोग्राम चल रहा था तो तीनों दीदी भी वहीं महाराज जी के आँगन में थीं। तो उस प्रोग्राम में सबने कहा अन्दर चलो वो नहीं जा रहे थे। आखिर अन्त में उन्हें जबरदस्ती ले गये तो वहां बडी दीदी देखकर बोलीं अब आये हो 18 साल बाद महाराज जी से मिलने। अब तक याद नहीं आई थी जब उन्होंने बाहर आकर बताया कि समय पूरे 18 वर्ष का ही गुजर चुका था। और 18 साल बाद वो उम्र के अनुसार किसी की पहचान में नहीं आ रहे थे। अगर वो महाराज जी के आँगन में न जाते तो कैसे उन पर ये कृपा होती कि तुम आओ न आओ हम तुम्हे सदा याद करते हैं।
अपने आँगन में इसीलिए महाराज जी कृपा करने के लिए जबर्दस्ती बुला ही लिया।
ऐसाे है रखवार हमारो
हमारे प्यारे महाराज जी की सदा ही जय I
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
1984 में महाराज जी का पैर का ऑपरेशन होना था बॉम्बे में। एक डॉक्टर
ढोलकिया जी थे उनको ही ऑपरेशन करना था तो वो प्रायः विदेश में ही ऑपरेशन के
लिये जाया करते थे। जब सत्सँगियोन को ये पता चला कि हमारे महाराज जी का
ऑपरेशन बॉम्बे में होने वाला है तो इसी बीच कई सत्सन्गी बॉम्बे में ऑपरेशन
के समय इकट्ठे होने लगे। सत्सँगियो को ये पता था कि बॉम्बे में ऑपरेशन
कराने में खर्च बहुत ज्यादा आता है और महाराज जी कभी भी पैसा अपने पास
रखते ही नहीं थे उनके पास तो पैसा रहता ही नहीं था। सत्सँगियो के पास भी
इतने पैसे नहीं थे कि महाराज जी के ऑपरेशन के लिये कुछ कर सकें।
एक सत्सन्गी थे गुन्डु जो दक्षिण भारतीय थे। उनका एक होटल था सँताक्रुज में गोकुल के नाम से। वो महाराज जी से बहुत प्रेम करते थे। ये बात सत्सँगियो को पता थी। तो उस होटल में एक सत्सन्गी रीवा मध्य प्रदेश से भी गये थे। उन्होंने बताया कि महाराज जी उन गुन्डु जी को प्यार से गुण्डा कहा करते थे। कई सत्संगी महाराज जी के ऑपरेशन की ख़बर सुनकर उन गुन्डु सत्सन्गी के यहाँ एकत्र हो गये और सभी लोग इस चिन्ता में थे क़ि ऑपरेशन में आने वाला खर्चा कहाँ से पूरा हो पायेगा हम लोगों के पास भी इतना पैसा नहीं है क़ि महाराज जी का इलाज हो सके तो उन गुन्डु सतसंगी ने कहा कि मैं तो रोड का आदमी हूँ मेरा होटल किस काम आयेगा मैं महराज जी के इलाज लिये अपना होटल बेंच दूँगा। आप लोग बिल्कुल भी चिन्ता न करें।
कुछ दिनों बाद जब वो डॉक्टर ढोलकिया जी विदेश से लौट कर आये तो उन्होंने बिना पैसा जमा कराये ही महाराज जी का सफल ऑपरेशन कर दिया और ऑपरेशन की कोई फीस भी नहीं ली।
1990 में महाराज जी रायपुर में एक सतसंगी चौरसिया जी के यहाँ आये हुये थे और उनके यहाँ ही ठहरे हुये थे। तो खाना खाने के बाद जैसे ही विश्राम के लिये रात्रि में लगभग 9 बजे जाने लगे तभी अचानक श्री महाराज जी का पूरा शरीर नीला पड़ गया और बेहोश हो गये । घर के सभी लोग परेशान हो गये और तत्काल ही डॉक्टर को बुलाकर दिखाया गया महाराज जी को। किंतु कोई आराम नहीं हुआ सब लोग परेशान थे। कुछ घंटों के बाद महाराज जी को होश आया तो महाराज जी ने कुछ बुदबुदाया कि गुण्डा गया। कुछ सत्सन्गी वहाँ पर खड़े थे वो गुन्डु सत्सन्गी के बारे में जानते थे कि महाराज जी उनको प्यार से गुण्डा कहते हैं। तत्काल ही गुन्डु के घर को बॉम्बे फोन लगाया और गुन्डु सत्सन्गी के हालचाल के बारे में पता लगाया तो उनकी मिसेज ने बताया क़ि कल दोपहर से अचानक बेहोश हो गये और आज सुबह उनका प्राणांत हो गया।
महाराज जी अपने जनों का योगक्षेम वहन करते हैं इसलिये गुन्डु के मृत्यु के पहले होने वाली असह्य पीड़ा को महाराज जी ने अपने ऊपर ले लिया जिससे कि गुन्डु को मृत्यु के समय कोई कष्ट न होने पाये। इसी वजह से महाराज जी का शरीर नीला पड़ गया था।
ऐसे हैं हमारे सद्गुरु सरकार ।
हमारे प्यारे भक्त वत्सल श्री कृपालु महाप्रभु की जय
एक सत्सन्गी थे गुन्डु जो दक्षिण भारतीय थे। उनका एक होटल था सँताक्रुज में गोकुल के नाम से। वो महाराज जी से बहुत प्रेम करते थे। ये बात सत्सँगियो को पता थी। तो उस होटल में एक सत्सन्गी रीवा मध्य प्रदेश से भी गये थे। उन्होंने बताया कि महाराज जी उन गुन्डु जी को प्यार से गुण्डा कहा करते थे। कई सत्संगी महाराज जी के ऑपरेशन की ख़बर सुनकर उन गुन्डु सत्सन्गी के यहाँ एकत्र हो गये और सभी लोग इस चिन्ता में थे क़ि ऑपरेशन में आने वाला खर्चा कहाँ से पूरा हो पायेगा हम लोगों के पास भी इतना पैसा नहीं है क़ि महाराज जी का इलाज हो सके तो उन गुन्डु सतसंगी ने कहा कि मैं तो रोड का आदमी हूँ मेरा होटल किस काम आयेगा मैं महराज जी के इलाज लिये अपना होटल बेंच दूँगा। आप लोग बिल्कुल भी चिन्ता न करें।
कुछ दिनों बाद जब वो डॉक्टर ढोलकिया जी विदेश से लौट कर आये तो उन्होंने बिना पैसा जमा कराये ही महाराज जी का सफल ऑपरेशन कर दिया और ऑपरेशन की कोई फीस भी नहीं ली।
1990 में महाराज जी रायपुर में एक सतसंगी चौरसिया जी के यहाँ आये हुये थे और उनके यहाँ ही ठहरे हुये थे। तो खाना खाने के बाद जैसे ही विश्राम के लिये रात्रि में लगभग 9 बजे जाने लगे तभी अचानक श्री महाराज जी का पूरा शरीर नीला पड़ गया और बेहोश हो गये । घर के सभी लोग परेशान हो गये और तत्काल ही डॉक्टर को बुलाकर दिखाया गया महाराज जी को। किंतु कोई आराम नहीं हुआ सब लोग परेशान थे। कुछ घंटों के बाद महाराज जी को होश आया तो महाराज जी ने कुछ बुदबुदाया कि गुण्डा गया। कुछ सत्सन्गी वहाँ पर खड़े थे वो गुन्डु सत्सन्गी के बारे में जानते थे कि महाराज जी उनको प्यार से गुण्डा कहते हैं। तत्काल ही गुन्डु के घर को बॉम्बे फोन लगाया और गुन्डु सत्सन्गी के हालचाल के बारे में पता लगाया तो उनकी मिसेज ने बताया क़ि कल दोपहर से अचानक बेहोश हो गये और आज सुबह उनका प्राणांत हो गया।
महाराज जी अपने जनों का योगक्षेम वहन करते हैं इसलिये गुन्डु के मृत्यु के पहले होने वाली असह्य पीड़ा को महाराज जी ने अपने ऊपर ले लिया जिससे कि गुन्डु को मृत्यु के समय कोई कष्ट न होने पाये। इसी वजह से महाराज जी का शरीर नीला पड़ गया था।
ऐसे हैं हमारे सद्गुरु सरकार ।
हमारे प्यारे भक्त वत्सल श्री कृपालु महाप्रभु की जय
महाराज जी हमारे प्रत्येक आइडियाज को नोट करते हैं। एक सत्संगी मेरठ के
चार लोगों के साथ श्री नगर गये तो वहां रात को आठ बजे वो डलझील में शिकारा
हाऊस बोट की तरफ चले तो आसमान में भी काली रात और वहां चारों तरफ पानी बस
दूर एक छोटी सी लाइट जल रही थी। हाऊस बोट झील के उस किनारे और वो लोग इस
किनारे। तो नाव (बोट) बगैरह भी सब बन्द हो चुकी थी उनको झील को क्रास करके
जाना था l किसी तरह से उनको एक बोट मिली तो उसमें बैठ कर उस पार जा रहे थे
कि उन सत्संगी में से एक हार्ट पेशेंट थी, उन्हें बहुत ज्यादा डर लगने लगा
तो उनकी तबियत खराब होने लगी। और जैसे ही उनकी तबियत बिगडी ठीक उसी समय एक
सत्संगी का फोन उनके पास आ गया और एकदम महाराज जी की बातें मनगढ़ की बतानी
शुरू कर दी कि मनगढ़ में आज महाराज जी ने क्या लीला की हैं। तो जब तक फोन
पर बातें हुई महाराज जी की तब तक रास्ता पता ही नहीं लगा कि कब खत्म हो गया
और वो दूसरे किनारे पहुंच गये। यह महाराज जी का ही कमाल था। कि वो जीव की
प्रत्येक क्रिया को नोट करते हैँ।
🌹महाराज जी का दो साल पहले ब्रह्मभोज हुआ था तो बरसाने में भीड़ अधिक होने के कारण कुछ बुजुर्ग लोगों को सत्संग हाल के पीछे इन्तजाम किया गया था। उन्हीं में से एक साधू भी थे तो उनसे बात होने लगी। बातों ही बातों में वो बताने लगे कि वृन्दावन में महाराज जी नें वो रस लुटाया है जिसका शब्दों में बखान नहीं किया जा सकता है। आप लोग तो उस समय पैदा ही नहीं हुये होगे मैं तो उनके संग रहता था कई बार।
उस रस को शब्दों में कौन बयान कर सकता है महाराज जी तो बन्द आँखों से ही न जाने कितना रस पिला देते। अगर आँखे खोलते तो न जाने क्या हो जाता । वो बोले जब महाराज जी राधे नाम बोलते थे अचानक तब तो पता नहीं सब लोग किस रस के वशीभूत हो जाते थे। उस समय लालटेन की रोशनी में रात को कीर्तन होता था। जब कीर्तन बन्द होता था तो लगता था क्या छिन गया। बोले आप लोग तो पता नहीं क्या साधना करके आये हो l जिसको महाराज जी का साथ मिला हो। फ़िर बोले, जिसे उनका सानिध्य मिला फिर उसे क्या पाना शेष रह गया। फिर सब लोग उनसे इसलिए अलग हट गये क्योंकि उनके आँसू आने लगते थे। तो महाराज जी के ब्रह्म भोज में यदि वो कहीं खाना सही ढंग से नहीं खा सके तो अपराध हो जायेगा। वो बताना तो बहुत कुछ चाहते थे लेकिन हम लोगों को लगा कि सेवक सेवा करने की जगह सुख लेने लगे l
हमारे महाराज जैसी कृपा करने वाला कौन अवतार होगा, इतनी कृपा जो लुटा सके।हर पल कृपा, कृपा, कृपा बस कृपा के स्वरूप ही हैं l
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
🌹महाराज जी का दो साल पहले ब्रह्मभोज हुआ था तो बरसाने में भीड़ अधिक होने के कारण कुछ बुजुर्ग लोगों को सत्संग हाल के पीछे इन्तजाम किया गया था। उन्हीं में से एक साधू भी थे तो उनसे बात होने लगी। बातों ही बातों में वो बताने लगे कि वृन्दावन में महाराज जी नें वो रस लुटाया है जिसका शब्दों में बखान नहीं किया जा सकता है। आप लोग तो उस समय पैदा ही नहीं हुये होगे मैं तो उनके संग रहता था कई बार।
उस रस को शब्दों में कौन बयान कर सकता है महाराज जी तो बन्द आँखों से ही न जाने कितना रस पिला देते। अगर आँखे खोलते तो न जाने क्या हो जाता । वो बोले जब महाराज जी राधे नाम बोलते थे अचानक तब तो पता नहीं सब लोग किस रस के वशीभूत हो जाते थे। उस समय लालटेन की रोशनी में रात को कीर्तन होता था। जब कीर्तन बन्द होता था तो लगता था क्या छिन गया। बोले आप लोग तो पता नहीं क्या साधना करके आये हो l जिसको महाराज जी का साथ मिला हो। फ़िर बोले, जिसे उनका सानिध्य मिला फिर उसे क्या पाना शेष रह गया। फिर सब लोग उनसे इसलिए अलग हट गये क्योंकि उनके आँसू आने लगते थे। तो महाराज जी के ब्रह्म भोज में यदि वो कहीं खाना सही ढंग से नहीं खा सके तो अपराध हो जायेगा। वो बताना तो बहुत कुछ चाहते थे लेकिन हम लोगों को लगा कि सेवक सेवा करने की जगह सुख लेने लगे l
हमारे महाराज जैसी कृपा करने वाला कौन अवतार होगा, इतनी कृपा जो लुटा सके।हर पल कृपा, कृपा, कृपा बस कृपा के स्वरूप ही हैं l
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
एक सत्संगी की शिवजी के किसी प्रसिद्ध तीर्थ स्थल पर ड्यूटी कुछ इस प्रकार
थी कि वो एक प्वाइंट से दूसरे प्वाइंट तक तीर्थ यात्रियों को लेकर जाना
होता था। उस दिन भी ये तीर्थयात्रियों को लेकर जाने वाले थे कि बस में चढे
और वापिस उतर गये और पता नहीं क्या हुआ ये वहीं से सीधे मनगढ़ पँहुचे और
मनगढ़ पहुंचने पर पता चला कि उस बस का एक्सीडेंट हुआ वो नीचे खाई में गिर
गयी। इन्होंने बताया कि मुझे तो बस मनगढ़ आने के अलावा कुछ सूझ ही नहीं रहा
था जैसे कोई पकड के मनगढ़ ले आया हो।
जब तीन साल पहले वो गहवर वन गये, तो वहां एक बुजुर्ग पंडित जी थे। तीनों दीदी, प्रचारक दीदी और भी बहुत सत्संगी लोग भी गये थे। कुछ लोग लाइन में लगकर मन्दिर में प्रणाम कर रहे थे और लाइन बहुत लम्बी थी। पाँच छः लोग एक प्रचारक दीदी के साथ उन पण्डित जी के पास खड़े हो गये। तो वो पण्डित जी दीदी लोगो के दर्शन के बाद ही उन पांच छः लोगों को आँसू बहाते हुए महाराज जी के विषय में कुछ बताने लगे। उन्होंने बताया कि महाराज जी इस जंगल में (जो मंदिर के पीछे था) भाव में कई घंटे, कई दिन पडे रहते थे। आगे उन्होंने बताया कि एक बार हमने अपनी आँखों से देखा कि एक कन्या के रूप में स्वयं राधा रानी सिर पर छोटी सी मटकी लेकर श्री महाराज जी को माखन खिलाने आयीं थीं। क्योंकि महाराज जी ने कई दिन से खाना नहीं खाया था। तो वो कन्या ही खाना खिलाकर गयीं थीं। फिर उसके आगे वो रोने लगे। आगे कुछ नहीं बता सके। बस रोकर इतना बोल रहे थे कि महाराज जी ने बडा रस दिया, बडी कृपा की।
मेरे गुरूवर मेरे गिरधर प्यारे।
दोउ एकहि हो न सपनेहुँ न्यारे॥
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय
जब तीन साल पहले वो गहवर वन गये, तो वहां एक बुजुर्ग पंडित जी थे। तीनों दीदी, प्रचारक दीदी और भी बहुत सत्संगी लोग भी गये थे। कुछ लोग लाइन में लगकर मन्दिर में प्रणाम कर रहे थे और लाइन बहुत लम्बी थी। पाँच छः लोग एक प्रचारक दीदी के साथ उन पण्डित जी के पास खड़े हो गये। तो वो पण्डित जी दीदी लोगो के दर्शन के बाद ही उन पांच छः लोगों को आँसू बहाते हुए महाराज जी के विषय में कुछ बताने लगे। उन्होंने बताया कि महाराज जी इस जंगल में (जो मंदिर के पीछे था) भाव में कई घंटे, कई दिन पडे रहते थे। आगे उन्होंने बताया कि एक बार हमने अपनी आँखों से देखा कि एक कन्या के रूप में स्वयं राधा रानी सिर पर छोटी सी मटकी लेकर श्री महाराज जी को माखन खिलाने आयीं थीं। क्योंकि महाराज जी ने कई दिन से खाना नहीं खाया था। तो वो कन्या ही खाना खिलाकर गयीं थीं। फिर उसके आगे वो रोने लगे। आगे कुछ नहीं बता सके। बस रोकर इतना बोल रहे थे कि महाराज जी ने बडा रस दिया, बडी कृपा की।
मेरे गुरूवर मेरे गिरधर प्यारे।
दोउ एकहि हो न सपनेहुँ न्यारे॥
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
श्री महाराज जी के मुख से-
🌻एक बार हम जा रहे थे, नागपुर हवाई जहाज से, तो एनाऊन्स हुआ कि इंजन फेल हो गया है,, तो सब घबरा गये जितने भी पैसेंजर थे। हमारी बगल में बल्लरी बैठी थी, उन्होंने हमको पकडा कि अब तो जहाज गिरेगा ही। मरना ही है तो महाराज जी को पकड़ के मरो। तो वो जहाज लौट आया। दिल्ली में एक इंजीनियर आया देखने मुसलमान।
उसने देखा अन्दर इंजन में जाकर। तो कहता है या खुदा ये लौट कैसे आया। एक इंजन से ही लौट आया।
तो ऐसे ही कोई डरेगा तो हमको पकड लेना बस।
🌻एक सत्संगी महाराज जी के यहाँ मनगढ़ गयीं तो महाराज जी उठ कर जा चुके थे। उनकी ट्रेन लेट होने के कारण महाराज जी के दर्शन नहीं मिले। महाराज जी की गाडी छोटे हाॅल में खडी हुई थी, तो उन्होंने यह सोचकर चूमा कि महाराज जी के चरण पडते हैं इस गाडी मे। महाराज जी की गाड़ी ही सही। और महाराज जी जब बाहर कीर्तन में आये तो कुछ देर रूककर बोले कि जिसे भूख होती है तो वो दूर से आया है तो हमारी गाडी को देखकर ही चूम लेता है कि हमारे महाराज जी के इसमे चरण पडे हैं। और मेरी गोद में बैठकर भी कुछ नहीं मिलता। पास और दूर रहने से कुछ नहीं होता। तब तो किसी की समझ में नहीं आयी यह बात लेकिन बाद में जब उन्होंने सत्संगी को बताया तो पता चला महाराज जी क्यूँ कह रहे हैं।
दीनन रखवार कृपालु सरकार।
हमारे प्यारे महाराज जी की जय।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
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एक सत्संगी जिनके घर पहली बार महाराज जी आए। महाराज जी को बहुत मानते थे। जब महाराज जी उनके यहाँ आये तो महाराज जी के साथ तो कई सत्संगी होते ही थे। तो महाराज जी 3 दिन के लिए आये थे।और कई दिन के लिए रूक गये।
उन्होंने किसी को कुछ महसूस नहीं होने दिया और उधारी में सारा सामान लाते रहे न कोई चेहरे पर शिकन थी। महाराज जी फिर चले गये उनकी सेवा से बडे खुश महाराज जी भी। काफी दिन बाद दुकान वालों ने पैसा माँगना शुरू किया ये कहते मैं दे दूंगा आय का कोई विशेष साधन नहीं था आखिर दुकानदारों के सामने से निकलने पर मजाक बनाते थे, सामान भी देना बन्द कर दिया। उनकी पत्नी भी परेशान होती थी। पत्नी से हमेशा यही कहते थे। परेशान न हों महाराज जी की इस सेवा के लिए ही तो मैं जिन्दा हूँ। ये सेवा का उधार निपट जायेगा मैं इसीलिए रूका हूं। अचानक एक दिन उनका रूपया आया जो कभी अपनी सर्विस के समय में दो, तीन हजार रू० सरकारी तौर जमा हुये थे पोस्ट आॅफिस में । वो पूरी सर्विस के बाद जब आए तो वो बढते रहे, उन्हें खुद भी याद नहीं था कि कोई पैसा है। जब वो पैसा आया वो तो आँखों में आँसू भरकर महाराज जी की कृपा महसूस कर रहे थे। पोस्ट आॅफिस से जब खबर आयी तो उन्होंने साल महीना याद दिलाया कि उस समय का पैसा है फिक्स डिपोजिट है। वो पैसा पूरा उतना ही था जितने में उधार निपटता।
दुकानदारों का करीब 47000 रू० उधार था। पर उन्हें फिर भी याद दिलाने पर भी ये याद नहीं आया कि वो पैसा कब जमा किया और उधार देने के अगले दिन उनको अटैक पडा और वो नहीं रहे। वो सच में महाराज जी की सेवा के लिए ही रूके थे। ऐसे हैं महाराज जी कोई क्या उनकी सेवा करेगा, सेवा अगर देते है तो सेवा कराते भी वही हैं ।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
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यह परमहंस कुटी की लीला है श्री महाराज जी की। यहाँ पर एक परमहंस जी रहते थे। महाराज जी अखण्ड संकीर्तन के लिए एकान्त स्थान ढूंढते थे। ये 1950 की बात है। उन दिनों बरसात के दिन थे। कीर्तन का क्रम नहीं टूटता था। बरसात में भी लोग तख्त के नीचे बैठकर कीर्तन करते थे। और भोजन के नाम पर भीगी हुई अजवायन खाते थे। लोग श्री महाराज जी सहित और नर्मदा का जल पी लेते थे। इसके अलावा कुछ नाश्ता चाय खाना कुछ नहीं और रात दिन कीर्तन होता था यहां पर। उन दिनों नर्मदा जी में बाढ आ गयी और परमहंस जी महाराज जी के पास आये कि आप लोग क्यूँ मरने पर उतारू हैं, हमारी कुटिया ऊंचे स्थान है आप लोग वहां आ जाईये।
श्री महाराज जी ने यह बात नहीं मानी, वहीं पर कीर्तन करते रहे और आगे जाकर श्री नर्मदा के चारों तरफ पानी पानी आ गया।तो महाराज जी वहाँ पर अपने चरण से एक लाइन खींच दी बोले आगे न आना और पानी आगे नहीं आया कीर्तन होता रहा।
फिर महाराज जी कीर्तन समाप्त होने के बाद ऊपर गए और पानी तुरन्त ऊपर तक आ गया और फिर जैसे ही महाराज जी नीचे आये और जल उतर गया कीर्तन खत्म हो गया फिर यह बात इंदौर तक फैल गयी। कि एक छोटे से बाबा जी हैं नर्मदा जी के जल को रोक रखा है। जब दर्शन करने वालों की भीड बढने लगी, तो सात दिन के कीर्तन के बाद महाराज जी यहां से जल्दी से चले गये।
ये स्थल मंडलेश्वर में है राम मन्दिर में जहाँ अभी 2 अक्टूबर को सुश्री धामेश्वरी दीदी ने इन्दौर के सत्सँगियो के साथ पिकनिक कार्यक्रम रखा था।
जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु की जय
भक्त वत्सल गुरूवर की जय।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
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बहुत पुरानी बात है लगभग 35 साल पुरानी। एक सत्संगी जो रेलवे में थे (सु० ल०)। मनगढ गये थे। तो जब ये मनगढ़ से चलने लगे तो महाराज जी ने मना किया कि आज वापिस न जाओ, लेकिन ये नहीं माने, बोले महाराज जी सर्विस के कारण जाना पडेगा और चले आये।
पहले महाराज जी को किसी को रोकना होता था तो पहले तो कहते आज रूक जाओ पर जब कोई नहीं मानता था, तो कहते कि अच्छा दस रू० ले लो । तो भी कई लोग नहीं मानते थे। बाद में उन्हें एहसास होता था कि क्यूँ महाराज जी इतनी जिद कर रहे थे रोकने की।
रास्ते में लखनऊ में आकर वो किसी काम से उतरे या यूँ कहिये महाराज जी ने ऐसी बुद्धि बना दी। और उतरते ही वहाँ उन्हें एक नवयुवक मिले और इस तरह इनसे बात करके भुलावे में डाल दिया वो अपना कोई परिचित समझने लगे। और उस युवक ने पूडी बगैरह प्लेट में लगवाकर उन्हें खिलाने लगे। वो बहुत मना कर रहे थे। लेकिन ऐसी दोस्ती दिखाई कि वो खाने लगे तब तक ट्रेन चल दी। तो वो युवक से कहने लगे कि तुम्हारी बजह से मेरी ट्रेन निकल गयी, मेरा सब सामान ट्रेन में ही रह गया, जबकि उन्होंने कई बार जाने की कोशिश की लेकिन उस युवक ने जाने ही नहीं दिया। पकड लेते थे अरे छोडो, किसी दूसरी ट्रेन से चले जाना। और वो तो ट्रेन को देखते रह गये तब तक एनाऊन्स होने लगा कि जो ट्रेन अभी अभी गयी है उसके तीन डिब्बों में आग लग गयी है और इतने यात्री घायल और मरे हैं। उसी डिब्बे में वो बैठे थे। अब लगे ढूंढने उस युवक को।
वो युवक तो जा चुका था, लेकिन जब इन्होंने उनका रूप स्मरण किया तो लम्बा शरीर, सफेद धोती कुर्ता, मुँह में पान और कौन यारी निभा रहा था। उस समय महाराज जी सफेद कपडे ही पहनते थे और पान भी खाते थे।
उसके बाद वो वहाँ से वापिस मनगढ़ गये। और महाराज जी हँसकर कहते हैं आइये, आइये, आइए , हम तो कह रहे थे न जाओ । और वो रो रहे थे और महाराज जी ऐसे बने हुए थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
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🔅ऐसे प्रभु की तो छाया ही हमारा सौभाग्य है।🔅बोलिये श्री दीनन रखवार की जय।🔅दीन बन्धु सरकार की जय।
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♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
♻♻♻♻♻♻
एक बार एक सरदार जी ट्रक लेकर बरसाना आये कुछ सामान मँगवाया गया था। महाराज जी अपनी चलने वाली चेयर से घूम रहे थे। उसने ट्रक में बैठे ही बैठे दर्शन किया। उसने महाराज जी के बारे में बहुत सुन रखा था कि ये बहुत बडे सन्त है। उसने मन ही मन सोचा कि यदि ये सचमुच ही बडे सन्त हैं तो मेरे ट्रक में मेरे पास आकर बैठें। उसका इतना सोचना था कि महाराज जी चेयर से उठे और उसके पास वाली सीट पर बैठ गये वो इतना खुश हुआ और बोला धन्य है प्रभु सोचा और हो गया।
एक बार एक सत्संगी मनगढ़ गयीं बहुत पूजा पाठ और व्रत रखती थीं करवाचौथ वृहस्पतिवार, बरमावस, अमावस्या वगैरह। श्री महाराज जी को जब पता चला तो महाराज जी ने कहा अरे जब तुझे सागर मिल गया तो छोटी-छोटी नदियों से क्या करना।
महाराज जी जब कहीं जाने को तैयार होते थे तो बहुत पहले पुराने समय में महाराज जी गाडी में जब बैठते थे तो गाय महाराज जी को चारों तरफ से घेर लेती थी कोई गाडी के आगे खडी होती, कोई खिडकी में से मुंह डालकर चाटती थी, कोई आँसू बहाती थी। तो महाराज जी जब उनके ऊपर हाथ फिराते और कहते कि रास्ता छोडो जल्दी आयेंगे तो वो रास्ता छोडती। ऐसे हैं श्री महाराज जी जिन्होंने लता पता को पशु पक्षी सभी को अपना बना लिया।
🍁हमारे प्यारे प्रभु की कृपा अनन्त हैं उनकी लीलाएं अनन्त हैं 🍁
🍁गिरधर तो है प्राण हमारे 🍁
🍁गुरूवर मेरे प्राण पियारे 🍁
🍁अलबेली सरकार की जय
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
♻♻♻♻♻
श्री महाराज जी की कृपा पाकर पशु भी गायन करने लगते हैं --
अमर पाटन (रीवा म0 प्र0) के मास्टर साहब श्री गुरुदेव के सत्संग में 1959 से हैं l अवकाश प्राप्त कर 1989 से मनगढ़ अथवा वृंदावन वास कर रहें हैं l प्रारम्भ के वर्षों में अश्रुपात एवं अपने भावों पर कंट्रौल नहीं कर पाते थे परंतु गुरु कृपा से अब चुपचाप भगवद चिंतन एवं सेवा में मग्न रहते हैं ये कहीं भी रहें।
आवश्यकतानुसार इन्हें गुरु के शब्द एवं निर्देश सुनाई पड़ते थे l यह शास्त्रीय राग में गायन करते हैं l गायन में प्रारम्भ में भिन्न प्रकार के अलाप लेते हैं l
एक बार मनगढ़ कृष्णकुंज में साधकों के बीच बैठे श्री महाराज जी ने आज्ञा दी 'मास्टर साहब कुछ सुनाओ l
मास्टर साहब खड़े हुए और अलाप लगाने लगे-- आ........ आ................ आ.............. आ.... तभी बगल से आवाज़ आई। आ...... आ.......... आ...... सब लोग भौचक्के रह गये और सोचने लगे यह कौन मसख़री कर रहा है l मास्टर साहब ने पुनः अलाप लिया आ..... आ........ आ........... अबकी बार लम्बा अलाप लिया इस बार वैसे ही लंबे आलाप की पुनरावृत्ति हुई l आवाज़ बगल में गौशाला है वहाँ से आ रही थी l पता चला एक भैंस मास्टर साहब के गाने की नकल कर रही है l जब मास्टर साहब आलाप लेना बंद कर दे तो वह भी आलाप लेना बंद कर देती l सभी लोग हँसने लगे, मास्टर साहब जैसे-जैसे लय ताल में अलाप लेते भैंस भी उसी प्रकार अलाप लेती l उस दिन के बाद सात दिनों तक उस भैंस को निकट में बाँध दिया जाता था और मास्टर साहब से श्री महाराज जी अलाप लेने को कहते l प्रतिदिन गायन में भैंस ने मास्टर साहब का साथ दिया l लोग दूर दूर से उस के को देखने और प्रणाम करने आने लगे............।
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श्रीमद सद्गुरु सरकार की जय।
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♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
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एक पति पत्नी जब प्रथम बार महाराज जी के दर्शन करने गये, लगभग 40 साल पुरानी बात है, तो महाराज जी के मिलने से पहले अपने घर में बिराजे राधाकृष्ण के विग्रह को बर्तन माँजने वाली राख (लकडी का जला हुआ पदार्थ) से साफ किया करते थे।
तो जब महाराज जी के पास प्रथम दर्शन करने पँहुचे तो उन्होंने जैसे ही महाराज जी को प्रणाम करने पहुंचे, महाराज जी ने जाते ही उनके पति से कहा कि देख तेरी पत्नी ने मुझे बहुत मांजा है मैं छिल गया। मुझे बडा कष्ट होता था, उनके वहीं आँसू आने लगे तब समझ में आया कि क्या गलती करते थे हम।
उसके बाद तो पूरा परिवार ही तन मन धन से हमेशा के लिए महाराज के शरणागत हो गया।
एक बार इन्हीं के 5 साल के बेटे को कुछ चोर उठा के ले गये घर के सब लोग परेशान थे, बच्चे को लेकर तो जब एक दिन रात के बाद वो घर आया सब लोग परेशान तो थे ही। अगली सुबह पांच बजे के लगभग जब वो घर मे में घुसा तो उसने बताया, कि जो अपने यहाँ फोटो है इन्होंने बचाया इन्होंने लड़ाई लड़ी उन चोरों से और मुझे अपने साथ ले कर आये और दरवाजे की कुण्डी खटखटायी और मुझे छोड़कर चले गये। घर के सभी लोग आँसू बहा रहे थे।
थोडा सा परिचय इनके घर के एक सदस्य का दे रहें हैं। उससे यह पता चलता है कि पुराने समय में ही नहीं महाराज जी की कृपा से आज भी अनन्य भक्त हैं। उनकी सेवा का जो तरीका था वो ये कि वो महाराज जी के सोने के बाद उनकी केवल मानसी सेवा करते थे वो भी चरण दबाने की या कोई और उनको सुख पहुंचाने की। वैसे तो महाराज जी के भक्त कुछ बताने को तैयार ही नहीं होते लेकिन एक बार किसी की नासमझी पर गुस्से में डाटते हुये उनके मुंह से जो निकला वो हम सब के लिये बडा महत्वपूर्ण है साधना में।
उन्होंने कहा जब हम दुखी होंगे, आँसू बहायेंगें तो महाराज जी को नींद कहां आयेगी, वो हमारी पुकार सुनने के लिये सोयेंगे ही नहीं। इसलिए चिन्तन भी उनके सुख के अनुसार होना चाहिए।
अगर सोचा जाये तो महाराज जी इतनी ही बारीकी से भक्ति सभी को कराना चाहते हैं।
हमारे प्यारे श्री महाराज जी की कृपा पर बलिहार बलिहार। हमारी कृपालु सरकार की जय।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
♻♻♻♻♻♻
मनगढ़ में एक पति पत्नी दोनों पहली बार एक प्रचारक दीदी के साथ आये। ये लोग कानपुर में उन देवी जी के प्रवचन में आते थे। तो श्री महाराज जी के दर्शन की इच्छा हुई। ये करीब 6 वर्ष पहले की घटना है और जैसे ही वो महाराज जी के आँगन में महाराज जी को प्रणाम करने पँहुचे तो कीर्तन चल रहा था। सभी सत्संगी ज्यादातर मनगढ़ वासी थे क्योंकि कोई प्रोग्राम नहीं था उस समय।
वो सत्संगी जो महाराज जी के दर्शन करने आये थे, उनको कुछ एहसास हुआ कि जिस ज्योति का ध्यान उन्होंने अपने ध्यान में हमेशा किया वही ज्योति उन्हें महाराज जी के सीने में से निकलती दिखाई दी फिर वो पुरूष महाराज जी से रो रो कर प्रार्थना कर रहे थे।
सभी सत्संगियो के बीच खडे होकर महाराज जी से कह रहे थे कि महाराज जी मुझे आपने इतनी देर में क्यों बुलाया। सबको आपने अपनाया । क्या मैं आपका बच्चा नहीं था। सबसे कहें रो रो कर, आप इन्हें पहचान नहीं रहे ये कौन हैं सब पहचान लो ये कौन हैं, मैने जिस ज्योति का ध्यान उम्र भर किया वो ही मैने इनके अन्दर से निकलते देखी है। सभी के आँसू निकल रहे थे और कीर्तन रूक गया था। और महाराज जी ऐसे हो रहे थे जैसे कुछ जानते ही नहीं।
ऐसे हैं हमारे श्री कृपालु महाप्रभु, जो भक्तों के एक आँसू बहाने पर ही परेशान होने लगते हैं, अहोभाग्य जिनको कृपालु महाप्रभु मिले, और उनसे भी ज्यादा वो सौभाग्यशाली है, जो सदा के लिए केवल और केवल उन्हीं के हो गये।
ऐसी सरकार पर बलिहार बलिहार बलिहार।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
एक वृद्ध सज्जन जो पिछले अनेक वर्षों से, वृंदावन वास कर रहें हैं, हमारे सत्संग में भी आते थे l 9-1-99 को वो श्यामा श्याम धाम आये तो महाराज जी ने स्वयं इनका परिचय दिया । ये वृंदावन के नारद हैं l वृंदावन और उसके आस पास के सभी मंदिरों, आश्रमों, प्रवचनों एवं आयोजनों में जाते रहते हैं l वहाँ भी 'किंतु' 'परंतु' बहुत लगाते थे l हमे आकर सब जगह की रिपोर्ट देते रहते हैं' हम सभी हँस पड़ें और वह सज्जन भी हँस पड़ें l
उन सज्जन ने कुछ प्रश्न पूछे, जो हमारे लिये बहुत सार्थक सिद्ध हुए l
सज्जन ने आग्रह किया, महाराज जी! अभी कुछ दिन पहले तीन शंकरचार्य आए थे, उन्होनें अपने भक्तों के साथ चौरासी कोस की वृंदावन गोवर्धन यात्रा की थी, अब आप भी अपने भक्तों को लेकर चौरासी कोस की परिक्रमा करवाईये l
श्री महाराज जी बोले, हम अपने लोगों को चौरासी ( योनियों ) के चक्कर से मुक्त करवाना चाहते हैं l और आप चाहते हैं ये चौरासी के चक्कर लगावे, हम सबने ठहाका लगाया l
सज्जन माने नहीं और किंतु लगाते हुए पूछा, किंतु स्वामी जी यहाँ सभी चौरासी कोस की परिक्रमा को बहुत महत्व देते हैं l श्री महाराज जी बोले, ठगी है और ठग लोगों का तो यह साधन बन गया है l भोले लोगों को ठगने का l ठीक साधन तो लोग बतलाते नहीं जिस साधन से भगवान से प्रीति बढ़े वही साधन सर्वश्रेष्ठ है। चक्कर लगाने से अच्छा एकांत में संकीर्तन करना व आँसू बहाना है l किसी से पूछो क्या चौरासी कोस की परिक्रमा कर लेने के बाद, उनकी भगवान में प्रेम या निष्ठा बढ़ी ?
सज्जन ने बीच में ही शब्दों को रोक लिया महाराज जी, परिक्रमा के बाद, भेंट आदि के बाद, लोग अपने आप को बहुत कोसते हैं किंतु भगवान कृष्ण ने भी अपने माता पिता को चौरासी कोस की परिक्रमा करवाया था भला क्यों ?
महाराज जी - भगवान से जाकर पूछो मुझसे क्यों पूछते हो ? हम सब हँस पड़े l कुछ क्षण श्री महाराज जी गम्भीर रहे और यह श्लोक बोले
गो कोटि दानं ग्रहणेषु काशी
प्रयाग गंगा युत कल्प वास:।
यज्ञागतं मेरु सुवर्ण दानं
गोविंद नाम्नान कदापि तुल्यम।।
फिर श्री महाराज जी ने इसका भावार्थ किया l
भावार्थ - यदि चंद्रग्रहण के दिन काशी में 1 करोड़ स्वर्ण मढ़ी सींग वाली गउएं दान की जाये, दस हज़ार वर्ष तक कल्प वास किया जाये और इन सब कर्मों के फल को तुला के एक पलड़े में रख दिया जाये और 'गोविंद नाम' को दूसरे पलड़े में रख दिया जाये तो गोविंद नाम भारी पड़ेगा l
कुल मिलाकर आशय ये है -परिक्रमा, तीर्थाटन, दान, यज्ञ, वास आदि का अपना महत्व है परंतु भगवान के नाम सुमिरन के समक्ष यह सब कुछ भी नहीं है l
श्री मद् सद्गुरु सरकार की जय ।
♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
♻♻♻♻♻
[ अध्यात्म संदेश गुरुपूर्णिमा अंक, जुलाई 1998 ]
सुसंस्कृत, विशिष्ट वृद्ध महिला हैं l श्री महाराज जी के सत्संग में लगभग 34 वर्ष से हैं, पति, पुत्र, पुत्री, पूरा परिवार छोड़ श्री गुरुदेव के शरणागत हैं l
मिलते ही प्रसन्न हुईं। जानती है कि हम अध्यात्म संदेश से जुड़े हुए हैं l कहने लगीं 'महेश्वरी' महू, इंदौर में प्रचार कर रही हैं उन्होनें श्री महाराज जी के पुराने अप्रकाशित पद, एकत्रित किया है, उनसे लेकर उन्हें, 'अध्यात्म संदेश' में प्रकाशित करवाओ l मैंने प्रकट करने की हामी भरी तो संतुष्टि हुई l ज्ञातव्य हो कि किशोरावस्था में श्री महाराज जी महू में रहे और वहाँ के लोगों के जिनमें आज भी बहुत लोग हैं उनके विलक्षण अनुभव हैं। श्री महाराज जी के विषय पर पूछने पर कहने लगीं -
शरीर बीमार रहता है, इनके पास रहती हूँ तो ठीक रहती हूँ, मन तो इन्हीं के पास रहता है ।अचानक हम पूछ बैठे कि क्या आप अपने जीवन को सफल मानती हैं, यदि आप को श्री महाराज जी न मिले होते तो क्या होता ?
मेरा तो जीवन ही उन्हीं का है। फिर फफक-फफक कर रोने लगीं l बहुत देर बाद संयत हुईं तो मेरे अनुरोध पर कहने लगीं चलो एक दो बातें बताती हूँ ।
बहुत पुरानी बात है अक्टूबर सन् अड़सठ की बात है, मनगढ़ साधना प्रोग्राम की। मनगढ़ में अक्टूबर नवम्बर में एक माह की क्रियात्मक साधना होती है।
उसके बाद मैं बीमार पड़ गयी, ज्वर जाता ही न था, हल्की हरारत तो सदा बनी रहती थी, शरीर शिथिल पड़ गया था l ऐसी स्थिति दूसरे वर्ष मार्च तक बनी रही l कई दिनों तक नहाया तक नहीं l श्री महाराज जी होली में हमारे यहाँ आए l श्री महाराज जी तकिये का सहारा लिए बैठे हुए थे l उस बीमार अवस्था में, न जाने क्या सूझी कि मैंने श्री महाराज जी पर अबीर गुलाल छोड़ दी l तकिया खराब हो गया l महाराज जी भी सीरियस हो गये l मैं बाथरूम में तकिये का गिलाफ धोने घुस आई कि अनेक लड़कियाँ जो आई थीं, बाथरूम में मेरे पीछे घुस आयीं और मेरे बालों में ढेर सारा अबीर भरने लगीं l सारा सिर सिंदूरी हो गया l बाद में मुझे पता चला की श्री महाराज जी के इशारे पर उन्होनें ऐसा किया था l उन्होनें कहा था, ''इस बदतमीज ने सारा गिलाफ खराब कर दिया इसके सर में खूब अबीर डाल दो l'' उस दिन मजबूरन, खूब मल मल कर सिर धोया, नहाया, पर रंग छूटता ही न था l जैसे तैसे कुछ रंग छूटा l नहाने के बाद शास्त्री नगर (कानपुर) के एक सत्संगी स्त्री ने अपने घर चलने का आग्रह किया क्योंकि श्री महाराज जी शाम को उनके यहाँ जाने वाले थे l वहाँ पहुँचने पर शरीर में एकदम फुर्ती आ गयी, ज्वर गायब हो गया l मैंने स्वयं श्री महाराज जी के लिए भोजन बनाया l वहाँ (शास्त्री नगर) से स्वरूप नगर जोकि दूर है, रिक्शा न मिलने पर पैदल गयी l वहाँ श्री महाराज जी ने कीर्तन रखा था l उसके बाद तो मैं बहुत दिन तक बीमार नहीं पड़ी-यह सब इन्ही की कृपा है और आज भी यह कृपा बनी हुई है l
प्यारे प्यारे महाराज जी की जय ।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
♻♻♻♻♻
सन् 1990 की बात है श्री महाराज जी मुजफ्फरनगर सरला आंटी जी के यहाँ ठहरे हुए थे तो श्री महाराज जी ने कहा कि आज मैं त्यागी तेरे घर आऊंगा। महाराज जी पहली बार हमारे घर आये थे तो हमने पूछा, महाराज जी क्या क्या करना है। महाराज जी ने कहा कुछ खास नहीं, जो हो कर लेना महाराज जी सुबह चार बजे आयेंगे, और यह कहकर महाराज जी अपने कमरे में चले गये। हमने घर जाकर तैयारी शुरू कर दी घर में सफाई की यहां तक कि मोहल्ले की गली भी साफ कर दी, कि प्रभु इस रास्ते से आयेंगे। महाराज जी ढाई बजे (2-30) उठे और बोले कौन त्यागी का घर जानता है, माया जी बोली मैं जानती हूँ बिमला जी बोली मैं भी जानती हूं और मंजू और रीता जी बोली हम भी जानते हैं और सब महाराज जी की गाडी में बैठकर चल दिये। द्वारिकापुरी (मोहल्ले) में पहुंच कर महाराज जी बोले, यहीं है उनका घर। पर वहां घर नहीं था। फिर विमला जी ने दूसरी गली में कहकर गाडी उस गली में मुड़वा दी पर वहां भी घर नहीं था। इस तरह जितने भी सत्संगी बैठे थे कोई भी सही रास्ता नहीं बता पाया और सब घबरा भी गये कि महाराज जी को बहुत देर हो गयी ढूंढते ढूंढते। महाराज जी इतनी देर तक कभी नहीं रूकते। उधर त्यागी जी महाराज जी का इन्तजार करते हुये साइकिल उठाकर जहां महाराज जी ठहरे हुए थे (सरला जी के घर) वहाँ पहुँचे। वो त्यागी जी को देखते ही बोली। अरे भैय्या आप यहाँ, महाराज जी तो आपके यहां बहुत देर से गये हुये हैं। वो तो अब वापस भी आते होंगे। त्यागी जी तुरन्त घर दौडे। जैसे ही द्वारिकापुरी की गली में गये।
उधर महाराज जी ने कहा, इस गली में चलो। उस गली के एक छोर से महाराज जी आ रहे थे। और गली के दूसरे छोर से त्यागी जी साइकिल पर आ रहे थे। तो दोनों जहां पर मिले आपस में, वहीं पर उनका घर था। तो महाराज जी बोले, अरे गधे ! और महाराज जी ने उनकी कमर पर मारा और कहा चल गधे और घर पहुंच महाराज जी जब बैठे तब उनका स्वागत करने हेतु रोते हुए उन्होंने (त्यागी जी) एक शेर सुनाया।
तेरे आने ना आने से मेरी जान जायेगी।
फिर महाराज जी बोले-
मेरे आने न आने से तेरी जान जायेगी।
तो जान की भी जान बनकर फिर जिलायेगी।
फिर महाराज जी बोले, इंजीनियर के तो बडे ठाठ होते हैं और तू ऐसे घर में रहता है। तब त्यागी जी बोले, कि महाराज जी मुझे ठाठ नहीं आप चाहिए।
तब बाद में सत्संगियों ने बताया कि महाराज जी इतनी देर किसी के घर नहीं रूकते। और न इतनी देर किसी का घर ढूंढते हैं। जितनी देर महाराज जी त्यागी जी के घर ढूंढते रहे, उतनी देर द्वारिकापुरी की गलियों में सुबह राधे राधे के बोल गूँज उठे।
बोलिये अलबेली सरकार की जय।
भक्त वत्सल भगवान् की जय।
♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
पिछला शेष भाग
1950--55 के बीच श्री महाराज जी का सत्संग नहीं मिला l 1955 में श्री महाराज जी पुनः मिले तब तक इन्होंने (ब्रज कुँजरी देवी) इंटरमीडियेट कर लिया था l सन 1955 में इन्हें पुनः बीच-बीच में सतसंग मिलता रहा l इस बीच इनको अनेक प्रकार से महाराज जी का अनुग्रह प्राप्त होता रहा l कुछ का संक्षिप्त में विवरण देना आवश्यक लगता है l 1949--50 में यह एकांत प्रिय अधिकतर भगवान के विषय में सोचती किंतु 1955 तक साधना आदि लगभग भूल चुकी थीं l श्री महाराज जी का जब सत्संग मिलने लगा l तो एक दिन (1955) दोपहर में आँख लगने पर इन्होंने स्वप्न देखा कि श्री महाराज जी इनसे जल माँग रहे हैं l उसी दिन सूर्यास्त के समय किसी ने दरवाज़ा खटखटाया --पूछने पर कौन है 'राधे राधे' कि मधुर ध्वनि सुनायी पड़ी l श्री महाराज जी जल की याचना करते दरवाज़े पर खड़े थे l यह जल देने लगी कि इनकी मौसी आ गयी बोली, किसी को केवल जल नहीं देते l श्री महाराज जी ने कहा, 'जो भी खाने में बचा हो वही ले आओ l दोपहर की रोटी और दूध महाराज जी ने बड़े प्रेम से ग्रहण किया l
पुनः सत्संग मिलने लगा तो यह और भी एकांत प्रिय होने लगी l पढ़ाई आदि में मन न लगे मानसिक स्थिति बिगड़ने लगी l श्री महाराज जी ने आज्ञा दिया 'सब कुछ ठीक हो जायेगा, यदि तू 'रामचरित मानस के सुंदर कांड (starting) एवं उत्तरकांड का सिद्धांत पक्ष कंठस्थ कर ले ।' इन्होने कुछ ही दिनों मे आज्ञा पुरी कर कर सब कुछ कंठस्थ कर लिया l इसी तरह एक बार भगवान की खोज में घरबार छोड़ कर भागने वाली थीं l मानसिक स्थिति ऐसी थी की पिता इनको ताले में बंद कर रखते थे l एक दिन कृष्ण भक्त पिता को भगवान ने बाल रूप में स्वप्न दिया 'यह सरल कन्या मेरी है यह कीर्तन में ही तो जाती है, इसे मत मारा करो' तब से इनके पिता का व्यावहार बदल गया l बिना पढ़ाई आदि कि इन्होने बी.ए., एम. ए., बी. टी., कर लिया, पी. एच. डी. की थीसिस भी पूरी कर ली l फीरोज़ाबाद माहत्मा गाँधी इंटर कॉलेज में 62 से अध्यापन का कार्य करती रहीं l सन 1988 में कॉलेज से त्यागपत्र दे दिया और 1989 की होली में श्री महाराज जी ने सन्यास वस्त्र दे अपनी प्रचार सेवा में रख लिया l
इनके अनेक ऐसे अनुभव हैं जो प्रकट करते हैं कि महाराज जी इनका योगक्षेम वहन करते रहे हैं l इन्होने कुछ वर्षों तक चँदोसी फीरोज़ाबाद आदि शहरों में प्रचार कार्य किया l किंतु अस्वस्थ रहने के कारण अधिकतर वृंदावन वास करके साधना कर रहीं है।
श्रीमद सद्गुरु सरकार की जय।
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♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
इसी संकीर्तन साधना में एक दिन श्री गुरुदेव ने कहा-
'मैं अभी कहीं जा रहा हूँ तुम लोग सब कीर्तन करते रहना l' श्री महाराज जी के लगभग जाते ही सब जाकर अपने अपने महल कक्ष में सो गये। एकाएक हड़कंप मच गया, सम्भवत: सबको गुरु जी अपने अपने कक्ष में एक साथ दिखे क्योंकि सभी एक साथ भागते हुए अपने कक्ष से बाहर निकले l
गुरुजी ने हितकारी डांट लगाई' मैं तुम लोगों पर इतना परिश्रम कर रहा हूँ, तुम लोग घर बार छोड़ साधना करने स्वर्णिम अवसर को गवां रहे हो l यदि भगवान के लिए प्रेम नहीं है तो तुम्हें डूब मरना चाहिये lश्रीब्रज कुँजरी देवी को यह बात लग गयी l यह ऊपर की मंजिल पर चली गयी आर जैसे ही गंगा में कूद प्राणाहुती देने को उद्यत हुई श्री महाराज जी प्रकट हो बोले 'यहाँ क्या कर रही है सब लोग नीचे हैं नीचे जा' l
इस प्रकार एक बार सबको लेकर श्री महाराज जी अयोध्या गये l वहाँ जगह जगह सबने कीर्तन किया l श्री महाराज जी बीच बीच में अदृश्य हो जाते और कहते थे, 'मैं कहीं भी रहूँ तुम कीर्तन करो मैं वहाँ पहुँच जाऊँगा।
एक दिन श्री महाराज जी अयोध्या की सरयू में उलटे हो तैर रहे थे l सबको निर्देश दिया की कोई नदी में न उतरे परंतु ये चार पाँच लड़कियाँ नदी में उतर भंवर में फँस डूबने लगी l श्री महाराज जी वहाँ से भी इन लोगों को बचा लाये l ऐसे ही एक और बार महाराज जी ने इलाहाबाद संगम में इन्हें डूबने से बचाया l इस प्रकार गुरुदेव ने 4--4 बार इन्हे जल समाधि लेने से बचाया l इनके मौसा जी के पड़ोस में श्री हनुमान प्रसाद महाबनी सेक्रेटरी इंस्पेक्टर रहते थे, वे श्री राम भक्त थे l वे श्री महाराज जी को भगवान की तरह प्रतिदिन फूलों की माला से सजाते थे l इनके घर भी प्रायः संकीर्तन रखा जाता था l
श्री महाराज जी के सत्संग व संकीर्तन ने सबको हरिप्रेम में उन्मत्त कर दिया था l इनकी स्थिति तो पागल जैसी हो गयी l पढ़ने आदि में मन न लगता l
श्री कृष्ण के फोटो को पुस्तकों में छुपा निहारा करती पर श्री महाराज जी की ऐसी कृपा थी की अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होतीं थी l सातवीं कक्षा की परीक्षा के बाद इनके मौसा जी का प्रतापगढ़ से ट्रान्सफर हो गया l
श्रीमद सद्गुरु सरकार की जय।
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♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
गतांक से आगे:-
दूसरे दिन संकीर्तन के बाद सायं सभी भक्तों को लेकर श्री महाराज जी गंगा नहलवाने ले जाने लगे तो यह और इनकी हमउम्र शारदा ने वहीं कीर्तन करने की इच्छा प्रकट की। सब लोग जब चले गये तो इन लोगों की भी गंगा नहाने की ललक हुई l इसी पार गंगा मे नहाते हुए शारदा डूबने लगी तो यह उसे बचाने गयीं । उसको तो बाहर खींच लिया किंतु ब्रज कुँजरी देवी स्वयं गहरे पानी में सरक गयीं l
प्रवाह की तीव्रता एवं बालू के खिसकने से धीरे--धीरे इनके नाक मुँह में जल भरने लगा, यह डूबने लगी तो अचानक इन्होंने सोचा कि श्री महाराज जी यदि रसिक संत हैं तो वह भी तो बचा सकते हैं' बस इनका इतना सोचना था कि बलिष्ठ हाथ का सहारा मिला जिससे यह लिपट गयीं l
किनारे की ओर बढ़ते बढ़ते, जब नाक मुख के नीचे पानी आया, कुछ और अफनाहट कम हुई l इन्होने श्री महाराज जी का एक हाथ पकड़ रखा था, वह अपने दूसरे हाथ सें जल हटाती हुई बाहर निकल रहीं थीं क़ि इनको बचपन में मिली शिक्षा याद हो आयी, इन्होंने तो गंगा के मध्य में एक पुरुष का हाथ पकड़ रखा था। श्री महाराज जी ने तत्क्षण कहा 'यदि तू सोचती है तू स्वयं किनारे चली जायेगी तो चली जा । हाथ छोड़ जैसे ही आगे बढ़ने का प्रयत्न किया ये पुनः डूबने लगीं। श्री महाराज जी ने इन्हें किनारे पर ला बालू पर लिटा दिया l और 'न गहतो गोविंद तो मैं बह जाती '। हंस कर गाते हुए गंगा के उस पार जाने लगे l इन्होने देखा गंगा के जल कि सतह पर श्री महाराज जी ऐसे चल रहे थे जैसे स्थल पर चल रहे हो l
12 बजे रात्रि में संकीर्तन समाप्ति पर श्री महाराज जी ने कहा, 'कोर्ट साहब तुम तो परमहंस हो गये हो l बच्चों का भी होश नहीं l कुछ मालूम है आज क्या हुआ, इसका जीवन तो समाप्त हो चुका था, आज यह गंगा में डूब गयी होती, इसको नया जीवन मैंने दिया है ' फिर इनको संबोधन करके पूछा, 'जब डूब रहीं थी तो कैसा लग रहा था ? इन्होने जवाब दिया क़ि जैसे एक एक पल युग के समान बीत रहा हो l तब श्री महाराज जी ने अपने प्रवचन को याद दिलाते हुए कहा, 'यही व्याकुलता जो अपनी प्राणरक्षा के लिये थी l ऐसी ही व्याकुलता भगवान के प्रति भी होनी चाहिये l तभी से इन्होंने महाराज जी को मन ही मन अपने गुरु रूप में धारण कर लिया और गुरु से प्राप्त जीवन को ईश्वर को समर्पित करने का संकल्प कर लिया l
........ to be continued
श्रीमद सद्गुरु सरकार की जय।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
ग्राम मथुरावली जिला मेरठ की ब्राह्मणी प्रेमवती के अन्क में एक सात्विकी कन्या ने 1936 में जन्म की। भैया दूज के दिन जन्म लिया l पिता श्री नव निधिराम शर्मा कृष्ण भक्त थे, पत्नी उनकी अनुगामिनी किंतु बहुत अनुशासन प्रिय थीं l इनकी उचित शिक्षा के लिये इन्हें इनके मौसा के पास भेज दिया गया l माँ की याद सताती तो भगवान को याद करती l यह पाँचवी कक्षा पास कर अपने ग्राम माता पिता के पास लौट आयीं l गुरु अपने जन को, वह कहीं भी हो, परखते रहते हैं l उचित समय पर ऐसी कठिन अथवा असामान्य परिस्थिति उत्पन्न होती है जब यह बनाव बनता है कि जीव को अपने गुरु का प्रथम दर्शन प्राप्त हो l ग्राम में आने के कुछ कालोप्रांत इन्हें टाईफायड हो गया। इसके बाद पुनः सांप ने काट लिया l
पिता को लोगों ने सलाह दी की इसको इसके मौसा के पास पुनः भेज दो -इसी बीच इनके मौसा श्री कृष्ण स्वरूप ओझा कोर्ट इंस्पेक्टर ट्रान्स्फर हो प्रतापगढ़ पहुँच गये l ये प्रतापगढ़ आकर 6th क्लास में पढ़ने लगीं l उन दिनों (1949) श्री महाराज जी प्रतापगढ़ में अपना सत्संग देते थे l शहर के चार विशिष्ट जन--श्री रामप्रसाद दीक्षित मुंसिफ, श्री ओमप्रकाश शर्मा जुडिशियल मजिस्ट्रेट, श्री तेजपाल सिंह डिप्टी कलेक्टर एवं इनके मौसा सत्संग में विशेष भाग लेते थे l इन सब के यहाँ बारी बारी से श्री महाराज जी कीर्तन करवाते थे l उस दिन इनके घर संकीर्तन रखा गया था l यह छत पर बैठी रही किंतु संकीर्तन से आकृष्ट जब तक यह नीचे आयी संकीर्तन समाप्ति पर था l तब प्रथम बार अश्रुपात करते भक्तों के बीच श्री महाराज जी का साधारण सफेद वस्त्रों में प्रथम अलौकिक दर्शन इन्हें प्राप्त हुआ l यह सम्पूर्ण वातावरण से प्रभावित पुनः संकीर्तन सत्संग प्राप्त करने को व्याकुल थी किंतु दूसरे दिन दोपहर का संकीर्तन सुख श्री तेजपाल के यहाँ जाकर भी न प्राप्त कर सकीं l बहुत प्रतीक्षा के बाद रात्रि का संकीर्तन प्रारम्भ हुआ l 'हरि हरि बोल' का संकीर्तन कराते श्री महाराज जी रोमांचित हो उठते, नेत्रों से अविरल अश्रुपात एवं सभी अष्ट सात्विक भावों का उद्रेक हो रहा था संकीर्तन कराते कराते महाराज जी अनेकों बार मूर्छित हो ज़मीन पर गिर पड़ते, भक्तगण उन्हें भरसक संभालते l यह सब देख श्री महाराज जी इन्हें, इतिहास की पुस्तकों में वर्णित श्री चैतन्य महाप्रभु की साक्षात् मूर्ति लगे l ऐसे ही गुरु की इन्होने कल्पना की थी l जो महाराज जी के रूप मे साकार हो उठी l इससे पहले व बाद में कई ऐसी घटनाएँ घटित हुई जिससे इनको विश्वास हो चला था की श्री महाराज जी से कुछ भी छुपाया नहीं जा सकता, वह सब जानते हैं l इन पर अविस्मरणीय अनुग्रह तब हुआ जब श्री महाराज जी गंगा किनारे उन्ही चार पाँच परिवारों के लोगों को लेकर कालाकांकर राज महल में 7 दिवस साधना संकीर्तन के लिये गये l रात 12 बजे तक संकीर्तन होता था।
To be continued,,,,,,,
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ऐसो है रखवार हमारो ।
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प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
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♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
1961 की बात है एक विदुषी महिला, किसी के बहुत आग्रह पर बेमनी से श्री महाराज जी का प्रवचन सुनने गयी l किंतु एक बार सुनने के पश्चात वह अपने को रोक नहीं पायीं l प्रतिदिन प्रवचन सुनने आने लगीं l उसके उपरांत वह श्री महाराज जी के सत्संग एवं अपने शंकाओं के समाधान हेतु प्रतिदिन आती रहीं। एक दिन अधिक विचार विनमय हेतु वह चंद्र प्रकाश सिंघल के घर, जहाँ श्री महाराज जी ठहरे हुए थे, आयीं हुई थी, तब श्री सिंघल ने उनसे पूछा, 'बसु जी, श्री महाराज जी के विषय में आपका क्या विचार है ? प्रश्न सुनकर उनका मुख हर्ष से चमक उठा l वे बोलीं, 'सिंघल जी मैं हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में दर्शन शास्त्र विभाग की अध्यक्षा हूँ l मुझसे पूर्व इसी स्थान पर मेरे पति थे, जो अब प्राच्य दर्शन के प्रवक्ता होकर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी लंदन चले गये हैं l इसे आप मेरी आत्मश्लाघा न समझें l यह मैं आपके प्रश्न की भूमिका में कह रही हूँ l सम्पूर्ण विश्व के दर्शन शास्त्रियों की जो सभा, अभी कुछ वर्ष पूर्व कश्मीर मे हुई थी, मैं उसकी अध्यक्षा थी l यूनिवर्सिटी में मेरा पर्याप्त बड़ा बँगला है l सुंदर विस्तृत बेडरुम व मेरा निजी पुस्तकालय है l संसार का कोई दर्शन की उच्च कोटि की ऐसी पुस्तक नहीं है जो मेरे निजी पुस्तकालय में ना हो l
मेरा एक पलंग पुस्तकालय में ही रहता है l घर रहने पर मेरा अधिकांश समय इसी पुस्तकालय में व्यातीत होता है l अक्सर वहीं सो जाती हूँ l
एक बात और, चाहे यों कहो कि मुझे जन्मजात अहंकार था अथवा यों कहो कि भगवान ने अतुलनीय बुद्धि एवं तर्कशक्ति का धनी बनाया था l मुझे याद नहीं, कभी मैंने अपने तर्कों के आगे, अपने माता -पिता, भाई बहन, मित्र सहेली, सहपाठी अथवा शिक्षक की बात से सहमत न होने पर, उसको स्वीकार किया हो l मेरा तर्क ही सर्वोपरि रहता था l ब्याह के पश्चात पति भी मेरें तर्कों को कभी काट न पाये थे l
किंतु................
श्री महाराज जी का विश्व विद्यालय का प्रवचन मेरे जीवन की अभूतपूर्व घटना रहीं --
'न भूतो न भविष्यति'
प्रत्येक उदाहरण जो श्री महाराज जी ने अपने प्रवचन में दिया, चाहे वेद का हो, चाहे शास्त्र का हो, चाहे गीता, भागवत अथवा रामायण का हो, प्रत्येक मुझे कंठस्थ था l अब आप पूछेंगे फिर विशेष क्या था ? मुझे जिस चीज़ ने आकर्षित किया था ? --वह थी उन उदाहरणों की व्याख्या, विरोधों का समन्वय, उनसे उठने वाली शंकाओं का समाधान l
................ उनकी सरल ओज़स्विनी भाषण शैली ने मेरे अहम् के महल को ढहा दिया था l
इतना सब कुछ, पढ़ने पढ़ाने जानने समझने के पश्चात भी जो विरोधाभास, शुन्य सा, अंधकार सा, लक्ष्य निर्धारण में बच रहा था, वह अकस्मात् एकदम समाप्त हो गया था l
इसके अतिरिक्त सभी दर्शन शास्त्रियों के सिद्धांतों, उनके मध्य रहने वाले भेदो को मैं भली भांति समझती थी l किंतु जिस लक्ष्य, गंतव्य बिंदु, प्रकाश स्तम्भ की ओर वे इंगित करते थे, उसकी प्राप्ति का मार्ग क्या है ? इसका स्पष्ट रूप मेरे मानस में नहीं था l
उस दिन मुझे लगा कि वक्ता ने स्वयं उस मार्ग को देखा है, उस लक्ष्य को प्राप्त किया है जब कि मैंने केवल पढ़ा है, मनन किया है, उसकी आलोचना समालोचना की है l अतः अब मैं आई हूँ इनकी शरण में कि वह अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग बताये l वह कैसे प्राप्त हो सकता है जिसकी प्राप्ति की ओर सारे वेद शास्त्र इंगित करते हैं l अब मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह गुरु कृपा से ही सम्भव है l
हमारी प्यारे प्यारे महाराज जी कि जय ।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
एक सत्संगी का अभी कुछ दिनों पहले का ही अनुभव है वे श्री महाराज जी के दर्शन के बारे में सोशियल मीडिया में डेली कुछ न कुछ पोस्ट करते ही रहते हैं कुछ कारणों से एक दिन पोस्ट नहीँ कर पा रहे थे इस बात का उनको एक दिन पहले से ही टेंशन हो गया क़ि क्या अब श्री महाराज जी मुझसे ये सेवा क्यों नहीँ कराना चाहते ? इसी बात की उधेड़ बुन में वे अपने ऑफिस चले गये। उनका मन ऑफिस में भी नहीँ लग रहा था। येन केन प्रकारेण उन्होने एक पोस्ट श्री महाराज जी के विषय पर डाली लेकिन उनका मन बेचैन था कि ऐसा कौन सा नामापराध हो गया है मुझसे। वो पोस्ट कर भी कहाँ पाते। उन्हे क्या पता कि महाराज जी हम सबके अन्दर बैठ कर कुछ अच्छा ही करने की प्रेरणा देते रहते हैं । महाराज जी तो कुछ और ही सोच रहे थे। वो सर्वज्ञ उस दिन पोस्ट डलवाने की चिन्ता छोड़कर किसी और कार्य की चिन्ता कर रहे थे।
जिस दिन ये महाराज जी के दर्शन की पोस्ट नहीँ कर पा रहे थे उस दिन दोपहर में ही ऑफिस से घर को निकल पड़े और महाराज जी का चिन्तन करते रहे कि शहर में ही रास्ते में एक फ्लाइ ओवर से इनको घर की तरफ़ जाना था जैसे ही ये फ्लाइ ओवर में स्कूटी से चढ़ने जा रहे थे कि एक तेज रफ्तार बाइक ने इनको जोरदार टक्कर मारी। टक्कर लगने के बाद लगभग 15 फिट की दूरी पर एक बिजली के खम्भे से इनका सिर टकरा गया। खम्भे से टकराने के बाद हवा में लगभग 20 फिट की और दूरी पर स्कूटी सहित गिर पड़े। गिरने के बाद इनको पता चला कि मेरा एक्सीडेंट हुआ है। जो दर्शक मौके पर एकत्र हुये थे तो उन्होने मान लिया था कि इतनी खतरनाक दुर्घटना के बाद इनकी मौत निश्चित ही हो जायगी। ये पुलिस के चालान के डर से हमेशा हेलमेट अपने पास डिक्की में रखा करते लेकिन उस दिन इन्होने घर को जाने के पहले अच्छी तरह से हेलमेट लगा रखा था। इनका हेलमेट खम्भे से टकराने के बाद टूट चुका था इतनी जबरदस्त टक्कर थी। इन्होने दुर्घटना ग्रस्त स्कूटी में बैठकर घायल अवस्था में सीधे घर आये और किसी को भी घटना की जानकारी नहीँ दी यहाँ तक कि अपनी बीबी को भी सूचना नहीँ दी। इनकी बीबी भी सरकारी अधिकारी है। जब बीबी घर आयी तो शाम को इनको हॉस्पिटल ले गयी। इनके शरीर में कई गम्भीर चोंटें थी फ़िर भी इन्हे दर्द बिल्कुल भी नहीँ महसूस हो रहा था। ये महाराज जी की कृपा के ही चिन्तन की मस्ती में बेसुध पड़े थे इनको ऐसी फीलिंग हुई कि जो टेंशन इनको हो रहा था वो श्री महाराज जी द्वारा ही दिया जा रहा था ताकि उनका चिन्तन ऐसे संक्रमण काल पर भी बना रहे।
महाराज जी की इतनी बड़ी कृपा हम जीवों पर होती है जिसके लायक हम नहीँ होते।
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ऐसो है रखवार हमारो, जैसो है नहिं सकल विश्व में, कोऊ समरथ सरकार।
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♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
🌺कुछ बच्चों के मुख से
5 वर्ष की एक सत्संगी की लड़की जो अपने 8 वर्ष के भाई के साथ अपने माता पिता से जिद कर श्री महाराज जी के पास आई हुई थी l उससे पूछा श्री महाराज जी के बारे में कुछ बताओ तो छोटी सी बच्ची बोली--
-श्री महाराज जी बहुत अच्छे हैं, बहुत से और लोगों के विषय में जो सत्संग में हैं बोली-ये अच्छे हैं वो अच्छे हैं, फिर अचानक बोली-
--''श्री महाराज जी ने तो मेरी रातों की नींद हराम कर दी है रात को सपने में आकर बोलते रहते हैं, ''तू बड़ी स्वीट है'' l सोने ही नहीं देते l''
तभी 8 वर्ष का भाई बोल पड़ा-'' मेरी भी नींद हराम कर दी है l रात में मेरे से थोड़ा बड़ा बच्चा बन कर मेरे साथ क्रिकेट और टेबल टेनिस खेलते हैं, सोने ही नहीं देते l''
बच्चों से श्री महाराज जी को बहुत प्यार है l छोटे छोटे बच्चों की उँगली पकड़ प्रायः घूमते देखें जाते हैं l अभी की घटना है l
🌺एक चार वर्ष के बच्चे ने जब देखा कि श्री महाराज जी किसी और बच्चे की उँगली पकड़कर घूम रहे हैं, तो वह ज़मीन पर लोटकर बिलख बिलख कर रोने लगा l उसकी मम्मी उसके पास आयीं तो वह बिछे कालीन पर अपना सिर कच्च, कच्च पटकने लगा और श्री महाराज जी की तरफ उँगली दिखाकर रोते हुए बोला, '' Maharaj Ji is my, only my Maharaj Ji. आशय था, केवल मेरे महाराज जी l बच्चों को श्री महाराज जी अपने माता पिता से भी प्रिय हैं l यही अवस्था हमारे यहाँ कुछ सत्संगियो की है इनके समक्ष स्वयं भगवान भी अपने बहुचर्चित असली स्वरूप में आकर कहें कि श्री महाराज जी साधारण मनुष्य हैं चलो मैं ले चलता हूँ तुम्हें अपने गोलोक तो ये श्री महाराज जी को छोड़ उनके साथ नहीं जायेंगे l सर्वोत्तम माँ बाप, बंधु, सखा आदि यदि भगवान हैं तो इनके लिए श्री महाराज जी उनसे बढ़कर हैं l ये तो इतने निष्काम सेवा में लगे रहते हैं कि 'श्री महाराज जी' के सुख के विषय में ही सोचते रहते हैं कि कैसे उनकी सेवा और अच्छी हो l ज़रा भी कोई सोचकर देखें तो पायेगा कि श्री महाराज जी माता, पिता, सखा आदि के रूप में, ही हमारे साथ रहे हैं।
🌺सन् 2011 की बात है एक सतसंगी अपने साले को मनगढ़ लेकर गया था उनका साला आपराधिक स्वभाव वाला था और वह घर से काफी सम्पन्न था तो सत्संगी ने सोचा कि इनके पास गाड़ी है हम 7-8 सत्संगी इन्ही की गाड़ी में बैठकर धाम को चलेंगे तो उन सत्संगी के साले का भी कल्याण हो जायगा और हम लोग साधना में भी भाग ले लेंगे। उन दिनों 7 दिन की साधना धामेश्वरी दीदी जी के जिम्मे बसंत पंचमी 2011 में मनगढ में थी। सतसंगी भी उनके लिए साधना हाल के बगल में एक प्राइवेट रूम लेकर उनको कण्ट्रोल करने के लिए साथ में ठहर गया । उनका साला महाराज जी के विषय में अनर्गल बाते करता रहा फिर भी वो सत्संगी उनको महाराज जी के सुबह शाम के डेली प्रवचन में ले जाता रहा। उनको महाराज जी के प्रति बिल्कुल भी आस्था नहीँ थी। पहले दिन के ही सुबह के प्रवचन के बाद कुछ आलोचना भरे हुये शब्द बोलना शुरू कर दिया। वो सत्संगी बहुत परेशान था कि हम अपने साले का कल्याण करने के लिये यहाँ लाये हैं उलटा उसके द्वारा नामापराध हुआ जा रहा है। साले द्वारा कुछ ऐसे विषय उन सत्संगी के सामने रख दिया जाता था कि जिसका कोई भी समाधान उन सत्सन्गी के पास नहीँ होता था। शाम के प्रवचन में महाराज जी उन्ही विषयों पर प्रवचन दिया करते जिन बातों की शंका उनके साले को होती थी फ़िर भी उनके साले को विश्वास नहीं होता था ये घटनाक्रम लगतार चार दिनों तक चलती रहा और लगातार उनके साले की शंका के विषय पर महाराज जी सुबह-शाम प्रवचन दिया करते। उनके साले का कहना था कि हम तो बंद कमरे में उनके प्रति अनर्गल बाते करते हैं फिर भी कृपालु जी को मेरी बाते कैसे मालुम हो जाती हैं और हमारी बात को कृपालु जी कैसे सुन लेते हैं ज़रूर कमरे का कनेक्शन (सीसीटीवी) कैमरे से होगा। कैमरे से मेरी बात को सुनते हैं और हाल में आकर प्रवचन द्वारा सफाई देते हैं। तब सत्संगी ने कमरे के कोनों को दिखाया उनको, कमरे में कहीं भी कोई कैमरा नही लगा था इसके बाद वो पाँचवे दिन से महाराज जी के प्रति कुछ कुछ आस्था जगने लगी और महाराज जी को वो भी महापुरुष मानने लगे। ये तो सर्वग्य प्रभु का कमाल है। उनके साले को क्या पता कि श्री महाराज के यहाँ तो केवल मन की ही बात नोट होती है।
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दीनबंधु पतित पावन श्री कृपालु महाप्रभु की जय।
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♻♻हमारे महाराज जी♻♻
जगद्गुरु बनने से कुछ दिन पहले श्री महाराज जी इलाहाबाद पहुंचे। यहां पर वे रामवती जी के यहाँ ठहरे। एक दिन उनसे कहने लगे, काशी के पण्डित लोग मुझे जगद्गुरु बनाने जा रहे हैं। लेकिन वहां मुझे अपने बाल काटने पडेंगे। वो महाराज जी से बोली, बाल काटने पडेंगे तो मत जाइये। इस पर श्री महाराज जी ने कहा, रामवती जी तुझे मेरे बालों का इतना मोह है और मुझे इतनी बड़ी उपाधि मिल रही है इसकी प्रसन्नता नहीं है। वो बेचारी चुप हो गयीं और इस डर से कि श्री महाराज जी के ये बाल काट दिये जायेंगे उन्होंने एक फोटोग्राफर को बुलाकर उनका बालों वाला फोटो उतरवाकर रख लिया।
श्री महाराज जी को काशी विद्वत परिषद् के समक्ष भाषण देते हुए छठा दिन था कि श्री महाराज जी ने इलाहाबाद में रहने वाले सुश्री राम पति श्रीवास्तव को तार करवा दिया मैं जगद्गुरु बनकर आ रहा हूँ । मेरे स्वागत तथा शोभायात्रा की समस्त तैयारियां करो। 14 जनवरी को पहुंच जाऊँगा। जगद्गुरु की उपाधि मिलने से पूर्व महाराज जी ने जो कुछ कहा था, उसी अनुसार 14 जनवरी, 1957 को उनका भव्य स्वागत समारोह और शोभायात्रा इलाहाबाद में सम्पन्न हुआ। विदित कि 14 जनवरी को ही उपाधि प्रदान हुई और 14 जनवरी को ही महाराज जी बनारस से प्रस्थान करके इलाहाबाद पहुंच गये थे। वहां पूर्व में कहे गये अनुसार ही सब कुछ सम्पन्न हुआ।
श्री महाराज जी के श्री मुख से...... बिलासपुर में एक बार हम बोल रहे थे l बड़े बड़े औफिसर्स हमारे लेक्चर में आते l हमारा लेक्चर एक ऍड्वोकेट को अच्छा लगता था l एक दिन उनके पुरोहित ने ईर्षावश उनसे कह दिया- वो जितने श्लोक बोलते हैं सब गलत बोलते हैं l ऍड्वोकेट ने सोचा ये पंडित है ठीक ही कहता होगा l लेक्चर में आना बंद कर दिया l एक और प्रकांड विद्वान थे l एक दिन वो ऍड्वोकेट तथा वह पंडित जी उनके पास गये l उन्होनें पुरोहित से पूछा की क्यों जी 2-3 दिन से तुम वहाँ लेक्चर में नहीं दिखाई देते हो l ऐसा स्वर्ण अवसर क्यों चूक रहे हो l विद्वान महाशय ने बहुत प्रशंसा की तो ऍड्वोकेट महाशय फिर आने लगे l रात्रि में हमसे क्षमा माँगने आए कि बड़ा भारी अपराध हो गया l इस प्रकार व्यर्थ ही ईर्ष्यावश भ्रम पैदा कर दिया जाता है।
🌺व्यक्तिगत परिचय : (पुरुष) यह कुछ वर्षों से आते हैं वयस्क हैं, शरणागत है इन्होंने कहा--
श्री महाराज जी लीला करने आयें हैं-इनके जाने के बाद लोग समझेंगे- आज हम गुरु नानक जी की तस्वीर को पूजते हैं ऐसे ही लोग तस्वीर पूजेंगे l साक्षात् हैं तो नहीं पूज रहे हैं । (इनको श्री महाराज जी गुरु नानक लगे)
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🌹प्रेमावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय 🌹
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
एक बार हमारे श्री महाराज जी से प्रश्न किया, कि आप अपना पहला वाला रूप अब क्यों नहीं प्रकट करते ? इस पर श्री महाराज जी ने कहा, अगर हम अपना पहले वाला रूप प्रकट कर दें तो आप परेशान हो जायेंगे। मेरा वह रूप अत्यन्त विचित्र था। मेरे लिए दस घरों में खाना बना है, पर वहां न खाकर ग्यारहवें घर में बासी खाना खाया है। कभी पंद्रह आदमियों का खाना एक साथ खा लेता और कभी पन्द्रह दिन तक खाता ही नहीं।
अपने साथ कुछ न रखता। कहीं सोता, कहीं नहाता, कहीं नाश्ता करता तो कहीं खाना खाता। एक बार इलाहाबाद हाईकोर्ट के जजों ने स्पीच रखी थी। उसमें बडे बडे गणमान्य लोगों को आमंत्रित किया गया था और हम आधा घंटा पूर्व ही वहाँ से गायब हो गये थे। दूसरी ओर चार आदमी बैठे हैं और हम आँख बंद करके छः, छः घंटा लगातार बोल रहे हैं।
संसार में किसी में यदि परिवर्तन होता है तो धीरे-धीरे होता है लेकिन हममें जब परिवर्तन आया तो एकदम आया है और वह भी पराकाष्ठा का उल्टा, सारे नियमों को एक दिन में बदल दिया जैसे अनुसूइया और शरभंग आश्रमों में। कहां तो एक कपडा भी हम अपने साथ नहीं रखते थे। और कहां अब कार में गृहस्थी का सारा सामान लेकर चलते है, स्टोव, पीकदान यहां तक कि सिलोढी भी। एक ओर टाॅप का त्याग तो दूसरी ओर टाॅप का संग्रह। फिर भी भारत में मेरे अलावा (श्री महाराज जी) शायद ही ऐसा कोई बाबा होगा जो सारे भारत में घूमें और अपना समस्त कार्य समय से करे।
श्री महाराज जी के एक प्रिय सत्संगी ने बताया कि एक बार कुछ सत्संगियों के बीच में अपनी ही वस्तु को श्री महाराज जी ने चुपके से उससे उठवा लिया अर्थात उठवाने में उसकी सहायता किया। उसके पीछे क्या रहस्य था उस समय तो हम नहीं समझे पर अब समझ में आता है कि श्री महाराज जी कभी-कभी हमें आपस में भिडवा देते हैं और देखते हैं कि परदोष देखने की भावना हममें कितनी रह गयी है। अनेकों ऐसे कार्य हैं जिसमें श्री महाराज जी की मिली भगत होती है, हूट आदि करवाने में, इस तरह हमारी परीक्षा होती रहती है।
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हम सबके प्यारे श्री महाराज जी की जय।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
हममें से अधिकतर भगवान् के पास संसार मांगने जाते है। इसी के निमित्त जप, उपवास, यज्ञ, दान आदि करते है। मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरूद्वारा आदि में मत्था टेकते है और अपने आपको भक्त समझने लगते हैं। सोचते हैं हमारी भगवान सुनेगा, सुनता है। ऐसे आर्त अर्थाथी सकामी व्यक्ति की भगवान नहीं सुनते, केवल उसके कर्मो को भगवान नोट करते हैं। कर्म बन्धन में पडे ऐसे व्यक्ति को भगवान् का दर्शन तो दुर्लभ एवं दूर है ही उसे सद्गुरु भी नहीं प्राप्त होते।
गुरूदेव अपने जन को अपना सत्संग एवं प्रथम मिलन देने के पहले उसे परखते रहते हैं। प्रथम मिलन एवं सत्संग गुरू का जीव पर सबसे बडा अनुग्रह है। उसके उपरान्त गुरू को जीव के लिये कठिन परिश्रम करना पडता है। यही लीला विधान है। तब जाकर जीव धीरे-धीरे शरणागति की ओर उन्मुख होता है। जीव के अनुरूप ही उसके प्रश्न होते है और उसी के अनुरूप जिसको वह समझ सके गुरू के उत्तर होते हैं। वेदादि में भगवान् के विषय में विरोधी बातें लिखी हैं। कब कहां किसके लिए क्या उपयुक्त है, गुरूदेव ही जानते हैं। जीव का भगवान् में अनुराग और जगत में कैसे वैराग्य हो, यह सब अनुग्रह गुरूदेव करते ही रहते हैं।
गुरूदेव के प्रथम मिलन एवं सत्संग में कोई देखते ही होश खो बैठा, कोई आठ, दस दिनों तक सतत् रोता ही रहा तो कोई गुरु सत्संग छोडकर पुनः अपने संसार में जाना ही नहीं चाहता था। अपवाद स्वरूप ऐसे भी व्यक्ति हैं जिन्हें प्रारम्भ में अच्छा नहीं लगा किन्तु वे भी आज राधे नाम सुनते ही बैचेन हो जाते हैं और अब पूर्ण रूप से सत्संग में हैं। श्री महाराज जी किसी गृहस्थ को, जब तक उसका सांसारिक कर्तव्य बीबी बच्चों आदि का शेष रहता है, संसार त्यागने नहीं देते। वरन् उस व्यक्ति के सत्संग से परिवार के अन्य सदस्यों का भी हरि गुरु में अनुराग होने लगता है। भगवत् मार्ग में अग्रसर अविवाहित व्यक्ति गुरू सत्संग में आध्यात्मिक क्षेत्र के विषय में तो जानकारी प्राप्त करता ही है, गुरू कृपा से जगत में भी उच्च कोटि की शिक्षा प्राप्त कर स्वावलंबी एवं सक्षम बन जाता है। जब वह जगत वैराग्य एवं भगवद् अनुराग में दृढ निश्चयी होता है तभी यहाँ टिक पाता है। बार बार अनुरोध के बाद भी मनगढ़ वास किसी भाग्यशाली को ही मिलता है। श्री महाराज जी अथवा उनके प्रचारकों का प्रवचन सुनने कोई क्यों गया ? अथवा किसी को भी श्री महाराज जी रचित पद, साहित्य पहले पहल सुनने पढने को कैसे मिला अथवा श्री महाराज जी का प्रथम दर्शन कैसे प्राप्त हुआ। यदि हमारे गुरूदेव के सत्संगियों से पूछा जाये तो सबके अपने-अपने विलक्षण, विचित्र किन्तु कल्याण कारी अनुभव हैं परन्तु सभी मानते हैं कि उन पर गुरूदेव की अकारण कृपा हुई। ऐसे बनाव बने, ऐसे वातावरण उपस्थित हुआ कि सभी किसी न किसी बहाने से आकर्षित हो उन तक पहुंच गये। गुरूदेव परखते रहते हैं, उचित अवसर देख तत्काल जिज्ञासु मनुष्यों को अपना सत्संग प्रदान कर देते हैं।
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करूणावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻हमारे महाराज जी♻♻
पचास साठ के दशक में श्री महाराज जी जबलपुर में महीनों रूकते थे। जबलपुर (म०प्र०)के बहुत पुराने कई सत्संगी हैं सभी की आर्थिक स्थिति साधारण थी शायद इसीलिए उन्होंने नियम बना रखा था कि केवल खिचड़ी ही भोजन करेंगे। वैसे भी श्री महाराज जी का बहुत सादा भोजन है। सन् 68, 69 की बात है जबलपुर के सत्संगी बताते है खिचड़ी खाते समय श्री महाराज जी ने उसमे से एक कंकड़ निकाल कर दिखाया और हँसने लगे। दूसरे दिन भक्तों ने बडे प्रयत्न से साफ किया चावल दाल बीना। अबकी बार श्री महाराज जी ने खिचड़ी में से दो कंकड़ निकाला और फिर हँस पडे। साथ में सभी हँस पडे। जो सत्संगी अनाज बीनते थे वो भी साथ में हँस तो पड़ते थे पर मन में हर्ष नहीं विषाद छा जाता था। तीसरे दिन और सँभल कर सामग्री की सफाई की गई पर अबकी खाते समय तीन कंकड़ निकल आये। श्री महाराज जी ने कहा, लगता है मुझे मदन महल के पत्थर बुला रहे हैं। जबलपुर में मदन महल एक पर्वत श्रृंखला है। बोले चलो कल मदन महल पिकनिक पर चलेंगे लोग सोचने लगे, क्या पत्थर भी बुलाते हैं ? लोगों का श्री महाराज जी का शेरा नाम के कुत्ते से प्यार देखा था। वह कुत्ता नहीं पिछले जन्म का कोई भ्रष्ट जीव कुत्ते की योनि भोग रहा था। पूर्ण शाकाहारी था, श्री महाराज जी से लाड, प्यार, मजाक, मान, मनव्वल सब करता था। उसका आख्यान सब पहले सुन चुके ही हैं पर पत्थर भी श्री महाराज जी को चाहते हैं यह कुछ समझ में नहीं आया।
(गो०)ने पूछा, महाराज जी पत्थर भी चैतन्य होते हैं क्या ? श्री महाराज जी ने सहज उत्तर दिया, हाँ सभी पत्थर जड नहीं होते, जड योनि भी होती है। इन लोगों को अहिल्या का आख्यान याद आ गया। वहां खाने के लिए सब को अलग अलग चने, मुर्रा, पकौड़ी, आदि की सेवा दी गयी कि सब लोग इकट्ठे खायेंगे। पहली बार श्री महाराज जी मदन महल जा रहे थे पर ऐसा लगता था जैसे उनका सब कुछ चिर परिचित है। वही हमको लीड कर रहे थे। हमें वो दो पहाडियों के बीच एक बहुत मनोरम स्थान पर ले गये, जहां बैठने के लिए समतल स्थल था और आसन जैसी शिला भी, श्री महाराज जी उस पर टेक लगाकर बैठ गये वाह क्या छवि थी। क्या आकर्षण था हम बयान नहीं कर सकते। श्री महाराज जी ने कीर्तन कराया, भावावेश में चले गये। उसके बाद हम लोगों ने पिकनिक मनाई, श्री महाराज जी भी उसमें शामिल हो गये। हम लोग भूल गये कि महाराज जी जगद्गुरु हैं। अब हमें श्री महाराज जी प्रतिदिन लगातार मदन महल में किसी नए दुर्गम किन्तु जैसे अपने पूर्व परिचित देखे हुए स्थान पर ले जाने लगे। वहां किसी पत्थर पर बैठकर उन्हें प्रेम से निहारते, कभी पेडों को सहलाते। हमें अब एहसास है कि उनकी सभी क्रियाओं, कथनों के गूढ अर्थ थे। पर उस समय व्यर्थ मजाक समझ कर हम अवहेलना कर जाते थे।
जड चेतन सबको अपना सत्संग दिया, हमें एहसास कराया कि ग्वाल बाल गोपाल कैसे थे। एक बार श्री महाराज जी एक बहुत बडे और उँचे गोल चिकने पत्थर पर चढ गये और उतर भी आये। जबकि उस पत्थर पर कोई कई व्यक्तियों का सहारा लेकर भी नहीं चढ सकता। वह पत्थर आज भी पर्यटक देखने जाते हैं।
एक बार ऐसे ही पिकनिक में हम सब अलग अलग आस पास की शिलाओं पर श्री महाराज जी के साथ बैठे थे, कुछ लोग तो श्री महाराज जी से उँचे स्थान पेडों पर बैठ गये थे। प्रभु तरू, तरू, कपि डार पर। जबलपुर मदन महल के अनेक प्रसंग हैं, पर अनेक के अंतरणता या गूढता को हम केवल पढ कर भ्रांति में पड सकते हैं।
जिनका अनुभव है उनके शब्द, भाव भंगिमा श्रद्धा भक्ति को सम्मुख देख सुनकर अपनी स्थिति का साधक ही कुछ अनुमान लगा सकता है।
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प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
ऐसे ही एक दिन बातचीत का विषय बना था, क्रांतिकारी भक्त। आगरा के एक कालेज में पढने वाला एक छात्र भगवान् से मिलने के लिए व्याकुल हो गया। हाॅस्टल के अपने कमरे मे वह रोया गिडगिडाया किन्तु उसे भगवान् के दर्शन नहीं हुये। वह उद्देश्य की पूर्ति हेतु वृन्दावन चला आया और यहाँ अन्न जल छोडकर अनशन पर बैठ गया। हजारों की भीड उसके पास जमा होने लगी। संयोग से महाराज जी भी वहाँ पहुँच गये उन्होंने पूरी बात को सुना समझा किन्तु उसने अपना अनशन समझाने पर भी नहीं तोड़ा। 40 वें दिन वह परलोक गामी हो गया। लोगों ने उसका बडा भारी जुलूस निकाला, उसके शव को फूलों से लाद दिया, उसकी अन्त्येष्टि भी बडे धूम धाम से की गयी।
महात्माओं के बीच बातचीत का विषय आज वही क्रांतिकारी भक्त था। विचारणीय प्रश्न थे।
(1)क्या भगवान् के लिए इस प्रकार अनशन करके मर जाना उचित था ?
(2)क्या मरने के बाद उसे भगवान् की प्राप्ति हो गई ?
तब लोगों का विचार था कि क्रान्तिकारी भक्त का काम बडी दिलेरी का था क्योंकि उसने भगवान् के लिए मरना स्वीकार किया। अवश्य ही उसे भगवद् धाम की प्राप्ति हुई होगी। वृन्दावन के एक सन्त ने तो उसकी चिता पर यह घोषणा भी कर दिया कि उसे गोलोक की प्राप्ति हो गयी है। पर हमारे महाराज जी जो उन लोगों के बीच मौजूद थे, उन्होंने अभी तक कोई राय नहीं दी थी।
वहां मौजूद सारे महात्मा लोग श्री महाराज जी की भी राय जानना चाहते थे। जब लोगों ने उनसे अत्यन्त विनम्रता पूर्वक आग्रह किया तो वे बोले यह सच है कि प्रियतम श्याम सुंदर को देखने, उनके शब्द सुनने, उनको स्पर्श करने आदि की आकांक्षा प्रत्येक जीव की होनी चाहिए कि एक क्षण भी कल्प के समान बीते, किन्तु फिर भी यदि वे दर्शन नहीं देते है तो इसमें हमें एतराज नहीं होना चाहिए।
उनके लिए हमें तड़पने का तो अधिकार है किन्तु सुरदुर्लभ मानव देह को नष्ट करने का कोई अधिकार नहीं है। यह सीधा आत्महत्या है इसके लिए मानव को संसार में भी दण्ड मिलता है और फिर भगवान् के यहाँ भी वह दण्ड का भागी क्यों नहीं होगा। संसार में अत्यन्त विरह में मानव की मौत होते देखा जाता है किन्तु भगवद् क्षेत्र में वह अमरत्व प्रदान करने वाला होता है। रही बात गोलोक गमन की, तो मरने के पश्चात् प्राणी को वही मिलता है जो उसे मरने से पहले मिल चुका होता है। अतः क्रांतिकारी को अगले जीवन में मानव शरीर मिल सकता है। तथा ठीक मार्गदर्शक गुरू भी मिले यह संभव है, किन्तु गोलोक नहीं मिल सकता। श्री महाराज जी के इन विचारों का उन लोगों के पास कोई उत्तर नहीं था और न ही किसी में इतना साहस ही था कि वह जनता के सामने इस कटु इस कटु सत्य को स्वीकार भी कर लेते।
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हमारे प्यारे श्री कृपालु महाप्रभु की जय।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
यह उस समय की बात है जब महाराज जी की उम्र बीस साल के लगभग थी। उस समय महाराज जी वृन्दावन में अकेले ही विचरण करते थे। कभी हा कृष्ण, हा राधे कहकर बेहोश हो जाते तो कभी ब्रज की लीला स्थलियों में लोट पोट हो जाते। बडे बडे महात्मा लोग भी इनकी इतनी उच्च अवस्था देखकर इनकी ओर आकर्षित होते। महाराज जी भी जब उन लोगों के बीच में बैठते तो अनेक प्रकार के भगवत् विषयक बातों पर चर्चा होती। अधिकांश लोगों की शंकाओं का समाधान महाराज जी की बातों से ही हो जाता और वे प्रसन्न हो जाते। किन्तु कभी कभी श्री महाराज जी की कही गयी बातें उनके गले से नीचे नहीं उतर पाती।
ऐसे ही एक दिन महाराज जी अन्य महान महात्माओं के बीच में बैठे थे। सेवा कुंज पर बातचीत होने लगी। एक महात्मा ने कहा, सेवा कुँज में प्रतिदिन भगवान श्री कृष्ण गोपियों के साथ आज भी रास करते हैं। अगर कोई उसे देख लेता है तो वह गूँगा हो जाता है या फिर मर जाता है। एक दूसरे सज्जन ने कहा, यही कारण है कि सेवा कुँज का दरवाजा रात को बन्द कर दिया जाता है। इस चर्चा के दौरान किसी ने श्री महाराज जी से पूछ लिया, आपका इस बारे में क्या विचार है। श्री महाराज जी पहले तो चुप रहे किन्तु लोगों के बार बार आग्रह करने पर बोले मैं तो इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता। इस पर एक भक्त ने पूछ लिया, क्यों ?
श्री महाराज जी ने कहा पहली बात तो यह है कि बिना दिव्य दृष्टि मिले किसी को भगवान का दर्शन हो ही नहीं सकता। दूसरे यदि किसी को योगमाया से आवृत्त दर्शन दे भी दे तो, जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।। के अनुसार ही लोग उन्हें देख पायेंगे। तीसरी बात ये है कि कौन ऐसा मन्द बुद्धि भक्त होगा जो दर्शन करके मर जाना न चाहेगा। भगवान् के वह व्यक्ति पूर्णकाम हो जायेगा। वह आवागमन के चक्कर से मुक्त होकर सदा के लिए कृष्णमय हो जायेगा। ऐसा होना कौन न चाहेगा ? अगर आप लोगों को डर भी लगता है तो मैं स्वयं रात्रि में सेवा कुँज में रहने के लिये तैयार हूँ । मुझे रात्रि में सेवा कुँज में बन्द कर दिया जाये तभी मैं बताऊँगा कि वहां क्या क्या होता है अथवा मेरा शरीर नष्ट हो जायेगा और मैं सदा के लिए आवागमन से मुक्त हो जाऊँगा। सब लोग इस बात पर चुप थे। केवल एक व्यक्ति ने कहा इससे तो सच्ची श्रद्धा ही समाप्त हो जायेगी। श्री महाराज जी ने कहा इस प्रकार की अंधश्रद्धा पालने से क्या लाभ है।
श्री महाराज जी एक बार सौ सवा सौ भक्तों के साथ वृन्दावन जा रहे थे। वृन्दावन पास आने को ही था कि किसी ने श्री महाराज जी से कहा, आज आपकी बस्ती में जा रहे हैं, हमें न जाने क्या-क्या देखने को मिलेगा। आज हम आपकी नगरी को देखेंगे। इस पर श्री महाराज जी तुरन्त बोले, मेरी बस्ती में तुम क्या देखोगे। जो मैं दिखाऊँगा वही तो तुम देखोगे।
ऐसा कह आगे बढ चले। कुछ देर बाद श्री महाराज जी के भाव में परिवर्तन हुआ वे धीरे-धीरे हरि बोल, हरि बोल, बोल हरि बोल। कहते हुए खडे हो गये गुलाब की माला से पँखुडियाँ टूट टूट कर गिरने लगी वे अब नृत्य कर रहे थे। श्री महाराज जी की उस उच्च अवस्था में ऐसी टीस थी कि सब भक्तों के हृदय को विदीर्ण किये दे रही थी। पत्थर दिल भी अनवरत अश्रु धारा बहा रहे थे। अर्द्धरात्रि के पश्चात् प्रभु के रोम रोम से मानों प्रेम रस बरस रहा हो। सभी भक्तों की आँखें चकोरवत् उनको निहार रहीं थी मालूम होता था कि विश्व का समग्र सुख, समस्त प्यार सारी सत्ता और समग्र चंचलता उन्हीं में समा गयी हो।
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भक्त वत्सल श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
सायंकाल शरद पूर्णिमा की दावत थी।सब लोगों को खाना परोसा जा रहा था निगम साहब भी एक पंक्ति में बैठे थे। तभी अचानक पता नहीं क्या हुआ और वह पत्तल छोड़कर उठ गये। चीख चीख कर रोने लगे। हर एक के पैर छूते और प्रभु दर्शन की भीख पल्लू फैलाकर माँगते। इस बीच श्री महाराज जी वहाँ आ गये। निगम साहब को अपने सीने से चिपका लिया। महाराज जी का वक्षस्थल उनके आँसुओं से भीग गया। उन्होंने निगम साहब को पत्तल पर बैठाया, उनके सिर पर हाथ फेरा, सांत्वना दी और अपने हाथों से उनके मुंह में एक कौर खाना खिलाया तब जाकर निगम साहब को शांति हुई और बाकी का खाना खाया।
🌺एक रात कीर्तन हो रहा था निगम साहब की पत्नी श्रीमती शकुंतला देवी बोली, निगम साहब को क्यों इतना भाव और रोना आता है। हमें तो कहीं नहीं आता। बस आधा घंटा ही हुआ था कि वे चीख कर गिरी और बेहोश हो गयी। अन्य महिलाओं ने हाथ पैर पकडकर उन्हें भी कमरे में ले जाकर पटक दिया। वहां वे घँटो नृत्य करती रही। उनके पति का अहंकार चूर्ण हो चुका था। उनके अहं का नाश करने वाला भला वह कौन था।
🌺सुश्री उर्मिला गर्ग अपने अध्ययन काल में सदा ही प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होती रही। सुश्री ब्रज मँजरी दीदी के सम्पर्क में आयी तो संसार को छोड़कर अध्यात्म से जुड़ गयी। पहले श्री महाराज जी की आज्ञा से साधना भवन के लिए चन्दा करने लगी। एक दिन श्री महाराज जी के परामर्श के विरुद्ध दूसरे क्षेत्र में चन्दा करने चली गई। वहां और दिनों के मुकाबले आधा चन्दा भी नहीं मिल पाया। शाम को आकर बहुत रोयीं। आगे से फिर सदा महाराज जी के बताये अनुसार ही चंदा माँगने के लिए जाती, उन्हें ये आभास हो गया था कि श्री महाराज जी की कृपा और उनकी संकल्प शक्ति से ही उसका कार्य सम्पन्न होता है उसके अपने परिश्रम से नहीं।
🌺सुश्री स्नेहलता का एक छोटा भाई श्री महाराज जी के बहुत विरूद्ध था। वाक्या 17 जनवरी 1952 का है उस दौरान श्री महाराज जी हमारे घर आये हुए थे। उस समय मेरा छोटा भाई पता नहीं उसे क्या हुआ जो हमेशा महाराज जी के विरुद्ध रहा करता था। महाराज जी के सामने आते ही जैसे ही उसने महाराज जी को देखा दोनों हाथ जोड़कर काँपने लगा। चरण छूकर उनके पास बैठ गया। बाद में कहने लगा ये असली सन्त हैं इनके पास बैठने पर अपार शान्ति मिलती है।
🌺कुछ ऐसा ही वाक्या एक सत्संगी मु०अ० अपना संस्मरण सुनाते हुए कहती हैं। कि जब उनकी उम्र 13, 14 वर्ष की थी तभी से वह अपने पिता के साथ मन्दिरों में और वृन्दावन में रास देखने जाया करती थी। 14 वर्ष की आयु में जब महाराज जी के दर्शन हुए तब उन्हें अनुभव हुआ कि साक्षात् रास बिहारी के रूप में वो सामने खड़े हैं। आगे कहती हैं कि महाराज जी में मुझे कभी शंकर जी के रूप में तो कभी पूर्ण श्रंगार किये ठाकुर जी के रूप में दिखाई दिये हैं। मानों हर बार उन्होंने यह सिद्ध किया कि मैं यह भी हूँ और वह भी हूँ।
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॥ हमारे प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय॥
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♻♻हमारे महाराज जी ♻♻
डा० प्रह्लाद नारायण की पत्नी को टी०वी० हो गई थी। एक दिन उन्होंने अपनी पत्नी से बडे दुःख के साथ कहा, तुम्हारा एक्स रे बहुत खराब आया है, अब तुम छः महीने से ज्यादा जीवित नहीं रह सकती। अकस्मात् उसी दिन श्री महाराज जी उनके घर पर आ गये। उनकी पत्नी ने श्री महाराज जी से रोकर कहा, डा० साहब कह रहे थे कि अब मैं छः महीने से अधिक जिन्दा नहीं रह सकती। इस बात पर श्री महाराज जी बोले, वह नाऊ क्या जाने तुझे कुछ होने वाला नहीं है। महाराज जी ने दवाइयों की ओर एक नजर देखा, फिर उनमें से पीने वाली कुछ दवा स्वयं पी ली और कुछ दवाएं फेंक दी वहां मौजूद एक डॉक्टर बेचारी कहती ही रह गई, यह आप क्या कर रहे हैं। श्री महाराज जी ने कहा, सब दवायें बन्द कर दो।
केवल गंगाजल मँगा कर पीओ। बाद में वे दवाओं के स्थान पर केवल चरणोंदक लेती रहीं और आश्चर्य यह देखने में आया कि थोडे ही दिनों में वे बिल्कुल ठीक हो गई। स्वस्थ होने के बाद एक्सरे लिया गया। वह भी एकदम ठीक निकला। उस दिन से डाॅक्टर प्रहलाद नारायण को श्री महाराज जी पर बडा विश्वास हो गया था।
🌼श्रीमती कलावती भटनागर को श्री महाराज जी अपनी माँ कहते। एक बार बहुत दिनों बाद श्री महाराज जी का उनके घर आना हुआ। कलावती जी ने बहुत उलाहना दिया। श्री महाराज जी ने कहा तुम मेरे साथ बेटे का रिश्ता मानतीं हो यह ठीक है। मुझे फिजिकल बेटा समझना भूल होगी, संसारी रिश्ते और आध्यात्मिक रिश्ते में कुछ तो अन्तर है ही। एक अनपढ़ स्त्री हमसे साधना लिखाने के लिये काॅपी ले आयी। हमने साधना लिख दी। जब भी वह काॅपी हाथ में लेती, अपने भाग्य की सराहना कर वह आंसू बहाती क्योंकि उसने उसका महत्व समझा। दूसरे पढे लिखे ऐसे बहुत लोग हैं जो साधना लिखाते हैं और उसे पढते भी हैं, कहते हैं ठीक है, अच्छा लिखा। यह कहकर उसे अलग रख देते हैं। उन लोगों ने उसका महत्व नहीं समझा। इसलिए जो भी रिश्ता तुमने माना है, उसका महत्व तुम्हें समझना होगा। अपने सौभाग्य के बारे में सोच सोचकर विभोर होना है। किसी से अपना आध्यात्मिक सम्बन्ध मानने पर ऐसा ही होगा।
एक बार कलावती भटनागर महाराज जी के बारे में ऐसी अविश्वसनीय घटना बताती हैं जिस पर सर्वसाधारण कभी भी विश्वास नहीं कर सकता। घटना कुछ इस प्रकार है, एक दिन श्री महाराज जी दोपहर के समय कलावती भटनागर से बोले, मैं दो घंटे के लिए सो रहा हूं। मुझे लक्ष्मण स्वरूप के घर जाना है। दो घंटे बाद श्री महाराज जी उठ कर बैठ गये। कलावती भटनागर ने बाद में इलाहाबाद रह रहे लक्ष्मण स्वरूप को पत्र लिखकर जानकारी की तो वहां से पता चला कि श्री महाराज जी अमुक तारीख को अमुक समय यहां आये थे और अमुक अमुक कार्य करके यहां से प्रस्थान कर गये थे।
इन्हीं के परिवार से जुडी एक और घटना है कि एक दिन महाराज जी ने कलावती भटनागर के लड़के की बहू से बोले। तुम करूणा पूर्वक रो कर कीर्तन किया करो। महाराज जी की इस बात पर बहू ने तर्क किया किसी के हृदय में दुख होगा तो रोना आयेगा। भगवान् के मिलने में रोने की क्या बात है या खुश होने की। इस पर श्री महाराज जी ने फिर समझाया, उसके लिए दुःखी होगी तभी वह मिलेगा।
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हमारे प्यारे प्यारे महाराज जी की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
बात उन दिनों की है जब आप अपनी पढाई इंदौर और महू में करते थे। महू में आप अधिकांशतः श्रीमती सुन्दर बाई, रागरति बाई या जानी मां के घर रहते। एक बार श्रीमती रागरति बाई से भोजन के लिए कहा तो वे उन्हें बड़े प्यार से भोजन कराती और कभी देर से आने का उलाहना भी देती थी। तब महाराज जी ने कहा, हमारे साथ बेटे का रिश्ता तुम मानती हो, ठीक है । किन्तु केवल फिजिकल बेटा समझना भूल होगी। यह ठीक है कि आत्मा शरीर से अलग नहीं है फिर भी संसारी रिश्ते और स्प्रिचुअल रिश्ते में कुछ अन्तर तो अवश्य है। जो हमारी सगी माँ है वह भी हमें अपने पास नहीं रख सकी। जिसने भी मुझसे केवल शरीर का रिश्ता रखा या माना उससे हमें निराशा ही हाथ लगेगी। हमसे रिश्ता होने का मतलब तुम्हें समझना होगा और उस पर बलिहार हो जाना होगा।
एक बार परीक्षा से सम्बंधित प्रश्नपत्र को हल करना था, समय वही 3 घण्टे का था। किन्तु इन्होंने केवल 25 मिनट के अन्दर ही उसको पूरा कर लिया। प्रश्नपत्र पूरा करने के पश्चात् आपने बाकायदा झुककर बगल वाले परीक्षा दे रहे साथी की काॅपी की ओर देखने की एक्टिंग की। इस पर कक्ष निरीक्षक महोदय ने महाराज जी को टोका, ओ मिस्टर, क्या करते हो। अपनी सीट पर बैठकर उत्तर लिखो। इस पर महाराज जी बोले, कुछ सोचा नहीं जा रहा है, यह लीजिए उत्तर पुस्तिका, मैं चला। इस प्रकार आप उत्तर पुस्तिका निरीक्षक के सामने फेंककर चले आये। उस समय निरीक्षक महोदय और परीक्षा देने वाले बाकी विद्यार्थियों ने यही सोचा कि राम कृपाल त्रिपाठी रौब में आकर अपनी उत्तर पुस्तिका फेंक गया है यह अवश्य ही फेल होगा। परंतु जब परीक्षाफल आया तब आपको 100 में से 82 अंक प्राप्त हुए थे।
परीक्षा के दौरान का ही एक वाक्या और है, एक बार एक प्रश्नपत्र में कुल छः प्रश्न थे। जिनमें से 5 प्रश्न करने थे और प्रश्न सं० 3 का उत्तर देना अनिवार्य था। आपने उसी अनिवार्य प्रश्न का उत्तर छोड़कर बाकी प्रश्नों का उत्तर लिख कर बाहर चले आये। बाहर आने पर जब साथियों ने उनसे पूछा कि प्रश्न स० 3 का उत्तर तुमने क्या लिखा तब त्रिपाठी जी बोले। वह तो मैने किया ही नहीं, ऐसा कहकर प्रश्नपत्र सामने दिखाते हुए बोले, देख लो तीन न० के आगे टिक मार्क नहीं लगा है। तब साथियों ने कहा कि प्रश्न तो अनिवार्य रूप से करना ही था। इस पर महाराज जी ने तुरंत बात पलट दी और कहा उन्होंने इसका भी उत्तर लिखा है, केवल साथियों को चकमा देने के लिए ही मैने प्रश्नपत्र में टिक मार्क नहीं लगाया था, महाराज जी के साथी उनकी होशियारी के कारण उनके उत्तर से आश्वस्त हो गये थे।
🌻🌻🌻🌻।हमारे प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।।🌻🌻🌻🌻
♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
एक बार उड़ीसा की दो लड़कियां चन्दा करने निकली थी। रास्ते में एक पोस्टर पढा अस्पताल में खून देने के बारे में। वे अस्पताल गयीं और वहां खून दिया। वहां से जो पैसे मिले थे, चंदे के रूपयों में रखे। चौराहे पर आयी कि ऐक्सिडेंट हो गया। एक लड़की को गहरी चोटे आई थी। बेहोश सड़क पर पड़ी थी। इतने में एक कार आयी। एक लम्बा व्यक्ति कार से उतरा। बेहोश पड़ी लड़की को अपनी कार में रखवाया और अस्पताल जा पहुंचा। डाक्टर आश्चर्य चकित था। अरे यह तो अभी यहाँ से खून देकर गयी थी। आगंतुक के हस्ताक्षर पर इलाज शुरू हो गया बाहर से दवा आदि लाने के पश्चात् आॅपरेशन शुरू हुआ। आगंतुक व साथ की लड़की बाहर प्रतीक्षारत थे। आॅपरेशन सकुशल सम्पन्न होने की जानकारी के पश्चात् आगंतुक वहाँ से चला गया था।। कुछ दिन पश्चात् दूसरी लड़की अपनी उस सहेली को देखने उसके घर गयी। वहां रखी कुछ फोटो में से उस व्यक्ति की फोटो भी उसने वहां देखी। वह चीख पड़ी, अरे मोहिनी यह तो उसी व्यक्ति की फोटो है जिसने तेरी जान बचायी थी तेरा आॅपरेशन कराया था। वो फोटो महाराज जी की थी।
कुछ ऐसा ही एक बार और हुआ कि एक लड़के का एक्सीडेंट हुआ तो एक व्यक्ति उसे अपनी कार में बिठाकर अस्पताल तक ले आया और भर्ती करा दिया, जब डाॅक्टर ने साइन बगैरह सब करा लिए, उसके बाद उनके माँ बाप को उसी व्यक्ति ने फोन करके ये बता दिया कि तुम्हारे लड़के का एक्सीडेंट हुआ है और जब मां बाप आये तो डाॅक्टर ने कहा कि इनके पापा इन्हें एडमिट करा के गये हैं। तो वो बोले पिता तो मैं हूं इनका तो वो साइन देखे गये तो रजिस्टर में साइन थे श्री महाराज जी के (कृपालु) फिर तो सब समझ में आ चुका था।
जबलपुर से जुड़ा एक और प्रसंग है, जबलपुर की डिफेंस फैक्ट्री (कंपनी) में श्री चन्द्रशेखर खरे उस दिन खड़े होकर कुछ काम करा रहे थे कि पास ही की बिजली की केबिल (तार) यकायक फट गयी। ऊपर से नीचे तक पूरा शरीर जल गया। उन्होंने महाराज जी बचाओ कहा और अचेत हो गये। उन्हें मिलिट्री के अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। उनकी बात उनके ही मुख से-
जैसे ही केबिल फटा (बर्स्ट हुआ) श्री महाराज जी का रूप मेरे सामने था। दूसरे दिन नौकर मुझे खाना खिला रहा था, श्री महाराज जी आये और कहा गधा, चिन्ता की क्या बात है। जब वे चले गये तब मैं समझा कि वे तो (उन्होंने) दर्शन दिये थे। उस वार्ड में सब लोग भयानक बीमार थे और चिल्ला रहे थे किन्तु मुझे यद्यपि साँस लेने में भी पीड़ा हो रही थी किन्तु मैं राधे राधे कह रहा था। एक सप्ताह पश्चात् महाराज जी का पत्र आया। उसमें लिखा था कि तुम मानों या न मानों मैं हर क्षण साथ हूं। बहुत सी ऐसी चीजें होती हैं, जिनको साधारण मानव समझ नहीं सकता। जब उसका प्रैक्टिकल रूप सामने आता है, तब समझ में आता है। विशेष परिस्थितियों में ही विशेष चीजें समझ में आती हैं अपने पुनर्जीवन पर विचार करते हुए इसे श्री राधे को समर्पित कर दो।
।। हमारे श्री महाराज जी चरणों में बारम्बार प्रणाम ।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
🌷एक बार लखनऊ के श्री जगदीश प्रसाद ने किन्ही कारणों से साप्ताहिक सत्संग में आना बन्द कर दिया था। श्री महाराज जी ने उनको बुलाया और कहा, जगदीश तुम हमारे पास बहुत दिनों से आते हो किन्तु तुमने कुछ अर्जित नहीं किया। कभी जब आयेंगे और हमें मालूम पड़ेगा कि जगदीश नहीं रहा। तो हमें कितना दुख होगा कि बिना कुछ करे ही चला गया। जगदीश जी रो पड़े। मनगढ़ सत्संग में आये और वहाँ एक माह की अभूतपूर्व साधना की या करायी। फिर श्री महाराज जी की आज्ञा से वृन्दावन रहने लगे।
🌷एक बार महावनी जी की लड़की उर्मिला और ऊषा ने एक दिन सोचा, महाराज जी अक्सर कहते हैं, व्याकुलता पूर्वक पुकारोगी मैं अवश्य आऊँगा। उन्होंने जाँचने की ठानी। कीर्तन के दिन जब सत्संगी इकट्ठा हुए उन्होंने अपना मन्तव्य उन पर प्रकट किया और कीर्तन व्याकुलता पूर्वक करने लगी। दर्शन देना नन्द दुलारे। श्री महाराज जी उस समय इलाहाबाद में थे। श्री महाराज जी ने राम दत्त दुबे को साथ में लिया और प्रतापगढ़ आकर उन लोगों के बीच खडे हो गये। महाराज जी को देखते ही सब लोग उनके चरणों में लिपट गये।
🌹उन दिनों ब्रज बल्लरी जी को भी महाराज जी के दर्शन किये बहुत दिन हो गये थे। बहुत परेशान और व्याकुल थीं। पता उन्हें मालूम नहीं था। एक दिन किसी मैस में वे सुश्री गिरिजा देवी के साथ खाना खाने जा रहीं थी और इसी बात का जिक्र कर रहीं थी कि सामने से श्री महाराज जी की कार आयी। दोनों रूके, चरण छुए, दर्शन किए, उनके साथ कार में बैठी कि ध्यान आया, यह कार तो उनकी नहीं है। कार मे से तुरंत उतर कर दरवाज़ा बंद कर दिया। कार चल दी । महाराज जी की कार का न० 5382 था। श्री महाराज जी और श्री दिगंबर प्रसाद ड्राइवर जाता हुआ दिख रहा था वे दोनों सड़क पर खड़ी रो रही थी। रिक्शे वाला आश्चर्यचकित देख रहा था और श्री महाराज जी उनकी दर्शन की इच्छा को पूरा करके जा चुके थे।
।।हमारे प्यारे प्यारे गुरुवर की जय।।
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बात वर्ष 1950 के आस पास की है। श्री महाराज जी राजकोट (गुजरात) गये थे। वहाँ पर श्री महाराज जी तत्कालीन शिक्षा मंत्री श्री यादव जी मोदी के घर ठहरे हुए थे। उन दिनों इंग्लैंड के डाक्टरों की एक टीम वहाँ आयी हुई थी। उन्होंने किसी दिन श्री महाराज जी का प्रातःकाल से लेकर रात्रि शयन तक के बीच के सारे कार्यक्रम को देखा और श्री यादव जी मोदी से कहा। ये महात्मा अपना एनर्जी का अत्यधिक व्यय क्यों करते हैं। यदि महात्मा जी इसी प्रकार अपने जीवन की एनर्जी खर्च करते रहे तो उनका जीवन थोड़ा हो जायेगा। श्री मोदी जी ने प्रेम वश श्री महाराज जी से इतना अधिक परिश्रम न करने को कहा, साथ ही यह भी बता दिया कि इस बारे में डाॅक्टरो की क्या राय है।
सारी बात सुनकर महाराज जी ने अगले दिन उन डॉक्टरों को बुलाकर पूछा, कि क्या उनके पास एनर्जी नापने की मशीन है। उनके हाँ में उत्तर देने पर श्री महाराज जी ने वह मशीन मँगवाई और उन लोगों से कहा, आप लोग जब चाहे मेरी एनर्जी नाप लें। उसके बाद मैं लगातार 8, 10 घण्टे तक अपना श्रम करूँगा। बाद में आप मेरी एनर्जी पुनः माप लेना, अगर हमारी एनर्जी कम हो जायेगी तो हम कीर्तन भजन करना बन्द कर देंगे। किन्तु यदि एनर्जी कम न हुई तो तुम लोगों को हमारे बताये अनुसार साधना करनी होगी।
डॉक्टर लोग पहले से ही आश्वस्त थे, अतः उन्होंने महाराज जी की शर्त स्वीकार कर ली। अगले दिन प्रातःकाल महाराज जी का चेकअप कर उनकी एनर्जी का पैमाना नोट कर लिया गया। उसके बाद महाराज जी दिन भर कीर्तन सत्संग करते रहे, रात्रि के समय फिर एनर्जी टेस्ट हुआ। ऐसा टेस्ट 8 दिन तक लगातार होता रहा, दोनों समय सुबह और शाम की महाराज जी की एनर्जी नोट की जाती रही, लेकिन उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता था, न ही कोई कमी दिखाई पड़ी। डाक्टरों की टीम आश्चर्य में थी कि ऐसा कैसे हो रहा है। अंत तक डाॅक्टर कुछ भी नहीं समझ पाये। क्योंकि कुछ अन्य लोगों की भी एनर्जी उसी दौरान मापी गयी थी, उनकी एनर्जी में कमी मिली थी लेकिन महाराज जी की एनर्जी बढी ही थी। डाक्टरों ने एक प्रकार से निरुत्तर हो गये थे। अब उन्होंने श्री महाराज जी से दीक्षा देने की प्रार्थना की। तब महाराज जी ने उन्हें एक एक माला देकर हरिनाम जपने का परामर्श दिया। तथा अपने हाथों से उन लोगों को माला पहनायी।
।।हमारे प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।।
♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
🌻घटना नागपुर की है श्री मती मृदुला अग्रवाल ने श्री महाराज जी के चरण स्पर्श किये तो श्री महाराज जी ने कहा, अरे ! तू आ गयी, मुझे तेरी बहुत दिनों से तलाश थी। उनके पति अत्यन्त क्रोधी थे। बच्चे उनके पास जाने से डरते थे।
उन्होंने श्री महाराज जी से कहा, मै इन लोगों से बहुत दुखी हूँ, कुछ उपाय बताइये।
श्री महाराज बोले दुखी होते तो तुम तुलसी, सूर, बन जाते। ऐसा नहीं हुआ है। इसका मतलब है इन लोगों में तुम्हारी आसक्ति है।
अनुकूल चिन्तन और प्यार में, प्रतिकूल भी अनुकूल लगता है। किन्तु विरोधी चिन्तन अनुकूल को भी प्रतिकूल बना सकता है।
🌻बात उस समय की है जब हमारे महाराज जी साधारण वस्त्र धारण करते थे और उनके अंग्रेजी कट बाल थे। महाराज जी रेलगाड़ी में सफर कर रहे थे। इनकी सीट के बराबर में एक डिप्टी कलेक्टर भी जा रहे थे। बात चीत के सिलसिले में महाराज जी ने उनसे पूछा, कलेक्टर महोदय क्या भगवत भजन में आपकी रूचि है। डिप्टी कलेक्टर ने जवाब दिया, जी हाँ। श्री महाराज जी ने पुनः प्रश्न किया - क्या आपने किसी का सत्संग, प्रवचन आदि सुना है। कलेक्टर महोदय ने कहा, जी हाँ ! बहुत से संत महात्माओं के प्रवचन मैने सुने हैं। एक पण्डित जी (श्री कृपालु जी) का भाषण मुझे सबसे अच्छा लगा। इस पर श्री महाराज जी ने कहा, वह चार दिन का छोकरा क्या जाने।
डिप्टी कलेक्टर महोदय उनसे (श्री महाराज जी से ) अत्यधिक प्रभावित थे और वो श्री कृपालु जी की तारीफ किये जा रहे थे। और श्री महाराज जी उसकी बात तर्क से काटते जा रहे थे।
इतने में वह स्टेशन आ गया जहाँ महाराज जी को उतरना था। कलेक्टर साहब को भी वहीं उतरना था। प्लेटफार्म पर उतरते ही एक भीड़ श्री महाराज जी की जयकार के नारे लगाती आगे की तरफ बढ़ी और श्री महाराज जी को घेर लिया। कोई उनको माला पहना रहा था तो कोई उनका चरण स्पर्श कर रहा था और डिप्टी कलेक्टर महोदय (श्री कृपालु जी) का विरोध करने वाले अपने ट्रेन के दूसरे साथी को देखकर आश्चर्य चकित हो रहे थे।
।।हमारे प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
महाराज जी सन् 1936 में वाराणसी से व्याकरणाचार्य की परीक्षा पास की। विषय बड़ा गंभीर था किन्तु समय बहुत थोड़ा। महाराज जी पढने का विचित्र ही ढंग रखे हुए थे। कक्षा में बहुत कम बैठते। पुस्तक घर पर ले जाकर पढते और उसके किसी अंश को चिन्हित कर लेते। उन्हीं अंशों को वे अलग कर लेते और बाद में उसका अर्थ अपने अध्यापक से पूछते। संतुष्ट न होने पर कभी-कभी ऐसा होता कि वह उन अंशों की स्वयं अपनी एक अलग ही व्याख्या कर देते। इस पर वह अध्यापक उनसे सहमत न होता तब दोनों लोग स्कूल के मुख्य प्रधान अध्यापक के पास जाकर अपनी अपनी व्याख्या बताते तब महाराज जी की व्याख्या उचित ठहरायी जाती।
बनारस की ही बात है एक बार सहपाठियों में कम्पटीशन हुआ कि कौन एक निश्चित समय में अधिक से अधिक संस्कृत का श्लोक याद कर सकता है। तब महाराज जी ने सात घण्टे में संस्कृत के 67 कठिन श्लोक याद किया जो एकदम नये थे। दूसरे स्थान पर पहुंचने वाले छात्र ने 7 घण्टे में केवल 27 श्लोक को ही याद कर पाया था।
मध्यमा साहित्य की परीक्षा के समय एक प्रश्न था, हिन्दी से संस्कृत में अनुवाद करना था। श्री महाराज जी ने उस हिन्दी का संस्कृत में तीन अलग-अलग ढंग से अनुवाद किया। पहले अनुवाद का शीर्षक दिया, मध्यमा कक्षा के अनुसार, दूसरा अनुवाद का शीर्षक था साहित्य जानने वालों के लिए और तीसरे अनुवाद का शीर्षक था, विशेष योग्यता वालों के लिए।
उसके पश्चात् यह भी लिख दिया, जैसी योग्यता हो उसके अनुसार मान लिया जाये।
श्री शम्भू नाथ शास्त्री उन दिनों वहां के प्रधान अध्यापक थे। उन्होंने इसे पढ लिया। इन्हें बुलाकर कहा, परीक्षक को इस प्रकार नहीं लिखा जाता। यदि फेल कर दे तो, इनका विनम्र उत्तर था, दोबारा जाँच करा ली जायेगी।
और जब मध्यमा का परीक्षा फल आया इनका नाम द्वितीय श्रेणी में था। समाचार पत्र पढा और फेंक दिया। तुरन्त ही परीक्षक संस्था को लिखा ज्ञात होता है कि काॅपियां देखी नहीं गयी हैं, उछाल कर न० दिये गये हैं। कृपया मेरी काॅपी दोबारा जांची जाय। काॅपी दोबारा जाँची(चैक) गयी और महाराज जी प्रथम श्रेणी में पास हुए।
इसी प्रकार वर्ष 1944 में आपने साहित्याचार्य की परीक्षा कलकत्ता विद्यापीठ से एक वर्ष में ही प्रथम श्रेणी में पास की। महू से महाराज जी ने प्रथम एव मध्यमा की परीक्षाएं वाराणसी विद्यापीठ से उत्तीर्ण की। इसके पश्चात् आपने आर्युवेदाचार्य की परीक्षा इंदौर दिल्ली विद्यापीठ से दी।
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।। हमारे प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
महाराज जी जब मिडिल स्कूल की परीक्षा दे रहे थे। उस समय की घटना है। महाराज जी के साथ पढ़ने वाले सहपाठी आपस में विचार करने लगे कि यह पढ़ता लिखता दिखाई नहीं देता लेकिन हमेशा अच्छे नंबरों से पास होता है। जरूर कुछ न कुछ ऐसा है जिससे इसे अच्छे नम्बर प्राप्त हो जाते हैं। सहपाठियों ने अपना दिमाग लगाया और इस निर्णय पर पहुँचे कि महाराज जी जो कमीज पहनते हैं वह सारा कमाल उस कमीज का ही है। एक दिन महाराज जी जब परीक्षा हाल में जा रहे थे तब सहपाठियों ने उनकी कमीज फाड़ डाली और उसका एक एक टुकडा अपनी-अपनी जेब में रख लिया और आश्वस्त हो गये कि हम लोग भी अब अच्छे नम्बर से पास हो जायेंगे। उस दिन महाराज जी को दूसरी कमीज पहनकर परीक्षा देने जाना पड़ा था।
इसी प्रकार एक बार परीक्षा भवन में प्रश्नपत्र आरम्भ होने के पूर्व महाराज जी की स्याही नीचे गिर गयी। जब लड़कों ने उसे देखा तो उन्होंने भी अपनी स्याही नीचे गिरा दिया। सब साथियों ने सोचा कदाचित् अच्छे अंक का यही कारण हो। पूरी कक्षा में जगह जगह स्याही ही गिरी हुई दिख रही थी और कक्ष निरीक्षक महोदय बड़बड़ा रहा था।
एक बार सहपाठियों ने सोचा कि राम कृपालु को अवश्य ही सरस्वती सिद्ध है। कुछ लड़के उनके पीछे पड़ गये कि सरस्वती सिद्ध करने का मन्त्र हमें भी बता दो। तब आपने एकदम जल्दी-जल्दी बोलने वाली गंवारू तुकबंदी बोल दी और कहा कि इसको याद कर लो, तुम्हें सरस्वती सिद्ध हो जायेगी। यह लिखकर नहीं दी जाती है। केवल जवानी बोलकर ही याद की जाती है। साथियों से वह तुकबंदी याद ही नहीं हो पायी।
एक अन्य सत्संगी से जब महाराज जी के बारे में पूछा तो बताया-
तो बस शायरी से समझाया..........
''वो आ रहे हैं निगाहें झुका लो
उन्हें देख लोगे तो लिपटने का जी चाहेगा। ''
''यही अदा जानते हैं मोहब्बत की
नीची नज़रों से कहते हैं तुम हमारे हो।'
।।हमारे प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
🌹अपने अंतिम समय में आजी , मंझली दीदी (श्यामा) को संबोधित करते हुए बोलीं- राम कृपालु ने मुझसे आने को कहा था आया नहीं। देख अब जाने की तैयारी हो रही है। आस पास विमान लेकर देवता लोग खड़े हैं। वहाँ भी स्वागत की तैयारी हो रही है। थोड़ी देर बाद कहने लगी- यह राम कृपालु मुझे जाने नहीं दे रहा है। कहता है अभी रुको। नहीं तो तेरी तेरहवीं पर भी मैं न आ सकूँगा। मालूम हो कि उस समय श्री महाराज जी के पैर का ऑपरेशन बम्बई में हुआ था।
एक दिन फिर कहने लगीं - राम कृपाल तूने जिन्दगी भर खूब खिलाया, खूब पहनाया, नींद भर सुलाया। फिर ऊपर को हाथ उठा कर कहा, "तनिक दूर और"।
अंतिम समय में बेहोशी में ऐसा लगता कि किसी को छाती से लगाकर पुचकार रहीं हैं। पूर्णतया बेहोश होने से पूर्व एक दिन और एक रात ऐसा ही लगता रहा कि आजी (माता) अपने शाश्वत रूप मातृभाव में स्थित होकर लीलाएं कर रहीं हैं। एक बार आजी ने ही कहा था- देखना आगे चल कर ये मनगढ़ गांव बहुत बड़ा तीर्थ बन जायेगा। लाखों लोग इसे दूर दूर से देखने के आयेंगे।
उसी समय बम्बई में जहाँ महाराज जी के पैर का आॅपरेशन हुआ था। श्री महाराज जी ने गुण्डुराज से बोले- अम्मा ने कहा है, मैं अब जाती हूँ। किन्तु मैने उनसे कहा है कि तुम अभी रूको, नहीं तो तुम्हारी तेहरवीं पर मैं न आ पाऊँगा और आजी आजी आठ दिन तक इलाहाबाद के गंगा नर्सिंग होम में बेहोश पड़ी रहीं।
🌹एक बार पूज्य मौसी ने स्वयं कहा था, मेरे एकाकी जीवन को रसमय तो राम कृपालु ने ही बनाया है। एक साल मैं बहुत बीमार थी। उठना- बैठना कठिन था। राम कृपालु बोला- मौसी, केदारनाथ, बद्रीनाथ चलोगी। हम सब लोग जा रहे हैं। मरने से पहले तीर्थ कर लूँ, मैने हाँ कह दी। 2 कार और एक जीप में हम सब जब देहरादून से आगे बढे तब राम कृपालु की जीप आगे और मेरी कार उसके पीछे थी। देखती क्या हूँ मेरा प्राण प्रिय थोड़ी-थोड़ी देर में पीछे मुड़कर मुझे देखता जा रहा है। मेरी इतनी चिंता इसे है। यह सोच सोचकर मैं रो पड़ी। कछुए के अण्डों की ही भांति यह सभी का ध्यान रखता है, तभी तो हजारों लोग इसके चारों ओर घिरे रहते हैं।
।। हमारे सर्वज्ञ श्री कृपालु महाप्रभु की जय ।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
एक बार मण्डलेश्वर, राम मंदिर में एक माह का कीर्तन रखा गया। अभी कीर्तन चल ही रहा था कि महाराज जी ने कहा मैं एक महात्मा के पास जा रहा हूँ। वह भूखा है, मैं जाऊंगा तभी वह खाना खायेगा। तुम लोग मेरे आने तक कीर्तन करना। दूसरे लोग कीर्तन करते रहे। महाराज जी तीन महीने बाद आये, इस प्रकार कीर्तन चार महीने तक चला।
यहीं एक भक्त ने श्री महाराज जी को सब भक्तों के साथ भोजन करने के लिए कहा। श्री महाराज जी ने उसे स्वीकृति दे दी, किन्तु वह स्वयं कुछ काम से महेश्वर चले गए। वह भक्त बहुत रोने लगा तो सब लोग रात में बारह बजे खाना खाने चले गये। किन्तु श्री महाराज जी के न होने के कारण सभी को अच्छा नहीं लग रहा था। भोजन के पश्चात् फिर कीर्तन प्रारंभ हुआ। पुरूष छड़ी बजाकर और स्त्रियाँ नृत्य करके कीर्तन गा रहे थे। इस बीच श्री महाराज जी आ गये और बीच में खड़े होकर कीर्तन करने लगे। सब लोग मारे प्रसन्नता के उनके चरणों में गिर गये। कई लोग खुशी के मारे रो पड़े। इसी समय प्रसाद के लिये एक भक्त मटकी में दही लेकर आया। उसने जानी मां को एक चम्मच में लेकर दही चखाया कि श्री महाराज जी वहाँ उपस्थित हो गये। उन्होंने अपने और जानी मां के ऊपर उस मटकी का सारा दही उड़ेल दिया। पश्चात् सब भक्तों ने नीचे से उठाकर उस दही का प्रसाद ग्रहण किया।
एक बार महेश्वर वालों ने श्री महाराज जी को दोपहर के भोजन के लिये निमंत्रण दिया। महेश्वर की वह सत्संगी नाव में बैठकर आयी थी। सीढ़ियों पर चढने लगीं तो पैर जलने लगे और वे चिल्लाने लगी। एक बाबा आया और बोला कैसा कीर्तन है, बाइयों के पैर झुलसे जा रहे हैं।
उसका इतना कहना था कि मूसलाधार वर्षा होने लगी। दो घण्टे पानी बरसा। पानी बरसने के कारण कीर्तन की व्यवस्था अन्दर करनी पड़ी।
इसके दूसरे दिन अहिल्याबाई घाट पर शंकर जी के मंदिर में सात दिन का कीर्तन रखा गया। पंत जी ने पचास आदमियों के खाने का प्रबंध किया था, लेकिन 20, 25आदमी और बढ़ गये। पंत जी बहुत घबराये हुये थे। श्री महाराज जी से बोले, खाना 50 आदमी का बना है लेकिन उससे काफी ज्यादा लोग हो गये हैं। इस पर महाराज जी ने कहा घबराओ नहीं। कोठार पर पर्दा डलवा दिया, नर्मदा जी को भोग लगाया और कोठार के पास भगवान की एक फोटो रख दी गयी। और महाराज जी बाहर बैठ गये वे अपने हाथों से देते जाते और लोग परोसते जाते, जितने लोग थे सभी ने भरपेट खाना खा लिया, तब भी 20 आदमियों के लगभग का खाना बचा रह गया। ऐसी थी महाराज जी की लीला।
।।करूणावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
एक बार आप महेश्वर से मंडलेश्वर नाव से चले। गर्मी के दिन थे। रात का समय था, नाव में बैठते ही बोले, नाव डूब जाय तो मेरे बस की बात नहीं। जब नाव में बैठे तो उनके हाध में मनहर गोपाल का चित्र था, चित्र को देखकर बोले चलो हम पंढरनाथ चलें और कीर्तन कराने लगे, विट्ठल, विट्ठल, विट्ठला फिर बोले वृन्दावन चलें और कीर्तन का स्वर एकदम बदल गया, गोविन्द जय जय गोपाल जय जय। तब तक नाव बीच धारा में आ गयी थी। अब बोले चलो नवद्वीप चलें और फिर कीर्तन के बोल बदल गये और हरे राम का कीर्तन कराने लगे। नर्मदा का पानी उछल उछल कर नाव में आने लगा नाविक बोला, नाव डूब रही है। मैं क्या करूँ ? लोगों को महाराज जी की बातें याद आ गयी, नाव डूब जाये तो मेरे बस की बात नहीं है। नाव में बैठे श्री नारायण और शकुंतला चिल्लाने लगे, पंडित जी ये क्या है। ये कभी कहते हरे राम करते जाओ और कभी चुप हो जाते। अँधेरी रात नर्मदा की बीच धारा, नाव का डगमगाना, पानी का नाव में भरना, यह सब देख लोग भय से काँप रहे थे, तभी महाराज जी ने छलांग मारी और पानी में कूद गये। नदी में उस समय अथाह पानी था किन्तु लोगों ने देखा कि महाराज जी के घुटनों तक ही पानी था। लगा जैसे कोई उँचा पत्थर इनके पैरों (चरणों) के नीचे आ गया हो। नाव को पकड़ कर कहने लगे, डुबा दूँ। फिर नाव को कसकर पकड़ा और उसका हिलना बन्द किया। सबको खूब रूलाया और थोडी देर विनती करने पर अपने आप ऊपर आये तब नाविक ने नाव को किनारे पर ले जाकर लगा दिया, उसकी मजदूरी दी और आगे बढ़ गये।
घटना उन दिनों की है जब महाराज जी लखनऊ में थे। एक दिन रामेश्वरी दीदी से बोले हम तुम्हारे घर चलेंगे। इस पर रामेश्वरी दीदी बोली जीजी तो घर पर नहीं हैं, महाराज जी ने कहा उसे भी बुला लेंगे उधर ब्रज मंजरी दीदी के मन में श्री महाराज जी से मिलने की तीव्र इच्छा जागृत हुई और वह गाड़ी पकड़कर प्रातःकाल लखनऊ पहुंच गयी। ऐसी स्थिति में रामेश्वरी दीदी सोचने लगी कि महाराज जी ने तो इतना ही कहा था उसे भी बुला लेंगे और वह यहाँ चली भी आईं। इस प्रकार उन्होंने बता दिया था कि किस प्रकार हम लोग उनकी विचारधारा के अधीन है।
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।। हमारे प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।।
♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अंह का महल ढह गया ।
एक बार जब श्रीमती शोभारानी बसु चन्द्रप्रकाश सिंहल जी के घर राजेन्द्र नगर लखनऊ श्री महाराज जी के दर्शनार्थ पहुँची तो चन्द्र प्रकाश सिंहल जी ने प्रश्न किया -
बसु जी, श्री महाराज जी के बारे में आपका क्या विचार हैं ?
प्रश्न को सुनकर उनका मुख हर्ष से चमक उठा । वे बोली - सिंहल जी मैं विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र विभाग की अध्यक्षा हूँ । मुझसे पूर्व इसी स्थान पर मेरे पति थे, जो अब प्राच्य दर्शन के प्रवक्ता होकर आँक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, लन्दन चले गये हैं । इसे आप मेरी आत्मश्लाघा न समझें । यह मै आपके प्रश्न की भूमिका में कह रही हूँ । सम्पूर्ण विश्व के दर्शन्शास्त्रियों की जो शोभा कुछ वर्ष पूर्व काश्मीर में हुई थी, उसकी मैं अध्यक्षा थी ।
यूनिवर्सिटी में मेरा प्रयाप्त बडा बंगला है । सुन्दर विस्तृत बैड रुम व मेरा निजी वृहद पुस्तकालय है । संसार की कोई भी उच्च कोटि की दर्शन की ऐसी पुस्तक नहीं है जो मेरे निजी पुस्तकालय में न हो । मेरा एक पलंग पुस्तकालय में भी है । घर पर रहने का अधिकांश समय मेरा पुस्तकालय में ही व्यतित होता है ।
एक बात और चाहे कहिये कि मुझे जन्मजात अहंकार था अथवा कहो कि भगवान ने मुझे अतुलनीय बुद्धि और तर्क शक्ति का धनी बनाया था । मुझे याद नहीं कि मैंने अपने तर्कों के आगे अपने माता - पिता, भाइ- बहन, मित्र - सहेली, सहपाठी अथवा शिक्षक की बात पर सहमत न होने पर, उसको स्विकार किया हो । अहं से नही तर्क से । सदा मेरे ही तर्क सर्वोपरि रहता था । शादी के पश्चात पति भी कभी मेरे तर्को को नहीं काट पाये । किन्तु श्री महाराज जी का विश्वविद्यालय का प्रवचन मेरे जीवन की अभूतपूर्व घटना रही - "न भूतो न भविष्यती" ।
क्रमशः ....................
श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ गुरूदेव श्री कृपालु महाप्रभु की जय ।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अहं का महल ढह गया
............... प्रत्येक उद्धरण जो श्री महाराज जी ने दिया, अपने प्रवचन में, चाहे वह वेद का हो, शास्त्र का हो, भागवत, गीता अथवा रामायण का हो, प्रत्येक मुझे कंठस्थ था । अब आप पूछेंगे कि उसमें विषेश क्या था, जिसने आपको आकर्षित किया ।
मुझे आकर्षित किया उन उद्धरणों की अपूर्ण व्याख्या, विरोधों का समन्वय, उनसे उठने वाली शंकाओं का समाधान तथा उनकी सरल और ओजस्विनी भाषण शैली ने मेरे अहं के महल को ढहा दिया था । तथा इतना सब कुछ पढाने, जानने - समझने के पश्चात् भी जो विरोधाभास तथा लक्ष्य निर्धारण में शून्य सा मेरे मन में बचा रह गया था, वह अकस्मात समाप्त हो गया था ।
इसके अतिरिक्त सभी दर्शन शास्त्रियों के सिद्धातों, उनके मध्य रहने वाले भेदों को मैं भली भाँति समझती थी । किन्तु जिस लक्ष्य, गन्तव्य बिन्दु की ओर वे इंगित करते थे, उसकी प्राप्ति का मार्ग क्या है, इसका कोई भी स्पष्ट रूप मेरे मस्तिष्क में नहीं था ।
श्री महाराज जी के प्रवचनों के दिनों में मेरी शंकाओ का समाधान, विरोधाभासों का समन्वय व निराकरण ही नहीं हुआ, मुझे ऐसा लगा कि वक्ता ने अवश्य ही उस मार्ग को देखा है तथा उस लक्ष्य को प्राप्त किया है, जबकि मैंने उसके बारे में केवल पढा है, मनन किया है, उसकी आलोचना समालोचना की है किन्तु न तो उस लक्ष्य को प्राप्त किया है और न उसको प्राप्त कराने वाले मार्ग को जाना है । अत: अब मैं आई हूँ इनकी शरण में, यह जानने को कि उस लक्ष्य को प्राप्त करने का मार्ग क्या है, वह कैसे प्राप्त हो सकता है वह लक्ष्य जिसकी प्राप्ति के बारे में सारे वेद शास्त्र इंगित करते हैं ।
॥पंचम मूल जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अखण्ड संकीर्तन
अब मंदिर पंचायत ने यज्ञ की योजना बनाई । उसका कहना था कि कीर्तन की शांती के लिये यज्ञ करना आवश्यक है । पंडित जी को इस पर आपत्ति थी । उनका कहना था कि यज्ञ की शान्ति के लिये शास्त्रों में कीर्तन का विधान है न कि किर्तन की शान्ति के लिये यज्ञ का ।
फिर झगडा उठ खडा हुआ । पंचायत के सदस्यों और वकिल साहब ने, वाराणसी से एक विद्धान पंडित श्री सरयू प्रसाद त्रिपाठी को ५०० रूपया देकर शास्त्रार्थ करने के लिये बुलाया । वे ठहरे वकिल साहब के अतिथी गृह में । पंडित जी छद्म वेश में अकेले ही उनके पास सायंकाल के समय पहुँचे । दूसरे पक्ष की बुराई करते हुये उन्होंने विद्धान पंडित जी के पक्ष में प्रमाणों की जिज्ञासा की । उन्होंने कीर्तन के पश्चात् यज्ञ किये जाने के बारे में प्रमाण प्रस्तुत किये । पंडित जी ने दूसरे प्रमाण देकर कहा - किन्तु वे लोग तो ऐसा कहते हैं । दोनों ओर से अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये जाते रहे । उस नवयुवक के प्रमाणों के विरुद्ध पंडित सरयू प्रसाद त्रिपाठी अपना पक्ष सिद्ध करने में समर्थ न हो सके । पश्चात् पंडित जी (श्री महाराज जी) के चले आने पर वे सोचने लगे - मैं इस नवयुवक के प्रमाणों को निरस्त न कर सका तो कल जब उनकी ओर से अन्य विद्धान पंडित आवेंगे तब अपने पक्ष को कैसे सिद्ध कर सकूँगा । अत: अपनी आसन्न हार को देख वे दिन निकलने से पूर्व ही काशी को प्रश्थान कर गये ।
॥ बोलिये जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻
अखण्ड संकीर्तन
.................. इसी बीच एक घटना और घटी । कीर्तन अभी चल ही रहा था कि मारवाडियों के गुरु डीडवाना के श्री राघवाचार्य प्रतिवर्ष की भाँति आने वाले थे । मंदिर पंचायत ने कहा - हमारे गुरु जी आने वाले हैं । कीर्तन बन्द करो । वे यहीं मंदिर में ऊपर ठहरते हैं । कीर्तन से उनको असुविधा होगी ।
श्री महाराज जी - जिस गुरु को किर्तन से, भगवन्नाम से असुविधा होती है, वह महात्मा नहीं, राक्षस है । किसी के आने जाने से कीर्तन बन्द न होगा ।
अपने गुरु के प्रति इस प्रकार का संबोधन सुन मारवाडी लोग नाराज हो गये । उन्होंने कीर्तन में आना बन्द कर दिया । आये उनके गुरु जी । उनसे अपना रोना रोया उन्होंने । किन्तु वे बोले तुम लोगों के मंदिर में आज तक कभी २४ घंटे का भी कीर्तन नहीं हुआ । ये तीन महिने से हो रहा है । अंखड कीर्तन और वह भी सात्विक भावों सहित । यह तो मंदिर और महू निवासियों का सौभाग्य है कि एक रसिक भक्त द्धारा यह कीर्तन कराया जा रहा है । जाओ उनसे क्षमा माँगो ।
वे लोग आये और पंडित जी से क्षमा याचना की । राघवाचार्य जी उसी मंदिर में ठहरे और उन्होंने भी कीर्तन की मधुरिमा का रस चखा ।
इस प्रकार यह कीर्तन अखंड रूप से पूरे चार मास - वैशाख के महिने से लेकर श्रावण मास तक चला ।
क्रमशः ................४
॥लीलाधारी श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
श्री महाराज जी के प्रति श्रद्धा रखने वाले एक रिटायर्ड जज महाराज जी के सत्संग में अक्सर आते थे। महाराज जी भी जब कभी उनके शहर में जाते तो उनके यहाँ ठहरते और वहां भी सत्संग का कार्यक्रम होता। जज साहब के एक छोटे भाई जो कलेक्टर थे उनकी तनिक भी आध्यात्म में रूचि नहीं थी। वे महा नास्तिक संत महात्माओं के विरोधी थे। एक बार जब श्री महाराज जी जज साहब के यहाँ रूके हुए थे। संयोग से उनके छोटे भाई कलेक्टर साहब भी घर आये हुए थे। श्री महाराज जी उस समय एक पद की व्याख्या के संबंध में भक्तों को कुछ समझा रहे थे। जज साहब अपने कलेक्टर भाई के बारे में महाराज जी को पहले ही बता चुके थे। कलेक्टर साहब आने के बाद बराबर वाले कमरे में जाकर बैठ गये। उनको वहां से महाराज जी की बातें सुनाई पड़ रहीं थी। विषय कुछ रोचक लगा तो वे बरामदे में आकर टहलते हुए सुनते रहे । जैसे जैसे महाराज जी को सुनते उनकी संत महात्माओं के प्रति घृणा शान्त होती जा रही थी। उस दिन श्री महाराज जी ढाई घंटे तक बोलते रहे।
महाराज जी ने जब बोलना बन्द कर दिया तब कलेक्टर महोदय अन्दर आये और अन्य लोगों की भाँति श्री महाराज जी के चरण स्पर्श करना ही चाहते थे कि श्री महाराज जी ने उनके पैर छू लिए। कलेक्टर साहब हिचके और बोले, स्वामी जी आप यह क्या करते हैं। आप तो संन्यासी हैं, महात्मा है। आपको यह शोभा नहीं देता। इस पर श्री महाराज जी ने कहा, मैने तो उस संसार से संन्यास लिया है, जिसे हर किसी को एक न एक दिन छोडना पडता है यदि कोई नहीं भी छोडना चाहे तो यमराज उससे जबरदस्ती छुडवा देता है। मैंने तो इस असार संसार का परित्याग किया है भगवान् को प्राप्त करने के लिए। किन्तु आश्चर्य मुझे तुम्हें देखकर होता है कि तुमने न जाने किस बल पर उस भगवान् को ही छोड दिया है जो सर्वव्यापक है।
इन शब्दों का कलेक्टर साहब के ह्रदय पर न जाने क्या असर किया कि वह चीखकर श्री महाराज जी के चरणों में गिर पडे और कालांतर में अपने भाई जज साहब से भी आगे निकल गये। यह होता है महापुरुषों की वाणी और उनके संकल्प का प्रभाव। शास्त्र भी कहता है, महापुरुष, भगवत् प्राप्त सन्त से सुनों, बार बार सुनों उनके शब्द और वाणी का महत्व समझो। जरूर असर होगा।
🌺उन दिनों श्री महाराज जी मुक्त हस्त से रस वर्षण कर रहे थे। कभी भक्तों को वृन्दावन तो कभी बरसाना तो कभी गोवर्धन ले जाते बरसाने में अधिकांश श्री महाराज जी राधाकुण्ड, मोर कुटी, मान मन्दिर पर कीर्तन कराते थे। दिन में सत्संगियों से मधुकरी माँग कर लाने को कहते। बडे बडे घरों से सम्बन्ध रखने वाले सत्संगी लोग हिचकते, महाराज जी उनका खाना बंदरों को खिला देते और उनसे गाँव से भिक्षा माँग कर लाने को कहते। संभ्रान्त परिवार के लोगों को भिक्षा माँगते देख बरसाने वाले खूब भिक्षा देते। भिक्षा लाकर सब लोग अपनी अपनी भिक्षा के बारे में महाराज जी को बताते तथा खाते समय अत्यन्त प्रसन्न होते थे।
श्री महाराज जी कभी भक्तों से कहते यहां के लता, वृक्ष सभी महापुरुष हैं। इनके नीचे बैठकर रूपध्यान करो। भक्त गण वैसा ही करते और उन्हें तरह तरह के अनुभव भी होते। सब अपने अपने ढंग से नित्य कीर्तन करते थे। एक बार एक साँवले रंग के महात्मा काली कमरी ओढ़कर आये। पूरन के एक संत के पास जाकर कहने लगे, रोता क्यों है हरि तो तेरे साथ ही नाच रहा है। चौधरी साहब, गोदावरी, रामसमुझ ओझा और हनुमान प्रसाद आदि लोगों ने उन्हें देखा, वे लोग उनके चरण छूने को दौडे किन्तु वे अन्तर्धान हो गये। कीर्तन के दौरान कई बार लम्बे लम्बे सांप निकलते उनके सामने राधे राधे कहने पर चले जाते।
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॥ करूणावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
श्रीमती गोदावरी की शादी जयपुर में हुई थी। एक बार वे बहुत बीमार पड़ गयीं। उनके भाई हनुमान सेठ उन्हें प्रतापगढ़ ले आये। एक दिन की बात है हनुमान सेठ के घर के सामने पूरन सेठ के घर कीर्तन हो रहा था। कीर्तन की ध्वनि गोदावरी के कानों में पडी। गोदावरी ध्वनि की दिशा में दीवार का सहारा लेकर बढती हुई वहां पहुंच गयी। कीर्तन समाप्ति के पश्चात श्री महाराज जी ने पूछा, स्वास्थ्य कैसा है। हनुमान सेठ ने गोदावरी के स्वास्थ्य के बारे में विस्तार से बता दिया।
सब कुछ जानकर महाराज जी ने सारी दवायें बन्द करा दी और केवल चरणोदक लेने की सलाह दी। हनुमान सेठ ने यही किया और उन्होंने पाया कि उनकी बहन गोदावरी कुछ दिनों बाद बिलकुल ठीक हो गयी।
🌺एक बार श्री महाराज जी ने कीर्तन के अपने साथियों से कहा था, तुम लोग जब भी व्याकुलता पूर्वक पुकारोगे मैं आ जाऊंगा। बात उन दिनों की है जब श्री महाराज जी इलाहाबाद में श्री लक्ष्मण स्वरूप भटनागर के निवास पर कीर्तन करा रहे थे। उसी दिन की घटना है। श्री महाराज जी द्वारा कही गई बात को आजमाने के लिए प्रतापगढ़ में जब सायंकाल के समय भक्तजन कीर्तन के लिए इकट्ठा हुए तब ऊषा और उर्मिला ने सब लोगों पर अपना मंतव्य प्रकट कर दिया। भक्तगण आज श्री महाराज जी को बुलाना ही चाहते थे। सारे भक्तगण उषा की देखरेख में कीर्तन प्रारंभ कर दिया।
दर्शन देना नन्द दुलारे। नन्द नन्दन नैनन के तारे।।
सब लोगों ने महाराज जी का ध्यान किया और व्याकुलता पूर्वक उनके आने की प्रार्थना करने लगे। सभी भाव विभोर होकर कीर्तन करने लगे और मन ही मन श्री महाराज जी को पुकारते ही जा रहे थे। सभी मन ही मन सोचते आज तुम्हारी परीक्षा है, न आये तो वाणी विफल हो जायेगी।
उधर श्री महाराज जी इलाहाबाद में भटनागर के घर कीर्तन में मस्त थे। कीर्तन चरम अवस्था पर था कि पता नहीं श्री महाराज जी को क्या हुआ कि वहाँ मौजूद श्री राम दत्त दुबे से बोले अपनी साईकिल ले आओ, बाहर चलेंगे। साईकिल आयी महाराज जी उस पर बैठे और राम दत्त दुबे को पीछे बैठाया। साइकिल तेज गति से चल रही थी, भीड में कभी इधर मुडती तो कभी उधर। साइकिल इतनी तेज गति से चल रही थी कि पीछे बैठे दुबे जी ने डर के मारे आँख ही बन्द कर लिया। स्टेशन पहुंचे स्टैंड पर साइकिल रखी और टिकट लिया। ट्रेन सीटी पर सीटी दे रही थी, दोनों भागकर सामने वाले डिब्बे में चढे कि गाडी तुरंत चल दी। मानो इतनी देर तक वह इन दोनों लोगों के लिए ही रूकी थी और बार बार सीटी देकर महाराज जी को ही बुला रही थी। ट्रेन प्रतापगढ़ पहुंची वहां रिक्शा लिया और बाली पुर पलटन बाजार में महाबनी जी के घर पहुंच गए, जहां उस समय भी कीर्तन चल रहा था। दर्शन देना नन्द दुलारे। नन्द नन्दन नैनन के तारे। भक्तों की आर्त पुकार सुनकर श्री महाराज जी इलाहाबाद से प्रतापगढ़ आ गये थे। कीर्तन के बीच में श्री महाराज जी जाकर खडे हो गये। उनको अपने बीच में देखकर लोग चीख पडे और आत्म विभोर होकर महाराज जी के चरणों में लिपट गये थे।
॥ भक्त वत्सल श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
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आगरा की रहने वाली एक सत्संगी महिला सुश्री गौरी राय ने कहा कि महाराज जी को जब यह पता चला कि उनकी मां पूर्णतः उन्हीं पर आश्रित हैं तब महाराज जी ने उनसे कहा था, माँ को रोटी, कपड़ा, की कभी तंगी न होने देना और भविष्य में साधना के लिए पैसा जोड़ना। सुश्री गौरी राय ने महाराज जी से सवाल किया क्या जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आपके शरण में आना आवश्यक है। गौरी राय की इस बात का उत्तर देते हुए महाराज जी ने कहा कि यह जीव जिस प्रकार के परिवेश में रहता है, जिससे मन लगाता है वैसा ही वह बन जाता है। अतः सांसारिक बनने के लिए सांसारिक व्यक्तियों से नाता जोड़ना होगा और आध्यात्मिक लाभ लेने के लिए आध्यात्मिक व्यक्तियों के पास जाना होगा। गौरी राय का स्वयं कहना है कि वह जब पहली बार महाराज जी से मिली थी तब महाराज जी ने उनसे कहा था, मैं बहुत दिनों से तुम्हें परख रहा था, बहुत पहले ही तुम्हें मेरे पास आ जाना चाहिए था।
एक बार हमारे महाराज जी किसी सत्संगी महिला के घर गए अचानक बिना बताए पंहुच गये।
तो जब अचानक श्री महाराज जी उनके घर पहुचे तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। और महाराज जी ने आते ही कहा की मुझे बहुत जोर से भूख लगी है।
उस महिला की ख़ुशी और बढ़ गयी। वो सोचने लगी की मै जल्दी से क्या बना दू क्योंकि मेरे महाराज जी बहुत भूखे है उसे ख़ुशी के कारण कुछ समझ नही आ रहा था ।
फिर उसने सोचा की मै महांराज जी के लिए जल्दी से हलवा बना देती हूं।
वो हाथो से तो हलवा बना रही थी लेकिन मन से महाराज जी का चिन्तन कर रही थी।
तो उसने हलवे में चीनी की जगह नमक मिला दिया और उसको प्लेट में कर के महाराज जी के पास ले गयी।
जब महाराज जी ने हलवा एक चम्मच खाया तो उनको स्वाद बदला हुआ सा लगा।
महाराज जी ने दोबारा भी हलवा माँगा और वो बडी खुश होकर सारा हलवा ले आई कि महाराज जी को बहुत अच्छा लगा।
लेकिन उन्होंने उस महिला से कुछ् नही पता चलने दिया और पूरा का पूरा हलवा खा गए।
थोड़ी देर बाद महिला ने सोचा की महाराज जी ने इस प्लेट में खाया है इसी प्लेट में मै भी प्रसाद के रूप में खा लेती हूँ तो थोड़ा सा कहीं लगा रह गया था वो उसने चखा।
लेकिन जैसे ही उसने पोंछकर मुँह में डाला तो समझ में आया। तो महाराज जी कहते हैं। इतने प्यार से बनाया था, दुख न हो मैंने इसलिए पूरा खाया, कि हलवा पता ही नहीं चलेगा मीठा बना है या नमकीन जब रहेगा ही नहीं।
🌹ऐसी करूणा श्री महाराज जी के अतिरिक्त और कौन कर सकता है।🌹
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॥ कृपावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
1963 का वाक्या है भाष्कर साहब के यहाँ विजयनगर कालोनी में रात्रि भर का कीर्तन रखा गया था। सारे भक्तजन भावपूर्ण तथा रूपध्यान पूर्वक कीर्तन कर रहे थे। सात्विक भावों का तो ऐसा ताँता लगा कि स्त्री- पुरूष भावों में विभोर होकर सुधि भुलाकर पृथ्वी पर गिरने लगे। उस दिन के कीर्तन की श्री महाराज जी ने भूरि भूरि प्रशंसा की किन्तु उर्मिला जी को उस दिन ऐसा लगा कि उनके द्वारा कीर्तन कराने से ही ऐसा आनन्द आया है। उन्होंने दूसरे दिन श्री महाराज जी से कहा, महाराज जी आज भी केवल रात्रि का ही कीर्तन होगा। श्री महाराज जी उनके अहंकार को ताड़ गये, उन्होंने उसकी स्वीकृति दे दी। पहले दिन की ही भांति सामूहिक कीर्तन हुआ। रात्रि के 12 बजे तक केवल महिलाओं का कीर्तन हुआ। पुरूष लोग सब बाहर चले गये। श्री महाराज जी भी अपने कमरे में चले गये अब उर्मिला जी ने बाजा अपने हाथ में लिया। सीना फुलाया और मन पसन्द कीर्तन कराया किन्तु कुछ जम नहीं रहा था। अधिकांश महिलाएं ऊँघ रही थी। लग रहा था कि कीर्तन में किसी को कोई रस नहीं आ रहा हो किसी के भी अंदर सात्विक भाव उमड़ता ही नहीं दिखा। प्रातः श्री महाराज जी ने उर्मिला से पूछा कीर्तन तो अच्छा जमा होगा।
इस पर उर्मिला जी बोली, क्या जमता किसी ने कायदे से कीर्तन किया ही नहीं। उर्मिला जी अहंकार में यह कह तो गयी किन्तु बाद में वह भली प्रकार समझ गयीं थी कि सात्विक भावों का उद्रेक अथवा कीर्तन में रस की अनुभूति महापुरुष की कृपा से ही होती है।
🌺एक बार प्रातःकाल मास्टर साहब के बरामदे में श्री महाराज जी पलंग पर विराजमान थे और उनकी आरती अभी समाप्त ही हुई थी कि पलंग के दायीं ओर खडा फक्कड बाबा उछल पड़ा। हनुमान जी की मुद्रा में वह पलंग के पास आया, मुँह अत्यन्त लाल, घूँसा ताने वह हुँकार करता आगे बढा अन्य लोगों के देखते ही देखते श्री महाराज जी की तरफ निशाना बनाकर चला। श्री महाराज जी एक ओर बच गये। बाद में श्री महाराज जी ने उसे बाहर निकाल दिया। फक्कड बाबा जोर जोर से रो रहा था।
सायंकाल के समय श्री महाराज जी बाहर आये रोता हुआ वह उनके चरणों से चिपट गया। कृपा सागर श्री महाराज जी अपने अपमान को तो पहले ही भूल चुके थे। उसे क्षमा किया और उठकर अपने हृदय से लगा लिया। माँ मारती है किन्तु जब बच्चा पुनः उसी की गोद में आकर बैठ जाता है तो फिर उसका क्रोध भला कितनी देर रह सकता है।
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॥ कृपावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻ ♻हमारे महाराज जी ♻ ♻
एक बार श्री महाराज जी मध्यप्रदेश के मुरैना गये हुए थे। वह 27 जुलाई 1962 का दिन था। महाराज जी श्री मती रज्जो बाई के घर ठहरे हुए थे। वहां कीर्तन का कार्यक्रम सुबह दोपहर, शाम में चलता। वहां भक्तों के बीच शांति जी व ज्ञान शीला बैठी हुई थी। ज्ञान शीला को देखकर महाराज जी बोले, काश इसका नाम प्रेम शीला होता।
महाराज जी के इस बात पर शान्ति जी ने बताया, प्रेम शीला तो इसकी बड़ी बहन का नाम है। वह लश्कर में रहती है। जब आप लश्कर आवेंगे तब हम उसे आपके पास ले आवेंगे। प्रेम शीला अपनी बात आगे बढाते हुए बताती हैं एक बार मेरे यहाँ कच्चा कोयला समाप्त हो गया था। बड़ी चिंता थी कोयले का इंतजाम कैसे करें। तभी एक बच्ची ने किवाड़ों पर थपकी दी, मैने किवाड़ खोली तो सामने उस बच्ची को देखकर अचंभित हो गयी। मैं कुछ बोल पाती इसके पहले ही वह कहने लगी। बाबू जी ने कोयला भेजा है। मैंने कहा ये मेरा कोयला नहीं है। इस पर वह छोकरी बोली, अरे अभी थोड़ी देर पहले ही आपका लड़का पैसा देकर आया और कहा कि एक टोकरी कोयला आपके यहाँ पँहुचा दे। उसने मकान के बारे में पूरी जानकारी भी दी थी। मैं उसी जानकारी के आधार पर यहां आयी हूँ, इतना कहकर वह कोयला रख करके चली गयी। बाद में काफी देर तक कोयला उसी प्रकार पड़ा रहा लेकिन कोई उस पर अपना हक जताने नहीं आया। बाद में मुझे उस कोयले की टोकरी को अंदर रखना पड़ा ।
बात उन दिनों की है जब महाराज जी का प्रवचन जे० के० मन्दिर में चल रहा था,। ग्वालियर से श्री मती प्रेम शीला की लड़की का तार आया, तुरंत आ जाओ। श्री मती प्रेम शीला इतना अच्छा सत्संग छोड़कर नहीं जाना चाहती थी। उन्होंने श्री महाराज जी को वह तार ले जा करके यह सोचकर दिखाया कि शायद मना कर दें। किन्तु श्री महाराज जी ने तार देखते ही तुरन्त जाने की आज्ञा दे दी।
आज्ञानुसार विवश होकर उन्हें जाना पड़ा। वहां जाने पर पता चला कि उनके पतिदेव महोदय ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी थी कि मेरी पत्नी मेरे घर से कई कीमती सामान लेकर भाग गयी है।
प्रेमशीला को वहाँ पहुँचने पर जब इन सब बातों का पता चला तब वह सोचने लगी कि ऐसा सत्य परामर्श केवल श्री महाराज जी ही दे सकते थे, जिन्हें भूत भविष्य वर्तमान सभी की चिन्ता है। हम लोग सोच रहे थे गीता में ठीक ही तो कहा है, अनन्य भाव से जो मेरा सतत चिन्तन करता है, उसका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। इसका इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है।
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॥हमारे प्यारे प्यारे महाराज जी की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
एक बार एक रामायण सम्मेलन में श्री महाराज जी को बुलाया गया था। उस सम्मेलन में बिन्दु गोस्वामी भी आये हुए थे, जो उस समय रामायण कथा वाचकों में चोटी के कथा वाचक माने जाते थे। कहते हैं उस समय श्री बिन्दु गोस्वामी एक दिन के कथा का तीन सौ रूपया दक्षिणा लिया करते थे। उस सम्मेलन में बिन्दु गोस्वामी ने कहा कि इस समय जो सम्मेलन हो रहा है इसमें भारत के समस्त मानस मर्मज्ञ आये हुए हैं। मानस पर किसी को कोई भी शंका हो तो वह समाधान कर ले। इसके बाद आपको (श्री महाराज जी) बोलना था। आप बोले, मैं सारे मानस मर्मज्ञों को चैलेंज करता हूँ कि वे रामायण की किसी एक चौपाई का सही सही अर्थ कर दे। किन्तु शर्त यह है कि वह अर्थ, नाना पुराण निगमागम सम्मत होना चाहिए। अपने मन का अर्थ नहीं सुना जायेगा महापुरुष की वाणी के अर्थ को महापुरूष ही सही सही समझ सकता है। कोई कथा वाचक इसे कैसे समझ सकता है। अतः यदि वह महापुरुष नहीं है तो उसे यह कहना चाहिए, जितनी हमारी बुद्धि है उसके अनुसार हम समझा रहे हैं। बिन्दु गोस्वामी ने श्री महाराज जी को एक पर्ची धीरे से लिख कर दिया कि यह चैलेंज आपके लिए थोड़ी ही थी।
🌻महाराज जी स्वयं बताते हैं एक बार रायपुर में हम कीर्तन करा रहे थे। सायंकाल प्रवचन होता था। उस समय हम जगद्गुरु के सिंहासन से बोल रहे थे, कीर्तन में श्री शम्भू शास्त्री भी आते थे। शास्त्री जी महू में हमें संस्कृत पढा चुके थे। आप वहाँ पुलिया आश्रम में प्रधानाध्यापक थे चेहरे और आवाज से हमें पहचान रहे थे। हमारे स्थान पर हमसे मिलने आये, किन्तु भीड़ के कारण उनकी हिम्मत आगे आने की नहीं पड़ रही थी। उन्होंने हमारे एक सत्संगी से कहलाया। महू के शम्भू नाथ शास्त्री आपसे मिलना चाहते हैं। हम तुरन्त उठे, उनके पास गये और उनके चरण छूने को झुके कि उन्होने हमें उठा लिया आैर कहा कि अब तो आप जगद्गुरु हैं। हमारे पूजनीय हैं आपको ऐसा नहीं करना चाहिए। बाद में हमारे पास आकर बैठे और विभोर होते रहे। हमने उन्हें अपने से ऊँचे स्थान पर बैठाया और उनका उचित सम्मान किया।
🌻एक बार महाराज जी जगद्गुरु होने के पहले रायगढ़ गये थे। वहां 15 दिन का प्रवचन भुजी भवन में रखा गया था एक सत्संगी बताती हैं कि महाराज जी उस समय दुबले पतले श्वेत वस्त्रों आकृत पालथी मारे आँखें बन्द करके बोलते थे। एक बार श्यामा टाकीज के श्यामा जी को विचित्र लीला दिखाई दी। लीला में महाराज जी ने दिखाया कि जीव किस प्रकार प्रतिक्षण अपराध करता है और किस प्रकार भगवान् उसको क्षमा करता रहता है। कई दिन तक उनको स्पष्ट दिखता रहा।
भगवान् जीव को सदा सद्प्रेरणा देता रहता है। वह कभी उसके साथ जबरदस्ती नहीं करता। किन्तु गुरू रूप में वह सद्प्रेरणा अमल न करने पर अनेक प्रकार से सही रास्ते पर लाने के लिए प्रयत्न करता है। कभी डाटता है, कभी स्वयं समझाता है तो कभी दूसरे से समझवाता है, कभी उसके आस पास ऐसी परिस्थितियां पैदा कर देता है, जिससे साधक सही रास्ते पर चलने को विवश हो जाता है।
🌷॥हमारे प्यारे महाराज जी को बारम्बार प्रणाम॥🌷
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
बात 1966 की है। जयपुर की रहने वाली द्रौपदी अपना संस्मरण सुनाते हुए कहती हैं, एक बार श्री महाराज जी ने मुझे स्वप्न में दर्शन दिये और कहा द्रौपदी तेरी किताब कहाँ है ? तब द्रौपदी बोली, वह तो हनुमान सेठ ले गये हैं।
श्री महाराज जी ने कहा, उनसे तू पुस्तक माँग कर ले आ। मैं तुझे पढा दूँगा। द्रौपदी अपनी पुस्तक ले आयी। दूसरी रात्रि में श्री महाराज जी ने राधा जी की बधाई का पद पढाया तथा उसका भावार्थ पढाया।। मँजरी जी से पढ़वाया, उन्होंने पढ कर बताया। फिर और पद भी पढाये। द्रौपदी जिस पद पर उँगली रखती वही पढती जाती। मँजरी जी अँगूठा छाप द्रौपदी का चमत्कार देख रही थी।
🍀गोपाली से एक दिन रुक्मिणी ने श्री महाराज जी के चरण स्पर्श करने को कहा। तब गोपाली ने कहा, मैं पति के अतिरिक्त और किसी के चरण नहीं छूती। इतने में ही महाराज जी सामने आ गये। गोपाली खुद कहती हैं, एक दिन मै पता नहीं कैसे उनके चरणों में गिर गयी और वहीं से मेरा नियम बदल गया था।
🍀श्री मती रमेश दीवान का कहना है, एक दिन जयपुर में मेरी छाती में असह्य दर्द हुआ। अस्पताल में जब मुझे स्ट्रेचर पर ले जाया जा रहा था, मुझे स्पष्ट लग रहा था कि श्री महाराज जी मेरे साथ चल रहे हैं। मैनें अपने घर वालों से कहा अगर मर जाऊँ तो साधना भवन को दस हजार रूपया दे देना। बाद में मैं अच्छी हो गयी थी। तब जब गुरूदेव जयपुर आये। एक दिन जब मैं उनके श्री चरणों को स्पर्श करने गयी तो बोले, साधना भवन को दस हजार देने को कहा था अभी दिया नहीं है। मैं आश्चर्य चकित थी।
🍀वाकया मेरठ जनपद का है, मई, 1968 में महाराज जी का मेरठ प्रवचन था। श्री नीलामम्बर दत्त जोशी निवासी हल्द्वानी श्री महाराज जी के जब संपर्क में आये। उन्होंने प्रवचन सुना, अध्यात्म से प्रभावित हुए। इच्छा हुई श्री महाराज जी को अपने घर भोजन कराने की। सोचा, जब महाराज जी स्वयं भोजन के लिए कहेंगे तभी कराउँगा। ऐसा विचार मन में बना लिया। दो तीन दिन पश्चात् ही श्री महाराज जी नीलाम्बर दत्त से बोले हमें भोजन कब कराओगे।
🍀एक बार तीसरी मंजिल पर कीर्तन हो रहा था। श्री महाराज जी भाव में नृत्य कर रहे थे। वे पता नहीं कैसे नीचे गिर गये, सब लोग नीचे की तरफ भागे। देखा श्री महाराज जी जीने से ऊपर आ रहे हैं। कहने लगे, कहां जा रहे हो ! चल कर कीर्तन करो।
🍀एक दिन रामकुमारी जी सो रही थी कि ऊपर से श्री महाराज जी का चित्र गिरा। देखा दिये की लौ से उसकी डोरी जल गयी थी। उस समय उसकी बहन ने देखा कि श्री महाराज जी कमरे से बाहर जा रहे हैं। वे सोच रही थी कि अगर ठीक समय से उनकी आँख न खुली होती तो न जाने क्या अनहोनी हो जाती। कुछ दिन पश्चात् कानपुर की शान्ति मेहरा मिली उन्होने बताया कि उस दिन प्रातः श्री महाराज जी उठे तो उनका सारा शरीर लाल था। पूछने पर बता रहे थे कि आज आग से लड़ना पड़ा। अब राम कुमारी सोच रही थी कि किस प्रकार श्री महाराज जी रक्षा करते हैं।
🌸॥ ऐसे हमारे करूणावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥🌸
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अखण्ड संकिर्तन
गोपाल मन्दिर महू छावनी में श्री महाराज जी ने १५ दिन का अखण्ड कीर्तन रखा । ( सन् १९४३) इससे पूर्व इस प्रकार का कोई किर्तन वहाँ नहीं हुआ था । यह मन्दिर मारवाडियों का एक पंचायती मन्दिर है । मन्दिर का सेक्रेटरी एक वकिल था जो मन्दिर के पास ही रहता था । उसने कहा - दिन रात हाय हाय होती रहती है । काम करने नहीं देते। बन्द करो इसको । किर्तन बन्द होने के स्थान पर १५ दिन समाप्त हो जाने पर १५ दिन और बढा दिया गया । अब मारवाडी पंचायत ने भी विरोध किया । श्री महाराज जी जिनको उस समय पंडित जी के नाम से संबोधित करते थे, उन्होंने एक लकडी के तख्ते पर खडिया से लिख कर मन्दिर के द्धार पर टाँग दिया -
कोई इस तख्ते को उतार देगा । हम किर्तन बंद कर देंगे ।
राम कृपालु - ढोंगी और पागल ।
वकिल ने शहर के दो गुंडो से यह काम रात में करने को कहा । शहर का प्रसिद्ध पहलवान "चम्पा" एक और व्यक्ति को साथ लेकर चला । मार्ग के एक अंधेरी गली में एक साँप ने उसे काट लिया । सारे शहर में हल्ला मच गया । उसके पश्चात् किसी को हिम्मत उस बोर्ड को उतारने की नहीं हुई ।
बैरिस्टर ने वहाँ के अंग्रेज कोतवाल से जाकर उसकी शिकायत की । ये लोग काम करने नहीं देते । दिन रात हाय हाय होती रहती है । अंग्रेज कोतवाल आया । उसके साथ एक भारतीय आफीसर भी था । उसने पंडित जी को बुलाया और किर्तन बन्द करने को कहा ।
पंडित जी - मंदिर के अन्दर किसी प्रकार का किर्तन भजन करना गैर कानूनी नहीं है । हमने मन्दिर के बाहर कोई लाउडस्पीकर भी नहीं लगा रखा है । अत: हम कोई गैर कानूनी कार्य नहीं कर रहे हैं ।
कोतवाल ने इसे ध्यानपूर्वक सुना और मुस्कुरा कर वापस चला गया ।
क्रमशः ...............१
॥श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अखण्ड संकीर्तन
.................. इसी बीच एक घटना और घटी । कीर्तन अभी चल ही रहा था कि मारवाडियों के गुरु डीडवाना के श्री राघवाचार्य प्रतिवर्ष की भाँति आने वाले थे । मंदिर पंचायत ने कहा - हमारे गुरु जी आने वाले हैं । कीर्तन बन्द करो । वे यहीं मंदिर में ऊपर ठहरते हैं । कीर्तन से उनको असुविधा होगी ।
श्री महाराज जी - जिस गुरु को किर्तन से, भगवन्नाम से असुविधा होती है, वह महात्मा नहीं, राक्षस है । किसी के आने जाने से कीर्तन बन्द न होगा ।
अपने गुरु के प्रति इस प्रकार का संबोधन सुन मारवाडी लोग नाराज हो गये । उन्होंने कीर्तन में आना बन्द कर दिया । आये उनके गुरु जी । उनसे अपना रोना रोया उन्होंने । किन्तु वे बोले तुम लोगों के मंदिर में आज तक कभी २४ घंटे का भी कीर्तन नहीं हुआ । ये तीन महिने से हो रहा है । अंखड कीर्तन और वह भी सात्विक भावों सहित । यह तो मंदिर और महू निवासियों का सौभाग्य है कि एक रसिक भक्त द्धारा यह कीर्तन कराया जा रहा है । जाओ उनसे क्षमा माँगो ।
वे लोग आये और पंडित जी से क्षमा याचना की । राघवाचार्य जी उसी मंदिर में ठहरे और उन्होंने भी कीर्तन की मधुरिमा का रस चखा ।
इस प्रकार यह कीर्तन अखंड रूप से पूरे चार मास - वैशाख के महिने से लेकर श्रावण मास तक चला ।
क्रमशः ................४
॥लीलाधारी श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अखण्ड संकीर्तन
............ इस प्रकार तमाम बाहरी विरोध के होते हुये भी अखंड किर्तन बैशाख से लेकर सावन तक चार महिने चला । इसी बीच पंडित जी को मोतीझारा हो गया । १०५ भुखार में भी वे आरती के समय आते । पसिना इतना आता कि ४-४ कुर्ते बदले जाते । ऐसे भीग जाते कि निचोड लो । आरती करने के पश्चात् जानी माँ के घर जाकर पड जाते । कोई जाता तो उससे किर्तन का पूरा हाल पूछते । मन्दिर में किर्तन करने वालों को अनेक सात्विक भाव होते । अनेक प्रकार की भगवत लीलाओं के दर्शन होते । श्री महाराज जी पूछते तो ये लोग बताते - आज हनुमान जी के दर्शन हुये, आज नारद जी के, आज शंकर जी के ।
अच्छा होने पर श्री महाराज जी मन्दिर में अधिकतर रहते । वे किर्तन में भाग लेते । उन्हें सात्विक भाव तो अक्सर आते और अक्सर वे नृत्य करते - करते बेहोश हो जाते । ऐसे ही एक भाव का वर्णन करना यहाँ अनुपयुक्त नहीं होगा ।
एक दिन गोपाल मन्दिर में किर्तन हो रहा था नंद किशोर शर्मा के साथ पंडित जी आये । किर्तन में बैठे । ढोलक ली और बजाने लगे । ढोलक के बजते ही मानो किर्तन में प्राण आ गये । कुछ देर घनघोर कीर्तन चला । "हरे राम" का कीर्तन चल रहा था कि श्री महाराज जी का ढोल बंद हो गया । वो भाव में आ गये थे । सब लोग और अधिक चैतन्य होकर कीर्तन करने लगे । अब धिरे - धिरे श्री महाराज जी "हरि हरि बोल, बोल हरि बोल" रुआसे से बोलते हुये, हाथ उपर को उठाते हुये, खडे हो गये । अब सामूहिक कीर्तन भी "हरे राम " के स्थान पर "हरि बोल" का होने लगा । अब मृदंग, ढोल, मजीरों की लय तेज हो गई । पंडित जी भी लय के साथ तेज नृत्य करते जा रहे हैं । मोर पंख के समान दोनों हाथ कभी आगे झुकाते हैं कभी पीछे । कभी हुंकार करते हैं तो कभी चीत्कार । कभी अट्टहास करते हैं तो कभी दाँतों को भींचकर, हाथों को मोडकर कंधों के बीच लाकर जोर से दबाते हैं । अब भक्तों के बनाये घेरे में जोर से घूमने लगे । कभी इधर टकराते हैं, कभी उधर । भक्त लोग उस भावमयी मुद्रा का स्पर्श पाकर अपने को भाग्यशाली मानते हैं । वे उन्हें गिरने से रोकते हैं । उन्हें बीच में करते जाते हैं ।
क्रमशः ...................२
॥श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अखण्ड संकीर्तन
................ अब यकायक धडाम से संज्ञाशून्य होकर पृथ्वी पर गिर पडे । भक्तों ने दौडकर उनके सिर व पैरों के नीचे तकिया लगा दिये । जानी माँ चिल्ला रहीं हैं - गोपाल को हाथ न लगाना । उनके भाव में व्यवधान न करना । उन्हें कष्ट होगा । भक्तगण दूर से धीरे - धीरे उनकी सेवा में संलग्न हैं कि कहीं उन्हें कोई कष्ट न हो जाये । सारे शरीर में भूचाल के से झटके आ रहे हैं । कभी पैर ऊपर को उठ कर तकिये पर गिर जाते हैं तो कभी सिर और हाथ । कीर्तन अभी "हरि हरि बोल" का ही चल रहा है ।
अब एक जोर का झटका लगा और प्रभु एकदम उठ कर खडे हो गये । भक्तों ने फिर से उनके चारों ओर हाथों का घेरा लगा लिया । फिर वही उददाम नृत्य प्रारम्भ हो गया । प्रभु कभी हँसते हैं, कभी रोते हैं, कभी ऊपर हाथ उठाकर उददाम नृत्य करते हैं, कभी दोनों हाथों को शरीर से चिपका कर बडी विचित्र चाल चलते हैं । फिर कभी इधर के लोगों से टकराते हैं, कभी उधर के लोगों से । उनके दिव्य स्पर्श को पाकर भक्तजन फिर विभोर हो रहे हैं । कोई उनके नृत्य स्थल की रज लेकर अपने मस्तक से लगा रहे हैं । अब एकदम धडाम से पृथ्वी पर गिर गये मानो यकायक पैर फिसल गया हो । फिर वही हाथ, सिर और पैरों में भूचाली झटके । शनै: शनै: झटके धीमे होते आ रहे हैं । अब वे शान्त होकर लेटे हैं । "हरि बोल" के कीर्तन की लय भी अब बहुत धीमी हो गई है ।
कीर्तन बदला । "भजो गिरिधर गोविन्द गोपाला" आरंभ हुआ । मानो यह भावशमनकारी कोई बूटी हो । भाव धीरे - धीरे शांत होने लगा । एक धिमे झटके के साथ धीरे से वे उठ कर बैठ गये । सीधा घुटना भूमि पर मुडा है, बायाँ पेट की ओर ऊपर को मुडा हुआ है । आँखे कभी खुलती हैं कभी बन्द हो जाती हैं । कमल खिलने के समान आँखे पुरी खुलीं । लेकिन फटी फटी आँखों से ये चारों ओर क्या देख रहे हैं । अभी जिस युगल लीला का वे आनन्द ले रहे थे, क्या उसके अन्तर्ध्यान हो जाने से उसे ढूँढ रहे हैं ?
भक्तों ने एक छोटा तौलिया उनके मुडे घुटने पर रख दिया । उन्होंने उसे उठाया और मुँह हाथ पोछने लगे । दो तीन बार धीरे - धीरे मुँह पोछ कर वे एक हाथ के सहारे से उठे । एक घुटने पर दूसरे हाथ का सहारा दिया और उनीदे से उठ कर खडे हो गये । नशीले व्यक्ति के समान वे धीरे - धीरे चले और व्यासपीठ पर जाकर विराजमान हो गये । पूर्व हो रहा कीर्तन विरमित हुआ और नया कीर्तन प्रारंभ हो गया ।
क्रमश: ...............३
॥ महाभावधारी श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अंह का महल ढह गया ।
एक बार जब श्रीमती शोभारानी बसु चन्द्रप्रकाश सिंहल जी के घर राजेन्द्र नगर लखनऊ श्री महाराज जी के दर्शनार्थ पहुँची तो चन्द्र प्रकाश सिंहल जी ने प्रश्न किया -
बसु जी, श्री महाराज जी के बारे में आपका क्या विचार हैं ?
प्रश्न को सुनकर उनका मुख हर्ष से चमक उठा । वे बोली - सिंहल जी मैं विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र विभाग की अध्यक्षा हूँ । मुझसे पूर्व इसी स्थान पर मेरे पति थे, जो अब प्राच्य दर्शन के प्रवक्ता होकर आँक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, लन्दन चले गये हैं । इसे आप मेरी आत्मश्लाघा न समझें । यह मै आपके प्रश्न की भूमिका में कह रही हूँ । सम्पूर्ण विश्व के दर्शन्शास्त्रियों की जो शोभा कुछ वर्ष पूर्व काश्मीर में हुई थी, उसकी मैं अध्यक्षा थी ।
यूनिवर्सिटी में मेरा प्रयाप्त बडा बंगला है । सुन्दर विस्तृत बैड रुम व मेरा निजी वृहद पुस्तकालय है । संसार की कोई भी उच्च कोटि की दर्शन की ऐसी पुस्तक नहीं है जो मेरे निजी पुस्तकालय में न हो । मेरा एक पलंग पुस्तकालय में भी है । घर पर रहने का अधिकांश समय मेरा पुस्तकालय में ही व्यतित होता है ।
एक बात और चाहे कहिये कि मुझे जन्मजात अहंकार था अथवा कहो कि भगवान ने मुझे अतुलनीय बुद्धि और तर्क शक्ति का धनी बनाया था । मुझे याद नहीं कि मैंने अपने तर्कों के आगे अपने माता - पिता, भाइ- बहन, मित्र - सहेली, सहपाठी अथवा शिक्षक की बात पर सहमत न होने पर, उसको स्विकार किया हो । अहं से नही तर्क से । सदा मेरे ही तर्क सर्वोपरि रहता था । शादी के पश्चात पति भी कभी मेरे तर्को को नहीं काट पाये । किन्तु श्री महाराज जी का विश्वविद्यालय का प्रवचन मेरे जीवन की अभूतपूर्व घटना रही - "न भूतो न भविष्यती" ।
क्रमशः ....................
श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ गुरूदेव श्री कृपालु महाप्रभु की जय ।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अहं का महल ढह गया
............... प्रत्येक उद्धरण जो श्री महाराज जी ने दिया, अपने प्रवचन में, चाहे वह वेद का हो, शास्त्र का हो, भागवत, गीता अथवा रामायण का हो, प्रत्येक मुझे कंठस्थ था । अब आप पूछेंगे कि उसमें विषेश क्या था, जिसने आपको आकर्षित किया ।
मुझे आकर्षित किया उन उद्धरणों की अपूर्ण व्याख्या, विरोधों का समन्वय, उनसे उठने वाली शंकाओं का समाधान तथा उनकी सरल और ओजस्विनी भाषण शैली ने मेरे अहं के महल को ढहा दिया था । तथा इतना सब कुछ पढाने, जानने - समझने के पश्चात् भी जो विरोधाभास तथा लक्ष्य निर्धारण में शून्य सा मेरे मन में बचा रह गया था, वह अकस्मात समाप्त हो गया था ।
इसके अतिरिक्त सभी दर्शन शास्त्रियों के सिद्धातों, उनके मध्य रहने वाले भेदों को मैं भली भाँति समझती थी । किन्तु जिस लक्ष्य, गन्तव्य बिन्दु की ओर वे इंगित करते थे, उसकी प्राप्ति का मार्ग क्या है, इसका कोई भी स्पष्ट रूप मेरे मस्तिष्क में नहीं था ।
श्री महाराज जी के प्रवचनों के दिनों में मेरी शंकाओ का समाधान, विरोधाभासों का समन्वय व निराकरण ही नहीं हुआ, मुझे ऐसा लगा कि वक्ता ने अवश्य ही उस मार्ग को देखा है तथा उस लक्ष्य को प्राप्त किया है, जबकि मैंने उसके बारे में केवल पढा है, मनन किया है, उसकी आलोचना समालोचना की है किन्तु न तो उस लक्ष्य को प्राप्त किया है और न उसको प्राप्त कराने वाले मार्ग को जाना है । अत: अब मैं आई हूँ इनकी शरण में, यह जानने को कि उस लक्ष्य को प्राप्त करने का मार्ग क्या है, वह कैसे प्राप्त हो सकता है वह लक्ष्य जिसकी प्राप्ति के बारे में सारे वेद शास्त्र इंगित करते हैं ।
॥पंचम मूल जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
सन् चालीस की घटना है। उन दिनों श्री गुरूदेव किशोरावस्था में महू, इंदौर, मध्यप्रदेश में रहते थे। एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण घराना है। घर की मालकिन श्री महाराज जी को पुत्र की तरह स्नेह करती थी, उन दिनों श्री महाराज जी को लोग पंडित जी कह संबोधित करते थे, परन्तु वह गोपाल कह कर पुकारती थी। उनकी पुत्र बधू (न०कि०ति०की पत्नी) श्री मती श० ति०आयु लगभग 75 वर्ष अभी कुछ काल पहले वृन्दावन आयी थीं। उन्होंने उन दिनों की बहुत सी आश्चर्यजनक घटनाओं को सुनाया। एक घटना उन्हीं के शब्दों में।
पण्डित जी एक मंदिर में देर रात तक संकीर्तन करवाते थे। मंदिर के आसपास अधिकतर मुसलमान रहते थे। वो लोग रोज रोज मंजीरा संकीर्तन से तंग आ चुके थे। उनके कहने पर भी संकीर्तन रोका नहीं गया। 11 दिनों के संकीर्तन के पश्चात् मेरे पति (न०कि०ति०) प्रसाद बाँट रहे थे, तब ही मुसलमानों का एक बड़ा जत्था छुरा, चाकू आदि दिखाकर कहा, कल से संकीर्तन रोक दो नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं। मेरी सास घबरा गयी, मैं भी घबरा गयी कि लोग मार न डालें। सास ने पण्डित जी (श्री महाराज जी) से अनुनय विनय किया, जा गोपाल अब तो बचा, श्री महाराज जी ने कहा, मैं क्यों जाऊँ, तुम्हारा बच्चा है तुम जाओ। हमारी हालत क्या हुई होगी, आप समझ सकते है। हम हताश हो गये, उधर मुसलमान उत्तेजित हो रहे थे। हमारे पतिदेव ने सर उनके आगे न नवा कर कहा, आप लोग जो चाहें करें किन्तु कीर्तन तो अभी चलेगा। उसी समय श्री महाराज जी की दृष्टि उन लोगों पर पड़ी कि अचानक सभी मुसलमान चाकू छुरा फेंक, राधे राधे कह नाचने लगे। उसके बाद तीन दिन तक मंदिर में संकीर्तन और चला।
इसी से मिलती जुलती घटना सुश्री ब्रजेश्वरी देवी जी ने देहरादून की बतलाई। शुक्रवार को एक मजार पर उर्स का मेला लगा था, कब्बाली गाई जा रही थी। श्री महाराज जी का वहीं अति निकट में प्रवचन देने का मंच बनाया गया था। कब्बाली के बीच कोई प्रवचन कैसे सुनता। उन लोगों से आग्रह किया गया कि वो कब्बाली रोक दे या धीरे-धीरे गायें। परन्तु वो सब इस बात से उत्तेजित हो और जोर से गाने लगे। तनाव बढने लगा। परन्तु ज्यों ही श्री महाराज जी मंच पर आये उनकी दृष्टि लोगों पर पड़ी , उन सब ने कब्बाली गाना रोक दिया। बडे अदब से आकर प्रवचन सुनने बैठ गए।
🙏🙏🙏
।प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
🙏🏻 🙏🏻 🙏🏻
♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
जगद्गुरु बनने से पहले श्री महाराज जी लखनऊ में श्री जगदीश प्रसाद श्री वास्तव के यहाँ ठहरे हुए थे। एक दिन उनके हारमोनियम पर उन्होंने लिखा, तुम्हारा बाप जगद्गुरु होने जा रहा है। घर के लोगों ने जब हारमोनियम पर लिखा हुआ पढा तो उनकी समझ में ही कुछ नहीं आया कि वह क्या लिखा गया है। लखनऊ के बाद आपका प्रतापगढ़ आना हुआ वहां श्री महाबनी जी (ब्रज बनचरी दीदी के पिता) के घर पर रूके। वहीं महाराज जी ने अपना पुराने ढंग से कीर्तन कराना शुरू कर दिया। शाम को सब लोग खाना खाकर श्री महाबनी जी के घर पर जमा हो जाते। वहां से सब कीर्तन प्रेमी एक ट्रक में बैठकर राजा साहब के बाग जाते। वहां पाना से घिरे एक स्थान पर पूरी रात महाराज जी का कीर्तन होता।
इसी दौरान एक दिन महाराज जी ने महाबनी जी से कहा, महाबनी ! काशी वाले मुझे जगद्गुरु बनाने के लिए बुलाना चाहते हैं, इस बारे में तुम्हारी क्या राय है। इस पर महाबनी जी बोले, जरा देखिये इनकी शक्ल, ये जगद्गुरु बनने चले हैं। वहां न जाना, काशी के पंडित बड़े दुष्ट होते हैं। जहर दे देंगे। फिर बोले शीशे में अपनी शक्ल तो देख लो बड़े आये जगद्गुरु बनने।
इस पर महाराज जी ने कहा, अच्छा महाबनी ! तुम अपनी छोटी बेटी शक्ति को बुलाओ। वह अभी बहुत ही छोटी है उससे पर्ची उठवायेंगे। जैसी पर्ची में निकलेगा वैसा ही हम करेंगे। उसके बाद दो पर्ची बनाई गयी, एक पर्ची पर लिखा गया काशी जाना चाहिए तो दूसरी पर्ची पर लिखा गया, काशी नहीं जाना चाहिए। इसके बाद दोनों पर्चियों को अच्छी तरह शक्ति (श्री ब्रज बनचरी दीदी) के आगे डाल दिया गया। शक्ति ने पर्ची उठाई जिसमें लिखा था, काशी जाना चाहिए।
महाबनी जी तुरन्त बोले आपने इसमें कुछ गड़बड़ की है। इस बार मैं स्वयं पर्ची लिखूंगा और अपने हाथों से मोडूँगा। महाबनी जी ने ऐसा ही किया और पर्ची शक्ति के सामने रख दी गयी। शक्ति ने दोबारा एक पर्ची उठाकर खोला उसमें लिखा था। काशी जाना चाहिए।
इस बार महाराज जी अट्टहास करके हँसे। कहने लगे महाबनी अब तो मुझे काशी जाना ही पड़ेगा । श्याम सुन्दर की ऐसी ही इच्छा है। भला उस समय महाबनी जी ये सब कहां जानते थे कि ये सब सत्य संकल्प का खेल हो रहा है और वे स्वयं केवल खेल के एक मोहरे हैं।
॥श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
महाराज जी सन् 1936 में वाराणसी से व्याकरणाचार्य की परीक्षा पास की। विषय बड़ा गंभीर था किन्तु समय बहुत थोड़ा। महाराज जी पढने का विचित्र ही ढंग रखे हुए थे। कक्षा में बहुत कम बैठते। पुस्तक घर पर ले जाकर पढते और उसके किसी अंश को चिन्हित कर लेते। उन्हीं अंशों को वे अलग कर लेते और बाद में उसका अर्थ अपने अध्यापक से पूछते। संतुष्ट न होने पर कभी-कभी ऐसा होता कि वह उन अंशों की स्वयं अपनी एक अलग ही व्याख्या कर देते। इस पर वह अध्यापक उनसे सहमत न होता तब दोनों लोग स्कूल के मुख्य प्रधान अध्यापक के पास जाकर अपनी अपनी व्याख्या बताते तब महाराज जी की व्याख्या उचित ठहरायी जाती।
बनारस की ही बात है एक बार सहपाठियों में कम्पटीशन हुआ कि कौन एक निश्चित समय में अधिक से अधिक संस्कृत का श्लोक याद कर सकता है। तब महाराज जी ने सात घण्टे में संस्कृत के 67 कठिन श्लोक याद किया जो एकदम नये थे। दूसरे स्थान पर पहुंचने वाले छात्र ने 7 घण्टे में केवल 27 श्लोक को ही याद कर पाया था।
मध्यमा साहित्य की परीक्षा के समय एक प्रश्न था, हिन्दी से संस्कृत में अनुवाद करना था। श्री महाराज जी ने उस हिन्दी का संस्कृत में तीन अलग-अलग ढंग से अनुवाद किया। पहले अनुवाद का शीर्षक दिया, मध्यमा कक्षा के अनुसार, दूसरा अनुवाद का शीर्षक था साहित्य जानने वालों के लिए और तीसरे अनुवाद का शीर्षक था, विशेष योग्यता वालों के लिए।
उसके पश्चात् यह भी लिख दिया, जैसी योग्यता हो उसके अनुसार मान लिया जाये।
श्री शम्भू नाथ शास्त्री उन दिनों वहां के प्रधान अध्यापक थे। उन्होंने इसे पढ लिया। इन्हें बुलाकर कहा, परीक्षक को इस प्रकार नहीं लिखा जाता। यदि फेल कर दे तो, इनका विनम्र उत्तर था, दोबारा जाँच करा ली जायेगी।
और जब मध्यमा का परीक्षा फल आया इनका नाम द्वितीय श्रेणी में था। समाचार पत्र पढा और फेंक दिया। तुरन्त ही परीक्षक संस्था को लिखा ज्ञात होता है कि काॅपियां देखी नहीं गयी हैं, उछाल कर न० दिये गये हैं। कृपया मेरी काॅपी दोबारा जांची जाय। काॅपी दोबारा जाँची(चैक) गयी और महाराज जी प्रथम श्रेणी में पास हुए।
इसी प्रकार वर्ष 1944 में आपने साहित्याचार्य की परीक्षा कलकत्ता विद्यापीठ से एक वर्ष में ही प्रथम श्रेणी में पास की। महू से महाराज जी ने प्रथम एव मध्यमा की परीक्षाएं वाराणसी विद्यापीठ से उत्तीर्ण की। इसके पश्चात् आपने आर्युवेदाचार्य की परीक्षा इंदौर दिल्ली विद्यापीठ से दी।
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।। हमारे प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
महाराज जी जब मिडिल स्कूल की परीक्षा दे रहे थे। उस समय की घटना है। महाराज जी के साथ पढ़ने वाले सहपाठी आपस में विचार करने लगे कि यह पढ़ता लिखता दिखाई नहीं देता लेकिन हमेशा अच्छे नंबरों से पास होता है। जरूर कुछ न कुछ ऐसा है जिससे इसे अच्छे नम्बर प्राप्त हो जाते हैं। सहपाठियों ने अपना दिमाग लगाया और इस निर्णय पर पहुँचे कि महाराज जी जो कमीज पहनते हैं वह सारा कमाल उस कमीज का ही है। एक दिन महाराज जी जब परीक्षा हाल में जा रहे थे तब सहपाठियों ने उनकी कमीज फाड़ डाली और उसका एक एक टुकडा अपनी-अपनी जेब में रख लिया और आश्वस्त हो गये कि हम लोग भी अब अच्छे नम्बर से पास हो जायेंगे। उस दिन महाराज जी को दूसरी कमीज पहनकर परीक्षा देने जाना पड़ा था।
इसी प्रकार एक बार परीक्षा भवन में प्रश्नपत्र आरम्भ होने के पूर्व महाराज जी की स्याही नीचे गिर गयी। जब लड़कों ने उसे देखा तो उन्होंने भी अपनी स्याही नीचे गिरा दिया। सब साथियों ने सोचा कदाचित् अच्छे अंक का यही कारण हो। पूरी कक्षा में जगह जगह स्याही ही गिरी हुई दिख रही थी और कक्ष निरीक्षक महोदय बड़बड़ा रहा था।
एक बार सहपाठियों ने सोचा कि राम कृपालु को अवश्य ही सरस्वती सिद्ध है। कुछ लड़के उनके पीछे पड़ गये कि सरस्वती सिद्ध करने का मन्त्र हमें भी बता दो। तब आपने एकदम जल्दी-जल्दी बोलने वाली गंवारू तुकबंदी बोल दी और कहा कि इसको याद कर लो, तुम्हें सरस्वती सिद्ध हो जायेगी। यह लिखकर नहीं दी जाती है। केवल जवानी बोलकर ही याद की जाती है। साथियों से वह तुकबंदी याद ही नहीं हो पायी।
एक अन्य सत्संगी से जब महाराज जी के बारे में पूछा तो बताया-
तो बस शायरी से समझाया..........
''वो आ रहे हैं निगाहें झुका लो
उन्हें देख लोगे तो लिपटने का जी चाहेगा। ''
''यही अदा जानते हैं मोहब्बत की
नीची नज़रों से कहते हैं तुम हमारे हो।'
।।हमारे प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
🌹अपने अंतिम समय में आजी , मंझली दीदी (श्यामा) को संबोधित करते हुए बोलीं- राम कृपालु ने मुझसे आने को कहा था आया नहीं। देख अब जाने की तैयारी हो रही है। आस पास विमान लेकर देवता लोग खड़े हैं। वहाँ भी स्वागत की तैयारी हो रही है। थोड़ी देर बाद कहने लगी- यह राम कृपालु मुझे जाने नहीं दे रहा है। कहता है अभी रुको। नहीं तो तेरी तेरहवीं पर भी मैं न आ सकूँगा। मालूम हो कि उस समय श्री महाराज जी के पैर का ऑपरेशन बम्बई में हुआ था।
एक दिन फिर कहने लगीं - राम कृपाल तूने जिन्दगी भर खूब खिलाया, खूब पहनाया, नींद भर सुलाया। फिर ऊपर को हाथ उठा कर कहा, "तनिक दूर और"।
अंतिम समय में बेहोशी में ऐसा लगता कि किसी को छाती से लगाकर पुचकार रहीं हैं। पूर्णतया बेहोश होने से पूर्व एक दिन और एक रात ऐसा ही लगता रहा कि आजी (माता) अपने शाश्वत रूप मातृभाव में स्थित होकर लीलाएं कर रहीं हैं। एक बार आजी ने ही कहा था- देखना आगे चल कर ये मनगढ़ गांव बहुत बड़ा तीर्थ बन जायेगा। लाखों लोग इसे दूर दूर से देखने के आयेंगे।
उसी समय बम्बई में जहाँ महाराज जी के पैर का आॅपरेशन हुआ था। श्री महाराज जी ने गुण्डुराज से बोले- अम्मा ने कहा है, मैं अब जाती हूँ। किन्तु मैने उनसे कहा है कि तुम अभी रूको, नहीं तो तुम्हारी तेहरवीं पर मैं न आ पाऊँगा और आजी आजी आठ दिन तक इलाहाबाद के गंगा नर्सिंग होम में बेहोश पड़ी रहीं।
🌹एक बार पूज्य मौसी ने स्वयं कहा था, मेरे एकाकी जीवन को रसमय तो राम कृपालु ने ही बनाया है। एक साल मैं बहुत बीमार थी। उठना- बैठना कठिन था। राम कृपालु बोला- मौसी, केदारनाथ, बद्रीनाथ चलोगी। हम सब लोग जा रहे हैं। मरने से पहले तीर्थ कर लूँ, मैने हाँ कह दी। 2 कार और एक जीप में हम सब जब देहरादून से आगे बढे तब राम कृपालु की जीप आगे और मेरी कार उसके पीछे थी। देखती क्या हूँ मेरा प्राण प्रिय थोड़ी-थोड़ी देर में पीछे मुड़कर मुझे देखता जा रहा है। मेरी इतनी चिंता इसे है। यह सोच सोचकर मैं रो पड़ी। कछुए के अण्डों की ही भांति यह सभी का ध्यान रखता है, तभी तो हजारों लोग इसके चारों ओर घिरे रहते हैं।
।। हमारे सर्वज्ञ श्री कृपालु महाप्रभु की जय ।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
एक बार मण्डलेश्वर, राम मंदिर में एक माह का कीर्तन रखा गया। अभी कीर्तन चल ही रहा था कि महाराज जी ने कहा मैं एक महात्मा के पास जा रहा हूँ। वह भूखा है, मैं जाऊंगा तभी वह खाना खायेगा। तुम लोग मेरे आने तक कीर्तन करना। दूसरे लोग कीर्तन करते रहे। महाराज जी तीन महीने बाद आये, इस प्रकार कीर्तन चार महीने तक चला।
यहीं एक भक्त ने श्री महाराज जी को सब भक्तों के साथ भोजन करने के लिए कहा। श्री महाराज जी ने उसे स्वीकृति दे दी, किन्तु वह स्वयं कुछ काम से महेश्वर चले गए। वह भक्त बहुत रोने लगा तो सब लोग रात में बारह बजे खाना खाने चले गये। किन्तु श्री महाराज जी के न होने के कारण सभी को अच्छा नहीं लग रहा था। भोजन के पश्चात् फिर कीर्तन प्रारंभ हुआ। पुरूष छड़ी बजाकर और स्त्रियाँ नृत्य करके कीर्तन गा रहे थे। इस बीच श्री महाराज जी आ गये और बीच में खड़े होकर कीर्तन करने लगे। सब लोग मारे प्रसन्नता के उनके चरणों में गिर गये। कई लोग खुशी के मारे रो पड़े। इसी समय प्रसाद के लिये एक भक्त मटकी में दही लेकर आया। उसने जानी मां को एक चम्मच में लेकर दही चखाया कि श्री महाराज जी वहाँ उपस्थित हो गये। उन्होंने अपने और जानी मां के ऊपर उस मटकी का सारा दही उड़ेल दिया। पश्चात् सब भक्तों ने नीचे से उठाकर उस दही का प्रसाद ग्रहण किया।
एक बार महेश्वर वालों ने श्री महाराज जी को दोपहर के भोजन के लिये निमंत्रण दिया। महेश्वर की वह सत्संगी नाव में बैठकर आयी थी। सीढ़ियों पर चढने लगीं तो पैर जलने लगे और वे चिल्लाने लगी। एक बाबा आया और बोला कैसा कीर्तन है, बाइयों के पैर झुलसे जा रहे हैं।
उसका इतना कहना था कि मूसलाधार वर्षा होने लगी। दो घण्टे पानी बरसा। पानी बरसने के कारण कीर्तन की व्यवस्था अन्दर करनी पड़ी।
इसके दूसरे दिन अहिल्याबाई घाट पर शंकर जी के मंदिर में सात दिन का कीर्तन रखा गया। पंत जी ने पचास आदमियों के खाने का प्रबंध किया था, लेकिन 20, 25आदमी और बढ़ गये। पंत जी बहुत घबराये हुये थे। श्री महाराज जी से बोले, खाना 50 आदमी का बना है लेकिन उससे काफी ज्यादा लोग हो गये हैं। इस पर महाराज जी ने कहा घबराओ नहीं। कोठार पर पर्दा डलवा दिया, नर्मदा जी को भोग लगाया और कोठार के पास भगवान की एक फोटो रख दी गयी। और महाराज जी बाहर बैठ गये वे अपने हाथों से देते जाते और लोग परोसते जाते, जितने लोग थे सभी ने भरपेट खाना खा लिया, तब भी 20 आदमियों के लगभग का खाना बचा रह गया। ऐसी थी महाराज जी की लीला।
।।करूणावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
एक बार आप महेश्वर से मंडलेश्वर नाव से चले। गर्मी के दिन थे। रात का समय था, नाव में बैठते ही बोले, नाव डूब जाय तो मेरे बस की बात नहीं। जब नाव में बैठे तो उनके हाध में मनहर गोपाल का चित्र था, चित्र को देखकर बोले चलो हम पंढरनाथ चलें और कीर्तन कराने लगे, विट्ठल, विट्ठल, विट्ठला फिर बोले वृन्दावन चलें और कीर्तन का स्वर एकदम बदल गया, गोविन्द जय जय गोपाल जय जय। तब तक नाव बीच धारा में आ गयी थी। अब बोले चलो नवद्वीप चलें और फिर कीर्तन के बोल बदल गये और हरे राम का कीर्तन कराने लगे। नर्मदा का पानी उछल उछल कर नाव में आने लगा नाविक बोला, नाव डूब रही है। मैं क्या करूँ ? लोगों को महाराज जी की बातें याद आ गयी, नाव डूब जाये तो मेरे बस की बात नहीं है। नाव में बैठे श्री नारायण और शकुंतला चिल्लाने लगे, पंडित जी ये क्या है। ये कभी कहते हरे राम करते जाओ और कभी चुप हो जाते। अँधेरी रात नर्मदा की बीच धारा, नाव का डगमगाना, पानी का नाव में भरना, यह सब देख लोग भय से काँप रहे थे, तभी महाराज जी ने छलांग मारी और पानी में कूद गये। नदी में उस समय अथाह पानी था किन्तु लोगों ने देखा कि महाराज जी के घुटनों तक ही पानी था। लगा जैसे कोई उँचा पत्थर इनके पैरों (चरणों) के नीचे आ गया हो। नाव को पकड़ कर कहने लगे, डुबा दूँ। फिर नाव को कसकर पकड़ा और उसका हिलना बन्द किया। सबको खूब रूलाया और थोडी देर विनती करने पर अपने आप ऊपर आये तब नाविक ने नाव को किनारे पर ले जाकर लगा दिया, उसकी मजदूरी दी और आगे बढ़ गये।
घटना उन दिनों की है जब महाराज जी लखनऊ में थे। एक दिन रामेश्वरी दीदी से बोले हम तुम्हारे घर चलेंगे। इस पर रामेश्वरी दीदी बोली जीजी तो घर पर नहीं हैं, महाराज जी ने कहा उसे भी बुला लेंगे उधर ब्रज मंजरी दीदी के मन में श्री महाराज जी से मिलने की तीव्र इच्छा जागृत हुई और वह गाड़ी पकड़कर प्रातःकाल लखनऊ पहुंच गयी। ऐसी स्थिति में रामेश्वरी दीदी सोचने लगी कि महाराज जी ने तो इतना ही कहा था उसे भी बुला लेंगे और वह यहाँ चली भी आईं। इस प्रकार उन्होंने बता दिया था कि किस प्रकार हम लोग उनकी विचारधारा के अधीन है।
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।। हमारे प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।।
♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अंह का महल ढह गया ।
एक बार जब श्रीमती शोभारानी बसु चन्द्रप्रकाश सिंहल जी के घर राजेन्द्र नगर लखनऊ श्री महाराज जी के दर्शनार्थ पहुँची तो चन्द्र प्रकाश सिंहल जी ने प्रश्न किया -
बसु जी, श्री महाराज जी के बारे में आपका क्या विचार हैं ?
प्रश्न को सुनकर उनका मुख हर्ष से चमक उठा । वे बोली - सिंहल जी मैं विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र विभाग की अध्यक्षा हूँ । मुझसे पूर्व इसी स्थान पर मेरे पति थे, जो अब प्राच्य दर्शन के प्रवक्ता होकर आँक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, लन्दन चले गये हैं । इसे आप मेरी आत्मश्लाघा न समझें । यह मै आपके प्रश्न की भूमिका में कह रही हूँ । सम्पूर्ण विश्व के दर्शन्शास्त्रियों की जो शोभा कुछ वर्ष पूर्व काश्मीर में हुई थी, उसकी मैं अध्यक्षा थी ।
यूनिवर्सिटी में मेरा प्रयाप्त बडा बंगला है । सुन्दर विस्तृत बैड रुम व मेरा निजी वृहद पुस्तकालय है । संसार की कोई भी उच्च कोटि की दर्शन की ऐसी पुस्तक नहीं है जो मेरे निजी पुस्तकालय में न हो । मेरा एक पलंग पुस्तकालय में भी है । घर पर रहने का अधिकांश समय मेरा पुस्तकालय में ही व्यतित होता है ।
एक बात और चाहे कहिये कि मुझे जन्मजात अहंकार था अथवा कहो कि भगवान ने मुझे अतुलनीय बुद्धि और तर्क शक्ति का धनी बनाया था । मुझे याद नहीं कि मैंने अपने तर्कों के आगे अपने माता - पिता, भाइ- बहन, मित्र - सहेली, सहपाठी अथवा शिक्षक की बात पर सहमत न होने पर, उसको स्विकार किया हो । अहं से नही तर्क से । सदा मेरे ही तर्क सर्वोपरि रहता था । शादी के पश्चात पति भी कभी मेरे तर्को को नहीं काट पाये । किन्तु श्री महाराज जी का विश्वविद्यालय का प्रवचन मेरे जीवन की अभूतपूर्व घटना रही - "न भूतो न भविष्यती" ।
क्रमशः ....................
श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ गुरूदेव श्री कृपालु महाप्रभु की जय ।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अहं का महल ढह गया
............... प्रत्येक उद्धरण जो श्री महाराज जी ने दिया, अपने प्रवचन में, चाहे वह वेद का हो, शास्त्र का हो, भागवत, गीता अथवा रामायण का हो, प्रत्येक मुझे कंठस्थ था । अब आप पूछेंगे कि उसमें विषेश क्या था, जिसने आपको आकर्षित किया ।
मुझे आकर्षित किया उन उद्धरणों की अपूर्ण व्याख्या, विरोधों का समन्वय, उनसे उठने वाली शंकाओं का समाधान तथा उनकी सरल और ओजस्विनी भाषण शैली ने मेरे अहं के महल को ढहा दिया था । तथा इतना सब कुछ पढाने, जानने - समझने के पश्चात् भी जो विरोधाभास तथा लक्ष्य निर्धारण में शून्य सा मेरे मन में बचा रह गया था, वह अकस्मात समाप्त हो गया था ।
इसके अतिरिक्त सभी दर्शन शास्त्रियों के सिद्धातों, उनके मध्य रहने वाले भेदों को मैं भली भाँति समझती थी । किन्तु जिस लक्ष्य, गन्तव्य बिन्दु की ओर वे इंगित करते थे, उसकी प्राप्ति का मार्ग क्या है, इसका कोई भी स्पष्ट रूप मेरे मस्तिष्क में नहीं था ।
श्री महाराज जी के प्रवचनों के दिनों में मेरी शंकाओ का समाधान, विरोधाभासों का समन्वय व निराकरण ही नहीं हुआ, मुझे ऐसा लगा कि वक्ता ने अवश्य ही उस मार्ग को देखा है तथा उस लक्ष्य को प्राप्त किया है, जबकि मैंने उसके बारे में केवल पढा है, मनन किया है, उसकी आलोचना समालोचना की है किन्तु न तो उस लक्ष्य को प्राप्त किया है और न उसको प्राप्त कराने वाले मार्ग को जाना है । अत: अब मैं आई हूँ इनकी शरण में, यह जानने को कि उस लक्ष्य को प्राप्त करने का मार्ग क्या है, वह कैसे प्राप्त हो सकता है वह लक्ष्य जिसकी प्राप्ति के बारे में सारे वेद शास्त्र इंगित करते हैं ।
॥पंचम मूल जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अखण्ड संकीर्तन
अब मंदिर पंचायत ने यज्ञ की योजना बनाई । उसका कहना था कि कीर्तन की शांती के लिये यज्ञ करना आवश्यक है । पंडित जी को इस पर आपत्ति थी । उनका कहना था कि यज्ञ की शान्ति के लिये शास्त्रों में कीर्तन का विधान है न कि किर्तन की शान्ति के लिये यज्ञ का ।
फिर झगडा उठ खडा हुआ । पंचायत के सदस्यों और वकिल साहब ने, वाराणसी से एक विद्धान पंडित श्री सरयू प्रसाद त्रिपाठी को ५०० रूपया देकर शास्त्रार्थ करने के लिये बुलाया । वे ठहरे वकिल साहब के अतिथी गृह में । पंडित जी छद्म वेश में अकेले ही उनके पास सायंकाल के समय पहुँचे । दूसरे पक्ष की बुराई करते हुये उन्होंने विद्धान पंडित जी के पक्ष में प्रमाणों की जिज्ञासा की । उन्होंने कीर्तन के पश्चात् यज्ञ किये जाने के बारे में प्रमाण प्रस्तुत किये । पंडित जी ने दूसरे प्रमाण देकर कहा - किन्तु वे लोग तो ऐसा कहते हैं । दोनों ओर से अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये जाते रहे । उस नवयुवक के प्रमाणों के विरुद्ध पंडित सरयू प्रसाद त्रिपाठी अपना पक्ष सिद्ध करने में समर्थ न हो सके । पश्चात् पंडित जी (श्री महाराज जी) के चले आने पर वे सोचने लगे - मैं इस नवयुवक के प्रमाणों को निरस्त न कर सका तो कल जब उनकी ओर से अन्य विद्धान पंडित आवेंगे तब अपने पक्ष को कैसे सिद्ध कर सकूँगा । अत: अपनी आसन्न हार को देख वे दिन निकलने से पूर्व ही काशी को प्रश्थान कर गये ।
॥ बोलिये जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻
अखण्ड संकीर्तन
.................. इसी बीच एक घटना और घटी । कीर्तन अभी चल ही रहा था कि मारवाडियों के गुरु डीडवाना के श्री राघवाचार्य प्रतिवर्ष की भाँति आने वाले थे । मंदिर पंचायत ने कहा - हमारे गुरु जी आने वाले हैं । कीर्तन बन्द करो । वे यहीं मंदिर में ऊपर ठहरते हैं । कीर्तन से उनको असुविधा होगी ।
श्री महाराज जी - जिस गुरु को किर्तन से, भगवन्नाम से असुविधा होती है, वह महात्मा नहीं, राक्षस है । किसी के आने जाने से कीर्तन बन्द न होगा ।
अपने गुरु के प्रति इस प्रकार का संबोधन सुन मारवाडी लोग नाराज हो गये । उन्होंने कीर्तन में आना बन्द कर दिया । आये उनके गुरु जी । उनसे अपना रोना रोया उन्होंने । किन्तु वे बोले तुम लोगों के मंदिर में आज तक कभी २४ घंटे का भी कीर्तन नहीं हुआ । ये तीन महिने से हो रहा है । अंखड कीर्तन और वह भी सात्विक भावों सहित । यह तो मंदिर और महू निवासियों का सौभाग्य है कि एक रसिक भक्त द्धारा यह कीर्तन कराया जा रहा है । जाओ उनसे क्षमा माँगो ।
वे लोग आये और पंडित जी से क्षमा याचना की । राघवाचार्य जी उसी मंदिर में ठहरे और उन्होंने भी कीर्तन की मधुरिमा का रस चखा ।
इस प्रकार यह कीर्तन अखंड रूप से पूरे चार मास - वैशाख के महिने से लेकर श्रावण मास तक चला ।
क्रमशः ................४
॥लीलाधारी श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
श्री महाराज जी के प्रति श्रद्धा रखने वाले एक रिटायर्ड जज महाराज जी के सत्संग में अक्सर आते थे। महाराज जी भी जब कभी उनके शहर में जाते तो उनके यहाँ ठहरते और वहां भी सत्संग का कार्यक्रम होता। जज साहब के एक छोटे भाई जो कलेक्टर थे उनकी तनिक भी आध्यात्म में रूचि नहीं थी। वे महा नास्तिक संत महात्माओं के विरोधी थे। एक बार जब श्री महाराज जी जज साहब के यहाँ रूके हुए थे। संयोग से उनके छोटे भाई कलेक्टर साहब भी घर आये हुए थे। श्री महाराज जी उस समय एक पद की व्याख्या के संबंध में भक्तों को कुछ समझा रहे थे। जज साहब अपने कलेक्टर भाई के बारे में महाराज जी को पहले ही बता चुके थे। कलेक्टर साहब आने के बाद बराबर वाले कमरे में जाकर बैठ गये। उनको वहां से महाराज जी की बातें सुनाई पड़ रहीं थी। विषय कुछ रोचक लगा तो वे बरामदे में आकर टहलते हुए सुनते रहे । जैसे जैसे महाराज जी को सुनते उनकी संत महात्माओं के प्रति घृणा शान्त होती जा रही थी। उस दिन श्री महाराज जी ढाई घंटे तक बोलते रहे।
महाराज जी ने जब बोलना बन्द कर दिया तब कलेक्टर महोदय अन्दर आये और अन्य लोगों की भाँति श्री महाराज जी के चरण स्पर्श करना ही चाहते थे कि श्री महाराज जी ने उनके पैर छू लिए। कलेक्टर साहब हिचके और बोले, स्वामी जी आप यह क्या करते हैं। आप तो संन्यासी हैं, महात्मा है। आपको यह शोभा नहीं देता। इस पर श्री महाराज जी ने कहा, मैने तो उस संसार से संन्यास लिया है, जिसे हर किसी को एक न एक दिन छोडना पडता है यदि कोई नहीं भी छोडना चाहे तो यमराज उससे जबरदस्ती छुडवा देता है। मैंने तो इस असार संसार का परित्याग किया है भगवान् को प्राप्त करने के लिए। किन्तु आश्चर्य मुझे तुम्हें देखकर होता है कि तुमने न जाने किस बल पर उस भगवान् को ही छोड दिया है जो सर्वव्यापक है।
इन शब्दों का कलेक्टर साहब के ह्रदय पर न जाने क्या असर किया कि वह चीखकर श्री महाराज जी के चरणों में गिर पडे और कालांतर में अपने भाई जज साहब से भी आगे निकल गये। यह होता है महापुरुषों की वाणी और उनके संकल्प का प्रभाव। शास्त्र भी कहता है, महापुरुष, भगवत् प्राप्त सन्त से सुनों, बार बार सुनों उनके शब्द और वाणी का महत्व समझो। जरूर असर होगा।
🌺उन दिनों श्री महाराज जी मुक्त हस्त से रस वर्षण कर रहे थे। कभी भक्तों को वृन्दावन तो कभी बरसाना तो कभी गोवर्धन ले जाते बरसाने में अधिकांश श्री महाराज जी राधाकुण्ड, मोर कुटी, मान मन्दिर पर कीर्तन कराते थे। दिन में सत्संगियों से मधुकरी माँग कर लाने को कहते। बडे बडे घरों से सम्बन्ध रखने वाले सत्संगी लोग हिचकते, महाराज जी उनका खाना बंदरों को खिला देते और उनसे गाँव से भिक्षा माँग कर लाने को कहते। संभ्रान्त परिवार के लोगों को भिक्षा माँगते देख बरसाने वाले खूब भिक्षा देते। भिक्षा लाकर सब लोग अपनी अपनी भिक्षा के बारे में महाराज जी को बताते तथा खाते समय अत्यन्त प्रसन्न होते थे।
श्री महाराज जी कभी भक्तों से कहते यहां के लता, वृक्ष सभी महापुरुष हैं। इनके नीचे बैठकर रूपध्यान करो। भक्त गण वैसा ही करते और उन्हें तरह तरह के अनुभव भी होते। सब अपने अपने ढंग से नित्य कीर्तन करते थे। एक बार एक साँवले रंग के महात्मा काली कमरी ओढ़कर आये। पूरन के एक संत के पास जाकर कहने लगे, रोता क्यों है हरि तो तेरे साथ ही नाच रहा है। चौधरी साहब, गोदावरी, रामसमुझ ओझा और हनुमान प्रसाद आदि लोगों ने उन्हें देखा, वे लोग उनके चरण छूने को दौडे किन्तु वे अन्तर्धान हो गये। कीर्तन के दौरान कई बार लम्बे लम्बे सांप निकलते उनके सामने राधे राधे कहने पर चले जाते।
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॥ करूणावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
श्रीमती गोदावरी की शादी जयपुर में हुई थी। एक बार वे बहुत बीमार पड़ गयीं। उनके भाई हनुमान सेठ उन्हें प्रतापगढ़ ले आये। एक दिन की बात है हनुमान सेठ के घर के सामने पूरन सेठ के घर कीर्तन हो रहा था। कीर्तन की ध्वनि गोदावरी के कानों में पडी। गोदावरी ध्वनि की दिशा में दीवार का सहारा लेकर बढती हुई वहां पहुंच गयी। कीर्तन समाप्ति के पश्चात श्री महाराज जी ने पूछा, स्वास्थ्य कैसा है। हनुमान सेठ ने गोदावरी के स्वास्थ्य के बारे में विस्तार से बता दिया।
सब कुछ जानकर महाराज जी ने सारी दवायें बन्द करा दी और केवल चरणोदक लेने की सलाह दी। हनुमान सेठ ने यही किया और उन्होंने पाया कि उनकी बहन गोदावरी कुछ दिनों बाद बिलकुल ठीक हो गयी।
🌺एक बार श्री महाराज जी ने कीर्तन के अपने साथियों से कहा था, तुम लोग जब भी व्याकुलता पूर्वक पुकारोगे मैं आ जाऊंगा। बात उन दिनों की है जब श्री महाराज जी इलाहाबाद में श्री लक्ष्मण स्वरूप भटनागर के निवास पर कीर्तन करा रहे थे। उसी दिन की घटना है। श्री महाराज जी द्वारा कही गई बात को आजमाने के लिए प्रतापगढ़ में जब सायंकाल के समय भक्तजन कीर्तन के लिए इकट्ठा हुए तब ऊषा और उर्मिला ने सब लोगों पर अपना मंतव्य प्रकट कर दिया। भक्तगण आज श्री महाराज जी को बुलाना ही चाहते थे। सारे भक्तगण उषा की देखरेख में कीर्तन प्रारंभ कर दिया।
दर्शन देना नन्द दुलारे। नन्द नन्दन नैनन के तारे।।
सब लोगों ने महाराज जी का ध्यान किया और व्याकुलता पूर्वक उनके आने की प्रार्थना करने लगे। सभी भाव विभोर होकर कीर्तन करने लगे और मन ही मन श्री महाराज जी को पुकारते ही जा रहे थे। सभी मन ही मन सोचते आज तुम्हारी परीक्षा है, न आये तो वाणी विफल हो जायेगी।
उधर श्री महाराज जी इलाहाबाद में भटनागर के घर कीर्तन में मस्त थे। कीर्तन चरम अवस्था पर था कि पता नहीं श्री महाराज जी को क्या हुआ कि वहाँ मौजूद श्री राम दत्त दुबे से बोले अपनी साईकिल ले आओ, बाहर चलेंगे। साईकिल आयी महाराज जी उस पर बैठे और राम दत्त दुबे को पीछे बैठाया। साइकिल तेज गति से चल रही थी, भीड में कभी इधर मुडती तो कभी उधर। साइकिल इतनी तेज गति से चल रही थी कि पीछे बैठे दुबे जी ने डर के मारे आँख ही बन्द कर लिया। स्टेशन पहुंचे स्टैंड पर साइकिल रखी और टिकट लिया। ट्रेन सीटी पर सीटी दे रही थी, दोनों भागकर सामने वाले डिब्बे में चढे कि गाडी तुरंत चल दी। मानो इतनी देर तक वह इन दोनों लोगों के लिए ही रूकी थी और बार बार सीटी देकर महाराज जी को ही बुला रही थी। ट्रेन प्रतापगढ़ पहुंची वहां रिक्शा लिया और बाली पुर पलटन बाजार में महाबनी जी के घर पहुंच गए, जहां उस समय भी कीर्तन चल रहा था। दर्शन देना नन्द दुलारे। नन्द नन्दन नैनन के तारे। भक्तों की आर्त पुकार सुनकर श्री महाराज जी इलाहाबाद से प्रतापगढ़ आ गये थे। कीर्तन के बीच में श्री महाराज जी जाकर खडे हो गये। उनको अपने बीच में देखकर लोग चीख पडे और आत्म विभोर होकर महाराज जी के चरणों में लिपट गये थे।
॥ भक्त वत्सल श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
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आगरा की रहने वाली एक सत्संगी महिला सुश्री गौरी राय ने कहा कि महाराज जी को जब यह पता चला कि उनकी मां पूर्णतः उन्हीं पर आश्रित हैं तब महाराज जी ने उनसे कहा था, माँ को रोटी, कपड़ा, की कभी तंगी न होने देना और भविष्य में साधना के लिए पैसा जोड़ना। सुश्री गौरी राय ने महाराज जी से सवाल किया क्या जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आपके शरण में आना आवश्यक है। गौरी राय की इस बात का उत्तर देते हुए महाराज जी ने कहा कि यह जीव जिस प्रकार के परिवेश में रहता है, जिससे मन लगाता है वैसा ही वह बन जाता है। अतः सांसारिक बनने के लिए सांसारिक व्यक्तियों से नाता जोड़ना होगा और आध्यात्मिक लाभ लेने के लिए आध्यात्मिक व्यक्तियों के पास जाना होगा। गौरी राय का स्वयं कहना है कि वह जब पहली बार महाराज जी से मिली थी तब महाराज जी ने उनसे कहा था, मैं बहुत दिनों से तुम्हें परख रहा था, बहुत पहले ही तुम्हें मेरे पास आ जाना चाहिए था।
एक बार हमारे महाराज जी किसी सत्संगी महिला के घर गए अचानक बिना बताए पंहुच गये।
तो जब अचानक श्री महाराज जी उनके घर पहुचे तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। और महाराज जी ने आते ही कहा की मुझे बहुत जोर से भूख लगी है।
उस महिला की ख़ुशी और बढ़ गयी। वो सोचने लगी की मै जल्दी से क्या बना दू क्योंकि मेरे महाराज जी बहुत भूखे है उसे ख़ुशी के कारण कुछ समझ नही आ रहा था ।
फिर उसने सोचा की मै महांराज जी के लिए जल्दी से हलवा बना देती हूं।
वो हाथो से तो हलवा बना रही थी लेकिन मन से महाराज जी का चिन्तन कर रही थी।
तो उसने हलवे में चीनी की जगह नमक मिला दिया और उसको प्लेट में कर के महाराज जी के पास ले गयी।
जब महाराज जी ने हलवा एक चम्मच खाया तो उनको स्वाद बदला हुआ सा लगा।
महाराज जी ने दोबारा भी हलवा माँगा और वो बडी खुश होकर सारा हलवा ले आई कि महाराज जी को बहुत अच्छा लगा।
लेकिन उन्होंने उस महिला से कुछ् नही पता चलने दिया और पूरा का पूरा हलवा खा गए।
थोड़ी देर बाद महिला ने सोचा की महाराज जी ने इस प्लेट में खाया है इसी प्लेट में मै भी प्रसाद के रूप में खा लेती हूँ तो थोड़ा सा कहीं लगा रह गया था वो उसने चखा।
लेकिन जैसे ही उसने पोंछकर मुँह में डाला तो समझ में आया। तो महाराज जी कहते हैं। इतने प्यार से बनाया था, दुख न हो मैंने इसलिए पूरा खाया, कि हलवा पता ही नहीं चलेगा मीठा बना है या नमकीन जब रहेगा ही नहीं।
🌹ऐसी करूणा श्री महाराज जी के अतिरिक्त और कौन कर सकता है।🌹
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॥ कृपावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
1963 का वाक्या है भाष्कर साहब के यहाँ विजयनगर कालोनी में रात्रि भर का कीर्तन रखा गया था। सारे भक्तजन भावपूर्ण तथा रूपध्यान पूर्वक कीर्तन कर रहे थे। सात्विक भावों का तो ऐसा ताँता लगा कि स्त्री- पुरूष भावों में विभोर होकर सुधि भुलाकर पृथ्वी पर गिरने लगे। उस दिन के कीर्तन की श्री महाराज जी ने भूरि भूरि प्रशंसा की किन्तु उर्मिला जी को उस दिन ऐसा लगा कि उनके द्वारा कीर्तन कराने से ही ऐसा आनन्द आया है। उन्होंने दूसरे दिन श्री महाराज जी से कहा, महाराज जी आज भी केवल रात्रि का ही कीर्तन होगा। श्री महाराज जी उनके अहंकार को ताड़ गये, उन्होंने उसकी स्वीकृति दे दी। पहले दिन की ही भांति सामूहिक कीर्तन हुआ। रात्रि के 12 बजे तक केवल महिलाओं का कीर्तन हुआ। पुरूष लोग सब बाहर चले गये। श्री महाराज जी भी अपने कमरे में चले गये अब उर्मिला जी ने बाजा अपने हाथ में लिया। सीना फुलाया और मन पसन्द कीर्तन कराया किन्तु कुछ जम नहीं रहा था। अधिकांश महिलाएं ऊँघ रही थी। लग रहा था कि कीर्तन में किसी को कोई रस नहीं आ रहा हो किसी के भी अंदर सात्विक भाव उमड़ता ही नहीं दिखा। प्रातः श्री महाराज जी ने उर्मिला से पूछा कीर्तन तो अच्छा जमा होगा।
इस पर उर्मिला जी बोली, क्या जमता किसी ने कायदे से कीर्तन किया ही नहीं। उर्मिला जी अहंकार में यह कह तो गयी किन्तु बाद में वह भली प्रकार समझ गयीं थी कि सात्विक भावों का उद्रेक अथवा कीर्तन में रस की अनुभूति महापुरुष की कृपा से ही होती है।
🌺एक बार प्रातःकाल मास्टर साहब के बरामदे में श्री महाराज जी पलंग पर विराजमान थे और उनकी आरती अभी समाप्त ही हुई थी कि पलंग के दायीं ओर खडा फक्कड बाबा उछल पड़ा। हनुमान जी की मुद्रा में वह पलंग के पास आया, मुँह अत्यन्त लाल, घूँसा ताने वह हुँकार करता आगे बढा अन्य लोगों के देखते ही देखते श्री महाराज जी की तरफ निशाना बनाकर चला। श्री महाराज जी एक ओर बच गये। बाद में श्री महाराज जी ने उसे बाहर निकाल दिया। फक्कड बाबा जोर जोर से रो रहा था।
सायंकाल के समय श्री महाराज जी बाहर आये रोता हुआ वह उनके चरणों से चिपट गया। कृपा सागर श्री महाराज जी अपने अपमान को तो पहले ही भूल चुके थे। उसे क्षमा किया और उठकर अपने हृदय से लगा लिया। माँ मारती है किन्तु जब बच्चा पुनः उसी की गोद में आकर बैठ जाता है तो फिर उसका क्रोध भला कितनी देर रह सकता है।
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॥ कृपावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻ ♻हमारे महाराज जी ♻ ♻
एक बार श्री महाराज जी मध्यप्रदेश के मुरैना गये हुए थे। वह 27 जुलाई 1962 का दिन था। महाराज जी श्री मती रज्जो बाई के घर ठहरे हुए थे। वहां कीर्तन का कार्यक्रम सुबह दोपहर, शाम में चलता। वहां भक्तों के बीच शांति जी व ज्ञान शीला बैठी हुई थी। ज्ञान शीला को देखकर महाराज जी बोले, काश इसका नाम प्रेम शीला होता।
महाराज जी के इस बात पर शान्ति जी ने बताया, प्रेम शीला तो इसकी बड़ी बहन का नाम है। वह लश्कर में रहती है। जब आप लश्कर आवेंगे तब हम उसे आपके पास ले आवेंगे। प्रेम शीला अपनी बात आगे बढाते हुए बताती हैं एक बार मेरे यहाँ कच्चा कोयला समाप्त हो गया था। बड़ी चिंता थी कोयले का इंतजाम कैसे करें। तभी एक बच्ची ने किवाड़ों पर थपकी दी, मैने किवाड़ खोली तो सामने उस बच्ची को देखकर अचंभित हो गयी। मैं कुछ बोल पाती इसके पहले ही वह कहने लगी। बाबू जी ने कोयला भेजा है। मैंने कहा ये मेरा कोयला नहीं है। इस पर वह छोकरी बोली, अरे अभी थोड़ी देर पहले ही आपका लड़का पैसा देकर आया और कहा कि एक टोकरी कोयला आपके यहाँ पँहुचा दे। उसने मकान के बारे में पूरी जानकारी भी दी थी। मैं उसी जानकारी के आधार पर यहां आयी हूँ, इतना कहकर वह कोयला रख करके चली गयी। बाद में काफी देर तक कोयला उसी प्रकार पड़ा रहा लेकिन कोई उस पर अपना हक जताने नहीं आया। बाद में मुझे उस कोयले की टोकरी को अंदर रखना पड़ा ।
बात उन दिनों की है जब महाराज जी का प्रवचन जे० के० मन्दिर में चल रहा था,। ग्वालियर से श्री मती प्रेम शीला की लड़की का तार आया, तुरंत आ जाओ। श्री मती प्रेम शीला इतना अच्छा सत्संग छोड़कर नहीं जाना चाहती थी। उन्होंने श्री महाराज जी को वह तार ले जा करके यह सोचकर दिखाया कि शायद मना कर दें। किन्तु श्री महाराज जी ने तार देखते ही तुरन्त जाने की आज्ञा दे दी।
आज्ञानुसार विवश होकर उन्हें जाना पड़ा। वहां जाने पर पता चला कि उनके पतिदेव महोदय ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी थी कि मेरी पत्नी मेरे घर से कई कीमती सामान लेकर भाग गयी है।
प्रेमशीला को वहाँ पहुँचने पर जब इन सब बातों का पता चला तब वह सोचने लगी कि ऐसा सत्य परामर्श केवल श्री महाराज जी ही दे सकते थे, जिन्हें भूत भविष्य वर्तमान सभी की चिन्ता है। हम लोग सोच रहे थे गीता में ठीक ही तो कहा है, अनन्य भाव से जो मेरा सतत चिन्तन करता है, उसका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। इसका इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है।
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॥हमारे प्यारे प्यारे महाराज जी की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
एक बार एक रामायण सम्मेलन में श्री महाराज जी को बुलाया गया था। उस सम्मेलन में बिन्दु गोस्वामी भी आये हुए थे, जो उस समय रामायण कथा वाचकों में चोटी के कथा वाचक माने जाते थे। कहते हैं उस समय श्री बिन्दु गोस्वामी एक दिन के कथा का तीन सौ रूपया दक्षिणा लिया करते थे। उस सम्मेलन में बिन्दु गोस्वामी ने कहा कि इस समय जो सम्मेलन हो रहा है इसमें भारत के समस्त मानस मर्मज्ञ आये हुए हैं। मानस पर किसी को कोई भी शंका हो तो वह समाधान कर ले। इसके बाद आपको (श्री महाराज जी) बोलना था। आप बोले, मैं सारे मानस मर्मज्ञों को चैलेंज करता हूँ कि वे रामायण की किसी एक चौपाई का सही सही अर्थ कर दे। किन्तु शर्त यह है कि वह अर्थ, नाना पुराण निगमागम सम्मत होना चाहिए। अपने मन का अर्थ नहीं सुना जायेगा महापुरुष की वाणी के अर्थ को महापुरूष ही सही सही समझ सकता है। कोई कथा वाचक इसे कैसे समझ सकता है। अतः यदि वह महापुरुष नहीं है तो उसे यह कहना चाहिए, जितनी हमारी बुद्धि है उसके अनुसार हम समझा रहे हैं। बिन्दु गोस्वामी ने श्री महाराज जी को एक पर्ची धीरे से लिख कर दिया कि यह चैलेंज आपके लिए थोड़ी ही थी।
🌻महाराज जी स्वयं बताते हैं एक बार रायपुर में हम कीर्तन करा रहे थे। सायंकाल प्रवचन होता था। उस समय हम जगद्गुरु के सिंहासन से बोल रहे थे, कीर्तन में श्री शम्भू शास्त्री भी आते थे। शास्त्री जी महू में हमें संस्कृत पढा चुके थे। आप वहाँ पुलिया आश्रम में प्रधानाध्यापक थे चेहरे और आवाज से हमें पहचान रहे थे। हमारे स्थान पर हमसे मिलने आये, किन्तु भीड़ के कारण उनकी हिम्मत आगे आने की नहीं पड़ रही थी। उन्होंने हमारे एक सत्संगी से कहलाया। महू के शम्भू नाथ शास्त्री आपसे मिलना चाहते हैं। हम तुरन्त उठे, उनके पास गये और उनके चरण छूने को झुके कि उन्होने हमें उठा लिया आैर कहा कि अब तो आप जगद्गुरु हैं। हमारे पूजनीय हैं आपको ऐसा नहीं करना चाहिए। बाद में हमारे पास आकर बैठे और विभोर होते रहे। हमने उन्हें अपने से ऊँचे स्थान पर बैठाया और उनका उचित सम्मान किया।
🌻एक बार महाराज जी जगद्गुरु होने के पहले रायगढ़ गये थे। वहां 15 दिन का प्रवचन भुजी भवन में रखा गया था एक सत्संगी बताती हैं कि महाराज जी उस समय दुबले पतले श्वेत वस्त्रों आकृत पालथी मारे आँखें बन्द करके बोलते थे। एक बार श्यामा टाकीज के श्यामा जी को विचित्र लीला दिखाई दी। लीला में महाराज जी ने दिखाया कि जीव किस प्रकार प्रतिक्षण अपराध करता है और किस प्रकार भगवान् उसको क्षमा करता रहता है। कई दिन तक उनको स्पष्ट दिखता रहा।
भगवान् जीव को सदा सद्प्रेरणा देता रहता है। वह कभी उसके साथ जबरदस्ती नहीं करता। किन्तु गुरू रूप में वह सद्प्रेरणा अमल न करने पर अनेक प्रकार से सही रास्ते पर लाने के लिए प्रयत्न करता है। कभी डाटता है, कभी स्वयं समझाता है तो कभी दूसरे से समझवाता है, कभी उसके आस पास ऐसी परिस्थितियां पैदा कर देता है, जिससे साधक सही रास्ते पर चलने को विवश हो जाता है।
🌷॥हमारे प्यारे महाराज जी को बारम्बार प्रणाम॥🌷
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
बात 1966 की है। जयपुर की रहने वाली द्रौपदी अपना संस्मरण सुनाते हुए कहती हैं, एक बार श्री महाराज जी ने मुझे स्वप्न में दर्शन दिये और कहा द्रौपदी तेरी किताब कहाँ है ? तब द्रौपदी बोली, वह तो हनुमान सेठ ले गये हैं।
श्री महाराज जी ने कहा, उनसे तू पुस्तक माँग कर ले आ। मैं तुझे पढा दूँगा। द्रौपदी अपनी पुस्तक ले आयी। दूसरी रात्रि में श्री महाराज जी ने राधा जी की बधाई का पद पढाया तथा उसका भावार्थ पढाया।। मँजरी जी से पढ़वाया, उन्होंने पढ कर बताया। फिर और पद भी पढाये। द्रौपदी जिस पद पर उँगली रखती वही पढती जाती। मँजरी जी अँगूठा छाप द्रौपदी का चमत्कार देख रही थी।
🍀गोपाली से एक दिन रुक्मिणी ने श्री महाराज जी के चरण स्पर्श करने को कहा। तब गोपाली ने कहा, मैं पति के अतिरिक्त और किसी के चरण नहीं छूती। इतने में ही महाराज जी सामने आ गये। गोपाली खुद कहती हैं, एक दिन मै पता नहीं कैसे उनके चरणों में गिर गयी और वहीं से मेरा नियम बदल गया था।
🍀श्री मती रमेश दीवान का कहना है, एक दिन जयपुर में मेरी छाती में असह्य दर्द हुआ। अस्पताल में जब मुझे स्ट्रेचर पर ले जाया जा रहा था, मुझे स्पष्ट लग रहा था कि श्री महाराज जी मेरे साथ चल रहे हैं। मैनें अपने घर वालों से कहा अगर मर जाऊँ तो साधना भवन को दस हजार रूपया दे देना। बाद में मैं अच्छी हो गयी थी। तब जब गुरूदेव जयपुर आये। एक दिन जब मैं उनके श्री चरणों को स्पर्श करने गयी तो बोले, साधना भवन को दस हजार देने को कहा था अभी दिया नहीं है। मैं आश्चर्य चकित थी।
🍀वाकया मेरठ जनपद का है, मई, 1968 में महाराज जी का मेरठ प्रवचन था। श्री नीलामम्बर दत्त जोशी निवासी हल्द्वानी श्री महाराज जी के जब संपर्क में आये। उन्होंने प्रवचन सुना, अध्यात्म से प्रभावित हुए। इच्छा हुई श्री महाराज जी को अपने घर भोजन कराने की। सोचा, जब महाराज जी स्वयं भोजन के लिए कहेंगे तभी कराउँगा। ऐसा विचार मन में बना लिया। दो तीन दिन पश्चात् ही श्री महाराज जी नीलाम्बर दत्त से बोले हमें भोजन कब कराओगे।
🍀एक बार तीसरी मंजिल पर कीर्तन हो रहा था। श्री महाराज जी भाव में नृत्य कर रहे थे। वे पता नहीं कैसे नीचे गिर गये, सब लोग नीचे की तरफ भागे। देखा श्री महाराज जी जीने से ऊपर आ रहे हैं। कहने लगे, कहां जा रहे हो ! चल कर कीर्तन करो।
🍀एक दिन रामकुमारी जी सो रही थी कि ऊपर से श्री महाराज जी का चित्र गिरा। देखा दिये की लौ से उसकी डोरी जल गयी थी। उस समय उसकी बहन ने देखा कि श्री महाराज जी कमरे से बाहर जा रहे हैं। वे सोच रही थी कि अगर ठीक समय से उनकी आँख न खुली होती तो न जाने क्या अनहोनी हो जाती। कुछ दिन पश्चात् कानपुर की शान्ति मेहरा मिली उन्होने बताया कि उस दिन प्रातः श्री महाराज जी उठे तो उनका सारा शरीर लाल था। पूछने पर बता रहे थे कि आज आग से लड़ना पड़ा। अब राम कुमारी सोच रही थी कि किस प्रकार श्री महाराज जी रक्षा करते हैं।
🌸॥ ऐसे हमारे करूणावतार श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥🌸
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अखण्ड संकिर्तन
गोपाल मन्दिर महू छावनी में श्री महाराज जी ने १५ दिन का अखण्ड कीर्तन रखा । ( सन् १९४३) इससे पूर्व इस प्रकार का कोई किर्तन वहाँ नहीं हुआ था । यह मन्दिर मारवाडियों का एक पंचायती मन्दिर है । मन्दिर का सेक्रेटरी एक वकिल था जो मन्दिर के पास ही रहता था । उसने कहा - दिन रात हाय हाय होती रहती है । काम करने नहीं देते। बन्द करो इसको । किर्तन बन्द होने के स्थान पर १५ दिन समाप्त हो जाने पर १५ दिन और बढा दिया गया । अब मारवाडी पंचायत ने भी विरोध किया । श्री महाराज जी जिनको उस समय पंडित जी के नाम से संबोधित करते थे, उन्होंने एक लकडी के तख्ते पर खडिया से लिख कर मन्दिर के द्धार पर टाँग दिया -
कोई इस तख्ते को उतार देगा । हम किर्तन बंद कर देंगे ।
राम कृपालु - ढोंगी और पागल ।
वकिल ने शहर के दो गुंडो से यह काम रात में करने को कहा । शहर का प्रसिद्ध पहलवान "चम्पा" एक और व्यक्ति को साथ लेकर चला । मार्ग के एक अंधेरी गली में एक साँप ने उसे काट लिया । सारे शहर में हल्ला मच गया । उसके पश्चात् किसी को हिम्मत उस बोर्ड को उतारने की नहीं हुई ।
बैरिस्टर ने वहाँ के अंग्रेज कोतवाल से जाकर उसकी शिकायत की । ये लोग काम करने नहीं देते । दिन रात हाय हाय होती रहती है । अंग्रेज कोतवाल आया । उसके साथ एक भारतीय आफीसर भी था । उसने पंडित जी को बुलाया और किर्तन बन्द करने को कहा ।
पंडित जी - मंदिर के अन्दर किसी प्रकार का किर्तन भजन करना गैर कानूनी नहीं है । हमने मन्दिर के बाहर कोई लाउडस्पीकर भी नहीं लगा रखा है । अत: हम कोई गैर कानूनी कार्य नहीं कर रहे हैं ।
कोतवाल ने इसे ध्यानपूर्वक सुना और मुस्कुरा कर वापस चला गया ।
क्रमशः ...............१
॥श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अखण्ड संकीर्तन
.................. इसी बीच एक घटना और घटी । कीर्तन अभी चल ही रहा था कि मारवाडियों के गुरु डीडवाना के श्री राघवाचार्य प्रतिवर्ष की भाँति आने वाले थे । मंदिर पंचायत ने कहा - हमारे गुरु जी आने वाले हैं । कीर्तन बन्द करो । वे यहीं मंदिर में ऊपर ठहरते हैं । कीर्तन से उनको असुविधा होगी ।
श्री महाराज जी - जिस गुरु को किर्तन से, भगवन्नाम से असुविधा होती है, वह महात्मा नहीं, राक्षस है । किसी के आने जाने से कीर्तन बन्द न होगा ।
अपने गुरु के प्रति इस प्रकार का संबोधन सुन मारवाडी लोग नाराज हो गये । उन्होंने कीर्तन में आना बन्द कर दिया । आये उनके गुरु जी । उनसे अपना रोना रोया उन्होंने । किन्तु वे बोले तुम लोगों के मंदिर में आज तक कभी २४ घंटे का भी कीर्तन नहीं हुआ । ये तीन महिने से हो रहा है । अंखड कीर्तन और वह भी सात्विक भावों सहित । यह तो मंदिर और महू निवासियों का सौभाग्य है कि एक रसिक भक्त द्धारा यह कीर्तन कराया जा रहा है । जाओ उनसे क्षमा माँगो ।
वे लोग आये और पंडित जी से क्षमा याचना की । राघवाचार्य जी उसी मंदिर में ठहरे और उन्होंने भी कीर्तन की मधुरिमा का रस चखा ।
इस प्रकार यह कीर्तन अखंड रूप से पूरे चार मास - वैशाख के महिने से लेकर श्रावण मास तक चला ।
क्रमशः ................४
॥लीलाधारी श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अखण्ड संकीर्तन
............ इस प्रकार तमाम बाहरी विरोध के होते हुये भी अखंड किर्तन बैशाख से लेकर सावन तक चार महिने चला । इसी बीच पंडित जी को मोतीझारा हो गया । १०५ भुखार में भी वे आरती के समय आते । पसिना इतना आता कि ४-४ कुर्ते बदले जाते । ऐसे भीग जाते कि निचोड लो । आरती करने के पश्चात् जानी माँ के घर जाकर पड जाते । कोई जाता तो उससे किर्तन का पूरा हाल पूछते । मन्दिर में किर्तन करने वालों को अनेक सात्विक भाव होते । अनेक प्रकार की भगवत लीलाओं के दर्शन होते । श्री महाराज जी पूछते तो ये लोग बताते - आज हनुमान जी के दर्शन हुये, आज नारद जी के, आज शंकर जी के ।
अच्छा होने पर श्री महाराज जी मन्दिर में अधिकतर रहते । वे किर्तन में भाग लेते । उन्हें सात्विक भाव तो अक्सर आते और अक्सर वे नृत्य करते - करते बेहोश हो जाते । ऐसे ही एक भाव का वर्णन करना यहाँ अनुपयुक्त नहीं होगा ।
एक दिन गोपाल मन्दिर में किर्तन हो रहा था नंद किशोर शर्मा के साथ पंडित जी आये । किर्तन में बैठे । ढोलक ली और बजाने लगे । ढोलक के बजते ही मानो किर्तन में प्राण आ गये । कुछ देर घनघोर कीर्तन चला । "हरे राम" का कीर्तन चल रहा था कि श्री महाराज जी का ढोल बंद हो गया । वो भाव में आ गये थे । सब लोग और अधिक चैतन्य होकर कीर्तन करने लगे । अब धिरे - धिरे श्री महाराज जी "हरि हरि बोल, बोल हरि बोल" रुआसे से बोलते हुये, हाथ उपर को उठाते हुये, खडे हो गये । अब सामूहिक कीर्तन भी "हरे राम " के स्थान पर "हरि बोल" का होने लगा । अब मृदंग, ढोल, मजीरों की लय तेज हो गई । पंडित जी भी लय के साथ तेज नृत्य करते जा रहे हैं । मोर पंख के समान दोनों हाथ कभी आगे झुकाते हैं कभी पीछे । कभी हुंकार करते हैं तो कभी चीत्कार । कभी अट्टहास करते हैं तो कभी दाँतों को भींचकर, हाथों को मोडकर कंधों के बीच लाकर जोर से दबाते हैं । अब भक्तों के बनाये घेरे में जोर से घूमने लगे । कभी इधर टकराते हैं, कभी उधर । भक्त लोग उस भावमयी मुद्रा का स्पर्श पाकर अपने को भाग्यशाली मानते हैं । वे उन्हें गिरने से रोकते हैं । उन्हें बीच में करते जाते हैं ।
क्रमशः ...................२
॥श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अखण्ड संकीर्तन
................ अब यकायक धडाम से संज्ञाशून्य होकर पृथ्वी पर गिर पडे । भक्तों ने दौडकर उनके सिर व पैरों के नीचे तकिया लगा दिये । जानी माँ चिल्ला रहीं हैं - गोपाल को हाथ न लगाना । उनके भाव में व्यवधान न करना । उन्हें कष्ट होगा । भक्तगण दूर से धीरे - धीरे उनकी सेवा में संलग्न हैं कि कहीं उन्हें कोई कष्ट न हो जाये । सारे शरीर में भूचाल के से झटके आ रहे हैं । कभी पैर ऊपर को उठ कर तकिये पर गिर जाते हैं तो कभी सिर और हाथ । कीर्तन अभी "हरि हरि बोल" का ही चल रहा है ।
अब एक जोर का झटका लगा और प्रभु एकदम उठ कर खडे हो गये । भक्तों ने फिर से उनके चारों ओर हाथों का घेरा लगा लिया । फिर वही उददाम नृत्य प्रारम्भ हो गया । प्रभु कभी हँसते हैं, कभी रोते हैं, कभी ऊपर हाथ उठाकर उददाम नृत्य करते हैं, कभी दोनों हाथों को शरीर से चिपका कर बडी विचित्र चाल चलते हैं । फिर कभी इधर के लोगों से टकराते हैं, कभी उधर के लोगों से । उनके दिव्य स्पर्श को पाकर भक्तजन फिर विभोर हो रहे हैं । कोई उनके नृत्य स्थल की रज लेकर अपने मस्तक से लगा रहे हैं । अब एकदम धडाम से पृथ्वी पर गिर गये मानो यकायक पैर फिसल गया हो । फिर वही हाथ, सिर और पैरों में भूचाली झटके । शनै: शनै: झटके धीमे होते आ रहे हैं । अब वे शान्त होकर लेटे हैं । "हरि बोल" के कीर्तन की लय भी अब बहुत धीमी हो गई है ।
कीर्तन बदला । "भजो गिरिधर गोविन्द गोपाला" आरंभ हुआ । मानो यह भावशमनकारी कोई बूटी हो । भाव धीरे - धीरे शांत होने लगा । एक धिमे झटके के साथ धीरे से वे उठ कर बैठ गये । सीधा घुटना भूमि पर मुडा है, बायाँ पेट की ओर ऊपर को मुडा हुआ है । आँखे कभी खुलती हैं कभी बन्द हो जाती हैं । कमल खिलने के समान आँखे पुरी खुलीं । लेकिन फटी फटी आँखों से ये चारों ओर क्या देख रहे हैं । अभी जिस युगल लीला का वे आनन्द ले रहे थे, क्या उसके अन्तर्ध्यान हो जाने से उसे ढूँढ रहे हैं ?
भक्तों ने एक छोटा तौलिया उनके मुडे घुटने पर रख दिया । उन्होंने उसे उठाया और मुँह हाथ पोछने लगे । दो तीन बार धीरे - धीरे मुँह पोछ कर वे एक हाथ के सहारे से उठे । एक घुटने पर दूसरे हाथ का सहारा दिया और उनीदे से उठ कर खडे हो गये । नशीले व्यक्ति के समान वे धीरे - धीरे चले और व्यासपीठ पर जाकर विराजमान हो गये । पूर्व हो रहा कीर्तन विरमित हुआ और नया कीर्तन प्रारंभ हो गया ।
क्रमश: ...............३
॥ महाभावधारी श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अंह का महल ढह गया ।
एक बार जब श्रीमती शोभारानी बसु चन्द्रप्रकाश सिंहल जी के घर राजेन्द्र नगर लखनऊ श्री महाराज जी के दर्शनार्थ पहुँची तो चन्द्र प्रकाश सिंहल जी ने प्रश्न किया -
बसु जी, श्री महाराज जी के बारे में आपका क्या विचार हैं ?
प्रश्न को सुनकर उनका मुख हर्ष से चमक उठा । वे बोली - सिंहल जी मैं विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र विभाग की अध्यक्षा हूँ । मुझसे पूर्व इसी स्थान पर मेरे पति थे, जो अब प्राच्य दर्शन के प्रवक्ता होकर आँक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, लन्दन चले गये हैं । इसे आप मेरी आत्मश्लाघा न समझें । यह मै आपके प्रश्न की भूमिका में कह रही हूँ । सम्पूर्ण विश्व के दर्शन्शास्त्रियों की जो शोभा कुछ वर्ष पूर्व काश्मीर में हुई थी, उसकी मैं अध्यक्षा थी ।
यूनिवर्सिटी में मेरा प्रयाप्त बडा बंगला है । सुन्दर विस्तृत बैड रुम व मेरा निजी वृहद पुस्तकालय है । संसार की कोई भी उच्च कोटि की दर्शन की ऐसी पुस्तक नहीं है जो मेरे निजी पुस्तकालय में न हो । मेरा एक पलंग पुस्तकालय में भी है । घर पर रहने का अधिकांश समय मेरा पुस्तकालय में ही व्यतित होता है ।
एक बात और चाहे कहिये कि मुझे जन्मजात अहंकार था अथवा कहो कि भगवान ने मुझे अतुलनीय बुद्धि और तर्क शक्ति का धनी बनाया था । मुझे याद नहीं कि मैंने अपने तर्कों के आगे अपने माता - पिता, भाइ- बहन, मित्र - सहेली, सहपाठी अथवा शिक्षक की बात पर सहमत न होने पर, उसको स्विकार किया हो । अहं से नही तर्क से । सदा मेरे ही तर्क सर्वोपरि रहता था । शादी के पश्चात पति भी कभी मेरे तर्को को नहीं काट पाये । किन्तु श्री महाराज जी का विश्वविद्यालय का प्रवचन मेरे जीवन की अभूतपूर्व घटना रही - "न भूतो न भविष्यती" ।
क्रमशः ....................
श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ गुरूदेव श्री कृपालु महाप्रभु की जय ।।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
अहं का महल ढह गया
............... प्रत्येक उद्धरण जो श्री महाराज जी ने दिया, अपने प्रवचन में, चाहे वह वेद का हो, शास्त्र का हो, भागवत, गीता अथवा रामायण का हो, प्रत्येक मुझे कंठस्थ था । अब आप पूछेंगे कि उसमें विषेश क्या था, जिसने आपको आकर्षित किया ।
मुझे आकर्षित किया उन उद्धरणों की अपूर्ण व्याख्या, विरोधों का समन्वय, उनसे उठने वाली शंकाओं का समाधान तथा उनकी सरल और ओजस्विनी भाषण शैली ने मेरे अहं के महल को ढहा दिया था । तथा इतना सब कुछ पढाने, जानने - समझने के पश्चात् भी जो विरोधाभास तथा लक्ष्य निर्धारण में शून्य सा मेरे मन में बचा रह गया था, वह अकस्मात समाप्त हो गया था ।
इसके अतिरिक्त सभी दर्शन शास्त्रियों के सिद्धातों, उनके मध्य रहने वाले भेदों को मैं भली भाँति समझती थी । किन्तु जिस लक्ष्य, गन्तव्य बिन्दु की ओर वे इंगित करते थे, उसकी प्राप्ति का मार्ग क्या है, इसका कोई भी स्पष्ट रूप मेरे मस्तिष्क में नहीं था ।
श्री महाराज जी के प्रवचनों के दिनों में मेरी शंकाओ का समाधान, विरोधाभासों का समन्वय व निराकरण ही नहीं हुआ, मुझे ऐसा लगा कि वक्ता ने अवश्य ही उस मार्ग को देखा है तथा उस लक्ष्य को प्राप्त किया है, जबकि मैंने उसके बारे में केवल पढा है, मनन किया है, उसकी आलोचना समालोचना की है किन्तु न तो उस लक्ष्य को प्राप्त किया है और न उसको प्राप्त कराने वाले मार्ग को जाना है । अत: अब मैं आई हूँ इनकी शरण में, यह जानने को कि उस लक्ष्य को प्राप्त करने का मार्ग क्या है, वह कैसे प्राप्त हो सकता है वह लक्ष्य जिसकी प्राप्ति के बारे में सारे वेद शास्त्र इंगित करते हैं ।
॥पंचम मूल जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
सन् चालीस की घटना है। उन दिनों श्री गुरूदेव किशोरावस्था में महू, इंदौर, मध्यप्रदेश में रहते थे। एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण घराना है। घर की मालकिन श्री महाराज जी को पुत्र की तरह स्नेह करती थी, उन दिनों श्री महाराज जी को लोग पंडित जी कह संबोधित करते थे, परन्तु वह गोपाल कह कर पुकारती थी। उनकी पुत्र बधू (न०कि०ति०की पत्नी) श्री मती श० ति०आयु लगभग 75 वर्ष अभी कुछ काल पहले वृन्दावन आयी थीं। उन्होंने उन दिनों की बहुत सी आश्चर्यजनक घटनाओं को सुनाया। एक घटना उन्हीं के शब्दों में।
पण्डित जी एक मंदिर में देर रात तक संकीर्तन करवाते थे। मंदिर के आसपास अधिकतर मुसलमान रहते थे। वो लोग रोज रोज मंजीरा संकीर्तन से तंग आ चुके थे। उनके कहने पर भी संकीर्तन रोका नहीं गया। 11 दिनों के संकीर्तन के पश्चात् मेरे पति (न०कि०ति०) प्रसाद बाँट रहे थे, तब ही मुसलमानों का एक बड़ा जत्था छुरा, चाकू आदि दिखाकर कहा, कल से संकीर्तन रोक दो नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं। मेरी सास घबरा गयी, मैं भी घबरा गयी कि लोग मार न डालें। सास ने पण्डित जी (श्री महाराज जी) से अनुनय विनय किया, जा गोपाल अब तो बचा, श्री महाराज जी ने कहा, मैं क्यों जाऊँ, तुम्हारा बच्चा है तुम जाओ। हमारी हालत क्या हुई होगी, आप समझ सकते है। हम हताश हो गये, उधर मुसलमान उत्तेजित हो रहे थे। हमारे पतिदेव ने सर उनके आगे न नवा कर कहा, आप लोग जो चाहें करें किन्तु कीर्तन तो अभी चलेगा। उसी समय श्री महाराज जी की दृष्टि उन लोगों पर पड़ी कि अचानक सभी मुसलमान चाकू छुरा फेंक, राधे राधे कह नाचने लगे। उसके बाद तीन दिन तक मंदिर में संकीर्तन और चला।
इसी से मिलती जुलती घटना सुश्री ब्रजेश्वरी देवी जी ने देहरादून की बतलाई। शुक्रवार को एक मजार पर उर्स का मेला लगा था, कब्बाली गाई जा रही थी। श्री महाराज जी का वहीं अति निकट में प्रवचन देने का मंच बनाया गया था। कब्बाली के बीच कोई प्रवचन कैसे सुनता। उन लोगों से आग्रह किया गया कि वो कब्बाली रोक दे या धीरे-धीरे गायें। परन्तु वो सब इस बात से उत्तेजित हो और जोर से गाने लगे। तनाव बढने लगा। परन्तु ज्यों ही श्री महाराज जी मंच पर आये उनकी दृष्टि लोगों पर पड़ी , उन सब ने कब्बाली गाना रोक दिया। बडे अदब से आकर प्रवचन सुनने बैठ गए।
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।प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।
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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻
जगद्गुरु बनने से पहले श्री महाराज जी लखनऊ में श्री जगदीश प्रसाद श्री वास्तव के यहाँ ठहरे हुए थे। एक दिन उनके हारमोनियम पर उन्होंने लिखा, तुम्हारा बाप जगद्गुरु होने जा रहा है। घर के लोगों ने जब हारमोनियम पर लिखा हुआ पढा तो उनकी समझ में ही कुछ नहीं आया कि वह क्या लिखा गया है। लखनऊ के बाद आपका प्रतापगढ़ आना हुआ वहां श्री महाबनी जी (ब्रज बनचरी दीदी के पिता) के घर पर रूके। वहीं महाराज जी ने अपना पुराने ढंग से कीर्तन कराना शुरू कर दिया। शाम को सब लोग खाना खाकर श्री महाबनी जी के घर पर जमा हो जाते। वहां से सब कीर्तन प्रेमी एक ट्रक में बैठकर राजा साहब के बाग जाते। वहां पाना से घिरे एक स्थान पर पूरी रात महाराज जी का कीर्तन होता।
इसी दौरान एक दिन महाराज जी ने महाबनी जी से कहा, महाबनी ! काशी वाले मुझे जगद्गुरु बनाने के लिए बुलाना चाहते हैं, इस बारे में तुम्हारी क्या राय है। इस पर महाबनी जी बोले, जरा देखिये इनकी शक्ल, ये जगद्गुरु बनने चले हैं। वहां न जाना, काशी के पंडित बड़े दुष्ट होते हैं। जहर दे देंगे। फिर बोले शीशे में अपनी शक्ल तो देख लो बड़े आये जगद्गुरु बनने।
इस पर महाराज जी ने कहा, अच्छा महाबनी ! तुम अपनी छोटी बेटी शक्ति को बुलाओ। वह अभी बहुत ही छोटी है उससे पर्ची उठवायेंगे। जैसी पर्ची में निकलेगा वैसा ही हम करेंगे। उसके बाद दो पर्ची बनाई गयी, एक पर्ची पर लिखा गया काशी जाना चाहिए तो दूसरी पर्ची पर लिखा गया, काशी नहीं जाना चाहिए। इसके बाद दोनों पर्चियों को अच्छी तरह शक्ति (श्री ब्रज बनचरी दीदी) के आगे डाल दिया गया। शक्ति ने पर्ची उठाई जिसमें लिखा था, काशी जाना चाहिए।
महाबनी जी तुरन्त बोले आपने इसमें कुछ गड़बड़ की है। इस बार मैं स्वयं पर्ची लिखूंगा और अपने हाथों से मोडूँगा। महाबनी जी ने ऐसा ही किया और पर्ची शक्ति के सामने रख दी गयी। शक्ति ने दोबारा एक पर्ची उठाकर खोला उसमें लिखा था। काशी जाना चाहिए।
इस बार महाराज जी अट्टहास करके हँसे। कहने लगे महाबनी अब तो मुझे काशी जाना ही पड़ेगा । श्याम सुन्दर की ऐसी ही इच्छा है। भला उस समय महाबनी जी ये सब कहां जानते थे कि ये सब सत्य संकल्प का खेल हो रहा है और वे स्वयं केवल खेल के एक मोहरे हैं।
॥श्री कृपालु महाप्रभु की जय॥
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Radhe Radhe
ReplyDeleteBhagwan ki leela Bhi Badi Aprampar hai