संसार में सत्य एवं असत्य केवल दो ही तत्त्व हैं, जिनके संग
को ही सत्संग एवं कुसंग कहते हैं l सत्य पदार्थ हरी एवं हरिजन ही हैं l अतएव केवल
हरि, हरिजन का मन- बुद्धि-युक्त सर्वभाव
से संग करना ही सत्संग है तथा उससे विपरीत यावन्मात्र अवशिष्ट विषय हैं, सत्त्वगुण,
रजोगुण एवं तमोगुण से युक्त होने के कारण मायिक हैं, अतएव असत्य हैं l तात्पर्य यह
की जिस किसी भी संग के द्वारा हमारा भगवद्विषय में मन-बुद्धि -युक्त लगव हो वही सत्संग है l इसके अतिरित्त समस्त
विषय कुसंग हैं l यह कुसंग कई प्रकार का होता है l कुसंग में पड़ जाने पर स्वयं मन-बुद्धि
का भी तदनुकूल ही निर्णय नहीं कर पाता की
मैं कुसंग में पड़ गया हूँ l जिस प्रकार शराब के नशे की मात्रानुसार ही बुद्धि भी
नशे से युक्त हो जाती है, उसी प्रकार कुसंग की मात्रानुसार ही बुद्धि भी नष्ट हो
जाती है l एक शराबी नशे में धुत्त, नाली
में पड़ा हुआ हो एवं उससे कोई पूछे कि तुम यहाँ कैसे पड़े हो, अपनी कोठी पर
क्यों नहीं जाते, तो वह नसे में चूर शराबी कहता है , ‘ अरे यार ! मैं अपनी ही कोठी
में तो हूँ ?’ अब तुम सोचो कि क्या वह शराबी बनकर बात कर रहा है ? अर्थात् क्या वह
बातें बना रहा है ? नहीं नहीं, उसने तो शराब के नशे में ही विभोर, अपनी पूरी
बुद्धि की शक्ति लगा दी है, किन्तु जब बुद्धि नष्ट हो चुकी है, तब वह बेचारा करे
ही क्या ? ठीक इसी प्रकार हम जब तीनों गुणों रूपी कुसंगों के चक्कर में पड़ जाते
हैं, तब हमारी बुद्धि भी नष्ट हो जाती है; उस नष्ट बुद्धि से यह निर्णय नहीं किया
जा सकता कि वास्तव में ही हम कुसंग कर रहे हैं l
क्रमशः
क्रमशः
-------जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
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दूसरी बात यह है कि जीव में जब तक देहाभिमान है,
तब तक वह आसानी के साथ स्वयं अपने आपको कभी भी गिरा हुआ नहीं मानते l अतएव, नित्य
होश में रहने वाले एक महापुरुष की आवश्यकता होती है जो उस बेहोश साधक की त्रुटियों
को बता-बता कर उसे होश में लाता रहता है अन्यथा जीव तो सदा ही अपने को अच्छा समझता
है l वह भले ही पराकाष्ठा का मूर्ख क्यों न हो, उसे यह कथा बिल्कुल ही प्रिय नहीं कि
‘तुम मूर्ख हो l’
तात्पर्य यह कि तीनों गुणों से
अभियुक्त बुद्धि प्रतिक्षण स्वतः परिवर्तनशील है, उसका नियामक गुणातीत महापुरुष
अवश्य होना चाहिये l
कुसंग का बीज प्रत्येक देहाभिमानी जीव
के अंतःकरण में नित्य निहित रहता है एवं वह अपने अनुकूल बाह्य गुणविषय को पाकर
अत्यन्त बढ़ जाता है l तुम अनुभव करते होंगे, दिन में कई बार ऐसा होता है कि तुमको
जैसा भी वातावरण मिलता है, वैसी ही तुम्हारी मनोवृत्तियाँ भी बदलती जाती हैं l कभी
तो यह विचार होता है कि ‘अरे ! पता नहीं कब टिकट कट जाय, शीघ्र से शीघ्र कुछ साधना
कर लेनी चाहिये l संसार तो अपने आप छोड़ देगा नहीं l फिर संसार ने पकड़ भी तो नहीं
रखा है, मैं स्वयं ही जा-जाकर उसमें (संसार में) पिस रहा हूँ l’ कभी यह बिचार
उत्पन्न होता है, ‘अरे ! कर लेंगे, कल कर लेंगे, जल्दी क्या है. समाय बहुत पड़ा है,
ऐसी भी क्या जल्दी है l फिर अभी अमुक-अमुक संसार का काम (ड्यूटी) भी तो करना है l
रात तक कर लेंगे, कल कर लेंगे,’ इत्यादि l कभी-कभी यह विचार पैदा होता है, ‘अरे
यार खाओ, पियो , मौज उड़ाओ, चार दिन की जिन्दगी है, आगे किसने देखा है क्या होगा,
भगवान् वगवान् तो बिगड़े हुए दिमाग की उपज
है l’ पाता नहीं वह मौज उड़ाने का क्या अर्थ समझता है l अरे मौज ही तो महापुरुष भी
चाहता है l
क्रमशः
---- जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
अस्तु, यह
सब अन्तरंग गुण-वृत्तियों का दैनिक परिवर्तनशील अनुभव है, जिसे तुम भली-भाँति
समझते होगे l अब यह देखो की उपर्युक्त रीती से अपनी ही मनोवृत्तीयाँ कैसे बदल जाती हैं l किसी क्षण में मान लो कि
तुम्हारी मनोवृत्ति यह हुई कि मैं चलूं कुछ साधना कर लूँ l इतने में ही रजोगुण या
तमोगुण आदि का वातावरण विशेष मिल गया, अर्थात् स्त्री, पुत्रादि का आसक्ति- वर्धक
कुछ विषय मिल गया, तो, हमारी मनोवृत्ति उन गुणों के वातावरण को पाकर फिर बदल गयी
एवं हम तत्क्षण साधना से च्युत हो गए l यह सब अन्तरंग त्रिगुण एवं बहिरंग सामग्री
की महिमा है l
अब सोचो, जब
अन्दर भी त्रिगुणयुक्त मनोवृत्तियों का कुसंग भरा है, तथा बाहर भी निन्यानवे प्रतिशत
कुसंग के ही वातावारण विशेष मिलते हैं, साथ ही अनन्तानन्त जन्मों से कुसंग का अभ्यास
भी पड़ा हुआ है, तब फिर भला जीव का कल्याण कैसे हो ? तुलसी के शब्दों में क्या
सुन्दर चित्रण है-
‘ग्रह गृहीत पुनि वात वस, ता पुनि बिछी मार l ताहि पियाइय वारुणी, कहिय कहा उपचार ll’
‘ग्रह गृहीत पुनि वात वस, ता पुनि बिछी मार l ताहि पियाइय वारुणी, कहिय कहा उपचार ll’
अर्थात् एक
तो बन्दर स्वभावतः चंचल, दुसरे उसे वातरोग (histeria), तीसरे उसे बिच्छू ने डंक
मार दिया, चौथे उसे शराब भी पिला दी गयी l अब विचार करो, उस बन्दर की क्या दशा
होगी ? यही बात जीवों के विषयों में भी है l एक तो अनादिकाल का पापमय जीव, दुसरे कुसंस्कार-जन्य
कुप्रवृत्तियाँ, तीसरे कुसंग का बाह्या वातावरण, चौथे बुद्धि का तीनों ही गुणों के
वशीभूत होकर नशे में हो जाना; अब इस बेचारे जीव रूपी बन्दर का भगवान् ही भला करे l
क्रमशः
---- जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
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किन्तु, घबड़ाने
की बात नहीं, अभ्यास करते-करते सब ठीक हो जायगा l एक महान् जंगली शेर भी बिजली के दण्ड (हण्टर) के इशारे
पर नाचता है l देखो, साधक सर्वप्रथम अपनी बुद्धि को ही ठीक करे, क्योंकि गीताकार
के सिद्धान्तानुसार, ‘बुद्धिनाशात् प्रणश्यति’ अर्थात् बुद्धि के विकृत होने से ही
जीव का पतन होता है l हाँ, तो साधक ने अपनी बुद्धि को जब महापुरुष एवं भगवन् के ही
हाथ बेचा है, तब उसे अपनी बुद्धि को महापुरुष के आदेश से ही सम्बद्ध रखना चाहिये l
लोक में भी देखो, एक कूपमण्डूक अत्यन्त मूर्ख ग्रामिण भी अपने मुकदमे में किसी
व्युत्पन्न वकील के द्वारा प्रमुख कानूनी विषयों को अपनी बुद्धि में रखकर धुरन्धर
वकील की जिरह में भी नहीं उखड़ता l
कुछ लोगों का कहना है कि इसमें क्या रखा है ?
यह तो अत्यन्त ही साधारण सी बात है l साधक मन-बुद्धि को निरन्तर भगवद्विषय में
लगाये रहे तो बहिरंग, अन्तरंग दोनों ही कुसंग न व्याप्त होंगे l किन्तु निरन्तर भगवद्विषय
में मन-बुद्धि का लगाव पूर्व में सहसा नहीं हो सकता l वह तोह धीरे-धीरे अभ्यास के द्वारा ही
होगा l
यह कुसंग भी
कई प्रकार का होता है l एक तो भगवद्विषयों से विपरीत विषयों का पढ़ना, दुसरे सुनना,
तीसरे देखना, चौथे सोचना आदि l किन्तु , इन सब में सबसे भयानक कुसंग सोचना ही है ,
क्योंकि अन्त में पढ़ने, सुनने एवं देखने आदि वाले कुसंग भी यही पर आ जाते हैं l
फिर यहीं से कार्यवाही आरम्भ हो जाती है l सोचेते-सोचेते मनोवृत्तियाँ उसी के
अनुकूल होती जाती हैं एवं बुद्धि भी मोहित होती जाती है, जिसका दुष्परिणाम यह होता
है कि कुछ काल बाद मन पूर्णतया उन विपरीत विषयों में लीन हो जाता है l मुझे इस
सम्बन्ध में गीता की अधोनिर्दिष्ट अर्धाली अत्यन्त ही प्रिय है –
‘ध्यायतो विषयान् पुंस: सगस्तेषूपजायते’ (गीता)
अर्थात् जिस विषय का हम बार-बार चिन्तन करते
हैं, उसी में हमारी आसक्ति हो जाती है l
क्रमशः
---- जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
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