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अहो हरि ! ओहू दिन कब ऐहैं।
गावत गुन गोपाल निरंतर, दृगन अश्रु बरसैहैं।
रूप माधुरी निशिदिन ध्यावत, मन भृंगी बनि जैहैं।
बाट निहारि तिहारी पल पल, कलप समान जनैहैं।
हाय ! हाय ! करि इत उत भाजत, निज तनु सुधि बिसरैहैं।
यह 'कृपालु' जिय परम भरोसो, कबहुँ तो हरि अपनैहैं।।
भावार्थ - हे श्यामसुन्दर !वह दिन कब आवेगा, जब आपके गुणों को गाते हुए प्रतिक्षण मेरी आँखें आँसू बहायेंगी। मेरा मन आपके चिन्मय स्वरूप का प्रतिक्षण चिन्तन करता हुआ भृंगी कीड़े की तरह कब तन्मय हो जायगा। कब आपके दर्शनों की प्रतिक्षण प्रतीक्षा में मुझे एक-एक क्षण कल्प-कल्पान्तरों के समान लगेगा। 'हा नाथ! हा श्यामसुन्दर !!' इस प्रकार कहते हुए, परम व्याकुलता-वश इधर-उधर भागते हुए, मैं कब पागल की भाँति अपनी सुधि-बुधि भूल जाऊँगा। 'कृपालु' के हृदय में यह पूर्ण विश्वास है कि कभी न कभी तो नाथ इस दास को अवश्य अपनायेंगे।
दैन्य माधुरी~7
कहाँ हरि ! सोये हमरिहिं बार।
पतित पुकार सुनत ही धावत, नेकु न लावत बार।
कारण रहित कृपालु सदा ते, जानत तोहिं संसार।
कैसेहुँ पतित शरण टुक आये, राखत चरण मझार।
पतितन ही सों प्यार करत नित, अस कह संत पुकार।
पुनि अति पतित 'कृपालु' पेखि कत, उर निष्ठुरता धार ।।
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भावार्थ- हे श्यामसुन्दर ! आज तक किसी भी पतित के आर्तनाद को सुनकर तुमने थोड़ी भी देर नहीं की, फिर आज हमारी ही बार कहाँ जाकर सो गये। सारा संसार तुम्हें बिना कारण के ही कृपा करने वाला अनादिकाल से जानता है। भी पतित तुम्हारी शरण में कभी आ जाय, उसे तुम सदा के लिए अपना बनाकर सर्वदा उसे अपने चरणों के पास ही रखते हो। रसिक जन पुकार-पुकार कर कहते हैं कि श्यामसुन्दर शरणागत पतितों से ही प्यार करते हैं। यदि यह सच है तो 'कृपालु' कहते हैं कि फिर मुझे, अत्यन्त पतित जानकर भी, अपने हृदय को क्यों कठोर बना लिया है, मेरे ऊपर कृपा क्यों नहीं करते?
दैन्य माधुरी~26
किशोरी मोरी, अब न लगाओ बार।मांगत भीख कृपा की केवल, खड़ो तिहारे द्वार। रसिकन - मुख अस सुनी दीन को, आदर येहि दरबार। देर होत अंधेर नहीं बस, इहै रह्यो आधार। देर भये जनि जानेहु तजिहौं, हौं जड़ हठी गमार। कहिहौं नहिं 'कृपालु' काहू सों, आ जाइय इक बार ।।
भावार्थ - हे अलबेली राधिके ! अब देर न करो। मैं तुम्हारे द्वार-पर खड़ा होकर केवल तुम्हारी कृपा की भिक्षा माँग रहा हूँ। महापुरुषों के मुख से सुना है कि तुम्हारे दरबार में दीनों का सदा सम्मान हुआ करता है। फिर भी जो देर हो रही है इसे 'देर होती है अन्धेर नहीं', इस लोकोक्ति के अनुसार समझकर विश्वास पूर्वक आशा लगाये बैठा हूँ। किशोरी जी ! तुम्हारी कृपा पाने में कितनी ही देर क्यों न हो, पर तुम यह न समझना कि मैं देर होने के कारण तुम्हारा अवलम्ब छोड़ दूँगा। क्योंकि मैं पक्का जड़, हठी एवं मूर्ख हूँ। 'कृपालु' कहते हैं कि हे किशोरी जी ! चुपके से आप मुझे दर्शन दे जाओ। यदि तुम्हें यह भय हो कि तुम और लोगों से कह दोगे, तो मैं वचन देता हूँ कि मैं किसी से नहीं कहूँगा। दैन्य माधुरी~33
*तजो रे मन! छनभंगुर वैराग।*करि विश्वास शरण गहु संतन, मोह तिमिर तव भाग।करत करत सत्संग सतत तव, हरि चरनन मन लाग।मधुर मिलन लगि विकल रैन दिन, तपत चित्त विरहाग।तब निर्मल मन संत कृपा ते, पाव सहज अनुराग।हो *'कृपालु'* मन सहज विरागी, सहज प्रेम रस पाग।
*भावार्थ*:- अर्थात् हे मन ! बिना तत्व को समझे क्षणभंगुर वैराग्य में मत पड़ो। प्रथम पूर्ण विश्वासपूर्वक वास्तविक महापुरूषों की शरण जाओ, तभी तुम्हारा अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट होगा। इस प्रकार तैलधारावत् निरन्तर महापुरूषों के संग से श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में लगाव होगा। पश्चात उनके मधुर-मिलन के लिए प्रतिक्ष्ण परम व्याकुलतावश तुम मिलन पूर्व की विरहाग्नि में जलोगे। तब हे मन ! निर्मल बनकर महापुरूषों की कृपा से तुम्हे स्वाभाविक, विशुद्ध निष्काम प्रेम मिलेगा। *श्री कृपालु जी* कहते हैं कि हे मन ! तू स्वाभाविक, संत कृपा द्वारा प्राप्त, प्रेम के द्वारा ही अन्य समस्त सांसारिक विषयों से विरागी बन सकेगा। तात्पर्य यह कि सांसारिक दुःखों से घबड़ाकर, बिना समझे-बूझे एवं बिना महापुरूषों के अवलम्ब के, संसार से क्षणिक वैराग्य, आत्मघाती हो सकता है।
*🌹प्रेम रस मदिरा-सिद्धांत माधुरी🌹*
*जगदगुरु श्री कृपालु महाराज जी रचित पद प्रसाद!*🙏🏻🙏🏻💘🦜🌹🦜💘🙏🏻🙏🏻
अलबेलो हमारो यार, प्रेम के बंधन में |
नहिं जात समाधिन जोगिन जेइ नाचत ता थेइ, ता थेइ – थेइ तेइ,ब्रजनारिन कि तारिन कि तार, प्रेम के बंधन में
नित खोजत वेद ऋचान जेई, बनि यशुमति के सुत कान्ह तेई,बँधे ऊखल में लेहु निहार, प्रेम के बंधन में।
ब्रह्माण्ड अनन्तहिं पाल जेई, छोरत मुख कौरहिं ग्वाल तेई,बने घोड़ा गँवारन ग्वार, प्रेम के बंधन में।
अग जग सब जग संहारक जेइ, डरपत यशुमति की साँटिन तेइ,धनि लीला ‘कृपालु’ सरकार, प्रेम के बंधन में।
भावार्थ – हमारे रसिक शिरोमणि प्रियतम श्यामसुन्दर अरी सखी ! प्रेम के बंधन में बँधे हुए हैं | जो योगियों की समाधि में भी नहीं जाते, वे ही ब्रजांगनाओं की हाथ की तालियों की ताल पर ता-थेइ-थेइ करते हुए नाचते हैं | अरी सखी ! प्रेम के बंधन में वे ऐसे बँध जाते हैं कि जिनको निरन्तर वेद की ऋचाएं खोजा करती हैं, वे ही यशोदानन्दन कान्ह बनकर ऊखल में बँध जाते हैं | प्रेम का बंधन ऐसा है कि जो अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों का पालन करता है वही ग्वालों के मुख से ग्रास छीन – छीनकर खाता है एवं खेल में गँवार ग्वालों का घोड़ा बनता है | अरी सखी ! वे तो प्रेम के बंधन में बँधे हैं | जो स्थावर जंगम सब का संहार करते हैं वे ही यशोदा मैया के डंडे से डरते हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैं अलबेली सरकार की लीला पर बलिहार जाता हूँ क्योंकि वे प्रेम के बंधन में बँधकर मधुरातिमधुर एवं परम विलक्षण लीलाएँ करते हैं |
🌹प्रेम रस मदिरा प्रकीर्ण माधुरी🌹
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज🙏🏻🙏🏻💘🦜🌹🦜💘🙏🏻🙏🏻
माई री मैं तो! आजु परी निधि पाई।जेहि खोजत मोहिं युग युग बीत्यो, पर् यो न कतहुँ लखाई।तेहि मोहिँ साधनहीन जानि के, रसिकन दई बताई।पारस लहि बौरात रंक ज्यों, त्यों हौं गई बौराई।भरी गुमान रैन दिन डोलति, करति सदा मनभाई।सो ‘कृपालु’ बिनु मोल मिलत निधि, राधे नाम सदाई।।
भावार्थ: –अरी माई! मुझे तो आज बिना परिश्रम के ही पड़ा हुआ खजाना मिल गया। जिस निधि को खोजते हुए मुझे अनन्तानन्त जन्म बीत गये फिर भी जो कहीं नहीं प्राप्त हुई, रसिकों ने मुझे समस्त साधनाओं से हीन समझ कर उसे बता दिया। जिस प्रकार एक भिखारी सहसा पारस पा जाने पर पागल हो जाता है, उसी प्रकार मैं भी उस निधि को पाकर उन्मत्त सी हो गयी। अब मैं बड़े ही गर्व के साथ, किसी की परवाह न करते हुये, दिन रात विचरा करती हूँ तथा अनादिकाल से अपूर्ण इच्छाओं को पूर्ण कर रही हूँ।
‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि वह निधि ‘राधे’ नाम की है एवं रसिकों की कृपा से सर्वत्र ही प्राप्त है।
🌹प्रेम रस मदिरा, सिद्धान्त माधुरी🌹
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
जाउँ गुरु, चरण-कमल बलिहार
जिन चरनन की शरण गहत मन, पावत युगल - विहार।
जिन चरनन को ध्यान धरत मन, मिटत जगत अँधियार।
जिन चरनन अनुकंपा जग महँ रहत न रह संसार।
जिन चरनन-रज आँजि चराचर, दीखत नंदकुमार ।
यदपि 'कृपालु' भेद नहिं हरि-गुरु, तदपि गुरुहिँ आभार।।
भावार्थ- मैं सद्गुरु महाराज के चरण-कमलों पर बलिहार जाता हूँ । उन चरणों की शरण ग्रहण करके मन श्यामा श्याम का रास-विहार-रस पाता है एवं उन चरणों की कृपा से ही अज्ञानांधकार सदा को समाप्त हो जाता है। उन चरणों की धूलि को श्रद्धापूर्वक आँखों में लगाने से श्यामसुन्दर का दिव्य दर्शन प्राप्त होता है । 'कृपालु' कहते हैं कि गुरु एवं हरि में यद्यपि भेद नहीं हैं तथापि गुरु द्वारा ही हरि की प्राप्ति होने के कारण गुरु के प्रति विशेष आभार है।-प्रेम रस-मदिरा, सद्गुरु-माधुरी
(जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)
मोहिं तो भरोसो है तिहारो री किशोरी राधे |हौं जस अधम तुमहिँ इक जानति, और न जाननिहारो री किशोरी राधे |भुक्ति मुक्ति नहिं माँगत केवल, अपनो जानि निहारो री किशोरी राधे |भयो तिहारो जानि राधिके,ह्वै जैहौं मतवारो री किशोरी राधे |पुनि कहँ रह अवकाश विषय को, चारि पदारथ खारो री किशोरी राधे |तुम ‘कृपालु’ सरकार हमारी, प्यार करो या मारो री किशोरी राधे ||
भावार्थ: - हे रासेश्वरी राधे ! मुझे तो एकमात्र तुम्हारा ही अवलम्ब है | मैं जिस कोटि का पतित हूँ, उसे तुम्हारे सिवा और कोई भी सांसारिक जीव नहीं जानता | संसार के सुखों से लेकर मोक्ष पर्यन्त का कोई भी सुख मैं नहीं माँगता | केवल यह माँगता हूँ कि तुम मुझे अपना समझकर अपनी कृपामयी दृष्टि से मेरी ओर देखो | जब मैं यह समझ लूँगा कि तुमने मुझे अपना बना लिया है, तब मैं आनन्द में विभोर होकर उन्मत्त हो जाऊँगा | जिसके परिणामस्वरूप सांसारिक विषय-वासनाएँ अपने-आप सदा के लिए समाप्त हो जायेंगी, एवं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चारों पदार्थ भी खारे लगने लगेंगे | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि हे किशोरी जी ! तुम हमारी स्वामिनी हो और सदा रहोगी, चाहे मुझे अपना समझकर प्यार करो चाहे पैरों से कुचलो | 🌹प्रेम रस मदिरा दैन्य – माधुरी🌹 जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज 🙏🙏 राधे राधे 🙏🙏
चातुरी पांच गौर सरकार।
एक चातुरी भ्रूनर्तन की, जेहि लखि पिय बलिहार।
एक चातुरी नैन बान की, तिरछी बरछी धार।
एक चातुरी मृदु बोलनि की, मोहति नंदकुमार।
एक चातुरी केली-कला की, प्रकटति रास मझार।
एक हास-परिहास चातुरी, सखियन संग निहार।
कह 'कृपालु' धरि रूप चातुरी, सेवत भानुदुलार।।
भावार्थ:-- गौरांगी स्वामिनी राधा पांच प्रकार की दक्षता से पूर्ण हैं। प्रथम दक्षता तो नृत्य-काल में उनके भ्रूनर्तन की है, जिसे देखकर उनके रसिक प्रियतम उन पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करते हैं। दूसरी दक्षता उनके तिरछे कटाक्षपातों की है जो प्रियतम के हृदय को घायल करने के लिए बरछी का कार्य करते हैं। तिसरी दक्षता उनकी मधुर वाणी की है जिससे मुग्ध हुए प्रियतम के श्रवण उनके मृदु वचन सुनने को सदा आतुर रहते हैं। रास-क्रीड़ा के मध्य चौथी दक्षता रति कला की है। सखियों के साथ उनके हास-परिहास की दक्षता भी देखने योग्य है। 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि दक्षता साकार रूप धारण कर श्री राधारानी की सेवा में रत है।
🌺🌺राधा त्रयोदशी🌺🌺 जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
कान्ह की जादूभरी मुसकान ।
जिन देखी तिन बिसरि गई छिन, लोक-वेद-कुल कान ।
जिन नहिं देखी तिन देखन कहँ, टेरत मुरलिहिं तान ।
जिन नहिं देखी, सुनी तिनहुँ मन, लहकत सुनि गुन-गान ।
जिन नहिं भान तनुहुँ तिन ज्ञानिहुँ, छुटत समाधिन ध्यान ।
देत ‘कृपालु’ चनौती हरि कहँ, मोहिं मोहहु तब जान ।।
भावार्थ - हमारे श्यामसुन्दर की मुस्कान में अनोखा जादू भरा हुआ है । जिसने भी उस मधुर मुस्कान को देख लिया, वह एक क्षण में ही समस्त लोक, वेद, कुल की मर्यादाओं को खो बैठा । जिसने उस मुस्कान को नहीं देखा उसको दिखाने के लिए वे मुरली बजाते हैं । जिसने मुस्कान भी नहीं देखी एवं मुरली की तान भी नहीं सुनी उसका भी मन श्यामसुन्दर के गुणों को सुन - सुन कर ललचाता रहता है | कहाँ तक कहें जिनको इन्द्रियादि शरीर का भान तक नहीं रहता उन परमहंसों का भी समाधिस्थ ध्यान छूट जाता है ।
किन्तु ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैं श्यामसुन्दर को चुनौती देता हूँ कि वे मुझे नहीं मोहित कर सकते, यदि कर सकते हैं तो करके बतावें ।
🌹प्रेम रस मदिरा श्रीकृष्ण माधुरी🌹
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
अपनी ओर टुक हेरो री, किशोरी राधे!
हौं तो कुटिल नीच सब दिन को, विश्व विदित अघ मेरो री किशोरी राधे!
पै 'बिनु हेतु पतितपावनि' यह, विरद दुरयो कित तेरो री किशोरी राधे!
शिशु नवजात न जानत मातहिँ, रहत मातु रूचि चेरो री किशोरी राधे!
त्यों हौं अति अबोध जड़ पामर, महामोह तम घेरो री किशोरी राधे!
हमरिहिं बेर बेर कत एतिक, याको करिय निबेरो री किशोरी राधे!
जगहुँ सुनात 'कृपालु' कुमात न, यदपि कुपूत घनेरो री किशोरी राधे!
भावार्थ - हे बरसाने वाली राधे! हमारी ओर न देखकर केवल अपनी ओर देखिए| मैं तो अनादि-काल से ही आपको भूलकर अत्यन्त ही कुटिल एवं नीच बन चुका हूँ, तथा मेरे पापों को भी सारा संसार जानता है| किन्तु 'बिना कारण ही महान से महान पतितों को पवित्र करनेवाली' तुम्हारी इस प्रतिज्ञा का क्या होगा? मुझे इसका विचार है| जिस प्रकार नवजात बालक अपनी माता को पहिचान नहीं सकता, माता ही स्वभावत: उसकी इच्छाओं को पूर्ण करती है| उसी प्रकार मैं भी तो अत्यन्त अनजान, हठि एवं दुष्ट तुम्हारा ही बालक तो हूँ, जो अत्यन्त भयावह अज्ञान के अँधेरे में पड़ा हूँ| आपने किसी भी पतित के लिए इतनी देर नहीं की, फिर हमारे लिए इतनी देर क्यों कर रही हो, इसका विचार कीजिए|| 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि संसार में कुपुत्र कितने ही हो जाएँ, किन्तु कुमाता एक भी नहीं सुनाई पड़ती, बस इससे अधिक मुझे कुछ नहीं कहना हैं||
Holi Madhuri
देखो देखो री, ठिठोरी होरी की ।परम-पुरुष को नारि बनायो, छवि जनु श्यामा गोरी की ।अटपट पट भूषन पहिरायो, चुनरी पीत पिछोरी की ।सेँदुर, काजर, मेहँदी, मिहावरि, माथे बिंदी रोरी की ।बारम्बार उचार सखिन सब, जय-जयकार किशोरी की ।करत विविध परिहास कहति 'कित, बानि गई बरजोरी की ?कोउ कह याय नचावन लै चलु, कुंजनि गहवर खोरी की ।कह 'कृपालु' बलि-बलि होरी की, बलि बलि बलि बलि छोरी की ।।
भावार्थ -- होली में श्यामसुन्दर को सखियों द्वारा छोरी बना देने पर एक परमहंस कहता है अरे! होली की ठिठोरी तो देखो ! परमपुरुष भगवान को सखियों ने स्त्री बना दिया । सचमुच ही स्त्री का भान होता है । अटपटे वस्त्र एवं आभूषण पहिना दिये हैं, पीताम्बर की चुनरी उढ़ा दी है । सिर में सेंदुर, आँख में काजल, हाथ में मेहँदी, पैरों में मिहावर एवं ललाट में रोली की बिंदी लगा दी है । समस्त सखियाँ बार- बार किशोरी जी की जयकार बोल रही हैं । अनेक प्रकार के मधुर परिहास करती हुई सखियाँ कहती हैं- '' तुम्हारी जबर्दस्ती वाली आदत इस समय कहाँ चली गयी है ?'' किसी सखी ने कहा- इस छोरी को गहवर-वन की कुंज में नचाने के लिए ले चलो। 'श्री कृपालु जी' कहते हैं, ऐसी होली को तो बार-बार बलिहार है एवं ऐसी छोरी को तो अनन्त बार बलिहार है ।
🌹प्रेमरस मदिरा, होरी-माधुरी🌹
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
कहाँ हरि ! सोये हमरिहिं बार।
पतित पुकार सुनत ही धावत, नेकु न लावत बार।
कारण रहित कृपालु सदा ते, जानत तोहिं संसार।
कैसेहुँ पतित शरण टुक आये, राखत चरण मझार।
पतितन ही सों प्यार करत नित, अस कह संत पुकार।
पुनि अति पतित 'कृपालु' पेखि कत, उर निष्ठुरता धार ।।
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भावार्थ- हे श्यामसुन्दर ! आज तक किसी भी पतित के आर्तनाद को सुनकर तुमने थोड़ी भी देर नहीं की, फिर आज हमारी ही बार कहाँ जाकर सो गये। सारा संसार तुम्हें बिना कारण के ही कृपा करने वाला अनादिकाल से जानता है। भी पतित तुम्हारी शरण में कभी आ जाय, उसे तुम सदा के लिए अपना बनाकर सर्वदा उसे अपने चरणों के पास ही रखते हो। रसिक जन पुकार-पुकार कर कहते हैं कि श्यामसुन्दर शरणागत पतितों से ही प्यार करते हैं। यदि यह सच है तो 'कृपालु' कहते हैं कि फिर मुझे, अत्यन्त पतित जानकर भी, अपने हृदय को क्यों कठोर बना लिया है, मेरे ऊपर कृपा क्यों नहीं करते?
दैन्य माधुरी~26
भावार्थ: –अरी माई! मुझे तो आज बिना परिश्रम के ही पड़ा हुआ खजाना मिल गया। जिस निधि को खोजते हुए मुझे अनन्तानन्त जन्म बीत गये फिर भी जो कहीं नहीं प्राप्त हुई, रसिकों ने मुझे समस्त साधनाओं से हीन समझ कर उसे बता दिया। जिस प्रकार एक भिखारी सहसा पारस पा जाने पर पागल हो जाता है, उसी प्रकार मैं भी उस निधि को पाकर उन्मत्त सी हो गयी। अब मैं बड़े ही गर्व के साथ, किसी की परवाह न करते हुये, दिन रात विचरा करती हूँ तथा अनादिकाल से अपूर्ण इच्छाओं को पूर्ण कर रही हूँ।
‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि वह निधि ‘राधे’ नाम की है एवं रसिकों की कृपा से सर्वत्र ही प्राप्त है।
🌹प्रेम रस मदिरा, सिद्धान्त माधुरी🌹
जाउँ गुरु, चरण-कमल बलिहार
जिन चरनन की शरण गहत मन, पावत युगल - विहार।
जिन चरनन को ध्यान धरत मन, मिटत जगत अँधियार।
जिन चरनन अनुकंपा जग महँ रहत न रह संसार।
जिन चरनन-रज आँजि चराचर, दीखत नंदकुमार ।
यदपि 'कृपालु' भेद नहिं हरि-गुरु, तदपि गुरुहिँ आभार।।
-प्रेम रस-मदिरा, सद्गुरु-माधुरी
चातुरी पांच गौर सरकार।
एक चातुरी भ्रूनर्तन की, जेहि लखि पिय बलिहार।
एक चातुरी नैन बान की, तिरछी बरछी धार।
एक चातुरी मृदु बोलनि की, मोहति नंदकुमार।
एक चातुरी केली-कला की, प्रकटति रास मझार।
एक हास-परिहास चातुरी, सखियन संग निहार।
कह 'कृपालु' धरि रूप चातुरी, सेवत भानुदुलार।।
कान्ह की जादूभरी मुसकान ।
जिन देखी तिन बिसरि गई छिन, लोक-वेद-कुल कान ।
जिन नहिं देखी तिन देखन कहँ, टेरत मुरलिहिं तान ।
जिन नहिं देखी, सुनी तिनहुँ मन, लहकत सुनि गुन-गान ।
जिन नहिं भान तनुहुँ तिन ज्ञानिहुँ, छुटत समाधिन ध्यान ।
देत ‘कृपालु’ चनौती हरि कहँ, मोहिं मोहहु तब जान ।।
भावार्थ - हमारे श्यामसुन्दर की मुस्कान में अनोखा जादू भरा हुआ है । जिसने भी उस मधुर मुस्कान को देख लिया, वह एक क्षण में ही समस्त लोक, वेद, कुल की मर्यादाओं को खो बैठा । जिसने उस मुस्कान को नहीं देखा उसको दिखाने के लिए वे मुरली बजाते हैं । जिसने मुस्कान भी नहीं देखी एवं मुरली की तान भी नहीं सुनी उसका भी मन श्यामसुन्दर के गुणों को सुन - सुन कर ललचाता रहता है | कहाँ तक कहें जिनको इन्द्रियादि शरीर का भान तक नहीं रहता उन परमहंसों का भी समाधिस्थ ध्यान छूट जाता है ।
किन्तु ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैं श्यामसुन्दर को चुनौती देता हूँ कि वे मुझे नहीं मोहित कर सकते, यदि कर सकते हैं तो करके बतावें ।
🌹प्रेम रस मदिरा श्रीकृष्ण माधुरी🌹
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
अपनी ओर टुक हेरो री, किशोरी राधे!
हौं तो कुटिल नीच सब दिन को, विश्व विदित अघ मेरो री किशोरी राधे!
पै 'बिनु हेतु पतितपावनि' यह, विरद दुरयो कित तेरो री किशोरी राधे!
शिशु नवजात न जानत मातहिँ, रहत मातु रूचि चेरो री किशोरी राधे!
त्यों हौं अति अबोध जड़ पामर, महामोह तम घेरो री किशोरी राधे!
हमरिहिं बेर बेर कत एतिक, याको करिय निबेरो री किशोरी राधे!
जगहुँ सुनात 'कृपालु' कुमात न, यदपि कुपूत घनेरो री किशोरी राधे!
भावार्थ - हे बरसाने वाली राधे! हमारी ओर न देखकर केवल अपनी ओर देखिए| मैं तो अनादि-काल से ही आपको भूलकर अत्यन्त ही कुटिल एवं नीच बन चुका हूँ, तथा मेरे पापों को भी सारा संसार जानता है| किन्तु 'बिना कारण ही महान से महान पतितों को पवित्र करनेवाली' तुम्हारी इस प्रतिज्ञा का क्या होगा? मुझे इसका विचार है| जिस प्रकार नवजात बालक अपनी माता को पहिचान नहीं सकता, माता ही स्वभावत: उसकी इच्छाओं को पूर्ण करती है| उसी प्रकार मैं भी तो अत्यन्त अनजान, हठि एवं दुष्ट तुम्हारा ही बालक तो हूँ, जो अत्यन्त भयावह अज्ञान के अँधेरे में पड़ा हूँ| आपने किसी भी पतित के लिए इतनी देर नहीं की, फिर हमारे लिए इतनी देर क्यों कर रही हो, इसका विचार कीजिए|| 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि संसार में कुपुत्र कितने ही हो जाएँ, किन्तु कुमाता एक भी नहीं सुनाई पड़ती, बस इससे अधिक मुझे कुछ नहीं कहना हैं||
Holi Madhuri |
🌹प्रेमरस मदिरा, होरी-माधुरी🌹
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
अहो हरि ! हरो विषम भव भीर।
देहु भीख निष्काम प्रेम की, आयो द्वार अधीर।
लख चौरासी योनि भ्रम्यों मैं, धरि धरि अमित शरीर।
मिटी न प्यास पियत निशिवासर, मृग मरीचिका नीर।
काम क्रोध मद बहुत सतायो, सहि न जात अब पीर।
विरद विचारि ‘कृपालु’ आपुनो, जनि बनिये बेपीर।।
भावार्थ - हे श्यामसुन्दर ! आपके द्वार पर यह दीन - भिक्षुक कातर होकर निष्काम - प्रेम की भिक्षा माँगने आया है | कृपा करके इसकी इच्छा पूर्ण कीजिये एवं मायिक विकारों से बचाइये | मैं स्थावर - जंगम चौरासी लाख योनियों में बार - बार अनादिकाल से अनन्तानन्त देह धारण करके अत्यधिक भटक चुका हूँ | निरन्तर मृगजल के समान सांसारिक विषयों का रसपान करते हुए भी, आपकी मधुर मिलन - रूपी मेरी आध्यात्मिक प्यास नहीं मिट सकी | आपकी माया के बड़े - बड़े सेनापतियों काम, क्रोध, अहंकार आदिकों ने अत्यन्त ही दु:खी कर दिया है | अब यह दु:ख सहा नहीं जाता |
‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं – ‘अकारणकरुण, पतितपावन, दीनबन्धु’ आदि अपनी प्रतिज्ञाओं पर विचार करते हुए निष्ठुर न बनिये वरन् उपर्युक्त निष्काम - प्रेम प्रदान करके मुझ अकिंचन को कृतार्थ कीजिये |
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श्याम हौं कब ह्वैहौं ब्रजधूरि।
ह्वै ब्रजधूरि अंग लपटैहौं, उर आनँद भरपूरि।
जेहि ब्रजरस कहँ रसिकन मानत, प्रान सजीवन मूरि।
जेहि पावन रज पावन कहँ विधि, भाग मनावत भूरि।
जेहि लगि बने लतन तरु ज्ञानिन, त्यागि समाधिन दूरि।
धूरि धूसरित तोहिँ ‘कृपालु’ कब, अतनु लखैगो घूरि।।
भावार्थ : हे श्यामसुन्दर ! मैं कब ब्रज –धूलि बनूँगा ? ब्रज –धूलि बनकर, आनन्द विभोर होकर तुम्हारे अंग –अंग में कब लिपटूँगा ? जिस ब्रज –धूलि को रसिक लोग प्राण संजीवनी मानते हैं, जिस पवित्र धूलि को पाने के लिए ब्रह्मा भिखारी बन कर अपने भाग्य की सराहना करता है, जिस ब्रज –धूलि को पाने के लिए परमहंस लोग अपनी समाधि को छोड़कर लता –वृक्ष बने हुए हैं |
‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि वह दिन कब आयेगा जब मैं वह धूलि बनकर तुम्हें धूलि - धूसरित करूँगा एवं तुम्हारे शरीर को शंकर जी का शरीर समझकर तुम्हारी ओर घूर कर देखेगा |
🌹प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी🌹
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
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कान्ह की जादूभरी मुसकान ।
जिन देखी तिन बिसरि गई छिन, लोक-वेद-कुल कान ।
जिन नहिं देखी तिन देखन कहँ, टेरत मुरलिहिं तान ।
जिन नहिं देखी, सुनी तिनहुँ मन, लहकत सुनि गुन-गान ।
जिन नहिं भान तनुहुँ तिन ज्ञानिहुँ, छुटत समाधिन ध्यान ।
देत ‘कृपालु’ चनौती हरि कहँ, मोहिं मोहहु तब जान ।।
भावार्थ - हमारे श्यामसुन्दर की मुस्कान में अनोखा जादू भरा हुआ है । जिसने भी उस मधुर मुस्कान को देख लिया, वह एक क्षण में ही समस्त लोक, वेद, कुल की मर्यादाओं को खो बैठा । जिसने उस मुस्कान को नहीं देखा उसको दिखाने के लिए वे मुरली बजाते हैं । जिसने मुस्कान भी नहीं देखी एवं मुरली की तान भी नहीं सुनी उसका भी मन श्यामसुन्दर के गुणों को सुन - सुन कर ललचाता रहता है | कहाँ तक कहें जिनको इन्द्रियादि शरीर का भान तक नहीं रहता उन परमहंसों का भी समाधिस्थ ध्यान छूट जाता है ।
किन्तु ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैं श्यामसुन्दर को चुनौती देता हूँ कि वे मुझे नहीं मोहित कर सकते, यदि कर सकते हैं तो करके बतावें ।
🌹प्रेम रस मदिरा श्रीकृष्ण माधुरी🌹
O my mind,living in Braj is very special.it is a significiant grace of radha rani.it happens only when one has great good sanskars of life.
BANI DEEN PRAPANN RAHO GURU KE,
...NIT SEVA SON TAHI RIJHAIYE JU.
Now, O my mind,be humble,selfless,and wholeheartedly surrender to your beloved master,and always try to please him with your sincere services; and-
MAN TE HARI KO GURU KO SUMIRO,
RASNA SON SADA GUN GAAIYE JU.
CHANBHANGUR JEEVAN JAANI MANA,
CHANHUN JANI VYARTH GANVAIYE JU.
Always remember your beloved radhakrishn and your gracious master in your heart and keep on singing their virtues.Remember,that this life of yours is short-lived (chhanbhangur),so dont unnecessarily waste even a single moment of your life.(keep on singing and remembering their names,leelas and virtues all the time.)
SAB DHAMAN VARO VRINDAVAN PAI,
AUR VRINDAVAN HUN GURUDHAM PAR VARO.
All the holy places of world could be sacrificed on the greatness of Vrindavan dham and that also could be sacrificed on the abode of my supreme spiritual master where he resides(because it is the unlimited divine grace of the master which breaks the bondage of maya and reveals the divine vision,thus.....)
JO GURU KE PAD PREETI JURI TO,
BHAJYO CHALI AVEGO BRAHM BICHARO.
When my heart and mind will be lovingly attached with my supreme spiritual master JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ,Krishn will automatically come running to me.
HAIN HARI NIRMAL BHAKTAN KO.
GURU HAI ADHAMON KO UDHARAN HARO.
AURAN KO GURU HON YA NA HON,
GURU MERO "KRIPALU" SUBHAG HAMARO.
Krishn reveals himself when a devotee's heart is completely purified,but for the fallen and sinful souls,only the spiritual master is the helper,protector,and uplifter.(he helps and takes a devotee to the point when he could receive the divine vision of RadhaKrishn.)
The devotee further says that "JAGADGURU" is the spiritual master of the whole world,so: others may or may not have been lucky enough to have found a true rasik master,but i am so fortunate to have "JAGADGURU SHREE KRIPALUJI MAHARAJ" as my beloved master.
भाजो भजो रि, कान्ह लखु होरि ते ।एक अचंभो देखु सखि यह, हार्यो छोरा छोरि ते ।सिगरे ब्रज को माखन खायो, बरजोरी कहुँ चोरी ते ।तदपि भज्यो तजि मुरलि पीत-पट, गहवर वन की खोरी ते ।कछुक दूरि भजि पुनि हरि कह सुनु, का होरी सखि गोरी ते ।कह 'कृपालु' यह बात कहिय अब, जाय आपुनी पोरी ते ।Seeing Shyamasundara take to His heels, a Gopi says...."Look! Look Krishna is running away. Look at how surprising it is!He has been defeated by a mere girl. He eats the butter from every home in Braja, sometimes by theft and sometimes using force. But now, He is running through the lanes of Gahavaravana, abandoning even His flute and pitambara!"Hearing this Kanha protests from a distance, "I am not running away. What sort of Holi can I play with a mere girl?"- JAGADGURU SHRI KRIPALU JI MAHARAJ
अपनापन रखना, मेरे घनश्याम |
घड़ी - घड़ी पल - पल नाम तिहारो, रटे मेरी रसना मेरे घनश्याम |
लली - लाल दोउ दै गरबाहीं, हमारे हिये बसना, मेरे घनश्याम |
भाव - हिँडोरे डारि हिये में, झुलावूँ नित झुलना, मेरे घनश्याम |
दै उपहार हार अँसुवन को, बना लूँ तुझे अपना, मेरे घनश्याम |
कैसेहुँ करि ‘कृपालु’ प्रभु अपनो, पुरवो मम सपना, मेरे घनश्याम ||
भावार्थ - हे मेरे श्यामसुन्दर ! अपने अकारण करुण विरद की सदा ही रक्षा करना अथवा हे मेरे श्यामसुन्दर ! तुम मुझे सदा अपना ही समझना | हे श्यामसुन्दर ! मेरी यही कामना है कि मेरी जिह्वा प्रत्येक क्षण तुम्हारे नामों की रटना लगाया करे | हे श्यामसुन्दर ! हे वृषभानुनन्दिनी ! तुम दोनों गले में हाथ डाले हुए हमारे हृदय में नित्य ही निवास करना | हृदय में विविध भावों के झूले में मैं तुम दोनों को नित्य ही झुलाया करूँ एवं आँसुओं की माला की भेंट देकर मैं तुमको सदा के लिए अपना बना लूँ | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि हे श्यामसुन्दर ! किसी भी प्रकार से मुझको अपना बनाकर मेरी इस कामना को पूर्ण करो |
( प्रेम रस मदिरा प्रकीर्ण – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
इक आई मालिनि स्वामिनी !|
रूप अनूप लखी सखि जो ही, मोही सो ही भामिनी |
झूमति झुकति चलति मन भावति, लजवति गति गजगामिनी |
तनु सोरह श्रृंगार सुशोभित, नख शिख छवि अभिरामिनी |
श्यामल रंग अंग प्रति अंगनि, वारत रति – पति कामिनी |
लिये पारिजातादिक फूलनि, माल अनेकन नामिनी |
लली ‘कृपालु’ कहीं ‘लै आवहु, कहहु इहैं रह यामिनी’ ||
भावार्थ – मालिन भेषधारी श्यामसुन्दर के संकेत से एक सखी किशोरी जी से कहती है कि हे स्वामिनी जू ! एक ऐसी मालिन आई है, जिसकी अनुपम छवि को जो भी सखी देखती है वही मोहित हो जाती है | वह झूमती एवं झुकती हुई इतनी सुन्दर गति से चलती है कि मतवाले हाथी की चाल भी लज्जित हो जाती है | वह सोलहों श्रृंगार से सुशोभित है, वह सर्वांग सुन्दरी है | उसका श्याम रंग है | उसके अंग अंग पर कामदेव अपनी रति को न्यौछावर करता है | वह कल्पवृक्ष आदि अनेक नाम वाले फूलों की मालाएँ लिये हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि किशोरी जी ने कहा कि उसको यहीं ले आओ और कहो कि आज रात भर यहीं विश्राम करे |
( प्रेम रस मदिरा लीला – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
क्रूर !, तू कत अक्रूर कहाय |
कुलिश करोर कठोर तोर हिय, कहु केहि धातु बनाय |
धनि धनि अवनि जननि उन जिन तोहिं, जाय माय पद पाय |
सखियन गति अँखियनहूँ देखत, हा ! कत नहिं पतियाय |
लै ले प्राण प्राणप्रिय दै दे, प्राण हाय ! अब जाय |
कह ‘कृपालु’ बहुब्रीहि समासहिं, क्रूर न जासों पाय ||
भावार्थ – ( मथुरा गमन के समय अक्रूर के प्रति ब्रजांगनाओं की उक्ति )
अरे क्रूर ! तेरा नाम अक्रूर कैसे पड़ गया ? करोड़ों वज्र के समान तेरा कठोर हृदय किस धातु से बनाया गया है ? उस पृथ्वी एवं उस तेरी माता को क्या कहूँ, जिसने तुझे पैदा करके माता के पद को लज्जित किया है | तू अपनी आँखों से भी सखियों की दयनीय दशा देखकर विश्वास नहीं करता | हम लोगों का प्राण ले ले, किन्तु हमारे प्राण श्यामसुन्दर को न ले जा | हम लोगों का प्राण कथमपि नहीं रह सकता | इतने में ‘श्री कृपालु जी’ ने कहा – अरी ब्रजांगनाओं ! ‘अक्रूर’ शब्द में बहुव्रीहि समास है जिसका अर्थ है जिनके समान विश्व में कोई भी क्रूर न हो | अतएव उसका क्रूर व्यवहार स्वाभाविक ही है |
( प्रेम रस मदिरा विरह – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
कान्ह कछु कै गयो टोना री |
यमुना – तट रह धेनु चरावत, श्याम सलोना री |
हौं तहँ गई, अचानक देखी, नंद डुठोना री |
देखत ही मोहिं डस्यो दृगन जनु, नागिनि छोना री |
तन, मन, प्राण सबै सखि ! लै अब, दै गयो रोना री |
दिवस ‘कृपालु’ न चैन एक छिन, रैन न सोना री ||
भावार्थ - ( एक सखी का प्यारे श्यामसुन्दर से प्रथम मधुर – मिलन, एवं उसका अपनी एक अंतरंग सखी से कहना | ) अरी सखी ! श्यामसुन्दर मेरे ऊपर कुछ टोना – सा कर गया | यमुना के किनारे वह श्यामसुन्दर गाय चरा रहा था | मैं अचानक ही वहाँ पर गई एवं मैंने उसको देखा | देखते ही उसकी आँखों ने नागिन बनकर मुझे डस लिया | अरी सखी ! वह मेरा तन, मन और प्राण सभी कुछ लेकर उसके बदले में रोना – मात्र ही दे गया | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अब उसके वियोग में न तो मुझे दिन में एक क्षण के लिए चैन ही मिलता है और न तो रात में नींद ही आती है अर्थात् उसके मधुर – मिलन के लिए निरंतर तड़पती ही रहती हूँ |
( प्रेम रस मदिरा मिलन – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
चलन लागे, लाल घुटुरुवनि चाल |
तनक झुकी सिर मोर चंद्रिका, लटुरिन छवि घुँघराल |
नील – कलेवर झलमलात भल, झँगुली पीत रसाल |
कटि किंकिनि पग पैजनियनि धुनि, मोहीं सब ब्रजबाल |
दुध दँतुलिन किलकनि का कहनो, लखत बनत छवि लाल |
पकरि ‘कृपालु’ महरि कर अँगुरिन, तनक चलत गोपाल ||
भावार्थ – छोटे से ठाकुरजी घुटनों के बल चलने लगे हैं, सिर पर थोड़ी – सी झुकी हुई मोर चन्द्रिका सुशोभित है | घुँघराली लटों की झाँकी अत्यन्त मनोहारी है | नीले शरीर पर पीले रंग का झंगुला झलमल करता हुआ अत्यन्त सुन्दर लग रहा है | कमर की करधनी एवं चरण की पायल की रुनझुन ध्वनि ने समस्त ब्रजांगनाओं को मोह लिया | दूध के कुछ दाँतों से युक्त किलकने का रस तो इतना विलक्षण है कि बस देखते ही बनता है | ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में, मैया के हाथ की उँगलियों को पकड़कर छोटे से ठाकुरजी थोड़ा – थोड़ा चल लेते हैं |
( प्रेम रस मदिरा श्री कृष्ण - बाल लीला – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
श्याम तन भले भये घनश्याम |
जो तुम होते गौर बरन तो, विष खातीं ब्रजबाम |
भले भये अति निठुर श्याम जो, रहे द्वारिका ठाम |
जो तुम होते सरल हृदय तो, प्रलय होत ब्रजधाम |
भले भये तुम श्याम कंत इक, प्रिया अनंत ललाम |
जो होते मोहन अनन्य तो, क्यों जीती सो बाम |
जो ‘कृपालु’ तुम होत लली तो, होति कौन गति राम ||
भावार्थ – एक सखी कहती है कि हे श्यामसुन्दर ! बड़ा अच्छा हुआ कि तुम काले रंग के हुए, अगर तुम गोरे रंग के होते तो समस्त ब्रजांगनायें तुम्हारे वियोग में जहर खाकर मर जातीं | बड़ा अच्छा हुआ कि तुमने अत्यन्त निष्ठुर स्वभाव पाया जो कि द्वारिकापुरी से लौट कर नहीं आये | अगर कहीं तुम सरल हृदय के होते तो समस्त ब्रजधाम में प्रलय हो जाती | बड़ा अच्छा हुआ कि तुम प्रियतम एक और तुम्हारी प्रेयसी अनन्त हैं | अगर तुम एक ही प्रेयसी से अनन्य प्रेम करते तो आनन्द के मारे उसके प्राण रह ही न पाते | इतने में ‘श्री कृपालु जी’ ने कहा कि यह सब तो ठीक है, किन्तु यदि तुम लली होते, तो हाय राम ! कौन गति होती |
( प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
कबहुँ सखि हमहुँ देखिहौं श्याम |
बहुत दिनन ते गुनन सुनति हौं, कोटि काम अभिराम |
अंग अंग जनु चुवत सुधारस, अस कह सब ब्रजबाम |
इक तो सुनति चपल चितवनि ते, बिके सबै बिनु दाम |
दूजो सुनति मधुर मृदु मुसुकनि, होत सबै बेकाम |
कह ‘कृपालु’ इक और मुरलिधुनि, घायल कर अविराम ||
भावार्थ - अरी सखी ! श्यामसुन्दर को कभी मैं भी देखूँगी? कभी ऐसा सौभाग्य मेरा भी होगा ? बहुत दिनों से उनके गुणों को सुन रही हूँ कि वे करोड़ों कामदेवों से अधिक सुन्दर हैं | उनके अंग-अंग से मानो अमृत रस चूता रहता है, ऐसा समस्त ब्रजांगनाएँ कहती हैं | एक तो सुनती हूँ कि उनके चंचल नेत्र की चितवनि में विलक्षण जादू है जिससे सब बिना दाम के बिक जाते हैं | दूसरे यह भी सुनती हूँ कि उनकी मधुर मुस्कान से सब विह्वल हो जाते हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अरी सखी ! एक और भी बात है, उनकी मुरली की धुनि से तो कोई भी नहीं बच पाता, वह निरन्तर सबको घायल करती रहती है |
( प्रेम रस मदिरा दैन्य - माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
धरो मन ! गौर - चरन को ध्यान |
धरो मन ! गौर - चरन को ध्यान |
जिन चरनन को राखत निज उर, सुंदर श्याम सुजान |
भटकत कोटि कल्प तोहिँ बीते, खायो सिर पदत्रान |
चार प्रकार लक्ष चौरासी, द्वार फिर् यो जनु स्वान |
चरण - शरण कबहूँ नहिं आयो, अबहूँ करत न कान |
येहि दरबार दीन को आदर, पतितन को सनमान |
पुनि ‘कृपालु’ तुम कत चूकत मन, पंडित बनत महान ||
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचित
हम चाकर उन ब्रज नारिनि के |
भूखे रहत ब्रह्म खायेहु पै, जिन ब्रजनारिन गारिनि के |
थेइ थेइ करि नित नाचत गावत, जिनकी तारन तारिनि के |
घर घर फिरत सुनन कटु वचनन, जिनकी चोरिनि जारिनि के |
याचत चरण रेणु ब्रह्मादिक, जिन ब्रज की पनिहारिनि के |
धनि ‘कृपालु’ ब्रजनारिन जिन नित, विहरति संग विहारिनि के ||
भावार्थ - हम इन ब्रजांगनाओं के दास हैं, जिनकी सदा गाली खाने पर भी ब्रह्म श्यामसुन्दर भूखे ही बने रहते हैं | जिनके हाथ की तालियों की ताल पर श्यामसुन्दर थेइ - थेइ करते हुए नाचते हैं | जिनके चोरी जारी के कड़वे वचनों को सुनने के लिए श्यामसुन्दर बरबस उनके घरों में जाते हैं | जिनकी चरणधूलि देवाधिदेव ब्रह्मादिक भी चाहते हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि वे ब्रजांगनाएँ धन्य हैं जो स्वामिनी कुंज - विहारिणी के साथ विहार करती हैं |
( प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त - माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
दयामय ! दया चहौं नहिं न्याय |
नहिं पैहौ प्रभु ! पार न्याय करि, एतिक मम अन्याय |
बिनु जाने अपराध करत जो, सोऊ दंडहिं पाय |
पुनि जो जानि जानि कर पापन, नाथ ! कौन गति वाय |
न्याय होत जगहूँ, पै तुम तो, करुणाकर कहलाय |
कहत ‘कृपालु’ न चतुराइहिं कछु, देखहु उर पुर आय ||
भावार्थ - हे दयासिन्धु श्यामसुन्दर ! मैं दया चाहता हूँ, न्याय नहीं चाहता | हे प्रभो ! यदि न्याय करोगे तो मेरे अगणित पापों की गणना भी न कर सकोगे | जब अनजाने में ही अपराध करने पर आपके यहाँ दण्ड अवश्य भोगना पड़ता है तब फिर जो जान - जान कर पाप करता है, हे नाथ ! उसकी क्या गति होगी | न्याय तो संसार में यथा शक्ति होता ही है, किन्तु तुम तो अकारण - करुण हो इसका ख्याल करो | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैं कुछ चतुराई से नहीं कह रहा हूँ, मेरे हृदय में झाँक कर देख लो |
( प्रेम रस मदिरा दैन्य - माधुरी )
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
प्रीति की, अति अड़बंगी रीत |
जोरत जुरे, न तोरत टूटे, रसिकन की अस नीत |
ज्यों ज्यों चढ़त प्रेम रँग त्यों त्यों, जग सों होत अतीत |
कबहुँ भूत पिशाचग्रही ज्यों, कबहुँ वेद विपरीत |
कबहुँ शिष्ट बनि जात जगत सम, कबहूँ भ्रष्ट पलीत |
विचरत अति विचित्र गति भूतल, करत ‘कृपालु’ पुनीत ||
भावार्थ – प्रेम की अत्यन्त ही विचित्र एवं टेढ़ी गति होती है | प्रेम न तो जोड़ने से जुड़ता है और न तोड़ने से टूटता ही है, वह तो अधिकारी जीवों के लिए महापुरुषों की कृपा – रूप एक देन है, ऐसा रसिकों का सिद्धांत है | जितनी – जितनी मात्रा में प्रेम का रँग अन्त:करण पर चढ़ता है, उतनी ही मात्रा में वह जीव भी संसार के मायिक स्तर से ऊँचा उठता जाता है | प्रेम प्राप्त कर लेने पर वह, कभी भूत – प्रेत लगे हुए के समान दिखाई पड़ता है, कभी वेद की मर्यादाओं के भी विरुद्ध कार्य करता दिखाई पड़ता है | वह प्रेमी कभी तो सांसारिक जीवों के समान सभ्य बन जाता है एवं कभी अत्यन्त गया – गुजरा – सा दिखाई पड़ता है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि वह प्रेमी अत्यन्त अद्भुत गति से समस्त पृथ्वी पर घूमता हुआ जीवों को पवित्र करता है |
( प्रेम रस मदिरा प्रेम – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
किशोरी पद, किंकर श्याम सुजान ।
नवल-निकुंज-मंजु बिच नित ही, चापत चरनन कान्ह ।
कबहुँक चँवर ढुरावत, कबहुँक, खड़ो लिये पिकदान ।
बरसाने की गलियन बिच नित, करत लाली-गुनगान ।
माँगत कृपा किशोरी जू की, करि करि सुयश वखान ।
दृग अँसुवन सों चरण पखारत, जब राधे कर मान ।
हा हा ! खात सखिन सों याचत, राधे दर्शन दान ।
गहवर गलिन रटत नित 'राधे !', बिँधे प्रिया-दृग-बान ।
बड़भागी 'कृपालु' सो पिवु जो, राधे हाथ बिकान ।।
--- जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
धरो मन ! गौर - चरन को ध्यान |
जिन चरनन को राखत निज उर, सुंदर श्याम सुजान |
भटकत कोटि कल्प तोहिँ बीते, खायो सिर पदत्रान |
चार प्रकार लक्ष चौरासी, द्वार फिर् यो जनु स्वान |
चरण - शरण कबहूँ नहिं आयो, अबहूँ करत न कान |
येहि दरबार दीन को आदर, पतितन को सनमान |
पुनि ‘कृपालु’ तुम कत चूकत मन, पंडित बनत महान ||
भावार्थ - अरे मन ! कीर्ति - कुँवरी राधिका जी के चरणों का निरन्तर ध्यान किया कर, जिन चरणों का ध्यान सच्चिदानंद श्रीकृष्ण भी करते हैं | अरे मन ! तुझे भटकते हुए अनन्त जन्म बीत चुके, एवं तूने उन विषयों के अनन्त बार जूते खाये | स्वेदज, अंडज, उद् भिज, जरायुज इन चार प्रकार की उत्पत्ति के द्वारा कुत्ते की तरह तूने चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाया है, किन्तु किशोरी जी के चरण - कमलों की शरण कभी नहीं ली | आज भी मेरी बात नहीं मान रहा है | अरे मन ! किशोरी जी के दरबार में पतितों एवं दीनों को ही सम्मान मिलता है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अरे मन ! तुम बहुत बड़े पंडित बनते हो फिर ऐसा अवसर क्यों खो रहे हो, अर्थात् किशोरी जी के चरणों की शरण क्यों नहीं लेते ?
( प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त - माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचित
सुखमय, मंगलमय व् भक्तिमय रविवार की शुभकामनाओं के साथ
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