Quotes

 स्वयं‌ को सर्वाधिक धनाढ्य

       परिवार से जोड़कर

  स्वयं को धनी कैसे बनाएं 

 

आप सभी उपरोक्त ज्ञान को

अपनी मनबुद्धियुक्त हृदय से

 समझकर मनन कीजियेगा


आइयेगा

श्री राधे कृष्ण से जोड़ स्वयं 

  के परिवार को धनी बनाएं



हमने अपनी सारी जिंदगी में

          अनंत रुपया 

                 एवं 

         संसारी सामान

     तो इकट्ठा किया ही है 


इस मिलेहुए मनुष्यजीवन में


क्या अपनी सारी जिंदगी में

        सुखमयी जीवन

        व्यतीत किया है


  स्वयं विचारियेगा अवश्य 


           यदि नहीं तो 

   विश्वास दिला सकता हूं 


  केवल एक महीने के लिए 

श्रीकृपालुजी महाराजजी के

    प्रवचनों को पुरे दिन में 

   केवल एक घंटा जब भी 

 आप एकांत में अपने लिए

      मन-बुद्धि युक्त होकर 

       समय निकाल सकें

       श्रवण अवश्य करें

                 एवं 

श्रीकृपालुजी महाराजजी के 

प्रेमरस सिद्धांत नामक ग्रंथ

   को मन-बुद्धि युक्त होकर

  मनन करते हुए अवश्य पढ़ें 


                    गतांक से आगे


“ अपने को आत्मा मानो नंवर. १

भगवान् को ही अपना सबकुछ मानो नंवर. २

और सदा मानने का अभ्यास करो नंवर. ३


बस! इतना सा ज्ञान!

और शास्त्र वेद में कुछ नहीं लिखा है।


अगर आप लोग समझते हो कि अगर हम शास्त्र वेद जानते होते तो कमाल कर देते। अरे! और कुछ नहीं लिखा है। यही लिखा है बस घूम-घूम के। निचोड़ बता रहा हूं।


वो जो सामने दोहा देख रहे हैं आप लोग। हरि गुरु को ही भजो मन से। और नित-निरंतर। और अनन्य भाव से। अन्य को मत आने दो मन में। और निष्काम भाव से।


संसार की कामना लेकर भगवान् और गुरु के पास न जाओ। बस! इतना सा ज्ञान है।”


                                         

- जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज




 निष्काम भाव से भगवान् से प्रेम करने में कभी गड़बड़ नहीं होगी और अगर भगवान् से हमने कुछ माँगा और न मिला तो फिर हम भगवान् से दूर हो जायेंगे। अरे ! काहे के दयालु हैं, काहे के वो करुणाकर हैं, सब धोखा है।

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हम तो इतना रो रहे हैं, हमको ये नहीं दिया। हमको ये नहीं दिया, ये मत सोचो। वो जो हमारे लिये अच्छा समझेंगे वो देंगे। वियोग देने में अगर हमारा कल्याण है हमको वियोग देंगे। संयोग देने में कल्याण है तो हमको संयोग देंगे। संसार छीन लेने में हमारा कल्याण है तो वो हमारा संसार छीन लेंगे। हमारे शरीर में बीमारी पैदा कर देने से हमारा कल्याण समझते हैं, यानी वो जैसे भी हमारा कल्याण समझेंगे करेंगे। हमें ऐतराज नहीं करना है। उनकी हर क्रिया में 'यस सर' यही कहना है, यही मानना है भीतर से। उसको समर्था रति कहते हैं इसी निष्काम प्रेम के लक्ष्य से भगवान् से प्रेम करना चाहिये।

जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज


" शंकाएँ तो हमें भगवत्प्राप्ति तक पैदा हो सकती हैं अगर हम पैदा करना चाहें तो लेकिन उससे हमारी हानि है।हमको तो शंकाओं को मिटा करके विश्वास करके फेथ करके ईश्वर की ओर चलना है ताकि हम प्राक्टिकल आगे बढें और जब अनुभव में आगे बढ़ेंगे तो शंकाएं अपने आप निकलती चली जायेंगी।ये हमारी जो हानि वाली चीजें हैं इससे हमको बहुत सावधान रहना है।"

                                         

- जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज


आपका   दर्शन   गोविन्द   राधे।

      आपकी कृपा ते ही होय बता दे।।


Meaning: O Radhey Govind! Your Divine vision can be attained only by Your Grace.


-Radha Govind Geet, by Jagadguru Shree Kripalu Ji Maharaj ❣️


हमारे अन्दर दुर्भावना पनपने का मुख्य कारण है – स्वयं की दूसरे से तुलना करना और अपने आपको अच्छे होने का सर्टिफिकेट दे डालना । यही दुर्भावना साधना करने पर भी हमें आगे नहीं बढ़ने देती । सब जगह हम दूसरों के प्रति छोटी भावना कर लेते हैं। तुच्छ भावना ! हमें इससे बचना चाहिए । हम अल्पज्ञ यह नहीं जान सकते की हम सही हैं या नहीं । हम में यह क्षमता ही कहाँ ?

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालुजी महाराज

ऐ मनुष्यों ! यह मनुष्य शरीर पाकर ईश्वर भक्ति करके अपना लक्ष्य प्राप्त कर लो , नहीं तो ' सर्गेषु ( करोड़ों बार ) चौरासी लाख योनियों में घूमना पड़ेगा । 

जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज

एकदिन अगर निकल जाये ऐसा कि न किसी के प्रति द्धेष अन्दर आने पावे, न किसी के प्रति राग अन्दर आने पावे समझो वो तुम्हारे जीवन का असली दिन हैं । और आ जाये कभी अभ्यास के कारण तो फील (feel) करो । फिलिंग से दोष कम होता हैं ।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

जो गृहस्थ में रहकर मन मेरे चरणों में लगाकर कर्म करता है, वह गृहस्थ विदेह - जनक के समान दुखी ही रहता है एवं वह गृहस्थ होकर भी गृह से पृथक रहता है एवं मेरे दिव्यानन्द की ही प्राप्ति करता है । सबसे बडा आदर्श तो उन गोपियों के कर्मयोग का है, जो प्रत्येक गृहस्थ के कर्म करते समय आँखों में आँसु भरकर भगवान का गुणानुवाद करती थीं एवं जिनके दास - स्वरूप स्वयं भगवान बने रहे ।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

जो जीव ईश्वर - भक्ति नहीं करता एवं निर्दिष्ट तीन ऋणों (देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण) से भी उऋण होने का कर्म नहीं करता, वह पतनको प्राप्त होता है । किन्तु जो ईश्वर की भक्ति करता है, उसके लिये उपर्युक्त नियम लागू नहीं होता, अतएव कर्म परित्याग उसके लिये क्षम्य है । 

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

राग और द्वेष दो ही एरिया हैं सारे संसार में,बाँधे हुए है हम सबको। तो राग करना है तो बस हरि से और द्वेष करना है तो काम से क्रोध से लोभ से ईर्ष्या से द्वेष से करो। ये आने न पावें, हमारे हृदय को गंदा न करने पांवे। हमारी वह पूँजी है। हम जो कमाते हैं ,एक बार भी जो भगवान् का नाम लेते हैं,ये हमारी कमाई है। इसमें गड़बड़ न करे कोई।

---जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज। 

साधक को भगवान से विमुख करने वाला सबसे महान शत्रु कुसंग ही हैं । अन्यथा, अनन्त बार महापुरुष एवं भगवान के अवतार लेने पर भी जीव इस प्रकार माया में पडा सडता रहे, यह कदापी संभव नहीं । अतएव साधकों को साधना से भी अधिक दृष्टिकोण कुसंग से बचने पर रखना चाहिये ।

                          जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

जैसे पिक्चर में कई एक्टर (actor) एवं एक्ट्रेस (actress) पार्ट (part) करने वाले होते हैं तब पिक्चर बनती है, वैसे ही जब भगवान अवतार लेकर लीला करने आते हैं तो उनके परिकर भी आते हैं एवं शंका तथा समाधान दोनों पक्षों का अभिनय जीव - कल्याणार्थ करते हैं, जिसे भगवत्कृपा - पात्र जीव ही समझ पाते हैं ।

जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज

संसार सम्बन्धी ऐश्वर्य जितने कम हों, उतना ही अच्छा और उतने में भी मन की आसक्ति न हो तब तो साधना हो सकती है अन्यथा रंक एवं सम्राट सब बराबर ही रहेंगे । जिसके पास एक कपडा नहीं है, वह एक कपडे के लिए परेशान है, जिसके पास ५० कपडे हैं वह ५१ वें के लिए परेशान है । परेशानी में कोई अन्तर नहीं पडता । इस संसार में ४ प्रकार के लोग मिलते हैं -

(१) कुछ लोग संसार के मदवर्द्धक ऐश्वर्यों के होते हुए भी ईश्वर के रस में विभोर रहते हैं ।

(२) कुछ लोग संसार के मदवर्द्धक पदार्थों के न होते हुए भी संसार के ही  ऐश्वर्यों के चिन्तन एवं उनके पुनः संग्रह में अशान्त रहते हैं ।

(३) अधिकांश लोग संसार के मदवर्द्धक ऐश्वर्यों होने के कारण ईश्वर से वंचित होकर, मदोन्मत बने हुए संसार कि ही ओर बढते जाते हैं ।

(४) अधिकांश लोग संसार के मदवर्द्धक पदार्थों के अभाव के कारण संसार से निराश होकर ईश्वर की शरण में जाते हैं एवं सत्संग द्धारा संसार का सत्य रूप समझ कर उससे विरक्त हो जाते हैं ।

इसमें प्रथम वर्ग के लोगों के उदाहरण बहुत कम मिलेंगे क्योंकि मदवर्द्धक पदार्थों के रहने पर भी उनमें आशक्ति न हो, उनका मद न हो, यह योगभ्रष्ट संस्कारी अर्थात उच्चकोटि का आध्यात्मिक पुरुष ही कर सकता है ।

दूसरे वर्ग के भी उदाहरण कम मिलेंगे क्योंकि संसार के अभाव में संसार का अंहकार न होने का कारण स्वभावतः मन ईश्वर में जाना चाहिये । किन्तु फिर भी घोर कुसंस्कार एवं कुसंग के परिणामस्वरूप ऐसा होता है । तीसरे एवं चौथे वर्ग के लोगों का नियमित रूप ही है । वास्तव में वही नियम सार्वजनिक है ।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

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साधनावस्था में संसार के बहिरंग ऐश्वर्यों से बचना है क्योंकि संसार के ऐश्वर्य बडे - बडे साधकों को पाताल में ढकेल देते हैं ।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

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व्याकुलता ही वास्तविक साधना है। 

व्याकुलता इतनी बढ़ जाये 

कि प्रियतम श्याम सुंदर से मिले बिना 

एक क्षण भी युग के सामान बीतने लगे, 

तो ये साधना की चरम सीमा है।

...जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

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प्रेम रुप रस खानी , ऐसी राधेरानी ।

वृन्दावन महरानी , ऐसी राधेरानी ।

शिव बने हैं शिवानी, ऐसी राधेरानी ।

हरि हुँ की ठकुरानी, ऐसी राधेरानी ।

पाछे डोले चक्रपाणि, ऐसी राधेरानी ।

ब्रह्म करे अगवानी, ऐसी राधेरानी ।

बडी अवढर दानी, ऐसी राधेरानी ।

कोटि रमा नौकरानी, ऐसी राधेरानी ।

करे नित मनमानी, ऐसी राधेरानी ।

दिव्य ब्रज रस खानी, ऐसी राधेरानी ।

हौं कृपालु, भी दीवानी, ऐसी राधेरानी ।।

      ....जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाप्रभु 

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............अब सोचिये, राम नाम अमरत्व देने वाला है किन्तु, आस्तिक समाज उसका क्या सदुपयोग कर रहा है ! वस्तुस्थिति तो यह है कि धन, पुत्र, स्त्री, पति आदि को ही हम लोग आनन्द का केन्द्र समझते हैं और उन्हीं की रक्षा एवं वृद्धि के लिए प्रायः ईश्वर को मानते हैं । तब फिर भला धन, पुत्रादि के अभाव को हम श्रेष्ठ कैसे मानेंगे ? हम तो धन नष्ट होने पर ही कहेंगे कि लक्ष्मी चंचल है, वह किसी एक की नहीं है । यही हमारा ज्ञान है कि जिसका भावार्थ पूर्ण अज्ञान ही है । जब - जब संसार सम्बन्धि किसी प्रिय वस्तु का अभाव होता है, हम यह कह देते हैं कि संसार मिथ्या है । किसी पुत्र ने पिता को डाँटा, किसी ने अपमान किया, बस, ज्ञान हो गया कि पुत्र, पत्नी आदि सब स्वार्थी हैं, सब धोखेबाज हैं । मैं किसी से प्यार न करूँगा, मैंने जान लिया, समझ लिया, किन्तु दो मिनट बाद जैसे ही पुत्र या स्त्री ने कहा - क्षमा कीजियेगा, मैं भांग पीकर कुछ अनर्गल शब्द बोल गया था, आप तो मेरे सर्वस्व हैं, बस, तुरुन्त आपका ज्ञान बदल गया एवं आप कहने लगे - "वही तो मैं सोच रहा था कि मेरा पुत्र अथवा स्त्री अथवा पति ऐसा कैसे कह सकता है !" अर्थात पुत्र एवं पति सब स्वार्थी हैं, यह ज्ञान अभाव में हुआ था, जब वे अनुकूल हो गये तब ज्ञान बदल गया । बस, यही स्थिति हमारी सर्वत्र, सर्वदा रहती है । भावार्थ यह कि हम लोग संसार के अभाव से घृणा करते हैं, संसार से नहीं ।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

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निन्दक को अपने आंगन में टीका लेना चाहिये ताकि वह निन्दा के द्धारा हमारी परीक्षा लेता रहे और हमें पता चलता रहे कि हम में कितना अभिमान है । क्योंकि प्रायः आस्तिक लोग मन्दिर में भगवान के सामने तो आँसु बहाकर यह पद गाते हैं कि "मो सम कौन कुटिल खल कामी" किन्तु, मन्दिर के बाहर यदि कोई ऐक्टिंग में भी कह दे कि तुम मक्कार हो तो बस, मारपीट प्रारम्भ हो जायगी और यदि पुनः उससे कहा जाय कि तुमने तो मन्दिर में भगवान के सामने अभी - अभी अपने को कुटिल, खल, कामी स्वीकार किया था तो कहेगा मैंने भगवान से कहा था तुम से तो नहीं कहा था । इसका अभिप्राय यह कि धोखा देने के लिए भगवान ही मिला है, जब कि वह सर्वद्रष्टा, सर्वनियन्ता, सर्वसाक्षी, सर्वसुहृत्, सर्वान्तर्यामी सर्वेश्वोर एंव सर्वशक्तिमान है । बलिहारी है ऐसी दिनता पर !

जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज

फ़ील करना है , क्या है हमारे पास, किस चीज़ का अहंकार है। और कितने दिन का हमारा जीवन है? कल का दिन मिले न मिले ये मानव देह भी छिन जाये। अरे!कल का भी छोड़ो,अगले क्षण की guarantee नहीं....!!!

------ जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

ऐ मनुष्यों ! यह मनुष्य शरीर पाकर ईश्वर भक्ति करके अपना लक्ष्य प्राप्त कर लो , नहीं तो ' सर्गेषु ( करोड़ों बार ) चौरासी लाख योनियों में घूमना पड़ेगा । 

जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज

 हे श्यामसुन्दर !

तुम अनादिकाल से मेरे थे, और अनंतकाल तक मेरे बने रहोगे, यह वेदों में तुम्हीं ने स्वयं कहा है। फिर अधम उधारन श्री कृष्ण। मुझे क्यों भुला दिया ?

---श्री महाराज जी।   

                      

 जब अनंत जीवों को वो अपना चुकें हैं फिर शंका कैसी ? फिर मेरी बात का भी तो विश्वाश करना चाहिये । सच कह रहा हूँ कि बिल्कुल तुम्हारे पास खड़े होकर मुस्कराते हुए तुम्हारे प्यार को सदा देखते हैं । बताओ वह जीव कितना बड़ा भाग्यवान है जिसको श्यामसुन्दर सदा देखें ।

#* कृपालु अमृतं | विरह रस *#

#* श्री कृपालु जी महाराज *#  

    

               

 अरे! मैं तो तैयार बैठा हूँ प्रेम देने के लिए, कोई लेने वाला तो हो .......!❤❤❤❤

अनाधिकारी को भी अधिकारी मैं बना दूंगा , कोई बात तो माने मेरी......!👍👍👍👍👍

किसी को परवाह ही नहीं अपनी , तो मैं क्या कर लूँगा ?😟😟😟

क्षण क्षण अपना, साधना तथा सेवा में व्यतीत करो । आज का दिन फ़िर मिले ना मिले !! ⌚⌚⌚

दोबारा मानव देह फिर मिले ना मिले !! इस समय तो मानव देह भी मिला है और गुरु भी मिल गया है ।

फिर लापरवाही क्यों ?

इससे अच्छा अवसर फ़िर आसानी से नहीं मिलने वाला......।

बार - बार सोचो !!!

" तुम्हारा कृपालु "।

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