*( हमेशा याद रखें यह सिद्धान्त ) :-🙏
*द्वेष करने वाले व्यक्ति के प्रति भी द्वेष न करें | उदासीन रहे |
*आज कोई नास्तिक भी है तो कल उच्च साधक बन सकता है अत: साधक यह न सोचे कि इसका पतन सदा को हो चुका | सूरदास संत उदाहरण हैं |
*गुरु की सेवा करने वाला तो साधक ही है, उसके प्रिय होने के कारण उस से द्वेष करना पाप है |
*सचमुच भी कोई अपराधी हो तो भी मन से भी' उसके भूतपूर्व अपराधों को न सोचे , न बोलें |
*संसार में भगवत्प्राप्ति के पूर्व सभी अपराधी हैं |
*बड़े बड़े साधकों का पतन एवं बड़े-बड़े पापियों का भी उत्थान एक क्षण में हो सकता है |
*सब में श्री कृष्ण का निवास है अत: उनको ही महसूस करें |
*मन को सदा श्री कृष्ण एवं उनके नाम , रुप , गुण , लीला , धाम, तथा उनके स्वजन में ही रखना है |
*अपने शरण्य ( हरि एवं गुरु ) को सदा अपने साथ रक्षक रुप में मानना है |
*परदोष दर्शनादि कुसंगों से बचना है |
*दोष चिन्तन करते हुए शनै-शनै बुद्धि भी दोषयुक्त हो जाती है |
*परदोष दर्शन ही स्वयं के सदोष होने का पक्का प्रमाण है l
*हमारा निन्दक हमारा हितैषी है |
*निन्दनीय के प्रति भी दुर्भावना न होने पाये क्योंकि उसके हृदय में भी तो श्री कृष्ण हैं |
*कम बोलो मीठा बोलो |
*निरर्थक बात न करो | काम की बात करो |
*प्रतिदिन सोते समय सोचो आज हमने कितनी बार ऐसे अपराध किये |
*कम दोस्ती रखो | कम लोगों से मिलो | कम लोगों से बात करो |
*बहुत संभल के संयम के साथ वाणी का प्रयोग करो |
*किसी का अपमान न करो | कड़क न बोलो | किसी को दु:खी न करो |
*सबसे बड़ा पाप कहा गया, दूसरे को दु:खी करना |
*सहनशीलता बढ़ाओ, नम्रता बढ़ाओ , दीनता बढ़ाओ |
*मौत को हर समय याद रखो | पता नहीं अगला क्षण मिले न मिले |
*सारे संसार में सब स्वार्थी हैं, किसी के धोखे में मत आना |
*मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है |
*संसार में कहीं राग भी न हो , द्वेष भी न हो , उसको वैराग्य कहते हैं |
*भक्त के लिय भगवान् का प्राण समर्पित है |
*वह दास नही जो भगवान से कुछ माँगे | वह तो व्यापारी है |
*दास माने क्या ? स्वामी की इच्छानुसार सेवा करे |
*सांसारिक कामना की पूर्ति के लिए कोई भी व्यक्ति झूठ बोलेगा , पाप करेगा , सब कुछ करता है |
*संसार की कामना के स्थान पर भगवान् की कामना बनाना है | बड़ी सीधी सी बात है उसी का नाम भक्ति है |
*संसार का वैभव पागल बना देता है | वो अकिंचन नहीं महसूस करता अपने आपको |
*भगवान् से प्रेम करना है तो संसार की कामना छोड़ना पड़ेगा |
*यदि भगवान् को सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ समझकर यह सब उन्ही पर छोड़ दिया जाय , तो माँगने की बीमारी ही उत्पन्न न होगी |
*जिस दिन किसी जीव को यह दृढ़ विश्वास हो जाएगा कि भगवान् और भगवान् का नाम एक ही है, तो उसी क्षण उसे भगवत्प्राप्ति हो जाएगी |
*भगवत्प्राप्ति केवल भगवत्कृपा से ही संभव है , अन्य कर्म , ज्ञानादि किसी भी साधन से असम्भव है |
*भगवत्कृपा के हेतु अन्त:करण शुद्ध करना होगा |
*यह कार्य वास्तविक गुरु की सहायता से ही होगा |
*सब कुछ देकर भी न सोचो कि मैने कुछ दिया क्योंकि कोई भी प्रदत्त मायिक वस्तु दिव्य सामान का मूल्य नहीं हो सकती |
*संत और भगवान् दया के सिवाय और कुछ कर ही नहीं सकते |
*अपनी बुध्दि को संत की बुध्दि में जोड़ दो | बस पूर्ण शरणागति यही है |
*संसार में न सुख है न दु:ख हैं , हमारी मान्यता से सुख या दु:ख मिलता है |
*संसारी कामना ही दुखों का मूल है , क्योंकि कामना पूर्ति पर लोभ एवं अपूर्ति पर क्रोध बढ़ता है |
*केवल कान फुकवा लेने मात्र से अथवा गुरुजी के पैर दबाने मात्र से , अथवा गुरु जी को संसारिक द्रव्य देने मात्र से अथवा बातें बनाने मात्र से , शरणागति नहीं हो सकती |
*वास्तविक गुरु तत्त्वज्ञानी एवं भगवत्प्रेम प्राप्त होना चाहिए |
*मन से हरि गुरु में अनुराग करना एवं तन से संसार का कर्म करना ही कर्मयोग है |
*भक्ति के अनेक भेद हैं किन्तु श्रवण , कीर्तन , एवं स्मरण तीन ही प्रमुख है |
*सर्व प्रमुख स्मरण भक्ति ही है |
*-- तुम्हारा कृपालु
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