महाराज जी! भुक्ति- मुक्ति क्या है?

                                  【📖प्रश्नोतरी भाग- 2 📖】

                                                   【प्रश्न :- 10】



                महाराज जी! भुक्ति- मुक्ति क्या है?



   श्री महाराज जी द्वारा उत्तर

भुक्ति -मुक्ति, प फ ब भ वो भुक्ति सात प्रकार की होती है और मुक्ति पाँच प्रकार की होती है। तो बारह प्रकार का ये लक्ष्य हुआ। प्राप्तव्य। तेरहवीं कोई चीज नहीं होती । माया के एरिया में स्वर्ग के सात स्तर हैं- भू, भुवः, स्वः, महा, जनः, तपः, सत्य ये एक से एक अधिक सुख हैं इन लोकों में। स्वर्ग की सात कक्षायें हैं। सात प्रकार के स्वर्ग होते हैं। एक से एक अधिक सुख हैं इनमें, लेकिन ये सब मायिक सुख हैं। ये नित्य नहीं हैं, अनित्य हैं। समाप्त हो जाते हैं एक दिन। फिर कुत्ते बिल्ली गधे बनना पड़ता है। और जो सुख मिलता भी है वो सदा एक-सा नहीं मिलता। जैसे हमारे मृत्युलोक में हम लोगों को जो सुख मिलता है माँ से, बाप से, बेटे से, बीबी से, पति से, संसार के सामान से; तो वो एक-सा सुख नहीं मिलता। पहले अधिक, फिर कम, फिर कम, फिर खतम, फिर उसी सामान से दु:ख मिलने लगता है। घृणा हो जाती है। एक दिन में पच्चीसों परिवर्तन होते हैं, सुख की कक्षा में। उसी माँ को, उसी बाप को, उसी बीबी को, उसी पति को हम दिन भर देखते हैं; लेकिन हर बार देखने में, फीलिंग में, अन्तर हो जाता है। कभी बहुत अच्छा लगता है, कभी उससे कम, कभी उससे कम, कभी बिल्कुल नहीं और कभी खराब लगने लगता है। ये संसार का, जैसे- हमारे मृत्युलोक का सुख है, ऐसे ही स्वर्ग का भी है। वहाँ भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, ईर्ष्या, द्वेष सब भरा पड़ा है। अपने से ऊपर वाले को देखकर दुःखी होना, अपने से नीचे वाले को देख कर सुखी होना; ये बीमारी जो हमारे मृत्युलोक में है वैसे ही वहाँ भी है। एक साइकिल वाला कार वाले को देखता है, ईर्ष्या करता है। बड़े लाट साहब बने हैं, चले जा रहे हैं। इसी प्रकार एक-एक कक्षा आगे है। जहाँ लोग अपने से आगे वाले को देखकर दुःख महसूस करते हैं। उनको सुख नहीं मिलता। अपने से नीचे वाले को देखते हैं तो सुख मिलता है। अहा! हम बी. ए. हैं, ये हाईस्कूल है। हम करोड़पति हैं, ये लखपति है। तो ये सात जो स्तर हैं सुख के- ये सब निन्दनीय हैं, नश्वर हैं, अनित्य हैं, परिवर्तनशील हैं और एक दिन बिल्कुल समाप्त हो जाते हैं।


अब इसके आगे चलो। यहाँ तक तो माया का राज्य है, सात स्वर्ग के सुखों में माया का आधिपत्य है। तीन गुण की माया। इसलिए इसका नाम सुख है ही नहीं। सुख की परिभाषा है- "जो अनन्त मात्रा का हो, अनन्त काल के लिए हो।"


यो वै भूमा तत्सुखम्।   (छान्दो. ७-२३-१) 


उसकी लिमिट भी अनलिमिटेड हो और समय भी अनन्तकाल का हो, सदा रहे, वो आनन्द है। ऐसा आनन्द ये सात स्वर्ग में कहीं नहीं। इसके आगे है मोक्ष , मुक्ति। भुक्ति के ऊपर मुक्ति। तो भुक्ति में देखो ऊपर, 'भ' है हिंदी में, दो पाई अलग-अलग होती है। यानी ब्रह्म से जीव अलग है। भगवान् से ये जीव पृथक् है। और मुक्ति में ये जीव भगवान् से मिल जाता है। एक हो जाता है। 'भ' और 'म' में क्या अन्तर है? 'भ' के ऊपर में वो कटी हुई पाई होती है और 'म' में मिल जाती है। तो 'भुक्ति' में जीव और ब्रह्म का वियोग और जब जीव ब्रह्म से मिल गया वो 'मुक्ति'। तो वो अनन्त आनन्द अब सीमित नहीं रहा। वहाँ माया का अधिकार नहीं। पाँच प्रकार की मुक्ति में पहली मुक्ति है- भगवान् में लीन हो जाना (पर्सनैलिटी का)। न वहाँ शरीर रहेगा, न मन, न बुद्धि। आत्मा परमात्मा में लीन हो जाऐगी उसको मुक्ति कहते हैं। कैवल्य, सायुज्य, एकत्व ये नाम हैं और चार प्रकार की मुक्ति ऐसी होती है जिनमें जीव और ब्रह्म अलग-अलग रहते हैं लेकिन माया से परे होकर भगवान् का प्रेम, सेवा, उनका दर्शन, स्पर्श, वगैरह सब मिलता है। जैसे हम संसार में माँ, बाप, बेटा, स्त्री, पति का पाते हैं; ऐसे वहाँ मिलता है। इसलिए वो चारों मुक्ति कैवल्य मुक्ति से श्रेष्ठ हैं। लेकिन वहाँ भी कामना है निष्काम नहीं है क्योंकि हम कुछ चाहते तो हैं - सायुज्य मुक्ति, सारूप्य मुक्ति, साषिर्ट मुक्ति, सालोक्य मुक्ति, सामीप्य मुक्ति। कोई कामना हो तो उसमें आनन्द की कमी हो जायेगी। कामना पूरी नहीं होगी तो अशांति होगी।


संसार में देखो, कोई कामना आप बना लेते हैं- इतना पैसा मिलेगा, अमुक डिग्री मिलेगी, अमुक सामान मिलेगा; और जब वो नहीं मिलता तो दुःख होता है। स्वभावतः होगा। और जब मिल जाता है तो उसके आगे लोभ होगा और मिल जाय। यानी दोनों प्रकार से परेशान रहते हैं हम। नहीं मिला तो क्रोध की फीलिंग, मिला तो लोभ। और आगे कामना पैदा हुई। तो ये सब बीमारियाँ भुक्ति और मुक्ति दोनों में हैं। खाली मुक्ति में इतना ही अन्तर है कि संसार में नहीं आना है। माया का रोग नहीं लगेगा। चौरासी लाख योनियों से छुट्टी मिलेगी, लेकिन प्रेमानंद नहीं मिलेगा जो सबसे बड़ी चीज है।

जगद्गुरुतम श्री कृपालु जी महाराज


          

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