【📖प्रश्नोतरी भाग- 2 📖】【प्रश्न :- 11】
श्री महाराज जी द्वारा उत्तर
अद्वैत वेदान्ती शंकराचार्य वगैरह कहते हैं- माया नाम की कोई बात नहीं। ये अपने मन का कन्फ्यूजन है। कोई भी पॉवर नहीं है माया। वेद शास्त्र कहता है- माया शक्ति है। दैवी शक्ति है भगवान् की। तो शक्ति तो है, लेकिन जीवात्मा का प्रेम परमात्मा में होना चाहिए उसके बजाय इस माया के द्वारा संसार में हो रहा है। ये माया ने ऐसा जाल फैलाया है संसार में कि जीव इसी में आसक्त हो गया । अपने को शरीर मानने लगा और शरीर के माँ, बाप, बेटा, स्त्री, पति, और संसार का वैभव इन सब को अपना मानने लगा। जबकि ये सब माया के सामान हैं। आत्मा का रिश्ता तो केवल परमात्मा से है। ये बात भूल गया।
ये भुलाने वाली माया के दो रूप हैं- स्वरूपावरिका माया और गुणावरिका माया। एक तो अपने स्वरूप को भुलाने वाली माया और एक संसार में आसक्त कराने वाली माया। तो इस माया को ठगिनी इसलिए कहा जाता है कि हमको अपना स्वरूप कि हम भगवान् के दास हैं, हम जीवात्मा हैं शरीर नहीं हैं, ये भुला दिया। इसलिए वो ठगिनी है। लेकिन वो मिथ्या नहीं है, सत्य वस्तु है। जैसे ये संसार है। ये संसार और भगवान् हम दोनों को सत्य मानते हैं और शंकराचार्य कहते हैं- नहीं, संसार नहीं है। केवल भगवान् सत्य है। हम कहते हैं कि जितने वैष्णव हैं निम्बार्काचार्य, रामानुजाचार्य, बल्लभाचार्य, गौरांग महाप्रभु सारे वैष्णव तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, नानक, तुकाराम आदि सारे वैष्णव कहते हैं कि नहीं संसार भी सत्य है, ये कल्पना नहीं है। लेकिन अनित्य है। और भगवान् सत्य और नित्य है। इतना सा अन्तर है क्योंकि वेदान्त में कहा गया है- पश्वादिभिश्चाविशेषात । वो ब्रह्मज्ञानी हो जाय, परमहंस हो जाय कोई, शंकराचार्य से भी आगे तो भूख-प्यास उसको भी लगती है जैसे पशुओं को लगती है। 'पश्वादिभिश्चाविश्वेषात' ब्रह्मसूत्र है कि जैसे पशु-पक्षी को भूख लगती है, ऐसे ज्ञानी परमहंस को भी भूख प्यास लगेगी और खाना-पानी उसको भी चाहिए। तो संसार कुछ नहीं है, क्योंकि वो ज्ञानी हो गया। वो अज्ञानी के लिए संसार बता रहा है। ज्ञानी को संसार नहीं रहता। तो फिर भूख लगती है तो क्या खाता है वो? प्यास लगती है तो क्या पीता है वो? फिर उपदेश करता है वो, किताब लिखता है वो। शंकराचार्य। अरे! जब सत् कुछ है ही नहीं है, तुमको ज्ञान हो गया अब। ज्ञान होने के पहले संसार था तुम ऐसा कहते हो, और ज्ञान हो गया तो संसार समाप्त; क्योंकि वो मन की कल्पना बताते हो।
और फिर ये बताओ एक ही कल्पना सब कैसे करते हैं? अगर मन से गढ़ा हुआ संसार है तो एक हाथी है- उसको जो देखता है वो हाथी कहता है। अरे! हम अपनी कल्पना से घोड़ा कहें, एक आदमी उसी को ऊँट कहे, ऐसा होना चाहिए। एक वस्तु को सभी लोग एक ही तरह से क्यों देखते हैं; अगर वह कुछ नहीं है तो? इसलिए संसार सत्य है लेकिन अनित्य है और सत्य कई कारणों से है- एक तो, भगवान् से प्रकट हुआ। जैसे गाय से गाय पैदा होती है, भैंस से भैंस पैदा होती है। हाथी से घोड़ा नहीं पैदा होता है। तो ऐसे ही भगवान् सत्य हैं उनसे सत्य संसार निकला है। ये सारे शास्त्र वेद मानते हैं। नम्बर दो- भगवान् संसार प्रकट कर इसमें स्वयं व्याप्त हो गये। इसलिये भी सत्य है। नम्बर तीन- जब महाप्रलय होगा तो ये संसार फिर भगवान् में लीन हो जाएगा। तो संसार असत्य कहाँ हुआ? तो उसी प्रकार ये माया तत्त्व है। तीन तत्त्व अनाद्य, अनन्त, शाश्वत हैं- ब्रह्म, जीव, माया।
त्रिविधं ब्रह्ममेतत्। (श्वेता. १-१२) वेद कहता हैं, ये तीनों शक्तियाँ हैं; लेकिन ब्रह्म के अण्डर में हैं जीव और माया। वो ही परा और अपरा जिसे कहा है गीता में।
तो दोनों शक्ति हैं और शक्ति सदा रहेगी। वो चाहे जड़ हो चाहे चेतन हो। उसको कोई मिटा नहीं सकता। माया को अपने पास से आप हटा देंगे, उसको मुक्ति कहते हैं, बन्धन से छुटकारा पाना लेकिन माया नाम की शक्ति तो रहेगी। औरों के ऊपर हावी रहेगी। एक महापुरुष निकल गया छुट्टी पा गया। मुक्ति माने छुट्टी। दूसरा तो जीव बना है उससे। तो माया नाम की शक्ति तो नित्य है लेकिन उसका अधिकार जो जीव पर है वो अनित्य है। हम भगवान् के शरण में हो जाऐं तो 'मायामेतां तरन्ति ते' हो जाय। वह भाग जाय, चली जाय सदा को।
सदा पश्यन्ति सूरयः। तद्विष्णोः परमं पदम्।।
(सुबालो. ६-७, गो.ता.उप.३-२७)
अतएव वो ठगिनी इसलिए है कि हमारे अपने स्वरूप को भुला देती है, भगवान् को भुला देतीे है और ये शरीर के रिश्तेदारों में ममता कर देती है; शरीर के रिश्तेदारों में अटैचमेन्ट हो जाता है और हम जान कर भी भगवान् की भक्ति नहीं कर पाते हैं। कोई महापुरुष मिल गया मान लो, कृपा हो गई भगवान् की और उसने बता दिया कि तुम जीवात्मा हो औरसमझ में भी आ गया। भाई देखो! जब लोग कहते हैं 'ये मर गया', तो उस मर गया का मतलब क्या होता है? बॉडी तो है लेटा हुआ है उसी प्रकार; अभी मरा चार बजे। हमने चार बजे देखा उसको तो शरीर बिल्कुल ठीक-ठाक है, लेकिन वर्क नहीं हो रहा है, चेतन नहीं रहा। तो वो चेतन शक्ति कोई बाहर की है- जो आई थी, चली गई, निकल गई। तो इसका मतलब ये शरीर मेरा है, मैं शरीर नहीं हूं। और महामूर्ख भी बोलता है- मेरा शरीर रोगी हो गया मेरी आँख कमजोर हो गई, मेरी सब इन्द्रियाँ खराब हो गई, मेरा मन नहीं लगता, मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई। ये '' मेरीे'' ''मेरी'' क्यों '' करते हो? अगर तुम केवल शरीर हो, तो 'मेरी' क्यों लगा रहे हो? और अगर 'मेरी' लगाते हो तो इसका मतलब तुम अलग हो।
तो हमारी इन्द्रियाँ, हमारा शरीर, हमारा मन जहाँ-जहाँ हमारा लग रहा है, वो हम नहीं है, वो आत्मा नहीं है। ये बात हम जान कर भी शरीर और शरीर के नातेदारों से अटैचमेन्ट हटा नहीं पाते। थोड़ी देर को क्षणिक वैराग्य होता है। जब माँ, बाप,बेटा, स्त्री, पति की डाँट पड़ी, तब तो ज्ञान थोड़ा-सा होता है- ऐ! सब स्वार्थी हैं, सब मक्कार हैं, सब मतलबी हैं। लेकिन वो थोड़ी देर में सब भूल जाता है और फिर अटैचमेन्ट हो जाता है। ये ठगिनी माया करती है और वो बिना शरणागति के पिंड छोड़ेगी नहीं। केवल नॉलिज से (थियरीटिकल नॉलेज) काम नहीं चलेगा। जब हम श्रीकृष्ण भक्ति करेंगे तो अन्तःकरण शुद्ध होगा। वो गंदगी अंत: करण की, तीन गुणों की, खत्म होगी; तब मन शुद्ध होने पर भगवान् की दिव्य शक्ति पायेगा। जब दिव्य शक्ति उसको मिलेगी तब भगवान् कृपा करके दिव्य ज्ञान उस गुरु से दिलायेंगे जिसके पास दिव्य ज्ञान, दिव्य प्रेम, हो दिव्य आनन्द हो, तब जीव कृतार्थ होगा। वो अपनी पॉवर से कोई नहीं हो सकता है। अब सोचेंगे ऐसा हम नहीं करेंगे, करना पड़ेगा। माया नहीं छोड़ेगी तुमको। ये किसी ने जरा-सा अपमान किया और क्रोध आया। हाँ, मार डालेंगे उसको, हम ऐसा कर लेंगे। अरे! अपनी मौत पर तो अधिकार किए नहीं हो ,दूसरे को मार डालोगे। अरे भगवान् भी नहीं मार सकते तुम क्या मारोगे किसी को। जिनके मामा श्री कृष्ण और बाप अर्जुन। मामा तो भगवान और बाप गीता ज्ञानी महापुरुष अर्जुन, वो अभिमन्यु मारा गया और ईमानदार, कोई गलत काम नहीं कर रहा है, युद्ध कर रहा है और कौरवों ने धोखा देकर के उसको मारा। भगवान् भी बैठे हैं शोक मना रहे हैं और अर्जुन भी बैठा है महापुरुष, गीता ज्ञानी, वह भी शोक मना रहा है - हाय! मेरा बेटा मर गया। लेकिन दोनों मिल कर बचा नहीं सके अभिमन्यु को और उत्तरा विधवा हो गई सोलह वर्ष की उमर में। और तुम कहते हो मैं ये कर डालूँगा, वो कर डालूँगा। क्या कर डालोगे? तुम अपने मन पर तो विजय प्राप्त कर नहीं सकते, गुलाम बने हो उसके और ये बड़ी-बड़ी बातें, बकवास। लेकिन क्रोध जब आया तो मनुष्य की बुद्धि समाप्त हो जाती है।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति
(गीता २-६३)
तो ऐसे ही काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है, ईष्या है, द्वेष है ये सब के सब दोष तब तक रहेंगे जब तक 'मामेव ये प्रपद्यन्ते' न हो जायेंगा। 'मामेकं शरणं व्रज' जब तक न हो जाएगा तब तक ये सब रहेंगे। कम होंगे, लेकिन रहेंगे। अब देखो इस समय क्रोध कोई नहीं कर रहा है लेकिन जरा कोई यों कर दे, आ गया। एक सेकिंड में आता है।
जगद्गुरुतम श्री कृपालु जी महाराज
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