जगद्गुरु आदेश:
सेवा का अर्थ
सेवा शब्द का यह अर्थ है कि हमारी जिस क्रिया से हमारे सेव्य को सुख मिले। वही क्रिया हमारे लिए कल्याणकृत है। इस फॉर्मुला को समझ लो, यह भगवत्प्राप्ति तक काम देगा।हम जो चाहते हैं वह सेवा नहीं है। जो वे चाहते हैं, वो हम दें। अगर हम कोई ऐसी सेवा चाहें जिससे हमको सुख मिले, वह स्वामी की सेवा नहीं है, वह तो हमारी सेवा है, स्वार्थ है। ऐसा सोचने वाला कभी सेवा नहीं कर सकता, अनंत जन्म मर जाए। स्वार्थ का ही तो त्याग करना है।
तत् सुख सुखित्वं - उनके सुख में सुखी होना, अर्थात् स्वामी की इच्छा में इच्छा रखना। उनको दुःख न होने पाये । अपनी इच्छा को सदा के लिये त्याग दो। इससे विपरीत चिंतन नहीं होगा जिससे नामापराध होता है। नामापराध ऐसी खतरनाक चीज़ है जिसके कारण हरि नाम का बीज अंकुरित नहीं होता, प्रेम नहीं पैदा होता।
अगर अंतर्यामी नहीं हो और नहीं जानते कि वे किस क्रिया से प्रसन्न होंगे, तो गुरु आज्ञा को आंख मूंदकर, प्रसन्नतापूर्वक पालन करो। आज्ञा पालन ही प्रारंभिक, मध्य और अंतिम लक्ष्य है।
मन महान् दुश्मन है, ज़रा सी देर की लापरवाही से ही उल्टा सोचने लगता है। शरणागति निरंतर करनी होगी, एक दो घंटे के लिये नहीं। इसलिये बहुत सावधान होकर सेवा शब्द का रहस्य समझ कर उसका अभ्यास करना चाहिए। देखो कितनी जल्दी आगे बढ़ते हो।
कीर्तन:
- श्री राधे राधे गोविंद राधे, श्री राधे राधे गोविंद राधे (ब्रज रस माधुरी, भाग 1, पृष्ठ सं. 185, संकीर्तन सं. 101)
- किशोरी मोरी, बिगरी देहु बनाय (प्रेम रस मदिरा, दैन्य माधुरी, पद सं. 35)
- राधा गोविन्द गीत (दैन्य माधुरी)
तेरे जन खरे खरे गोविंद राधे।
मैं हूँ इक खोटा सिक्का मोहिं चला दे॥
खरे को दे जग साथ गोविंद राधे।
खोटे को तेरे सिवा कोई साथ न दे॥
भक्त तोहिं प्राणप्रिय गोविंद राधे।
हम से पतित कहाँ जाएँ ये बता दे॥
मैं हूँ विचित्र पापी गोविंद राधे।
पापी न मानूँ कहूँ पावन बना दे॥
No comments:
Post a Comment