【📖प्रश्नोतरी भाग- 2 📖】【प्रश्न :- 29】
कर्म का स्वरूप क्या है ?
श्री महाराज जी द्वारा उत्तर
सबसे पहले कर्म का दो स्वरूप समझिये । एक शारीरिक कर्म जिसमें मन का अटैचमेन्ट नहीं होता और शरीर से कर्म होता है और एक कर्म वो होता है जिसमें शरीर और मन दोनों का अटैचमेन्ट होता है । इन्द्रियों का भी और मन का भी । और तीसरा कर्म होता है जो केवल मन से होता है । आप लोग ये तीनों प्रकार का कर्म करते हैं । यह तीनों प्रकार के कर्म भी दो प्रकार के होते हैं- एक मायिक और एक ईश्वरीय । ( बहुत सावधान होकर समझिये । ) पहले मायिक कर्म जो आप लोग करते हैं उसे समझ लीजिये ।
जिसमें मन का अटैचमेन्ट न हो और इन्द्रियों से कर्म हो वह कर्म आप लोग अधिक करते हैं । संसार में जिसको एटीकेट कहते हैं , सभ्यता । एक नेता मर गया बाकी लोग सिर झुका करके शोक मना रहे हैं , ये इन्द्रियों का कर्म हो रहा है , मन से नहीं । आपके घर मेहमान आ गये , अनावश्यक लोग , जिनसे आपका कोई स्वार्थ नहीं है रात को बारह बजे तो आप बेमनी से उनका सम्मान करते हैं , खाना बनाते हैं सब नाटक करते हैं लेकिन मन का अटैचमेन्ट नहीं है ।
मन कह रहा है ये कब चला जाय छुट्टी मिले । एक प्रकार का कर्म । और दूसरा कर्म आप लोग करते हैं खाट पर लेटे हैं , कुर्सी पर बैठे हैं , कोई नहीं है घर में फालतू हैं और सोच रहे हैं ; किसी में राग किसी में द्वेष । दो में एक सोचते हैं आप , खाली टाइम में क्योंकि इन्द्रियों का वर्क तो उस समय हो नहीं सकता आप अकेले हैं । दो हों तो कम से कम टॉक हो , बातचीत हो , किसी की बुराई , किसी की तारीफ कुछ तो हो , तो अकेले आप केवल मन से चिन्तन करते हैं , अच्छा या बुरा ; वही दो चीज - राग या द्वेष । तीसरा कोई चिन्तन आप कर ही नहीं सकते । कहीं किसी से राग का चिन्तन करेंगे ( प्यार का ) या किसी से खार का चिन्तन करेंगे ( दुश्मनी का ) बस ।
ये तीसरी प्रकार का संसार में कर्म आप लोग करते हैं आपको एक्सपीरियन्स है , डेली करते हैं । जिसमें इन्द्रियों व मन का अटैचमेन्ट होता है ; जैसे- आप भूखे हैं खाना खा रहे हैं , रसगुल्ले को हाथ से उठा रहे हैं , मुँह में डाल रहे हैं , चबा रहे हैं , निगल रहे हैं , इसमें मन का अटैचमेन्ट भी है और इन्द्रियों से कर्म भी हो रहा है ।
ये तीनों प्रकार के कर्म का अनुभव आपको संसार में होता है । इसी तीन को डायवर्ट कर दो घुमा दो ईश्वरीय क्षेत्र में , भगवान् के एरिया में तो वहाँ भी ये तीन प्रकार के कर्म होते हैं जैसे - केवल इन्द्रियों से कर्म । मन का अटैचमेन्ट माँ , बाप , बेटा , स्त्री , पति , धन प्रतिष्ठा में है और बाहर से मूर्ति की पूजा कर रहा है पुजारी बैठे - बैठे । लोग जो रुपया देकर के कीर्तन करते हैं , आजकल यह रिवाज है वे लोग अपना कीर्तन कर रहे हैं जरा उनकी आवाज सुनो तो आपको आइडिया हो जाय ऐसे ही कि ये क्या कर रहे हैं ।
मो सम दीन न दीन हित तुम समान रघुवीर ।
ये क्या बोल रहे हैं उनको पता नहीं कुछ । ये तीन चार दोहे बोले जाते हैं आरती के बाद वो बोल दे रहे हैं , बस । हाथ से पूजा करना , रसना से पाठ करना , जप करना , कीर्तन करना , सिर से प्रणाम करना , यह इन्द्रियों का वर्क । लेकिन मन का अटैचमेन्ट भगवान् में नहीं है । भगवान् का चिन्तन भी , रूपध्यान भी एक मिनट को नहीं किया उसने । एक मंत्र है-
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा ।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥ ( पद्मपुराण )
इसको सब पण्डित लोग बोलते हैं । कोई भी पूजा पाठ कराते हैं , यज्ञ कराते हैं तो कहते हैं यजमान से- हाथ में पानी लो । उसने लिया पानी । ऐसे हाथ से पानी छुआ करके ऐसे ऊपर को फेंको , हम मंत्र बोल रहे हैं । मंत्र का अर्थ क्या है ? कोई अपवित्र हो , चाहे पवित्र हो किसी भी दशा में हो , गन्दी से गन्दी जगह में हो , गन्दी से गन्दी अवस्था में हो जो श्रीकृष्ण का स्मरण कर ले उसका बाहर भीतर दोनों शुद्ध हो जाय । ये मंत्र का अर्थ है । लेकिन करोड़ों में भी कोई ऐसा है क्या जो इस मंत्र का अर्थ समझ करके और पानी फेंकते समय श्रीकृष्ण का स्मरण करे । फुरसत भी नहीं बिचारे को , वह तो पण्डित जी आगे मंत्र बोलेंगे । हाँ , आगे चलो । तो बिना स्मरण के और इन्द्रियों से क्रिया करना , यह शारीरिक कर्म है । इसका कोई फल नहीं मिलता , नथिंग के बराबर है ।
अब दूसरा कर्म है , जिसमें मन का ही चिन्तन होता है । वो भी आप लोग जानते हैं कभी अकेले बैठे हैं कभी आपकी भावना भगवान् सम्बन्धी हुई और आपने सोचा क्या पता कल रहें न रहें थोड़ी भक्ति कर लें , भगवान् का स्मरण कर लें । आप कुर्सी पर बैठे हुये आँख बन्द करके भगवान् का ध्यान करने लगे । ये केवल मन से । और रूपध्यान भी हो और संकीर्तन भी हो यह भी आप कभी - कभी करते हैं , कभी - कभी । चाहे कृपालु सर फोड़े दिन रात लेकिन आप तो कभी -कभी करतेहैं । लापरवाही हैन इसलिये ।
तो ये तीनों का अनुभव इधर का भी आपको है । जगत् का भी है और ईश्वरीय क्षेत्र का भी तीनों कर्म का अनुभव है । इसमें दो कर्म प्रमुख हैं- एक अटैचमेन्ट युक्त कर्म और एक बिना अटैचमेन्ट के कर्म । अब दो भागों में बाँट दो इन तीन को । मन का अटैचमेन्ट भी हो और कर्म भी हो , एक तो ये और एक मन का अटैचमेन्ट और कहीं हो और कर्म ओर कहीं का हो । यानी इसी दो एरिया में माया और भगवान् के एरिया में । मायिक जगत् में मन का अटैचमेन्ट हो भगवान् सम्बन्धी कर्म हो और भगवान् में अटैचमेन्ट हो और मायिक कर्म हो , ये दूसरा । तो दूसरा वाला कर्म- भगवान् में अटैचमेन्ट हो और संसार का कर्म करे , माया का कर्म करे ये कैसे होता है ?
यह बात समझ में नहीं आ सकती आपके । भगवान् में मन का अटैचमेन्ट हो और कर्म भी हो ; बारीक कर्म , मोटा नहीं । काम का , क्रोध का , लोभ का , मोह का , ईर्ष्या का , द्वेष का , युद्ध का , मारधाड़ का सब काम हो , दिखाई पड़े , संसार देखे ।
ये हनुमान जी इतने बड़े महापुरुष जिनका रोम - रोम राम बोलता है । करोड़ों मर्डर कर डाला ब्राह्मणों का , रावण के खानदान का और लंका जला दिया ; ये कर्म हो रहा है निन्दनीय और मन भगवान् राम में है । इसलिये भगवान् ने उनका ये मारधाड़ वाला कर्म लिखा ही नहीं , नोट नहीं किया , वह कर्म है ही नहीं । बिना मन के अटैचमेन्ट के जो कर्म होता है उसको ईश्वरीय राज्य में कर्म कहते ही नहीं और भगवान् उसको नोट करते ही नहीं । वह जीरो में गुणा है । जीरो गुणे जीरो बराबर जीरो , जीरो गुणे लाख बराबर जीरो , जीरो गुणे करोड़ बराबर जीरो । सब जवाब जीरो आयेगा ।
एक कथा है वेद में कि एक बार गोपियों ने व्रत किया वो भगवान् के पास गईं , श्रीकृष्ण के पास , उनसे पूछा कि हम यमुना पार जाना चाहते हैं सुना है तुम बड़े योगी हो , कोई कहता है भगवान् हो , अगर यह सब सही है तो हमको यमुना पार जाने का कोई हिसाब - किताब बताओ । नाव तो मिलेगी नहीं रात को और व्रत का पारायण करना है । बिना किसी बड़े महात्मा को खिलाये हम खा नहीं सकते और तुम कहते हो सबसे बड़े महात्मा दुर्वासा हैं । वो यमुना पार रहते हैं , उनका आश्रम है । तो भगवान् ने कहा ठीक है- ठीक है ! न मैं योगी हूँ , न मैं भगवान् हूँ लेकिन तुमको हम उस पार पहुँचा देंगे । कैसे पहुँचा दोगे ? देखो , तुम ऐसे कहना जमुना जी के सामने खड़े होके हाथ जोड़ के- “ हे यमुना मैया ! अगर श्रीकृष्ण अखण्ड ब्रह्मचारी हों तो तुम हमको मार्ग दे दो । पैदल , ऐसे पृथ्वी सरीखा मार्ग पानी सूख जाय । " सब गोपियाँ हँसने लगीं कि ये अखण्ड ब्रह्मचारी हैं । हम लोगों के प्रियतम हैं , हमारा पर्सनल एक्सपीरियेन्स है । हमीं को धोखा दे रहे हैं । तो कुछ गोपियों ने कहा चलो अपन कह देते हैं क्या बिगड़ता है । अगर वो नहीं रास्ता मिलेगा तो लौट के इनकी हम नाक , कान पकड़ते हैं । गयीं सब और कहा " यमुना मैया ! हमको रास्ता दे दो अगर श्रीकृष्ण अखण्ड ब्रह्मचारी हों " और रास्ता मिल गया , पानी सूख गया , अब गोपियाँ बड़े आश्चर्य में । उन्होंने कहा खैर , चलो पहले अपना काम करो । फिर खबर लेंगे इनकी कि ये बात क्या है ? गये वहाँ , सब गोपियाँ गयीं सैकड़ों , हजारों और सब हलुवा , मालपूड़ी , सब बना - वना के ले गयीं थीं और खाने वाले एक दुर्वासा जी । आश्रम में पहुँची हाथ जोड़ के प्रणाम - वणाम किया और कहा- “ महाराज ! आपके लिये प्रसाद ले आये हैं हम । " तो उन्होंने कहा रख दो , जाओ हमने खा लिया । ऐं ! खा लिया ! छुआ भी नहीं और कहते हैं आप बाबाजी , खा लिया । ऐसा नहीं , हम लोगों को पारायण करना है , हम कई दिन के भूखे हैं । बिना आपके खाये हम नहीं खा सकते । तो उन्होंने कहा ठीक है , नहीं मानती हो तो खा लेते हैं । एक - दो पूड़ी खा लिया । अब दूसरी कहती है हमारी भी खाइये , तीसरी कहती है हमारी भी खाइये , हम कैसे व्रत का पारायण करें ? उन्होंने कहा ठीक है , लाओ । फिर हाब - हाब । हाँ , समूची पूड़ी - कचौड़ी जो कुछ थी सब पेट में बिना चबाये योगमाया से । सब गोपियाँ बड़ी खुश हुईं और आश्चर्य भी । इतना ये खाये जा रहे हैं पेट तो छोटा - सा है , ये कहाँ जा रहा है सब ? अरे ! देखने में तो मनुष्य दिखाई पड़ रहे हैं , राक्षस तो हैं नहीं । खैर , अब लौटते समय उन्होंने कहा महाराज ! अब जमुना पार जाना है रात को बारह एक बज गये हैं , नाव तो है नहीं अब कैसे जायें हम ? तो उन्होंने कहा जाओ बच्चों ! ऐसा कह देना यमुना जी से कि “ अगर दुर्वासा दूब के सिवा कभी कुछ न खाये हों , ( दूब एक घास होती है उसी से उनका नाम पड़ा दुर्वासा ) अगर दूब के सिवा मैंने कभी कुछ न खाया हो , तो जमुना मार्ग दे दें । " अब गोपियों को फिर आश्चर्य , इतना हलुआ पूड़ी तो खा गये और कहते हैं दूब के सिवा कभी कुछ न खायें हों ! खैर , चलो कह देते हैं । कह दिया और फिर यमुना सूख गईं वो रास्ता बन गया । अब बड़ा टेन्शन गोपियों को दोनों केऊपर ।गुरुचेला दोनों ।दुर्वासा तो गुरु थे श्रीकृष्ण के और श्रीकृष्ण चेला थे उनके । अफवाह तमाम प्रकार की थीं ब्रज में । बाबा लोग कहें ये भगवान् हैं श्रीकृष्ण । कोई कहे नहीं योगी हैं सब तरह की बातें । कोई कहें लफंगा है । सब तरह की खबरें फैलती थीं । वो गईं फिर श्रीकृष्ण के पास तो उन्होंने उपदेश दिया , समझाया कि " देखो , मन का अटैचमेन्ट जिस कर्म में नहीं होता उस कर्म को कर्म नहीं कहते वो इन्द्रियों का कर्म कहलाता है । ये फिलॉसफी है । "
तो जिसमें इन्द्रियों का कर्म हो और भगवान् में मन का अटैचमेन्ट रहे इसी को गीता का कर्मयोग कहते हैं जो बड़ा प्रख्यात है सारी दुनिया में । कर्मयोग । लेकिन ये कैसे होगा ? भगवान् में निरन्तर मन रहे और कर्म भी निरन्तर हो , प्रैक्टिकल कैसे होगा ? अभी असम्भव लगेगा आपको , आप नहीं कर सकेंगे ।
देखो , जब आप लोगों ने पहली बार साइकिल चलाना सीखा होगा तो आपको बताया गया होगा कि आप लोग जो साइकिल पर बैठते हैं उसके लिये तीन चार हिदायतें हैं- सामने देखना , हैण्डिल पर कन्ट्रोल रखना , पैडल चलाते रहना और बैलेन्स सीधा रखना इत्यादि । सब उसने याद कर लिया और उसके बाद साइकिल पर वह बैठ गया और उनके साथियों ने धक्का दे दिया । अब वो हैण्डिल सम्भाले कि पैडल चलावे कि क्या - क्या करें , गिर गया । मैं भी गिर चुका हूँ बहुत भयंकर । बड़े रुआब में मैंने ऐसे ही कहा था और वो ढाल था वहाँ सड़क का , भीड़भाड़ कुछ नहीं थी । लेकिन वो ढकेल दिया बच्चों ने जोर से और मैं ये करूँ कि वो करूँ कि वो करूँ गिर गया मैं । सब गिर जायेंगे कोई भी हो । लेकिन कुछ दिन अभ्यास कर ले , फिर बिना हैण्डिल पकड़े बातें करते हुये चलते हैं । हमारे गाँव वाले तो सुपारी काटते हुये सरौता से बाकायदा चलते जाते हैं और कहाँ जाना है यह भी याद है पीछे हार्न हुआ गाड़ी का तो उससे बायें हो गये सब । ये अभ्यास से इतना हो गया आप लोगों ने कर लिया । तो संत महात्मा जो होते हैं उनका कार्य तो योगमाया से होता है इसलिए उनके लीये नेचुरल है मेहनत नहीं पड़ती।
जगद्गुरुतम श्री कृपालु जी महाराज
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