*तजो रे मन! छनभंगुर वैराग।*
करि विश्वास शरण गहु संतन, मोह तिमिर तव भाग।
करत करत सत्संग सतत तव, हरि चरनन मन लाग।
मधुर मिलन लगि विकल रैन दिन, तपत चित्त विरहाग।
तब निर्मल मन संत कृपा ते, पाव सहज अनुराग।
हो *'कृपालु'* मन सहज विरागी, सहज प्रेम रस पाग।
*भावार्थ*:- अर्थात् हे मन ! बिना तत्व को समझे क्षणभंगुर वैराग्य में मत पड़ो। प्रथम पूर्ण विश्वासपूर्वक वास्तविक महापुरूषों की शरण जाओ, तभी तुम्हारा अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट होगा।
इस प्रकार तैलधारावत् निरन्तर महापुरूषों के संग से श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में लगाव होगा। पश्चात उनके मधुर-मिलन के लिए प्रतिक्ष्ण परम व्याकुलतावश तुम मिलन पूर्व की विरहाग्नि में जलोगे।
तब हे मन ! निर्मल बनकर महापुरूषों की कृपा से तुम्हे स्वाभाविक, विशुद्ध निष्काम प्रेम मिलेगा।
*श्री कृपालु जी* कहते हैं कि हे मन ! तू स्वाभाविक, संत कृपा द्वारा प्राप्त, प्रेम के द्वारा ही अन्य समस्त सांसारिक विषयों से विरागी बन सकेगा।
तात्पर्य यह कि सांसारिक दुःखों से घबड़ाकर, बिना समझे-बूझे एवं बिना महापुरूषों के अवलम्ब के, संसार से क्षणिक वैराग्य, आत्मघाती हो सकता है।
*🌹प्रेम रस मदिरा-सिद्धांत माधुरी🌹*
*जगदगुरु श्री कृपालु महाराज जी रचित पद प्रसाद!*
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