लोकरंजन का लक्ष्य भी घोर कुसंग है। प्रायः साधक थोड़ा बहुत समझ लेने पर अथवा थोड़ा बहुत अनुभव कर लेने पर, उसे लोक के सन्मुख गाता फिरता है, एवं धीरे-धीरे वह अभिमान का स्वरूप धारण कर लेता है, जिसके परिणाम-स्वरूप साधक की
वास्तविक-निधि दीनता छिन जाती है, एवं हँसी-हँसी में ही लोकरंजन की बुद्धि परिपक्व हो जाती है।
यह भी देखा जाता है कि अपने दुष्कर्मों का भी स्मरण करते हुये यदि साधक की आँख में दो बूंद आँसू निकल आता है, तब वह स्वाभिमान के कारण लोक के समक्ष अपने को महान् भक्त प्रकट करने के अभिप्राय से झूठ मूठ को ही इतना शोर गुल मचाता है, मानो उसे गोपी-विरह ही प्राप्त हो गया हो, जिसके परिणाम स्वरूप दो हानियाँ होती हैं । एक तो मिथ्याभिमान बढ़ता है, तथा दूसरे लोकरंजन की बुद्धि होने के कारण वह प्रायश्चित्त का आँसू भी छिन जाता है।
अतएव साधक को, लोकरंजनरूपी महाव्याधि से बचना
चाहिये। साधक को तो अपनी साधना, विशेष कर अनुभव आदि, अत्यन्त ही गुप्त रखना चाहिये। केवल अपने सद्गुरु से ही कहना चाहिये। अपने आप भी उन अनुभवों का चिन्तन करना चाहिये, किन्तु वहाँ भी सावधानी यह रखनी चाहिये की यह सब अनुभव महापुरुष की कृपा से ही प्राप्त हुआ है, मेरी क्या सामर्थ्य है।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज...!
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