समर्थ पुरुषों के इतिहास में धर्मविरुद्ध आचरण देखा गया है किन्तु वह आचरण समर्थ होने के कारण अर्थात ईश्वरीय होने के कारण दोषकारक नहीं है । जैसे, अग्नि को सब कुछ ग्रहण करने का अधिकार है, वह सर्वभुक् है, किन्तु अन्य को वह अधिकार नहीं ।
यदि कोई अनधिकार चेष्टापूर्वक मन से भी उन महापुरुषों में दिखने वाले दुश्चरितों का आचरण करेगा तो उसका सर्वनाश हो जायगा । अतएव सबके लिये सब आचरण अनुकरणिय नहीं हैं । भगवान शंकर हलाहल विष पी गये, वे निलकंठ की उपाधी से विभूषित हुए एवं विशिष्ट सौंदर्य से सुशोभित हो गये किन्तु कोई नकल करके २ तोले भी अफीम भी खा लेगा तो एक ही रिहर्सल (rehearsal) में महाप्रयाण करना पडेगा ।
अर्थात महापुरुष के उपदेश माननीय हैं, आचरण तो वे ही माननीय हैं जो हमारी कक्षा के ही हैं । अपनी कक्षा से परे के आचरण हमारा पतन कर देंगे ।
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज
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