Question & Answer

एक बार ऐसे ही अन्य अवसर पर महाराज जी ने कहा था कि यह सिंघल (सुश्री बृज गोचरी दीदी के पिता) मेरा दाहिना हाथ है। वर्ष 1968 की बात होगी। साधना भवन में सजावट हो रही थी। श्री महाराज जी आये कुछ लोग उनके चारों ओर खड़े हो गये। किसी ने उनके बारे में महाराज जी से कुछ कहा, तो महाराज जी ने कहा इसके मस्तिष्क में तो मैं रहता हूँ।

श्री महाराज जी द्वारा------

गुरू सेवा साधना है और भगवद् प्राप्ति पर जो गोलोक में सेवा मिलेगी वह सिद्धि है सेवा करते समय गुरू अथवा भगवान् का चिन्तन होते रहने से वह ध्यान के तुल्य ही है।

श्री महाराज जी के उपस्थित होने पर
किसी ने कहा, कभी केवल साधना और कभी सेवा......

महाराज जी के द्वारा उत्तर--

कीर्तन के द्वारा हम भगवान् में मन लगाने की साधना करते है कभी-कभी मन लगता है, कभी नहीं लगता। सेवा से हम निःस्वार्थ सेवा करना सीखते हैं। सारी इन्द्रियां और मन हमारा उसमें लगा रहता है अतः उनके लिए होने के कारण वह भी साधना है। फिर जिसकी हम सेवा करते हैं वह भी तो हमारे लिए कुछ सोचेगा।

श्री महाराज जी के प्रपौत्र श्री रामानंद जी और श्री कृष्णानन्द जी के मुण्डन संस्कार होने वाले थे। गाँव के प्रसिद्ध पंडित श्री नागेश्वर दत्त शर्मा ने शुभ मुहूर्त निकाल कर घर भिजवा दिया था। श्री महाराज जी ने उसे देखा और, पंडित जी इस मुहूर्त के स्थान पर कृपया इस मुहूर्त का भी परीक्षण कर लें। पंडित जी ने पुनः परीक्षण किया और श्री महाराज जी को लिख भेजा आपका इंगित किया हुआ मुहूर्त ही श्रेष्ठतर है। आपने मुझे श्रेय देने के लिए मुझे पुनः परीक्षण करने को लिखा है।

एक प्रसंग----- श्री प्रकाशानन्द सरस्वती (स्वामी जी) के भवन का उद्घाटन वृंदावन में था। श्री महाराज जी उन दिनों आगरा में थे। आगरा से वे कुछ भक्तों के साथ वृन्दावन आये थे। जब वे लौटकर आगरा पहुँचे, उन्होंने बहुत दुखी मन से कहा,,,,,,, जिस धाम में स्वयं श्री राधाकृष्ण के चरण पडे थे वहां भी तुम लोग लोट पोट नहीं हुए। जैसे गये थे वैसे ही वापस आ गये। तुम लोगों ने महापुरूष के संग को भी खिलवाड़ समझा। और वृन्दावन को भी साधारण समझा, मानों वहां पिकनिक मनाने गये हो।

मैंने जो गोपी जन बल्लभ श्याम का कीर्तन कराया था, उसमें सारी पावर भर दी थी, उसको कोई ध्यान से सुन लेता, उसको क्या नहीं मिल जाता।
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