"विकर्म"

                   

विकर्म उसे कहते हैं जिसमें श्रुति - स्मृति - युक्त कर्म भी न करे एवं ईश्वर - भक्ति भी न करे । इसमें उन नास्तिकों का समावेश होता है जो केवल भौतिकवादी हैं, जिन्हें ईश्वर या ईश्वरीय महापुरुषों से घोर घृणा है । उन विकर्मियों के विकर्म का परिणाम नरकादि यातनाएँ हैं । उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति भी नहीं होती एवं ईश्वर - प्राप्ति भी नहीं होती । जब तक जीवित रहते हैं, इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होने के कारण, उच्छृङ्खलतावश मनमाने कर्म करते हैं । मरने के पश्चात् उन्हें आसुरी योनियों में पटक देते हैं अतएव विकर्म तो कर्म से भी निन्दनिय है । साधारणतया इसी विकर्म को पाप कर्म कहा जाता है एवं कर्म को पुण्य कर्म कहा जाता है ।
वस्तुतः पुण्यकर्म एवं पापकर्म दोनों ही  बन्धनकारक हैं । वेद कहता है, पुण्य से स्वर्ग मिलता है, पाप से नरक मिलता है एवं दोनो के संयोग से मृत्युलोकीय देह मिलता है । इतना ही अन्तर समझ लीजिये कि स्वर्ग सोने की जंजीरो की बेडियाँ है और कुछ दिनों में पुनः चौरासी लाख योनियों की बेडियाँ पड जायेंगी और नरक लोहे की बेडियाँ है । इन स्वर्ग - नरकादि लोकों में केवल कर्मफल भोगना पडता है, कर्म करने का अधिकार नहीं है । अतएव ये दोनों त्याज्य हैं ।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

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