" अकर्म"



अकर्म उसे कहते हैं जिसमें अन्त:करण से तो ईश्वर की भक्ति की जाय किन्तु शरीर से श्रुति - स्मृति - विहित कर्म भी किये जायें । इसी अकर्म या कर्मयोग का उपदेश गीता में अर्जुन को दिया गया है । मैंने बताया था कि अर्जुन युद्ध करेगा तो स्वर्ग या पृथ्वी मिलेगी, युद्ध न करेगा, तो विकर्म हो जायगा, अतएव नरक मिलेगा । अतएव भगवान कहते हैं कि "तू युद्ध न कर", यह भी न कर, अन्यथा विकर्म हो जायगा और "युद्ध कर" यह भी न कर, अन्यथा कर्म हो जायगा । तू "अकर्म" कर - "तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्धय च" निरन्तर मन मुझ में लगाकर कर्म कर । तात्पर्य यह कि मन से ईश्वर में अनुराग हो एवं शरीर से शास्त्रोक्त कर्म भी हो, वही अकर्म या कर्मयोग कहलायेगा । इसमें ईश्वर भक्ति का फल तो ईश्वर - प्राप्ति मिलेगा, जिससे माया - निवृत्ति एवं परमानन्द - प्राप्ति का लक्ष्य  हल हो जायगा और कर्म का फल कुछ न मिलेगा क्योंकि केवल उस कर्म का फल मिला करता है, जिस कर्म में मन का लगाव रहता है । जब मन का लगाव भगवान में रहेगा तो स्वभावतः मन कर्म में न रहेगा । तब कर्म के फल के पाने का या बन्धन होने का प्रश्न ही उपस्तिथ न होगा । अस्तु, अकर्म या कर्मयोग वन्दनीय मार्ग है ।


जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

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