कर्मयोगी एवं कर्मसंन्यासी दोनों ही को जब एक ही फल


कर्मयोगी एवं कर्मसंन्यासी दोनों ही को जब एक ही फल की प्राप्ति होती है अर्थात दोनों ही ईश्वर - भक्ति करते हैं अतएव दोनों ही ईश्वर - प्राप्ति के परिणाम को प्राप्त करते हैं तो फिर कर्मयोगी का कर्म करने का प्रयास व्यर्थ ही है ।
जब उसका कोई फल ही नहीं मिलता तो कर्म का भार क्यों वहन किया जाय ?
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए उत्तर देते हैं कि -
अर्जुन ! कर्मयोगी एवं कर्मसंन्यासी दोनों ही कृतार्थ होते हैं किन्तु फिर भी कर्मयोग का मार्ग कर्मसंन्यास से श्रेष्ठ है । वह श्रेष्ठता क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान कहते हैं कि -
अर्जुन संसार का यह नियम सा है कि वह बडों का अनुकरण करता है, बडे ही छोटे के लिये मार्ग प्रशस्त करते हैं । यद्यपि अर्जुन ! तू जानता है कि मेरा कौन सा प्रयोजन अवशिष्ट है जिसके हेतु मैं कुछ कर्म करूँ, मैं तो पूर्णकाम हूँ, फिर भी देख मैं भी कर्म करता हूँ । कारण यह है कि यदि मैं कर्म न करूँ तो लोग मेरा ही अनुकरण करेंगे, जिसके परिणाम - स्वरूप खतरे में पड जायेंगे । अतएव मैं लोक - हिताय कर्म करता हूँ ताकि अनुकरणकर्ता लोग उससे लाभ उठायें इसलिये मैं कर्मयोगी को श्रेष्ठ मानता हूँ । इसलिये तुझसे भी कह रहा हूँ कि तू कर्मयोगी बनकर कर्म कर ।
आपको शंका हो शक्ति है कि कर्मयोगी का अनुकरण करने वाला जैसे ईश्वर - प्राप्ति करेगा वैसे ही कर्मसंन्यासी की नकल करने वाला भी तो ईश्वर - प्राप्ति ही करेगा, तो उसमें हानी या खतरे की क्या बात है ? बात यह है कि अनुकरण करने वाला सदा बहिरंग नकल ही करता है, अन्तरंग नहीं करता । अब सोचिये, यदि कर्मयोगी का अनुकरणकर्ता बहिरंग अनुकरण करेगा तो कर्मी बनेगा, अन्तरंग अनुकरण अर्थात ईश्वर - भक्ति का अनुकरण न करेगा, किन्तु यदि कर्मसंन्यासी का अनुकरण कोई करेगा तो उसके बहिरंग का अनुकरण अर्थात कर्म न करने का अनुकरण तो कर लेगा किन्तु अन्तरंग ईश्वर - भक्ति का अनुकरण न करेगा । परिणाम यह होगा कि ईश्वर - भक्ति एवं कर्म दोनों ही से रहित होकर विकर्मी बन जायगा ।

क्रमशः .............................


जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

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