इक आई मालिनि स्वामिनी !|
रूप अनूप लखी सखि जो ही, मोही सो ही भामिनी |
झूमति झुकति चलति मन भावति, लजवति गति गजगामिनी |
तनु सोरह श्रृंगार सुशोभित, नख शिख छवि अभिरामिनी |
श्यामल रंग अंग प्रति अंगनि, वारत रति – पति कामिनी |
लिये पारिजातादिक फूलनि, माल अनेकन नामिनी |
लली ‘कृपालु’ कहीं ‘लै आवहु, कहहु इहैं रह यामिनी’ ||
भावार्थ – मालिन भेषधारी श्यामसुन्दर के संकेत से एक सखी किशोरी जी से कहती है कि हे स्वामिनी जू ! एक ऐसी मालिन आई है, जिसकी अनुपम छवि को जो भी सखी देखती है वही मोहित हो जाती है | वह झूमती एवं झुकती हुई इतनी सुन्दर गति से चलती है कि मतवाले हाथी की चाल भी लज्जित हो जाती है | वह सोलहों श्रृंगार से सुशोभित है, वह सर्वांग सुन्दरी है | उसका श्याम रंग है | उसके अंग अंग पर कामदेव अपनी रति को न्यौछावर करता है | वह कल्पवृक्ष आदि अनेक नाम वाले फूलों की मालाएँ लिये हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि किशोरी जी ने कहा कि उसको यहीं ले आओ और कहो कि आज रात भर यहीं विश्राम करे |
( प्रेम रस मदिरा लीला – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
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