चलन लागे, लाल घुटुरुवनि चाल |




चलन लागे, लाल घुटुरुवनि चाल |
तनक झुकी सिर मोर चंद्रिका, लटुरिन छवि घुँघराल |
नील – कलेवर झलमलात भल, झँगुली पीत रसाल |
कटि किंकिनि पग पैजनियनि धुनि, मोहीं सब ब्रजबाल |
दुध दँतुलिन किलकनि का कहनो, लखत बनत छवि लाल |
पकरि ‘कृपालु’ महरि कर अँगुरिन, तनक चलत गोपाल   ||

भावार्थ  –  छोटे से ठाकुरजी घुटनों के बल चलने लगे हैं, सिर पर थोड़ी – सी झुकी हुई मोर चन्द्रिका सुशोभित है | घुँघराली लटों की झाँकी अत्यन्त मनोहारी है | नीले शरीर पर पीले रंग का झंगुला झलमल करता हुआ अत्यन्त सुन्दर लग रहा है | कमर की करधनी एवं चरण की पायल की रुनझुन ध्वनि ने समस्त ब्रजांगनाओं को मोह लिया | दूध के कुछ दाँतों से युक्त किलकने का रस तो इतना विलक्षण है कि बस देखते ही बनता है | ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में, मैया के हाथ की उँगलियों को पकड़कर छोटे से ठाकुरजी थोड़ा – थोड़ा चल लेते हैं  |

( प्रेम रस मदिरा   श्री कृष्ण - बाल लीला – माधुरी )
   जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति

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