श्री कृपालु महाराज जी से एक अनौपचारिक प्रश्न किया गया।
प्रश्न और उत्तर निम्नलिखित है।
"महाराज जी गुरु शिष्य सम्प्रदाय का क्या अभिप्राय है और आप किसी को दीक्षा मंत्र देकर शिष्य क्यों नहीं बनाते?"
श्री महाराज जी द्वारा उत्तर-
गुरु शब्द का गुं (अन्धकार को) रौति (निकालने वाला) इस व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ है- माया की आत्यंतिक निवृत्ति कराने वाला। यदि दीक्षा प्राप्त करते किसी शरणागत शिष्य की माया निवृत्ति मंत्र दान के समय हो गई है तो वह वास्तविक गुरु है। यदि नहीं हुई तो धोखा है। रहस्य यह है कि पहले महापुरुष को मन से गुरु मानकर शरणागत हो उनकी बताई साधना (भक्ति) से अन्तःकरण की शुद्धि करनी है, तब वास्तविक गुरु दीक्षा मंत्र द्वारा माया निवृत्ति एवं परमानन्द प्राप्ति कराता है अर्थात् अधिकारी बनने पर ही मंत्र दान द्वारा दिव्यानंद प्रदान किया जाता है श्रौत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु द्वारा। संसार में भी सर्वत्र अधिकारी का निर्णय होता है। जैसे ग्रेजुएशन करने के बाद ही एल. एल. बी. किया जा सकता है। यों समझिये, जैसे घर में बिजली की फिटिंग होने के बाद ही पॉवर हाउस की बिजली का मतलब है। अगर आपने फिटिंग नहीं करायी तो कैसे कनेक्शन का फल मिलेगा। अथवा यों समझिये जैसे बैंक में पैसा न हो और एक करोड़ का चेक काट दिया जाय। यह धोखा ही तो है। श्रीकृष्णावतार चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि दीक्षा पुरश्चर्या विधि अपेक्षा न कर
'नो दीक्षां न च सत्क्रियां न च पुरश्चर्या मनागीक्षते'
यदि हम साधना भक्ति द्वारा अंत:करण शुद्ध कर लेंगे तो गुरु बिना मांगे दिव्यानंद दे देगा।
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