** गुरु भक्त की परीक्षा लेते हैं*

 यह वृत्तान्त उस समय का है जब महाराज जी महाबनी जी के साथ प्रतापगढ़ में रहते थे....



दीपावली का पर्व समीप आ रहा था । श्री महाराज जी के साथ दिवाली मनाने के लिए लगभग 50 साधक आसपास के शहरों से महाबनी जी के घर बिना बताये आ गए । सर्दियों की ठंडी रात थी। उन दिनों लोग यात्रा के समय बिस्तरबंद लेके चलते थे जिसमें एक पतला सा सूती गद्दा, तकिया, चादर और रजाई होती थी। लेकिन उन साधकों में से कोई भी अपना बिस्तर लेकर नहीं आया । महाबनी जी के घर​​ में महाराज जी को मिलाकर 7 लोग रहते थे । उनके पास कुछ अतिरिक्त गद्दे और रजाई थे पर 50 लोगों के लिए तो पर्याप्त नहीं थे न ही उनके सोने के लिए कोई  पलंग था । महाबनी जी ने अपने पड़ोसियों से कुछ गद्दे और रजाइयाँ मंगाईं और एक रजाई के अंदर दो-दो लोग सो गए । एक साधक को फिर भी कोई रजाई नहीं मिली और वह ऊन की चादर ओढ़कर एक बड़ी आरामकुर्सी पर ही सो गया । सबके सोने की व्यवस्था करके एक खटिया​ पर महाबनी जी अपनी पत्नी और दो छोटे बच्चों के साथ एक रजाई ओढ़कर सो गए। 

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श्री महाराज जी एवं उनके परम भक्त श्री हनुमान प्रसाद महाबनी की लीला

बीच रात को श्री महाराज जी अपने कमरे से बाहर आये और उस साधक को देखा जो आराम कुर्सी पर सो रहा था । और फिर महाबनी जी और उनकी पत्नी को खटिया पर रजाई ओढ़कर सोते हुए देखा। यह देखकर श्री महाराज जी ने महाबनी जी को डांटा कि उन्होंने प्रत्येक अतिथि  के सोने  की यथोचित व्यवस्था करने से पूर्व अपने परिवार के आराम के बारे में सोचा।  


महाबनी जी ने तुरंत बिना हिचकिचाहट के अपनी रजाई और खटिया​ आराम कुर्सी पर सोने वाले साधक को दे दी । फिर उन्होंने अपने परिवार को ठंड से बचाने के लिए घर के एक कोने में तपका लगाकर अपने परिवार के साथ पूरी रात्रि जागकर बिता दी ।


​सुबह महाराज जी ने महाबनी जी के त्याग की प्रशंसा की । साथ ही बाकी लोगों को डांटा कि उन्होंने महाबनी जी के बारे में नहीं सोचा घोर सर्दी में बिना बिस्तर रजाई के पहुँच गए । मेज़बान को अतिथि के आराम की व्यवस्था करनी चाहिए साथ ही अतिथि को मेज़बान के बारे में भी सोचना चाहिए ।


नीति


यह वृत्तांत पढ़कर आपमें से कुछ लोग ये सोच रहे होंगे कि श्री महाराज जी ने महाबनी जी को क्यों डांटा ? आखिर वह उनका ही घर था और ऊपर से उनके परिवार के चार लोग एक खटिया पर में एक रजाई के अंदर सो रहे थे। वो वैसे भी आराम से नहीं सो रहे होंगे ! 


साधकगण ध्यान दें - यह न भूलिए कि गुरु हमारे ऊपर कृपा के अलावा कुछ कर ही नहीं सकते।

संत हृदय नवनीत समाना । कहा कविन्ह पै कह न आना ।

निज परिताप द्रवइ नवनीता । पर दुख द्रवई सुसंत पुनीता ॥

“संत का हृदय मक्खन से भी अधिक कोमल होता है।  मक्खन को ताप देने पर मक्खन पिघलता है लेकिन संत का हृदय दूसरों की पीड़ा को देखकर, कृपा से पिघल जाता है।“ 

यद्यपि गुरु का व्यवहार बाहर से कठोर प्रतीत होता हो परंतु उनका हृदय अत्यंत कोमल  होता है । गुरु का प्रत्येक कार्य अपने शिष्यों के उत्थान  के लिए ही होता है। 

गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि मारे खोट । भीतर हाथ सहारि दे, बाहर मारे चोट ।

"गुरु एक कुम्भकार की तरह होता हैं, जो घड़ा बनाते समय बाहर से तो चोट मारता है पर अंदर से हलके हाथ से उसे सहारा भी देता है ताकि कहीं घड़ा टूट ना जाएऔर साथ ही सुडौल बने" । ठीक इसी तरह, गुरु बाहर से कठोर व्यवहार करके शिष्य के दोष का दमन करते हैं ताकि वह आध्यात्मिक पथ पर तत्परता से आगे बढ़ सके, और साथ ही अंदर से योगक्षेम भी वहन करते हैं।

श्री महाराज जी भी एक निपुण कुम्भकार हैं। वो कुछ बातें सिखाना चाहते थे। 

1. भक्त की सेवा करो जिससे भगवान् की कृपा जल्दी मिले। भक्त के लिए स्वयं के सुख का त्याग करने से भगवान् जल्दी खुश होते हैं।

2. गुरु कृपा पाना चाहते हो तो उनसे कभी तर्क, वितर्क, कुतर्क नहीं करना चाहिए । अपने दोष को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करो । 

3. उन्होंने दूसरों के लिए त्याग करने का एक उदहारण भी रखा और 

4. उन्होंने साधकों को भी सिखाया कि जिस तरह आतिथेय एक अथिति के सुख का ध्यान रखता है, उसी तरह एक अतिथि को भी अपने आतिथेय के सुख का ध्यान रखना चाहिए। 

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