जैसे भगवान् बुद्धि से परे हैं ऐसे ही महापुरुष भी बुद्धि से परे हैं क्योंकि दोनों एक हैं-

 जैसे भगवान् बुद्धि से परे हैं ऐसे ही महापुरुष भी बुद्धि से परे हैं क्योंकि दोनों एक हैं-


तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्।

(ना. भ. सू. ४१) 


नारद जी ने अपने भक्ति-सूत्र में लिखा कि भगवान् और महापुरुष में भेद नहीं होता। वैसे तो महापुरुष को भगवान् से बड़ा माना गया है। लेकिन बड़ा वड़ा कुछ नहीं है वो। जितनी पावर भगवान के पास है नित्य सत्ता, सर्वज्ञता, अनन्त आनन्द, वो महापुरुष के पास भी है। इसलिये बराबर है। इसीलिये वेद कहता है-


यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।

तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः॥ 

(श्वेता. ६-२३)


 ऐ मनुष्यो! जैसी भक्ति भगवान् के प्रति हो वैसी ही भक्ति सैन्ट परसैन्ट गुरु के प्रति हो।

तो फिर हम जानें कैसे? गुरु को, महापुरुष को । पहिचानें कैसे? और बिना पहिचाने कहीं गलत पाखण्डी महापुरुष की शरण में चले गये तो फिर, तो फिर तो-


अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः।

(मुण्डको. १-२-८)


जैसे अन्धे का हाथ अन्धा पकड़ करके चले तो गर्त में गिरेगा। यही हो रहा है अनादिकाल से। देखिये बहुत सावधानी से समझिये। ज्ञान में दो रीज़न बताया तुलसीदास जी ने-


गुरु बिनु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होई विराग बिनु।


गुरु के बिना ज्ञान नहीं हो सकता प्लस वैराग्य के बिना ज्ञान नहीं हो सकता। क्यों? मान लो आपको सही गुरु मिल गया। हाँ आप शरणागत नहीं हैं। अपनी बुद्धि को गुरु की बुद्धि से जोड़ा नहीं, अपनी बुद्धि प्राइवेट रख रहे हो। अपनी बुद्धि लगा रहे हो बीच बीच में, सैन्ट परसैन्ट सरैण्डर नहीं किया। तो क्या करेगा गुरु?


मूरख हृदय न चेत यदि गुरु मिलहिं विरञ्चि सम। 


ब्रह्मा भी गुरु मिले तो उस व्यक्ति का कल्याण नहीं हो सकता जो शरणागत नहीं है, सैन्ट परसैन्ट। बिजली घर में आप चले जायें और सब तारों का हाल न जानें और एक तार जो नंगा है उसको पकड़ लें तो जीरो बटे सौ हो जायेंगे। सैन्ट परसैन्ट शरणागति करनी पड़ेगी। थोड़ी मोड़ी नहीं। तो फिर हम कैसे पहिचानें? और बिना पहिचाने हमारा काम बनेगा नहीं और पहिचानने का मतलब, मानना हृदय से- उसको श्रद्धा कहते हैं- श्रद्धा। सबसे पहली चीज़ श्रद्धा है। उसके बाद महापुरुष का मिलन, उसके बाद सत्संग। सत् माने महापुरुष, संग माने मन का सरैण्डर, मन, बुद्धि उसको दे दिया। अब वह जैसा कहेगा वैसा ही करेंगे।


कितना बड़ा पापी था वाल्मीकि, कि राम नहीं कह सका। क्यों जी मरा कहा? हाँ। तो क्यों मरा में भी तो वही म और र दो अक्षर हैं। अगर कोई 'म' और रा कह सकता है तो राम क्यों नहीं कह सकता? सोचा, सोचा कभी आप लोगों ने बुद्धि से? ये कैसे पॉसिबिल है? या तो गूँगा हो या तो 'म' बोल ही न सके। 'रा' बोल ही न सके। मरा मरा मरा तो खूब बोल रहा है और राम राम क्यों नहीं बोल सकता? इतने अधिक उसके पाप थे कि राम नहीं बोल सका। (ध्यान दो।) लेकिन गुरु की शरणागति कितनी थी? आप सोच नहीं सकते। मरा मरा कहते रहना जब तक हम लौट कर न आवें। चुप। आप लोगों से कोई गुरु ऐसा कहे, 'आप कब लौट कर आयेंगे?' तुरन्त क्वेश्चन करेंगे। आप कहते हैं जब तक लौट कर न आवे तो कब लौट कर आयेंगे आप बताइये तो हमको। हम ऐसे ही पागल की तरह मरा मरा करते रहें? बाल्मीकि ने कुछ नहीं पूछा। कम्पलीट सरैण्डर। और अपना साधना करता रहा। गुरु हैल्प करते रहे। और महापुरुष बन कर निकला बल्मीक से- ये शरणागति है। हम लोग संसार के छल कपट वाले एटमॉसफियर में छल कपट से ऐसे भर गये हैं, हमारी बुद्धि में वह भर गया है कि भगवान् आवें तो, महापुरुष मिलें तो, ऐसा है कि हम भी तो कुछ समझते हैं। अरे! तुम अपने आप को तो समझ नहीं सके। महापुरुष और भगवान् को क्या समझोगे?


आप किसी से पूछो- आपका परिचय? जी मैं इलाहाबाद का कलैक्टर हूँ। मैं उपाधि नहीं पूछ रहा हूँ, मैं आपको पूछ रहा हूँ। जी जी मेरा नाम नन्दकिशोर है। नाम? अरे नाम नहीं, आपको पूछ रहा हूँ। अरे ! मैं मनुष्य हूँ। मनुष्य ? ये तो आपकी बॉडी है, शरीर है। मैं आपको पूछ रहा हूँ। क्या अजीब आदमी है। और क्या हैं आप? आप अपने आप को नहीं जानते तो आपको पागलखाने में रहना चाहिये। बाहर कैसे हैं? जो अपने को न पहिचाने उसको लोग पागलखाने में रख देते हैं। बन्द कर देते हैं, तुम अपने आप को नहीं जानते और बहुत कुछ जानने का दावा करते हो, महापुरुषों को पहिचान लेते हैं हम। अरे महापुरुषों को केवल भगवान् और महापुरुष पहिचान सकता है- 


भगवद रसिक रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समुझि सकै न। 

कृष्ण प्रेम जार चित्ते करे उदय। 

तार वाक्य क्रिया मुद्रा विज्ञे न बुझय॥ 


गौरांग महाप्रभु कहते हैं कि जिसके हृदय में श्री कृष्ण प्रेम प्रकट हो जाय, महापुरुष हो जाय जो, उसके वाक्य, उसकी क्रिया, उसके एक्शन कोई नहीं समझ सकता। विज्ञे न बुझय।

 

अन्तर्वाणीभिरप्यस्य मुद्रा सुश्रु सुदुर्गम। 


जो भीतर से ज्ञान का भण्डार भरे हैं वह भी नहीं जान सकते रसिकों को। तुम क्या जानोगे?


देखो! तुम अपने आप को पहले समझो। तुम क्या करते हो संसार में? अन्दर गड़बड़ बाहर ठीक। अन्दर से आप नहीं चाहते ये आदमी आवे हमारे घर में रात को १२ बजे, हमारी नींद खराब करे। लेकिन जैसे ही वह आदमी आता है हैलो! श्रीवास्तव जी! अरे! अरे! भई तुमको तो हम कब से परख रहे हैं। ये क्या है? धोखा। ४२०, छल कपट। और ऊपर से बड़े सुन्दर शब्द। बड़ा मीठा स्वर। ये आप लोग करते हैं न? हाँ करते हैं। इसी को उल्टा करते हैं संत लोग। अन्दर बिल्कुल ठीक और बाहर उल्टा। अन्दर मायातीत, और बाहर माया का कार्य करते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, भयंकर करोड़ों मर्डर १, २, ४ मर्डर नहीं। ये हनुमान जी महापुरुषों के दादा। ये अर्जुन जी महापुरुषों के दादा। क्यों जी हम किसी को गाली देते हैं तो पहले गुस्सा आता है। पहले गुस्सा आएगा मन में तब तो गाली निकलेगी। और झापड़ लगाते हैं और गुस्सा आता है। और मर्डर कर देने में तो गुस्से में पागल हो जायेंगे तभी तो मर्डर करेंगे। और हजारों मर्डर किया है अर्जुन ने। हनुमान जी ने लंका ही जला दिया। लेकिन महापुरुष है। उनका कहीं द्वैत भाव है ही नहीं। वो तो सर्वत्र श्रीकृष्ण को देख रहे हैं अर्जुन जी-


तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्धय च। 

(गीता ८-७) 


निरन्तर मेरा स्मरण करना अर्जुन। सर्वेषु कालेषु। एक बटे सौ सैकेण्ड को भी मन मुझसे पृथक् न हो।


त्रिभुवनविभव हेतवेऽप्य कुण्ठस्मृतिरजितात्म सुरादिभिर्विमृग्यात्। 

न चलति भगवत्पदारविन्दाल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः।।

(भागवत ११-२-५३) 


एक सैकेण्ड को भी भगवान् से मन न हटे वो महापुरुष है। तो निरन्तर भगवान् में मन है अर्जुन का "सर्वेषु कालेषु" और युद्ध कर रहा है। मर्डर हो रहा है।


उमा जे राम चरन रत विगत काम मद क्रोध। 

निज प्रभुमय देखहिं जगत का सन करहिं विरोध।


क्रोध-माया का विकार है। माया तो समाप्त हो गई हनुमान जी की। भगवान् के वो तो पार्षद हैं कभी उनके ऊपर माया नहीं आई थी। लेकिन ये सर्वत्र सीता राम को देखते हुये भी इतने मर्डर किये, ब्राह्मणों के, रावण के खानदान के। भगवान् ने अपनी डायरी में लिखा ही नहीं। क्यों? भगवान् कहते हैं- कर्म उसे कहते हैं जिसमें मन का अटैचमैन्ट हो। राग हो, द्वेष हो। ये दो में एक हो। या तो राग हो या तो द्वेष हो। उसका मन तो मेरे पास था। इसलिये मारने में शत्रुओं के प्रति न राग था, न द्वेष था। इसलिये वह कर्म नहीं है। वह जीरो में गुणा करो एक करोड़ से तो भी जीरो आयेगा। 


अरे! देखो, अब होली आई है, कितने मजाक होते हैं होली पर और कितनी डिग्रियाँ मिलती हैं बड़े-बड़े काबिलों को- मूर्ख शिरोमणि वगैरह, वगैरह। और सब विभोर हो के हँसते रहते हैं। क्योंकि मंशा खराब नहीं है। अन्दर गड़बड़ नहीं है। इसलिये सब हँस देते हैं। ससुराल में कितनी गालियाँ (दूल्हे को) पहले मिला करती थीं बाकायदा ढोल बजा के और वो बैठ के धीरे-धीरे खा रहा है, चटनी चाट रहा और गाओ। क्योंकि दुर्भावना नहीं है। अन्दर भी ठीक बाहर भी ठीक। तो महापुरुषों का जो अन्दर गड़बड़ नहीं है और बाहर गड़बड़ दीखता है तो हम लोग तो बाहर वाले को देखकर ही निर्णय करते हैं। हमारी आदत है। अभ्यास है। अन्तर्यामी तो नहीं हैं हम लोग, अन्दर घुस कर देखें। ये हनुमान महापुरुष है कि नहीं है। ये अर्जुन महापुरुष है कि नहीं है। तो महापुरुषों को पहचानना ये असम्भव है जैसे भगवान् को जानना असम्भव है।


मां तु वेद न कश्चन ॥ (गीता ७-२६) 


न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्॥ 

(श्वेता. ३-१९) 


वेद में भगवान् स्वयं कहते हैं- मुझे कोई नहीं जान सकता। और वही महापुरुष भगवान् एक ही शक्ति से युक्त हैं उसका नाम है योगमाया। वह 'कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ' है। जो चाहे करे, जो चाहे न करे, जो चाहे उल्टा कर दे। ये योगमाया की शक्ति है। भगवान् की भगवत्ता भुला देती है। और तो क्या कहा जाए। भगवान् भूल जाता है-


प्रभु तरुतर कपि डार पर।


भगवान् भूल गये कि मैं स्वामी हूँ और ये बन्दर वन्दर जितने हैं ये हमारे नौकर हैं, दास हैं। वे ऊपर बैठे हैं पेड़ पर। भगवान् नीचे बैठे हैं। अब भगवान् को यह पता हो कि मैं भगवान् हूँ तभी तो डांटें उनको। और महापुरुषों को भी भुला दिया योगमाया ने कि मैं महापुरुष हूँ। हनुमान जी भी बैठे हैं ठाट से ऊपर। उनको भी नहीं दिमाग में आ रहा है। जो "ज्ञानिनां अग्रगण्यम्" हैं। तो महापुरुषों को पहचानना समझना, असम्भव है। तो फिर क्या करें? क्या इलाज है? बस रोकर भगवान् से प्रार्थना करें कि हमको किसी महापुरुष से मिला दीजिए-


बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।


जब द्रवइ दीन दयाल राघव। साधु संगति पाइये।


जब भगवान् कृपा करेंगे तो वो किसी महापुरुष को किसी बहाने मिला देंगे। लेकिन महापुरुष के मिलने पर भी शर्त वही है कि श्रद्धा हो आपकी पूर्ण।


गुरु वेदान्त वाक्येषु दृढ़ो विश्वासः श्रद्धा। (शंकराचार्य)


श्रृद्धा की परिभाषा है कि गुरु और वेद शास्त्र के ऊपर पूर्ण विश्वास उनकी आज्ञा का पालन हो सैन्ट परसेंट।


श्रद्धा शब्द कहे विश्वास सुदृढ़ निश्चय। 

(गौरांग महाप्रभु) 


गौरांग महाप्रभु भी उसकी यही परिभाषा कर रहे हैं और यह पूर्ण विश्वास कब होगा? जब वैराग्य होगा- माने संसार में सुख नहीं है- यह डिसीजन सैन्ट परसैन्ट हो जाए तब फिर उनमें ही सुख है। दो ही चीज तो हैं, दो ही दिशा तो हैं, एक भगवान्, एक माया- एक तरफ तो जाएगा और तीसरा तो जीव ही है। वह दो तरफ में एक तरफ तो जाएगा-


द्विविधो भूत सर्गोऽयं दैव आसुर एव च।

विष्णु भक्ति परो दैव आसुरस्तद्विपर्ययः॥

(अग्नि पु.) 


एक भगवान् का एरिया, एक माया का एरिया और जाने वाला जीव का मन। आप लोग कभी कभी ये भी बोल देते हैं कि हमारा तो मन न भगवान् में लगता है न संसार में लगता है। कहाँ है? पैंडिंग में है? उसको लॉक कर दिया है कहीं? बकवास करते हो। अगर भगवान् में नहीं है तो संसार में है, है, है। पक्का प्रमाण। दो ही क्षेत्र तो हैं।


प्रवचनांश- जगद्गुरुत्तम १००८ स्वामि श्री कृपालु महाप्रभु जी

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