किशोरी मोरी, अब न लगाओ बार।
मांगत भीख कृपा की केवल, खड़ो तिहारे द्वार।
रसिकन - मुख अस सुनी दीन को, आदर येहि दरबार।
देर होत अंधेर नहीं बस, इहै रह्यो आधार।
देर भये जनि जानेहु तजिहौं, हौं जड़ हठी गमार।
कहिहौं नहिं 'कृपालु' काहू सों, आ जाइय इक बार ।।
भावार्थ - हे अलबेली राधिके ! अब देर न करो। मैं तुम्हारे द्वार-पर खड़ा होकर केवल तुम्हारी कृपा की भिक्षा माँग रहा हूँ। महापुरुषों के मुख से सुना है कि तुम्हारे दरबार में दीनों का सदा सम्मान हुआ करता है। फिर भी जो देर हो रही है इसे 'देर होती है अन्धेर नहीं', इस लोकोक्ति के अनुसार समझकर विश्वास पूर्वक आशा लगाये बैठा हूँ। किशोरी जी ! तुम्हारी कृपा पाने में कितनी ही देर क्यों न हो, पर तुम यह न समझना कि मैं देर होने के कारण तुम्हारा अवलम्ब छोड़ दूँगा। क्योंकि मैं पक्का जड़, हठी एवं मूर्ख हूँ। 'कृपालु' कहते हैं कि हे किशोरी जी ! चुपके से आप मुझे दर्शन दे जाओ। यदि तुम्हें यह भय हो कि तुम और लोगों से कह दोगे, तो मैं वचन देता हूँ कि मैं किसी से नहीं कहूँगा।
दैन्य माधुरी~33
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