कहाँ हरि ! सोये हमरिहिं बार।
पतित पुकार सुनत ही धावत, नेकु न लावत बार।
कारण रहित कृपालु सदा ते, जानत तोहिं संसार।
कैसेहुँ पतित शरण टुक आये, राखत चरण मझार।
पतितन ही सों प्यार करत नित, अस कह संत पुकार।
पुनि अति पतित 'कृपालु' पेखि कत, उर निष्ठुरता धार ।।
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भावार्थ- हे श्यामसुन्दर ! आज तक किसी भी पतित के आर्तनाद को सुनकर तुमने थोड़ी भी देर नहीं की, फिर आज हमारी ही बार कहाँ जाकर सो गये। सारा संसार तुम्हें बिना कारण के ही कृपा करने वाला अनादिकाल से जानता है। भी पतित तुम्हारी शरण में कभी आ जाय, उसे तुम सदा के लिए अपना बनाकर सर्वदा उसे अपने चरणों के पास ही रखते हो। रसिक जन पुकार-पुकार कर कहते हैं कि श्यामसुन्दर शरणागत पतितों से ही प्यार करते हैं। यदि यह सच है तो 'कृपालु' कहते हैं कि फिर मुझे, अत्यन्त पतित जानकर भी, अपने हृदय को क्यों कठोर बना लिया है, मेरे ऊपर कृपा क्यों नहीं करते?
दैन्य माधुरी~26
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