इस प्रकार सम्मेलन का उद्घाटन स्वागताध्यक्ष संत शिरोमणि श्री कृपालु महाप्रभु के संक्षिप्त प्रवचन एवं समागत संतों के अभिनंदन करने के पश्चात् स्वागत मंत्री श्री बलवीर जी ने छोटा सा वक्तव्य देकर सबका स्वागत किया व कार्यक्रम की रूपरेखा व समय-सारिणी से अवगत कराया। उनके वक्तव्य का सारांश इस प्रकार है…..

मेरे प्रिय पावन आत्मीय जन!

मैं हृदय से आप सब का स्वागत करता हूँ। युगों-युगों से प्रसिद्ध तपोभूमि में प्रेम रसिक सन्तों का शुभागमन! परम कृपालु के इन भक्तिमय लाड़ले बच्चों की यथार्थ स्वागत क्षमता परम भगवती माँ के अतिरिक्त और किसमें हो सकती है ? उन्हीं का यह नादान बालक बलवीर सिंह आज स्वागत मंत्री बना कर यहाँ खड़ा कर दिया गया है। संतों के स्वागत के लिये, जिसके मैं सर्वथा अयोग्य हूँ। किन्तु उनकी ही कृपा से आप लोगों का स्वागत करूँगा। आज मुझे संतों की सेवा का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ है। "बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता।"

लोकाभिराम श्री राम का यह विचित्र तपोधाम स्वनाम धन्य है। आज यहाँ पधारे हुए संतों व अन्य बांधवों का मैं हृदय से स्वागत करता हूँ। प्रेम-रस-रसिक संत परम आदरणीय श्री कृपालुदास जी महाराज जैसे सुयोग्य स्वागताध्यक्ष के अमृत वचनों के पश्चात् अब मेरे कुछ कहने की आवश्यकता तो रह ही नहीं जाती। तथापि सबको अपने-अपने कर्तव्य का पालन तो करना ही होता है। अत: मैं अपनी क्षमता के अनुसार आप सब से कुछ कहने जा रहा हूँ।

यह धार्मिक सम्मेलन है। यहाँ टीका टिप्पणियों का कोई स्थान नही होगा। यहाँ खंडन नहीं मंडन होगा। मत-मतान्तरों का समन्वय साधन होगा। मानव देह के सर्वमान्य एवं सर्वसुलभ पथ का प्रकाशन एवं सर्वमान्य लक्ष्य की ओर निर्देश होगा। मैं यहाँ पर उपस्थित गुप्त व प्रकट संवेदनशील सन्तों से निवेदन करता हूँ कि हम साधारण कोटि के जीवों की उलझनों को दूर कीजिये। हमारी दुर्दशा पर ध्यान देते हुए हम आर्त जीवों की पुकार सुनिये। आज मात्र बाँदा ही नहीं संपूर्ण मानव जाति आपका मुँह ताक रही है। अरे! कौन अभागा नहीं चाहता उस अनन्त सुख सिंधु की एक बिंदु को प्राप्त करना ? किन्तु कौन ले चले उधर ? ओ हमारे श्रद्धेय संतो ! भगवत्प्राप्त महापुरुषो! आज के शुभ अवसर पर हमारी प्रार्थना है कि भिन्न-भिन्न पन्थों और ग्रन्थों के जाल से हमें निकाल कर हमारा समुचित पथ-प्रदर्शन करें।

आज से 15 दिन तक हमें आप सब वन्दनीय महापुरुषों का सत्संग व सान्निध्य प्राप्त होता रहेगा। हम सब मिलकर आपका यथेष्ट स्वागत, सत्कार व आपकी सुविधा के लिये हर प्रकार की व्यवस्था रखने का पूर्ण प्रयास करेंगे। तथापि हमसे त्रुटियों का होना अवश्यम्भावी है। किन्तु हम आशा करते हैं कि हमारे क्षमाशील संत हम असंस्कृतों की त्रुटियों को अवश्य क्षमा कर देंगे, जहाँ हमसे कुछ बिगड़ता होगा बनवा लेंगे।

जनता से भी मेरा अनुरोध है कि इस अभूतपूर्व संत समागत में उपस्थित होकर इसका पूरा लाभ लें व हमारे प्रबन्ध में यदि कहीं भी प्रासंगिक त्रुटि रह गई हो तो अधिकारपूर्वक हमें सूचित करें।

आप सबका आशीर्वाद सदा अपेक्षित है।

बोलिये राजा रामचन्द्र भगवान् की - जय ।

बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की - जय।

पश्चात् श्रीमहाराज जी द्वारा प्रणीत कतिपय उन युग्म प्रश्नों का सूची पत्र, जो परस्पर विरोधार्थक लक्षित होते थे, समस्त समागत प्रवक्ताओं के मध्य वितरित कर दिया गया व उनसे इन युग्म प्रश्नों का समन्वयात्मक समाधान करने की प्रार्थना की। तदुपरांत महात्माओं के प्रवचन, रासलीला, भगवत् कथाओं आदि के द्वारा सम्मेलन का प्रथम दिवस सम्पन्न हुआ।

तीन चार दिन निकल गये। किसी भी संत या विद्वान ने उन प्रश्नों का समाधान नहीं किया। श्री महाराज जी बारम्बार घोषणा करते रहे “जनता परेशान है। उन्हें इन भ्रमात्मक प्रश्नों का उत्तर नहीं प्राप्त हो रहा है। समस्त प्रवक्ताओं से अनुरोध है कि वे इसका समाधान करें।"अधिकांश विद्वानों व संतों ने इनका समाधान असंभव बताते हुए एक परिहास समझा। क्योंकि उनके युग्मों का समाधान श्री कृपालु जी महाराज स्वयं करने में भी सर्वथा असमर्थ ही होंगे। क्योंकि जिसे समस्त वेदों व अन्यान्य धर्मग्रन्थों का भी सम्यक् ज्ञान हो, वही समन्वय करने में सक्षम हो सकता है और ऐसा करना मानव जीवन में किसी के लिये संभव नहीं है। अतः करपात्री जी ने मर्यादा की रक्षा करते हुए विनम्र स्वरों में रंगमंच से ही घोषणा की “हम तो इन प्रश्नों का समन्वय करने में असमर्थ हैं, किन्तु संभवतः श्री कृपालु जी महाराज स्वयं इनका समन्वय करने में सक्षम होंगे। अतः श्री कृपालु जी महाराज से हम सब विद्वानों का विनम्र निवेदन है कि आप स्वयं इन प्रश्नों का समन्वय करें।" ये भी विनम्र शब्दों में परोक्ष रूप से श्रीमहाराज जी के लिये एक चुनौती थी।


श्री महाराज जी ने भी रंगमंच पर आकर जनता व विद्वत् समाज से निवेदन किया “मुझे इन प्रश्नों के समन्वय करने में कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु मैं स्वागताध्यक्ष हूँ । अतः नियमानुसार मुझे अन्य संतों व विद्वानों की भाँति व्यास गद्दी से प्रवचन देने का अधिकार नहीं है। हाँ, यदि हमारे अध्यक्ष श्री राघवेन्द्र सरकार मुझे बोलने की अनुमति दें तो निश्चय ही मुझे आप लोगों का आदेश स्वीकार है। "


उनकी यह उद्घोषणा सुनते ही आश्चर्यजनक रूप से राम दरबार के स्वरूप श्री राघवेन्द्र सरकार, जो बालक ही थे और कभी रंगमंच से बोले ही नहीं थे, अति प्रसन्न होकर झपट कर माइक पर आये और बोले “मैं स्वागताध्यक्ष श्री कृपालु जी महाराज को प्रवचन देने की अनुमति देता हूँ।" यह सुनते ही सारा पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान् हो गया, चारों ओर प्रसन्नता का एक अद्भुत वातावरण छा गया।


श्री महाराज जी ने भी ऐसा करना परमावश्यक समझ के सम्मेलन के अध्यक्ष श्री राघवेन्द्र सरकार का आदेश पाकर उसी समय समाधान करने की उद्घोषणा कर दी और कहा कि मैं पूर्व निश्चित कार्यक्रमों में बिना परिवर्तन किये अन्त में रात्रि 9 बजे से बोलूँगा। जनता व समागत विद्वानों व संतों से प्रार्थना है कि वे सभी सुनने के लिये उपस्थित हों।


वहाँ इसी ज्ञान की लालसा लेकर आई हुई जनता के लिये रात्रि 9 बजे तक प्रतीक्षा करना मानो असंभव सा हो रहा था। क्योंकि ज्ञान-लालसा से भी अधिक प्रबल जिज्ञासा यह हो गई कि जिन प्रश्नों का समाधान इतने सारे विद्वान् मिलकर भी नहीं दे सके, उनका समन्वय ये अल्प वयस्क मात्र 33 वर्षीय श्री कृपालु जी कैसे देंगे ?


सायं आठ बजे से ही पंडाल पूर्णतया जनाकीर्ण होने लगा। आये हुए समस्त अस्तु, संत, महन्त व विद्वानों ने भी समय के पूर्व आकर अपना-अपना आसन ग्रहण कर लिया । ठीक 9 बजे श्री महाराज जी आकर व्यास गद्दी पर समासीन हो गये। उनकी जय घोष से संपूर्ण चित्रकूट गुंजरित हो गया। जनता के मुख पर आशामयी हास का आनंद नर्तन होने लगा।


श्री महाराज जी ने अपने प्रवचन को श्रीकृष्ण स्तुति से प्रारंभ कर वेद मंत्र के साथ भगवद् स्तवन किया। पश्चात् अखिल वातावरण में भगवद् भाव को उल्लसित करते हुए “ भजो गिरिधर गोविन्द गोपाला" का दो-तीन मिनट रसमय कीर्तन करा कर सबको विभोर कर दिया। पश्चात् पत्रांकित युग्म प्रश्नों के समाधान का कार्य प्रारंभ किया।


प्रथम दिवस ही उनकी अद्भुत समन्वय शैली, शास्त्र वेदों पर आश्चर्यजनक अधिकार, चकित कर देने वाली प्रवचन शैली का सारल्य आदि देखकर साधारण जनता तो क्या श्रेष्ठ विद्वान् भी दाँतों तले उँगली दबा कर रह गये। भीड़ दिन प्रतिदिन द्विगुणित होती गई।


इन प्रवचनों में भी श्री महाराज जी ने मुख्यतः वेदान्त को आधार बनाकर शास्त्रों से उसका अभिन्नत्व बताया। मीमांसादि नास्तिक दर्शनों की भी उपादेयता को प्रमाणित किया। वेदों व शास्त्रों में दृष्टिगत होने वाले वैमत्य का समन्वय किया। भारतीय दर्शनों का यथा द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, अचिन्त्य भेदाभेदवाद, पुष्टि मार्ग आदि का सविस्तार विवेचन करते हुए उनका समन्वय व अध्यात्म जगत में उसकी उपादेयता का भी वर्णन किया। पाश्चात्य दार्शनिकों के दर्शन का भी सविस्तार वर्णन किया। अंत में भगवान् श्रीराम व श्रीकृष्ण का ऐक्य सिद्ध करते हुए उनके नाम, रूप, लीला, गुण, धाम आदि का रूपध्यान करते हुए कलियुग में भगवत्प्राप्ति का सरलतम व सरसतम मार्ग प्रशस्त कर के सबको रस से सराबोर कर दिया। उन्होंने वेद, पुराण, न्याय शास्त्र आदि ग्रन्थों के आधार पर यह भी सिद्ध किया कि भक्तिमार्ग ईश्वर प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग ही नहीं, एकमात्र मार्ग है।


अन्य महात्माओं के कार्यक्रम में कोई बाधा न पहुँचे, एतदर्थ उन्होंने अपने प्रवचन का समय रात्रि में सबके बाद 9 बजे से 11 बजे तक रखा था। किन्तु परिणामतः सायंकाल से पंडाल खाली-खाली सा रहता था और सर्वाधिक जनता 9 बजे एकत्र होती थी। इस पर कतिपय महात्माओं को समय के विषय में आपत्ति हुई और उनका समय बदलने को कहा। तो श्री महाराज जी के बोलने का समय 6.30 से 8 बजे कर दिया गया, जो कथा वाचकों का समय होता था और लोग उस समय भोजनादि में व्यस्त रहते थे। किन्तु जब श्री महाराज जी इस समय बोलने लगे तो सारी जनता जल्दी आकर उनके प्रवचन के बाद भोजन के लिये जाने लगी। अंत में उनका समय सर्व सम्मति से 8 से 9.30 कर दिया गया। किन्तु वह कभी कभी 10 या 11 बजे तक भी बोलते थे और बाल, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, महात्मा जन, विद्वज्जन आदि सभी मंत्र मुग्ध होकर सुनते थे और अपनी-अपनी योग्यतानुसार झोली भर-भर के ज्ञान के मोती ले जाते थे।


इस सम्मेलन में दो लाख लोगों की भीड़ थी। धर्मशालाओं में स्थान न मिलने के कारण लोग रात्रि में पंडाल में ही सो जाते थे।


इस सम्मेलन के साक्षी बनने के पश्चात् महाराज जी के प्रिय भक्तों ने जाना कि हमारे महाराज जी इतने बड़े विद्वान् भी हैं और ऐसा ओजस्वी प्रवचन देने में भी दक्ष हैं कि बड़े से बड़े विद्वानों की भी बोलती इनके सामने बंद हो गई। क्योंकि अभी तक तो या तो प्रवचन देते सुना ही नहीं था या वे आँख बन्द करके सात-सात आठ-आठ घंटे प्रवचन देते थे जो किसी की समझ से बाहर था।


इस आयु में ऐसी प्रतिभा कि समस्त शास्त्र वेदों का सम्यक् ज्ञान होना, पुनः सबका समन्वय करना, इनके अलौकिकत्व का स्पष्ट संकेत है।


इस प्रकार शेष दिनों में प्रतिदिन उनका धारावाहिक प्रवचन चला। श्री महाराज जी ने समस्त शास्त्रों, वेदों, उपनिषदों आदि 12 दर्शनों, जगद्गुरुओं के सिद्धान्तों के विचारों का समन्वय करने के अतिरिक्त प्राच्य व प्रतीच्य दार्शनिकों के मतों को भी प्रस्तुत करते हुए समन्वय किया। जगद्गुरुओं के सिद्धान्तों का समन्वय करते हुए सिद्ध किया कि वे सब सिद्धान्त समानरूप से वेद शास्त्र सम्मत व माननीय हैं। पुनः अपना सिद्धान्त भी प्रस्तुत किया और भक्तिमार्ग को ही ईश्वरप्राप्ति का एकमात्र साधन बताया।


श्री महाराज जी ने मुख्यतः वेदान्त का ही आश्रय लिया, किन्तु छहों दर्शन के मुख्य विषयों की चर्चा करते हुए बताया कि वेदान्त दर्शन का सार समझने के लिये शेष छहों दर्शन को भली प्रकार समझना अनिवार्य है।


जनसाधारण से ले कर शिखरस्थ विद्वानों ने हृदय से यह स्वीकार किया कि यह ज्ञान अद्वितीय व सर्वथा अकाट्य है । सबने भूरि-भूरि सराहना करते हुए यह माना कि यह अद्वितीय सम्मेलन था और यहाँ आ कर हमारा जीवन सार्थक हो गया।


भारत में आध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ मान्यता प्राप्त कतिपय संत व विद्वान् जो श्री महाराज जी के अद्भुत शास्त्रीय ज्ञान से अत्यन्त विस्मित व मुग्ध थे, उन महानुभावों में मुख्यतः महामहोपाध्याय श्री गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी थे। ये काशी विद्वत् परिषत् के अध्यक्ष भी थे। इन्होंने काशी जाकर विद्वन्मंडल के अन्य लोगों से भी 33 वर्षीय नवयुवक के अपरिमेय व अपौरुषेय ज्ञान की मुक्त कंठ से सराहना की। ये विद्वान् विचार में पड़ गये कि एक ही शास्त्र का ज्ञान अर्जित करने में संपूर्ण आयु समाप्त हो जाती है। ये 33 वर्षीय युवक भला सारे शास्त्रों का सम्यक् व समन्वयात्मक ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकता है ? अतः उन्हें लगा कि ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे अध्यक्ष को कुछ मतिभ्रम हो गया है। वास्तव में ऐसा होना असंभव है। अतः बात को टाल गये।

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