🌷सर्वश्रेष्ठ हितैषी .....सद्गुरू देव !🌷


"सदगुरु महिमा कहन को, मन बहुत लुभाया ।
मुख में जिह्वा एक ही, तातैं पछताया ।।"
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किसी भी साधक का सर्वश्रेष्ठ हितैषी उसका सद्गुरु ही होता है ।  सद्गुरु से बढकर किसी का भी कल्याण चाहने वाला अन्य कोई नहीं होता । सद्गुरु का सम्बन्ध शाश्वत होता है । वे न सिर्फ अपने शिष्य को भगवद् प्राप्ति का उपाय बताते हैं बल्कि उसके साथ साथ साधना भी करते हैं, और उसकी भावी विपदाओं और सांसारिक समस्याओं से रक्षा भी करते हैं । गुरु को समर्पित की हुई साधना में कोई त्रुटी भी रह जाए तो सद्गुरु उसमें शोधन कर देते हैं ।
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किसी भी साधक को अपनी साधना का सिर्फ 25 प्रतिशत ही पूर्ण निष्ठा से करना होता है । 25 प्रतिशत सद्गुरु करता है । बाकि 50 प्रतिशत जगन्माता पद्माकी असीम करुणा से उसे फल मिल जाता है । पर स्वयं के भाग का 25 प्रतिशत तो हर साधक को शत प्रतिशत करना पड़ता है ।
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वास्तविक आध्यात्मिक जीवन को पाने के लिए हर क्षण गुरु प्रदत्त साधना के सहारे जीना आवश्यक है । जीवन की विपरीतम परिस्थितियों में जहाँ कहीं कोई आशा की किरण दिखाई न दे, और चारों ओर अंधकार ही अंधकार हो, वहाँ एकमात्र सद्गुरु ही हैं जो साथ नहीं छोड़ते । बाँकि सारी दुनिया साथ छोड़ सकती है, पर सद्गुरु महाराज कभी हमारा साथ नहीं छोड़ते । हम ही उन्हें भुला सकते हैं पर वे नहीं । उनसे मित्रता बनाकर रखो उनका साथ शाश्वत है । वे हमारे आगे के भी सभी जन्मों में साथ रहेंगे ।
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अपनी सारी पीडाएं, सारे दु:ख, सारे कष्ट उन्हें सौंप दो । उन्हें मत भूलो, वे भी हमें नहीं भूलेंगे । निरंतर उनका स्मरण करो । हमारे सुख-दुःख सभी में वे हमारे साथ रहेंगे । अपने ह्रदय का समस्त प्रेम उन्हें बिना किसी शर्त के दो ।
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'गु' शब्द का अर्थ है ..... अन्धकार, और 'रू' का अर्थ है दूर करने वाला ।
जो अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करते हैं वे ही गुरु हैं। शिष्य को गुरु का ध्यान अपने सहस्त्रार में निरंतर करना चाहिये । गुरु ही वास्तव में तीर्थ और देवता हैं क्योंकि वे भेदबुद्धि के विनाशक हैं।
"संतन ह़ी में पाईये, राम मिलन को घाट।
सहजै ही खुल जात है, सुंदर ह्रदय कपाट ।।"
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श्री गुरवे नमः, श्री परम गुरवे नमः, श्री परात्पर गुरवे नम:, श्री परमेष्टि गुरवे नमः, श्री जगत गुरवे नमः, श्री  आत्म गुरवे नमः, श्री विश्व गुरवे नमः ! ॐ गुरु ! जय गुरु !

जय जय श्री राधे ।                         

श्रीमहाराज जी द्वारा एक साधक को उसके प्रश्न का उत्तर--



बेटा-बेटी नाती-पोते के विवाह में लाखो-करोड़ो की धनराशि में आप लोग प्रसन्नतापूर्वक आग लगा देते है(समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिऐ), हास्पीटलो में लाखो खर्च करते है (नाशवान शरीर में आसक्ति के कारण), कोठी-बंगले-मकान-दुकान आदि में करोड़ो स्वाहा कर देते है (दिखावे में आकर या इससे सुख मिलेगा ऐसे अज्ञान के कारण), जीवन भर की पूंजी जोड़कर संतान के लिऐ छोड़कर मर जाते है (उनको अपना मानकर जबकि जीते-जी भी यह पूर्णरूप से असत्य सिद्ध होते हुऐ हजारो बार देख चुके है)।
लेकिन अगर गुरु/संत कह दे कि ज़रा 2-4 लाख की धनराशि तुमको इस सेवा (मंदिर/अस्पताल/प्रवचन आदि में ) में लगानी है या इतना सेवा लाकर हमको दो आदि; तब नापिऐ आप अपनी भगवत्शरणागति/गुरु-शरणागति की सच्चाई जिसकी बड़ी-बड़ी डींगे आप दुनिया के सामने स्वयम् को परम हरिभक्त घोषित करने के लिऐ मारते नही थकते और सोचो कि तब कितने एक से एक बहाने आते है आपकी दो कौड़ी की मायिक खोपड़ी में कि गुरु जी से ये कह दे तो बच जाये या ये कहके बच जाऐ, ये जानते हुऐ कि गुरु जी अंतर्यामी है और जो कह रहे है वो केवल हमारे कल्याण के लिऐ कह रहे है ।
खैर!! हम आपसे बस इतना ही कहना चाहते है कि इन सब पैमानो के हिसाब से स्वयम् की अवस्था तथा उन्नति या अवनति का हिसाब लगाते रहिऐ ताकि आप कम से कम खुद को तो धोखा ना दे (क्योकि भगवान/गुरु को तो चाहकर भी आप धोखा दे नही सकते) कि हम तो परम भगवद्भक्त है या गुरु-शरणागत है या हम में तो अब कोई दोष बचा ही नही या हम तो बस अब पूर्ण ही हो चुके है आदि आदि ।
बड़ी सीधी सी बात है लगाओ हिसाब कि साल भर में कितना तन-मन-धन संसार में लगाया और कितना हरि-गुरु में; आप स्वयम् ही अपनी सच्चाई जान जाओगे, और फिर उसको सुधारने का भरकस प्रयास करो अगर वास्तव में भगवदीय क्षेत्र में कुछ चाहते हो तो ।
जय श्री राधे।

प्रारब्ध क्या होता है?



भगवान् हमारे अनंत पुण्य व अनंत पापों में से थोडा-थोडा लेकर हमारे किसी एक जन्म का प्रारब्ध तैयार करते हैं और मानव जीवन के रूप में हमें एक अवसर देते हैं ताकि हम अपने आनंद प्राप्ति के परम चरम लक्ष्य को पा लें।

प्रारब्ध सबको भोगना पड़ता है।

भगवद् प्राप्ति के बाद जब कोई जीव महापुरुष बन जाता है,
तब भगवान् उसके तमाम पिछले जन्मों के एवं उस जन्म के भी समस्त पाप-पुण्यों तो भस्म कर देते हैं, लेकिन वे उसके उस जीवन के शेष बचे हुए प्रारब्ध में कोई छेड़छाड़ नहीं करते।
इसका अभिप्राय यह है कि भगवान् को पा चुके मुक्त आत्मा संतों/भक्तों को भी अपना उस जन्म का पूरा प्रारब्ध भोगना ही पड़ता है।
उसमें इतना अंतर अवश्य आ जाता है कि अब वह नित्य आनंद में लीन रहने से किसी सुख-दुःख की फ़ीलिंग नहीं करता। लेकिन फिर भी एक्टिंग में उसे सब भोगना पड़ता है।

किसी के प्रारब्ध को मिटाना भगवान् के कानून में नहीं है।

वे लोग बहुत भोले हैं, जो यह समझते हैं कि अमुक देवी जी, अमुक बाबा जी अपनी कृपा से मेरे कष्ट को दूर कर देंगे। या मुझे धन, वैभव, पुत्र आदि दे देंगे।

जो प्रारब्ध में लिखा होगा, वह नित्य भगवान् को गालियाँ देने से भी अवश्य मिलेगा।
जो प्रारब्ध में नहीं लिखा होगा, वह दिन-रात पूजा पाठ करने से भी न मिलेगा।

भगवान् की भक्ति करने से संसारी सामान नहीं मिला करता, जीव के प्रारब्ध जन्य दुःख दूर नहीं होते, बल्कि भक्ति से तो स्वयं भगवान् की ही प्राप्ति हुआ करती है।

यह बात अलग है कि कोई मूर्ख अपनी भक्ति से भगवान् को पा लेने पर भी वरदान के रूप में उनसे उन्हीं को न माँगकर संसार ही माँग बैठे।

यहाँ यह बात भी विचारणीय है कि जिसको भगवान् की प्राप्ति हो चुकी, उसके लिए प्रारब्ध के सुख-दुःख खिलवाड़ मात्र रह जाते हैं।

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प्रार्थना



आपकी जितनी आयु शेष है, यदि उसका एक-एक श्वास आपने भगवान् को सौंप दिया तो सारे पाप-तापो से मुक्त होकर आप इसी जन्म में भगवान को पाकर अनन्त जीवन की साध पूरी कर सकते हैं। आशा है,आप मेरी प्रार्थना पर ध्यान देंगे।🏻

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज