"सदगुरु महिमा कहन को, मन बहुत लुभाया ।
मुख में जिह्वा एक ही, तातैं पछताया ।।"
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किसी भी साधक का सर्वश्रेष्ठ हितैषी उसका सद्गुरु ही होता है । सद्गुरु से बढकर किसी का भी कल्याण चाहने वाला अन्य कोई नहीं होता । सद्गुरु का सम्बन्ध शाश्वत होता है । वे न सिर्फ अपने शिष्य को भगवद् प्राप्ति का उपाय बताते हैं बल्कि उसके साथ साथ साधना भी करते हैं, और उसकी भावी विपदाओं और सांसारिक समस्याओं से रक्षा भी करते हैं । गुरु को समर्पित की हुई साधना में कोई त्रुटी भी रह जाए तो सद्गुरु उसमें शोधन कर देते हैं ।
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किसी भी साधक को अपनी साधना का सिर्फ 25 प्रतिशत ही पूर्ण निष्ठा से करना होता है । 25 प्रतिशत सद्गुरु करता है । बाकि 50 प्रतिशत जगन्माता पद्माकी असीम करुणा से उसे फल मिल जाता है । पर स्वयं के भाग का 25 प्रतिशत तो हर साधक को शत प्रतिशत करना पड़ता है ।
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वास्तविक आध्यात्मिक जीवन को पाने के लिए हर क्षण गुरु प्रदत्त साधना के सहारे जीना आवश्यक है । जीवन की विपरीतम परिस्थितियों में जहाँ कहीं कोई आशा की किरण दिखाई न दे, और चारों ओर अंधकार ही अंधकार हो, वहाँ एकमात्र सद्गुरु ही हैं जो साथ नहीं छोड़ते । बाँकि सारी दुनिया साथ छोड़ सकती है, पर सद्गुरु महाराज कभी हमारा साथ नहीं छोड़ते । हम ही उन्हें भुला सकते हैं पर वे नहीं । उनसे मित्रता बनाकर रखो उनका साथ शाश्वत है । वे हमारे आगे के भी सभी जन्मों में साथ रहेंगे ।
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अपनी सारी पीडाएं, सारे दु:ख, सारे कष्ट उन्हें सौंप दो । उन्हें मत भूलो, वे भी हमें नहीं भूलेंगे । निरंतर उनका स्मरण करो । हमारे सुख-दुःख सभी में वे हमारे साथ रहेंगे । अपने ह्रदय का समस्त प्रेम उन्हें बिना किसी शर्त के दो ।
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'गु' शब्द का अर्थ है ..... अन्धकार, और 'रू' का अर्थ है दूर करने वाला ।
जो अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करते हैं वे ही गुरु हैं। शिष्य को गुरु का ध्यान अपने सहस्त्रार में निरंतर करना चाहिये । गुरु ही वास्तव में तीर्थ और देवता हैं क्योंकि वे भेदबुद्धि के विनाशक हैं।
"संतन ह़ी में पाईये, राम मिलन को घाट।
सहजै ही खुल जात है, सुंदर ह्रदय कपाट ।।"
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श्री गुरवे नमः, श्री परम गुरवे नमः, श्री परात्पर गुरवे नम:, श्री परमेष्टि गुरवे नमः, श्री जगत गुरवे नमः, श्री आत्म गुरवे नमः, श्री विश्व गुरवे नमः ! ॐ गुरु ! जय गुरु !
जय जय श्री राधे ।