भगवान में भक्ति ll


भगवान में भक्ति होना पर धर्म है, इसका फल परमानन्द प्राप्ति है । किन्तु दूसरा जो अपर धर्म है, वह ईश्वर - भक्ति को छोडकर केवल वर्णाश्रम धर्म का पालन करना मात्र ही है । उसका परिणाम स्वर्गादिक लोक - प्राप्ति ही है । एक बात और भी विचारणीय है, वह यह कि अपर धर्म अर्थात वर्णाश्रम - धर्म परिवर्तनशील है, किन्तु पर धर्म सदा एकरस एवं स्वभाविक है । जैसे, ब्राह्मण के लिए दूसरा धर्म, क्षत्रीय के लिए दूसरा धर्म, वैश्य के लिए दूसरा धर्म एवं शुद्र के लिए दूसरा धर्म । पुनश्च:, वर्णधर्मावलम्बी के आश्रम - धर्म को देखिये । ब्रम्हचारी के लिये कहा गया, स्त्री आदि से बचो, किन्तु २५ वर्ष वाद उसे कहा गया, किसी स्त्री से विवाह कर लो एवं सन्तान पैदा करो, तब पितृ - ऋण से उऋण हो सकोगे । पुनः ५० वर्ष की  आयु में गुरु महाराज ने कहा, अब बाल - बच्चे एवं गृहस्थ के काम - धाम सब छोड दो, स्त्री - पति दोनो जंगल चले जाओ । पुनः ७५ वर्ष की आयु में यह आज्ञा दी गयी कि कौन तुम्हारी स्त्री, कौन तुम्हारा पति, यह सब शारीरिक सम्बन्ध है, अतएव तुम दोनों एक दूसरे से पृथक हो जाओ अर्थात जैसे ब्रम्हचर्याश्रम में अकेले थे, वहीं फिर पहुँछ जाओ । यह बार - बार परिवर्तन हो रहा है, किन्तु पर धर्म सदा एक सा रहता है ।
एक बात और भी विचारणीय है कि शास्त्रों ने प्रत्येक वर्ण एवं प्रत्येक आश्रमधारी अपर - धर्मावलम्बियों को यह प्रमुख आदेश दिया है कि साथ - साथ पर धर्म का पालन सदा होता रहे । ब्रम्हचारी को भी ईश्वरोपासना का आदेश, गृहस्थ को भी, वानप्रस्थी को भी और संन्यासी को  तो एकमात्र यह करना ही है । इसी प्रकार प्रत्येक वर्ण को ईश्वर - भक्ति का आदेश दिया गया है । बस, यही तो कर्मयोग है । भावार्थ यह कि अपरधर्म स्वरुप वर्णाश्रम धर्म में परधर्म स्वरुप ईश्वर - भक्ति का संयुक्त कर देने से पर - धर्म का ही परिणाम प्राप्त होता है । केवल अपर या आगंतुक प्राकृत धर्म से ईश्वर - प्राप्ति या माया - निवृत्ति की समस्या नहीं हल हो शक्ति ।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

श्री महाराजजी से प्रश्न : महाराज जी क्या आप दीक्षा देते हैं ?



श्री महाराजजी द्वारा उत्तर:  देते हैं । अधिकारी को देते हैं। दीक्षा माने समझते हो ? दीक्षा माने दिव्य प्रेम । वो दिव्य प्रेम पाने के लिये दिव्य बर्तन चाहिए। यानि दिव्य अन्तःकरण । ये अंतःकरण जो है, ये मायिक है, प्राकृत है, ये दिव्य प्रेम को सहन नहीं कर सकता। किसी भिखारी की एक करोड़ की लाटरी खुल जाती है तो हार्टफेल हो जाता है उसका। तो अनन्त आनन्दयुक्त जो प्रेम है, वह प्राकृत अन्तःकरण में नहीं समा सकता। तो पहले अन्तःकरण शुद्धि करनी होगी।

ये बाबा लोग आजकल जो ठगते हैं लोगों को कान फूँक- फूँक करके, ये सब वेद विरुद्ध है। ये पाप कर रहे हैं, उनको सबको नरक मिलेगा, हजारों- लाखों वर्ष का। और ये जो कान फुँकाते हैं, इन मूर्खों को इतनी समझ नहीं है कि गुरु जी से पूँछे कि आप क्या दे रहे हैं ? मंत्र ! ये मन्त्र का क्या मतलब है ? हरेक मंत्र का यह अर्थ है कि हे भगवान् ! आपको नमस्कार है । वो अगर हिन्दी में कहें , उर्दू में कहें, पंजाबी , बंगाली , मद्रासी में कहें , तो भगवान् खुश नहीं होंगे ? और फिर अगर तुम कहते हो हमारे मंत्र में पॉवर है, तो तुमने जब कान में दिया तो उस पॉवर की फीलिंग क्यों नहीं हुई। मामूली से करेन्ट को छूने से तो सारा शरीर काँप जाता है और तुम स्प्रिचुअल हैप्पीनेस दिव्यानन्द दे रहे हो कान में, और हमको कोई फीलिंग नहीं। हमारी हालत और फटीचर होती जा रही है । और कान फुँकाये बैठे हैं। तो फिर तुमने क्या दिया ? ये सब धोखा है। पहले भक्ति करनी होगी। जब अन्तःकरण शुद्ध हो जायगा, तब गुरु एक पॉवर देगा, तब अन्तःकरण दिव्य बन जायगा , तब भगवत्प्रेम मिलेगा फिर भगवत्प्राप्ति, माया निवृत्ति , सब इकठ्ठा काम खत्म ।
अरे तमाम मंत्र तो लिखे हैं , पुस्तकों में, वो कान में क्या दे रहे हैं ? हजारों मंत्र शास्त्रों में, भागवत वगैरह सबमे लिखे हैं, कोई भी पढ़े अपना जपे, उससे क्या होगा ?

 जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

🌹श्री कृष्ण की आराधना से ही सबकी पूजा 🌹



श्री महाप्रभु जी ने कहा, राय! तुम श्री कृष्ण के प्रधान भक्त हो, जो तुम्हारे में प्रीति करता है। (भक्त में प्रीति करता है) वही भाग्यवान है। तुम्हारे में राजा की इतनी प्रीति है, तो इसी गुण से श्री कृष्ण उसे अवश्य अंगीकार करेंगे।

क्योंकि शास्त्र कहता है कि-
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि, अर्जुन ! जो केवल मेरे ही भक्त हैं,  किंतु मेरे भक्तों के प्रति जिनकी प्रीति नहीं है। वे मेरे श्रेष्ठ भक्त नहीं हैं, परन्तु जो मेरे भक्तों के भक्त हैं, वे ही मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं।

श्रीमद्भागवत में भी कहा है-
श्री भगवान् ने उद्धव जी से कहा है, मेरी पूजा में प्रीति, सर्वांग से मेरा अभिनन्दन (नमस्कार) मेरी पूजा करना, इन सबसे श्रेष्ठ मेरे भक्तों की पूजा करना है, समस्त प्राणियों में मेरा अस्तित्व मानना, मेरे लिए ही सब शरीर की चेष्टाएं करना एवं वाक्य द्वारा मेरे गुण गान करना । ये समस्त मेरी पूजा की अपेक्षा श्रेष्ठ है, कारण कि इनसे ही मेरी भक्ति उदय होती है ।

समस्त देवी देवताओं की आराधना से श्री कृष्ण की आराधना सर्वश्रेष्ठ है। इसका कारण यह है कि समस्त देवी देवताओं का मूल कारण श्री कृष्ण स्वयं भगवान् ही है। जैसे वृक्ष के मूल में पानी सींचने से लता पता अपने आप परिपुष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार श्री कृष्ण आराधना से ही सब देवी देवताओं की पूजा अपने आप हो जाती है।

दूसरा कारण यह भी है, श्री कृष्ण ही प्रेम भक्ति प्रदान कर सकते है किन्तु अन्यान्य देवी देवता प्रेम भक्ति नहीं दे सकते, अधिक से अधिक मुक्ति एवं वैकुण्ठ प्रदान कर सकते हैं। इसलिए भी श्री कृष्ण आराधना सर्वश्रेष्ठ कही गयी है। फिर श्री कृष्ण किसी किसी को अपने भक्त की भक्ति करता हुआ देखकर इतने अत्यधिक संतुष्ट होते हैं, कि उतनी प्रसन्नता उन्हें अपनी पूजा से भी नहीं होती।

इसलिए भक्त की आराधना अधिक श्रेष्ठ कही गयी है। भक्त ही श्री कृष्ण को देने वाले हैं, विशेषतः जब तक भक्त की कृपा प्राप्त न हो भगवत् कृपा भी प्राप्त नहीं होती, अतः भक्ताराधना को श्रेष्ठतम कहा गया है।

जय जय श्री राधे ।

🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺

गुरु क्या है ?

💞गुरू महिमा💞


गुरु क्या है ?
गुरु का महत्व क्या है ?
गुरु निमित्त है या सर्वस्व है ?

गुरु सब कुछ है, अगर हमें मार्गदर्शक चाहिए तो वो मार्ग दर्शक है ।

हम जो भी माने , श्री गुरु उसी रूप में आ जाते है है ।

हमारे लिए गुरु सर्वस्व है,भगवान है, और प्रेमी है ।

बस इसी तरह गुरु की कृपा हमें प्राप्त होती रहती है ,

बस उसकी भक्ति का एक बीज अपने मन में लगा लेने की ज़रूरत है।

गुरू एक तेज हे जिनके आते ही सारे सन्शय के अंधकार खतम हो जाते हे ।

गुरू वो मृदंग हे जिसके बजते ही अनाहद नाद सुनने शुरू हो जाते हे ।

गुरू वो ज्ञान हे जिसके मिलते ही पांचो शरीर एक हो जाते हे।

गुरू वो दीक्षा हे जो सही मायने मे मिलती हे तो भवसागर पार हो जाते हे।

गुरू वो नदी हे जो निरंतर हमारे प्राण से बहती हे।

गुरू वो सत चित आनंद हे जो हमे हमारी पहचान देता हे।

गुरू वो बासुरी हे जिसके बजते ही अंग अंग थीरक ने लगता हे।

गुरू वो अमृत हे जिसे पीके कोई कभी प्यासा नही।

गुरू वो मृदन्ग हे जिसे बजाते ही सोहम नाद की झलक मिलती हे।

गुरू वो कृपा हि हे जो सब शिष्यो को समान रूप मे मिलती हे,
लेकिन सब अपनी अपनी योग्यता अनुसार पा सकते है ।

गुरू वो खजाना हे जो अनमोल हे।

गुरू वो समाधि हे जो चिरकाल तक रहती हे।

गुरू वो प्रसाद हे जिसके भाग्य मे हो उसे कभी कुछ मांगने की ज़रूरत नही पड़ती।

गुरु गुरु गुरु.................


जय जय श्री राधे