एक बार श्री गुरु नानक देव जी घोड़े पर बैठे कहीं से करतारपुर को लौट रहे थे।

एक बार श्री गुरु नानक देव जी घोड़े पर बैठे कहीं से करतारपुर को लौट रहे थे।

भाई लहणा जी, पुत्र बाबा श्री चन्द जी, बाबा लखमीचन्द जी और साधसंगत संग चल रही थी।

रास्ते में कीचड़ से भरा एक गन्दा नाला आया।

श्री गुरु नानक जी के पास एक कटोरा था।
उन्होंने वो कटोरा पुल पार करते समय उस गन्दे नाले में फेंक दिया,
और सबको ऐसा प्रतीत हुआ जैसे ये कटोरा गुरु जी के हाथ से छिटक कर गन्दे नाले में जा गिरा है।

श्री गुरु नानक देव जी ने हुक्म किया- कोई भाई जाकर के ये कटोरा इस नाले से निकाल लाओ।

कोई आगे नही बढ़ा।
श्री गुरु नानक देव जी ने अपने पुत्र बाबा श्री चन्द जी को कटोरा निकालने को कहा।

बाबा श्री चन्द जी ने उत्तर दिया- पिता जी! आप जैसे दिव्यात्मा को कटोरे से इतना मोह नहीं करना चाहिए।
आप चाहें तो आपको नया कटोरा ले देते हैं।

बाबा लखमी चन्द जी के भी यही विचार थे।

एक साधारण से कटोरे की खातिर एक गंद से भरे नाले में कूदना सबको बेवकूफी लग रही थी।

लेकिन वो कटोरा मुझे अतिप्रिय है।
इतना कह कर श्री गुरु नानक देव जी ने भाई लहणा जी की तरफ देखा।

मेरे गुरु को अतिप्रिय।
बस इतना सुना और अगले ही पल भाई लहणा जी उस कीचड़ से भरे गंदे नाले में कूद चुके थे,
और श्री गुरु नानक देव जी का प्रिय कटोरा ढूंढ़ रहे थे।

कुछ देर के बाद भाई लहणा जी को वो कटोरा मिल गया।
कटोरे को अच्छी तरह मांज-धो कर और साफ करके गुरु जी के चरणों में पेश किया।

श्री गुरु नानक देव जी ने पूछा- भाई लहणे! जब कोई इस कीचड़ में उतरने को तैयार नहीं था,
तो तूँ क्यों कूदा?

भाई लहणा जी ने हाथ जोड़ कर कहा- दाता! मैं सिर्फ इतना जानता हूँ,
मेरा गुरु नानक जिससे प्रेम करता है,
उसको कभी पापों से भरे कीचड़ में फंसा नहीं रहने देता।
वो अपनी कुदरत को हुक्म देकर,
उस प्रिय को उस नरक से निकालकर,
उसे अपने लायक बनाकर,
उसे अंगीकार करता है।
दाता! मैंने कुछ नही किया।
जो कुछ करवाया है वो तो आपने ही करवाया है।

ऐसे विचार सुन श्री गुरु नानक देव जी ने भाई लहणा जी को अपने हृदय से लगा लिया,
और बोले- भाई लहणा! कोई मन में आस है तो बोल।

भाई लहणा जी ने कहा- हे दातार! इस कटोरे की तरह मुझे भी आपका इतना प्यार मिले,
कि विकारों से भरा मैं पापी,
आपके अंगीकार हो सकूँ।

श्री गुरु नानक देव जी बोले- भाई लहणा! आप मुझे अतिप्रिय हो।
आप अपने आपको पाप और विकार से भरा कहते हो,
आप तो सेवा और सिमरन की ऐसी गंगा हो,
जिसमें पाप और विकार कभी ठहर ही नहीं सकते।

ऐसे दीन दयाल सत्गुरु, सेवा और सिमरन के सोमे श्री गुरु नानक देव जी के दूसरे अवतार धन्न गुरु अंगद देव जी महाराज जी (भाई लहणा जी) हुए।

------ ये है अपने गुरु/सत्गुरु के प्रति प्यार ------
अगर हमको हमारे गुरु पर पूरा भरोसा है,
तो फिर गुरु हमें कभी भी अकेला नहीं छोड़ते हैं।
हमें सिर्फ और सिर्फ उनके बताए हुए मार्ग पर और उनके कहे हुए शब्दों पर चलना चाहिए।

दयामय ! दया चहौं नहिं न्याय |

दयामय ! दया चहौं नहिं न्याय |

नहिं पैहौ प्रभु ! पार न्याय करि, एतिक मम अन्याय |बिनु जाने अपराध करत जो, सोऊ दंडहिं पाय |पुनि जो जानि जानि कर पापन, नाथ ! कौन गति वाय |न्याय होत जगहूँ, पै तुम तो, करुणाकर कहलाय |कहत ‘कृपालु’ न चतुराइहिं कछु, देखहु उर पुर आय  ||


भावार्थ  -  हे दयासिन्धु श्यामसुन्दर ! मैं दया चाहता हूँ, न्याय नहीं चाहता | हे प्रभो ! यदि न्याय करोगे तो मेरे अगणित पापों की गणना भी न कर सकोगे | जब अनजाने में ही अपराध करने पर आपके यहाँ दण्ड अवश्य भोगना पड़ता है तब फिर जो जान - जान कर पाप करता है, हे नाथ ! उसकी क्या गति होगी | न्याय तो संसार में यथा शक्ति होता ही है, किन्तु तुम तो अकारण - करुण हो इसका ख्याल करो | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैं कुछ चतुराई से नहीं कह रहा हूँ, मेरे हृदय में झाँक कर देख लो  | 


( प्रेम रस मदिरा   दैन्य  -  माधुरी )
  जगद्गुरूत्तम  श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति

💞गुरू महिमा💞



इस संसार - सागर में डूबते हुये निराश्रित जीवों का आश्रय एकमात्र गुरु चरण ही हैं । गुरु ही अकुलाते हुये , बिलबिलाते हुये , अचेतन जीवों को भव - सागर से बाँह पकड़कर उबारते हैं । त्रैलोक्य पावन गुरुदेव की करुणा का ही सहारा लेकर जीव इस दुर्गम पयोनिधि से पार जा सकता है , अन्य कोई मार्ग नहीं । किसी मनुष्य की सामर्थ्य ही क्या है जो एक भी जीव को अज्ञानांधकार से मुक्ति दिला सके , गुरु ही अज्ञान के अंधकार को दूर करके ज्ञान का प्रकाश देता है।


 जय जय श्री राधे।

अब देखो यहाँ चार-पाँच सौ आदमी आये हैं ।


अब देखो यहाँ चार-पाँच सौ आदमी आये हैं । अब अगर एक आदमी सोचे- हमसे तो बात ही नहीं किया । भई कोई संसारी व्यवहार हो कि चलो एक-एक आदमी को नम्बर-वार बुलाओ और एक-एक आदमी से बात करो, ऐसा तो नहीं । और जिससे बात करेंगे उससे अधिक प्यार है, ये सोचना गलत है । मेरी गोद में कोई बैठा रहे 24 घण्टे इससे कुछ नहीं होगा । उसका मन जितनी देर मेरे पास रहेगा बस उसको हम नोट करते हैं । खुले आम सही बात करते हैं ।  बदनाम हैं सारे विश्व में हम स्पष्ट व्यक्तित्व में साफ-साफ । आप ये ना सोचें कि हम बहिरंग अधिक सम्पर्क पा करके और बड़े भाग्यशाली हो गए । और एक को बहिरंग सम्पर्क न मिला, उससे बात तक नहीं किया मैंने तो उसका कोई मूल्य नहीं है हमारे हृदय में । ये सब कुछ नहीं । कुछ लोगों की आदत होती है बहुत बोलने की । वो जैसे ही लैक्चर से उतरेंगे सीधे हमारे पास आएंगे और बकर-बकर बोलते जाएंगे । कुछ लोग अपना हृदय में ही भाव रखते हैं, दूर से ही अपना आगे बढ़ते जाते हैं । मैं तो केवल हृदय को देखता हूँ । मुझे इन बहिरंग बातों से कोई मतलब नहीं है । और कभी बहिरंग बातों के धोखे में आना भी मत । इतना कानून याद रखना- “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम” ।  जितनी मात्रा में हमारा सरेण्डर होगा, हमारी शरणागति होगी उतनी मात्रा में ही उधर से फल मिलेगा ।


जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज