*सुश्री ब्रज मंजरी जी (1965)*



जिस प्रकार कमल चाहे सरोवर के निर्मल जल में जन्म ले या पंक में, वह अपने सौन्दर्य, सुकुमारता व सुगंधि आदि गुणों से शोभनीय होता है। अंशुमालि की किरणों का स्पर्श पाते ही वह मुकुलित हो जाता है। उसी प्रकार एक संस्कारी जीव चाहे जिस काल, जाति या परिस्थिति में जन्म ले, महापुरुष का सान्निध्य मिलते ही उसके सुसंस्कारों के दल एक-एक कर के खुलने लगते हैं। और वह भाग्यशाली जीव एक दिन अपने गुणों से उजागर हो जाता है।

सुश्री शकुन्तला सरदाना ने मुल्तान में जन्म लिया था। पाकिस्तान बनने के बाद वह अपने परिवार के साथ वापस आईं थीं। इस जन्म में परिवार द्वारा उन्हें श्रीकृष्ण भक्ति के कोई संस्कार नहीं प्राप्त हुए थे। किन्तु फिर भी विरक्ति के स्वाभाविक संस्कार इतने तीव्र थे कि एक बार ये घर से भाग कर वृन्दावन भी चली गईं थी। पश्चात् जैसे - तैसे बी.ए. तक की शिक्षा ग्रहण की। आगे पढ़ने की इच्छा नहीं थी। इनके परिवार में सब उच्च शिक्षा से सम्पन्न थे। अतः इनके पिता श्री की महती इच्छा थी कि यह भी कम से कम एम.ए. की परीक्षा तो उत्तीर्ण कर ले। इन्होंने बेमनी से एम.ए. करने का निश्चय किया।

सन् 1958 में ये एम.ए. की एक छात्रा थीं। पहले अर्थशास्त्र में एम.ए. करने का विचार किया किन्तु उसमें मन नहीं लगा तो संस्कृत विषय को चुन लिया। प्रतिदिन शाम को वह शिक्षण (ट्यूशन) प्राप्त करने के लिये पंडित गजानन के पास जाती थीं। एक दिन जाते समय मार्ग में दया जी (ब्रज सहचरी जी) मिल गईं।

दया माथुर उस समय मुरारी लाल गर्ल्स इन्टर कालेज की प्रधानाध्यापिका थीं। शकुन्तला जी पहले दया माथुर के ही कालेज की छात्रा थीं। अतः उनका अभिवादन करके शकुन्तला जी ने पूछा कि वह कहाँ जा रही हैं। दया जी ने कहा

हमारे गुरु जी आज आने वाले हैं। मैं उन्हीं के स्वागतार्थ जा रही हूँ। यह सुनते ही उनके प्रसुप्त संस्कार मानो अकस्मात् जागृत हो गये। मानो उन्हें भगवत्कृपा से अपने गुरु के दर्शन का आन्तरिक आमंत्रण प्राप्त हो गया। अज्ञात रूप से उनका मन अपने युग-युग से संबद्ध गुरु के दर्शन के लिये मानो तीव्र पुकार कर बैठा किन्तु उन्हें कुछ नहीं पता चला कि ये सब क्यों हुआ अथवा इनके ये गुरु कौन हैं जिनके विषय में एक वाक्य सुनकर इतना आकर्षण हो रहा है। अतः अनजाने में ही शकुन्तला जी ने उनके साथ चलने की इच्छा व्यक्त की। किन्तु दयाजी ने यह कह कर कि आज तो मैं शीघ्रता में हूँ, फिर कभी दर्शन करा दूँगी, उस समय उनको श्री महाराज जी के पास ले जाने की बात टाल दी। शकुन्तला जी किंचित् निराश हो गईं। ऐसा लगा हाथ से अकस्मात् पाई हुई निधि छिन गई हो । अस्तु, वह विह्वलतापूर्वक उनके दर्शन के सौभाग्य की प्रतीक्षा करने लगीं। उनसे मिलने का माध्यम केवल श्रीमती दया माथुर (कालान्तर में प्रचारिका ब्रज सहचरी जी) थीं। किन्तु दया जी इनको अल्प वयस्का युवती सोचकर सत्संग में ले जाने से घबरा रही थीं कि कहीं इनके अभिभावकों को इसमें कोई आपत्ति न हो।

आगरा नगर का सौभाग्य

Jagadguru Shri Kripalu ji maharaj


*सुश्री ब्रज देवी प्रथम प्रचारिका बनीं। (1963)*

सन् 1963 में श्री महाराज जी मथुरा आये। वहाँ वह सुधा सेठ व उषा सेठ के घर पर रुके हुए थे। सदा की भाँति यहाँ भी प्रातः 8 से 10 बजे, दोपहर 3 से 5 व रात्रि 8 से 11 बजे तक नियमित रूप से भावपूर्ण सत्संग होता था। मथुरा निवासिनी सुश्री उषा सेठ एक उच्च कोटि की भक्त व श्री महाराज जी की विशेष कृपा पात्र थीं। वह मथुरा के ही एक कॉलेज में अँग्रेजी की प्रवक्ता थीं। उनके सद्व्यवहार व प्रतिभा से प्रभावित होकर श्री महाराज जी ने बहुत पहले ही यह निश्चय कर लिया था कि वह उषा जी को प्रचारिका बनायेंगे। तदनुसार उनका प्रशिक्षण भी प्रारंभ कर दिया था। अतः इस बार आगरा आकर श्री महाराज जी ने उषा सेठ को वस्त्र प्रदान करके व ब्रज देवी आध्यात्मिक नाम प्रदान कर के प्रामाणिक तौर पर प्रचारिका बना दिया। ये श्री महाराज जी की प्रथम प्रचारिका थीं।

तदुपरान्त जब गुरु आरती का समय आया, उन्हें ही आरती करने को कहा गया। श्री महाराज जी तख्त पर बनाये गये अपने आसन पर विराजमान थे। समस्त भक्त जन आरती का गायन कर रहे थे व ब्रज देवी जी भाव विभोर होकर गुरु-आरती कर रही थीं। कुछ क्षणों के उपरान्त उनके शरीर में कम्प सात्विक भाव का उद्रेक हुआ। आँखें मुँद गईं व शरीर चेतनाशून्य सा होने लगा। तभी आगे बढ़कर किसी भक्त ने उनके हाथ से आरती का थाल ले लिया और वह मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। उनकी अवस्था इतनी उच्चकोटि की थी कि यदि श्री महाराज जी उनका स्पर्श भी कर देते थे तो उनमे सात्विक भावों का उद्रेक होने लगता था। इनके प्रवचन ओजस्वी व बहुत प्रभावशाली होते थे। इनका स्वभाव अत्यन्त मधुर था।

जगद्गुरु सिंहासन का दान


उनके लिये यह अनिवार्य नियम था कि वह जगद्गुरु पद की मर्यादा हेतु सिंहासन

बैठकर ही प्रवचन देंगे। अतः वे जहाँ जाते, चार व्यक्ति श्री महाराज जी का सिंहासन ले कर ट्रक द्वारा पहले पहुँचते थे। महाराज जी स्वछन्द प्रकृति के, ब्रजरस में उन्मत्त रहने वाले एक रसिक सन्त थे । अतः उन्हें यह सब बंधन कहाँ सुहाते ? ये तो भक्तों की भावना के आधीन थे। अतः श्री महाराज जी ने इस मर्यादा का सम्मान रखते हुए उस सिंहासन को 5 वर्ष 10 माह तो रखा। पश्चात् 20 नवम्बर सन् 1962 को चीन आक्रमण के समय भारतीय राजकोष में दान कर के उससे भी मुक्ति पा ली ।

इलाहाबाद में शोभा यात्रा

कुछ दिनों के पश्चात् उसी प्रकार की शोभा यात्रा का आयोजन इलाहाबाद में हुआ। वहाँ भी इस महोत्सव का खूब प्रचार हुआ। इलाहाबाद स्टेशन पर रात्रि 8.30 पर ट्रेन पहुँची। हजारों लोग फूल माला ले स्वागत की तैयारी में पहले से ही खड़े थे। महाराज जी प्रियदर्शी जी, प्रियाशरण जी, लल्ला बाबू, केशव, रामसमुझ ओझा आदि लोगों के घेरे के साथ बाहर आये। सभी प्रमुख नागरिकों ने उन्हें माल्यार्पण किया और चरण वंदन किया। चारों दिशायें जय-जयकार से आप्लावित हो गईं।

उस भीड़ से थोड़ा अलग, ढीले ढाले कपड़े पहने हुए, सिर पर टोपी व आँख पर काला चश्मा पहने हुए एक व्यक्ति बड़ी भावना से दूर से ही केवल दर्शनों का सुख ले रहा था। वह पूरे समय एक रिक्शे पर बैठकर यात्रा के साथ-साथ, दूर से श्री महाराज जी के दर्शन करता हुआ, एक रहस्य का विषय बना हुआ था।

सबसे आगे बैंड बाजा व श्री महाराज जी के आगे-पीछे अनेकानेक कीर्तन मंडलियाँ अपने वाद्यों के साथ चल रही थीं। शोभा यात्रा स्टेशन से नेत्र चिकित्सालय रोड, खुल्दाबाद चौराहा, चौक व बहादुर गंज होती हुई 251 मुट्ठी गंज पहुँची। वहाँ मैदान को चमकीली झंडियों, फूलों व बहुरंगी लाइट से सजाया गया था। मैदान के एक सिरे के मध्य में सुन्दर सा चार फुट ऊँचा मंच बनाया गया था। श्री महाराज जी उसी पर विराजित हुए और एक बार पुनः जयघोष से सारा वातावरण गुंजरित हो गया। तत्पश्चात् प्रसन्नता से नाचते-कूदते व कीर्तन करते-करते रात्रि का एक बज गया। अब श्री महाराजजी व अन्य सत्संगियों ने रामपती जी के घर पर जाकर विश्राम किया।

अगले दिन शोभा यात्रा अभूतपूर्व आनंद की खूब चर्चायें व हास परिहास हुआ। उसी मध्य प्रियदर्शी जी ने उस विचित्र व्यक्ति की भी चर्चा की, जो निरन्तर महाराज जी की सवारी के साथ-साथ रिक्शा पर चल रहा था। तब पता चला कि वह कोई और नहीं अपनी रामपती जी थीं। लगभग 42 वर्षीय रामपती जी उस समय की भूगोल की प्रवक्ता थीं जब स्त्रियाँ अधिक से अधिक हाईस्कूल पास करती थीं। वही भूगोल में एम.ए. थीं एवम् स्वभावतः उनमें ऐसा वैराग्य था कि उन्होंने विवाह नहीं किया और सदा श्वेत वस्त्र ही धारण करती थीं। श्री महाराज जी का केवल एक प्रवचन सुन कर ही वह भक्ति में पूर्णतया डूब गई और कुछ ही दिनों के पश्चात् उनके अंगों में सात्विक भावों के उद्रेक दृष्टिगत होने लगे थे। जो इने गिने भक्तों में ही प्रतिलक्षित होते थे। उनकी गणना योगभ्रष्ट संस्कारी साधकों में हो सकती है।

दूसरी ओर वह स्वभाव से ही कितनी मसखरी थीं, इसका अनुमान उनके इस परिहास से ही पता चल जाता है। उनसे ऐसा वेष बदल कर जाने का कारण जब पूछा गया तो उन्होंने कहा, क्या करें? महाराज जी का आदेश था कि कोई स्त्री शोभा यात्रा में न आये। अब ये घटना कभी दुबारा तो होनी नहीं थी। अतः महाराज जी अच्छे लग रहे थे, उन्हें देखना तो था ही।

💫मई 19, 2025: सुबह की भावपूर्ण साधना के मुख्य आकर्षण🎼


🌷✨जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की जय!✨🌷

जगद्गुरु आदेश:

साधक के लिए दो मुख्य बातें -

1. खाली समय में, कहीं भी, कभी भी राधे नाम का श्वास-श्वास से जाप कीजिये। श्वास खींचते समय सोचो 'रा' और छोड़ते समय 'धे'। नहीं तो मन अभ्यास वश गंदे संसार का ही चिंतन करेगा, और अगर कोई दूसरा बगल में बैठा हो तो उससे निरर्थक बातें करने लगोगे।



2. कम से कम बोलो, जितने में काम चल जाये। क्योंकि अधिक बोलने में कोई न कोई वाक्य गड़बड़ निकल  जाएगा। इससे नुकसान हो जाएगा। सोचने में सिर्फ आपका नुकसान है, बोलने में डबल नुकसान है क्योंकि बोलने से दूसरे का भी नुकसान होगा। और हो सकता है कि दूसरा इन्सान आप से विरोध पर तुल जाए। प्राय: कहने वाला किसी बात को अधिक बढ़ाकर बोल देता है। अपने को सही सिद्ध करने के लिए कोई भी किसी बात का सही निरूपण नहीं करता। ऐसे बोलना झूठ भी है और हानिकारक भी है। दुनिया में जितनी लड़ाइयाँ होती हैं, उसमें 99.9% कारण है बोलना। जितना अधिक जो बोलेगा उतनी अधिक उसको टेंशन होगी, उसके लड़ाई झगड़े बढ़ेंगे, और उससे द्वेष करने वाले खड़े हो जाएँगे। ये मत सोचना कि हमारे बोलने से वो हार जाएगा। कोई नहीं हारता। अगर घर में कोई आपसे गुस्से में बोले तो चुप रहो, क्योंकि अगर तुम बहस करने लगोगे तो बात और आगे बढ़ जाएगी। कम बोलने से आपका टाइम बचेगा, आत्मा को शांति मिलेगी, क्रोध आदि तमाम बीमारियाँ जो बोलने से होती हैं वो नहीं होंगी, बहुत फायदा होगा। तो कम बोलने का अभ्यास करो।


किसी चीज़ को बार-बार करो तो वो अपने आप होने लगती है, इसको आदत या हैबिट कहते हैं। इन दो बातों को अमल में लाने की गाँठ बाँध लो। इसे करने में पहले पहल मेहनत पड़ेगी, लेकिन फिर अपने आप होने लग  जाएगा। महीने भर अभ्यास कर लो, आपका बहुत बड़ा कल्याण हो जाएगा।

कीर्तन:

- राधा गोविन्द गीत (भाग 2, अध्याय - श्री राधा नाम महिमा)

- हमारे मन भाईं भानुलली (प्रेम रस मदिरा, सिद्धान्त माधुरी, पद सं. 133)

- श्री राधे श्री राधे प्रेम अगाधे श्री राधे


'रा' सुनि सोचे पिय गोविंद राधे।

अब 'धे' कहेगा रोम रोम हर्षा दे॥

कृष्ण कहें जो कोउ गोविंद राधे।

‘रा' कहे वाय देउँ भक्ति बता दे॥

पुनि जब 'धा' कहे गोविंद राधे।

पाछे पाछे चलूँ राधा नाम सुना दे॥

जिह्वा पै राधे नाम गोविंद राधे।

कानों में राधे गुनगान सुना दे॥

सांस खींचो 'रा' कहु गोविंद राधे।

सांस छोड़ो 'धे' का अभ्यास करा दे॥

खाते पीते चलते फिरते गोविंद राधे।

राधे नाम जनि भूलो पल छिन आधे॥

चलो मन बरसानो गोविंद राधे।

तहँ राधेरानी नाम गुनगन गा दे॥

माया ते न डरो मन गोविंद राधे।

राधे राधे बोल बोल माया को डरा दे॥

राधा पद अरविंद गोविंद राधे।

मकरंद हित मन मधुप बना दे॥

राधा तेरे उर में हैं गोविन्द राधे।

बनि जा पतंग डोरी राधे को थमा दे॥

----------

http://jkp.org.in/live-radio

----------