💫July 25, 2025: Highlights of a soulful morning sadhana🎼

 🌷✨Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj ki Jai!✨🌷






Jagadguru Aadesh:

Practice realizing God's presence in everyone -
You have listened to many spiritual discourses and now understand their essence. However, merely knowing is not enough - implementation is essential. To integrate this knowledge into daily life, consistent practice is required. The purpose of spiritual camps (sādhanā shivir) is to help you further build upon what you learn here. If you do not make progress, a time will come when even this rare human birth will be lost.

Therefore, I humbly request that you take this as a simple instruction from me to practice daily:

1) Realize God's Presence Within All Beings

The Vedas, scriptures, and saints unanimously declare that God resides in the hearts of all beings. Practice remembering this truth constantly. Just as you instinctively feel the presence of "I" within yourself, practice feeling that He who is truly yours is seated within you at all times. Make it a habit: Every half hour, pause for just a moment and feel the presence of God within you. This simple practice will protect you from committing sins and will gradually awaken an unshakable awareness that God is always with you. This realization comes only through continuous practice. Abhyāsena tu Kaunteya - everything is possible through practice.

2) Regularly Assess Your Spiritual Progress

Periodically assess yourself. Ask yourself: How much has my tolerance increased? How much has my pride decreased? Am I able to remain equanimous in the face of insults and criticism? These are the true parameters for measuring spiritual progress. If you still feel hurt by others’ words, feel anger, or cause pain to others through your speech or actions, recognize these as signs of deficiency in your sādhanā. Every month, take ten minutes to evaluate your progress. If you find that you have not improved, feel genuine remorse, and resolve firmly to do better in the coming month. Promise yourself: "I will not feel hurt when someone insults me. I will not get angry with anyone. Instead, I will be angry at my own anger. I will not hurt anyone."

Recognize all the graces that God has already bestowed upon you, and strive sincerely to put these into practice.
Kirtan:
- Jai Jai Piya Pyari, Sukumari (Braj Ras Madhuri, part 1, page no. 66, sankirtan no. 46)
- Kishori mori ab na lagao baar (Prem Ras Madira, Dainya Madhuri, pad no. 33)
- Hare Ram sankirtan
- Japen Nandanandan Radhey Radhey Radhey Radhey (Yugal Madhuri, page no. 102, kirtan no. 28)


💫जुलाई 25, 2025: सुबह की भावपूर्ण साधना के मुख्य आकर्षण🎼


🌷✨जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की जय!✨🌷

जगद्गुरु आदेश:

भगवान् सबके हृदय में रहते हैं - इसका अभ्यास करो

उपदेश तो हम बहुत सुने और जानते भी हैं, लेकिन प्रैक्टिकल में अमल लाने के लिए अभ्यास करना आवश्यक है। सम्मलेन (साधना शिविर) इसलिये होता है कि जो कुछ हमें इसमें मिला, उसको आगे बढ़ाना है। अगर हम हमेशा वहीं के वहीं रह गए, तो ऐसे तो ये मानव देह समाप्त हो जायेगा।



ये हमारा निवेदन है कि आप लोग एक छोटा सा आदेश मानकर रोज़ अभ्यास करें -


1) जैसे वेदों शास्त्रों, संतों ने कहा है, भगवान् सबके हृदय में रहते हैं, यह 'सदा' जानते रहने का हमें अभ्यास करना चाहिये। जैसे 'मैं' को सदा रियलाइज़ करते हो, उसी तरह 'मेरा' वो अंदर बैठा है, उसकी फीलिंग भी एक साथ होनी चाहिये। हर आधे घंटे में एक सेकंड को फील करो कि भगवान् हमारे अंदर बैठे हैं। इससे पाप करने से बचोगे। और इसी प्रकार अभ्यास करते-करते नेचुरल होने लग जायेगा - फिर जैसे 'मैं' को रियलाइज़ करते हैं, वैसे भगवान् को भी रियलाइज़ करोगे। ये अभ्यास से ही होगा। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते - अभ्यास से सब कुछ हो जाता है।


2) साथ साथ स्वयं का आत्मनिरीक्षण करो। सहनशीलता कितनी बढ़ी, अहंकार कितना कम हुआ आदि पैमाना हैं। छोटी-छोटी बातों पर फील करना, क्रोध करना, दूसरों को दुखी करना, ये सब हमारे प्रैक्टिकल साधना में कमी के लक्षण हैं। हर एक महीने में दस मिनट निकालकर अध्ययन करना चाहिए कि क्या हम आगे बढ़ रहे हैं। अगर नहीं बढ़े तो फील करके संकल्प करना कि अब की बार ऐसे नहीं होने देंगे। यह निश्चय कर लो कि "(किसी के बात पर) फीलिंग नहीं होने देंगे। क्रोध पर क्रोध करेंगे। किसी को दुखी नहीं करेंगे।"


सब तरह की भगवत्कृपा को रियलाइज़ करके अभ्यास करो।

कीर्तन:

- जय जय पिय प्यारी, सुकुमारी (ब्रज रस माधुरी, भाग 1, पृष्ठ सं. 66, संकीर्तन सं. 46)

- किशोरी मोरी, अब न लगाओ बार (प्रेम रस मदिरा, दैन्य माधुरी, पद सं. 33)

- हरे राम संकीर्तन

- जपेँ नँदनंदन राधे राधे राधे राधे (युगल माधुरी, पृष्ठ सं. 102, कीर्तन सं. 28)

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जुलाई 5, 2025: दूसरे सत्र की भावपूर्ण साधना के मुख्य आकर्ष


🌷✨जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की जय!✨🌷

कीर्तन:

- जय जय राधारमना, राधारमना (ब्रज रस माधुरी, भाग 1, पृष्ठ सं.15, संकीर्तन सं. 11)

- अहो पिय! जब तुम्हरी बनि जैहौं (प्रेम रस मदिरा, दैन्य माधुरी, पद सं. 4)

- जो पिय रुचि महं रुचि राखे (ब्रज रस माधुरी 1, पृष्ठ सं. 17, संकीर्तन सं. 14)

- जय जगन्नाथ जय जगन्नाथ (भक्तिरस सिंधु , पृष्ठ सं. 52, संकीर्तन सं. 69)

- हरि हरि बोल बोल हरि बोल

मुकुंद माधव गोविन्द बोल, केशव माधव हरि हरि बोल

हरि हरि बोल के ले ले हरि मोल

गौर हरि बोल कृपालु हरि बोल

हरि बोल हरि बोल हरि बोल हरि बोल

- राधे राधे राधे राधे श्यामा श्यामा श्यामा श्यामा




- अहो हरि! तुम मम साहूकार (प्रेम रस मदिरा, दैन्य माधुरी, पद सं. 11)

- मेरे ठाकुर गोविन्द ठकुरानी राधे (ब्रज रस माधुरी, भाग 3, पृष्ठ सं. 129, संकीर्तन सं. 71)

- राधे गोविन्द राधे, राधे गोविन्द राधे (धुन - तेरा नाम सुनके दाता)

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- अरे मन! यह जग एक सराय (प्रेम रस मदिरा, सिद्धांत माधुरी, पद सं. 80)

- राधा गोविन्द गीत (भाग 1, अध्याय - मानव देह)


जग छोड़ना ही होगा गोविंद राधे।

पहले ही छोड़ि मन हरि में लगा दे॥

हरि मन लाये नहिं गोविंद राधे।

केहि बल पर इतराय बता दे॥

सब तज हरि भज गोविंद राधे। 

तेरी सब बिगरी आपु बना दे॥

प्रवचन बिंदु:

बस तीन बातों का ध्यान रखना है। तीन ज्ञान सदा सर्वत्र बुद्धि में भरना है।

1) हमारे आराध्य, यानी इष्टदेव दो हैं - गुरुदेवतात्मा - एक राधाकृष्ण और एक गुरु। दोनों बराबर हैं - यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। - वेद कहता है कि भगवान् को प्राप्त करने के लिए भक्ति करनी है। लेकिन जैसी भक्ति भगवान् के प्रति हो, वैसी ही भक्ति गुरु के प्रति हो।


2) उनको पाने का उपाय - निष्काम भक्ति। भक्ति मार्ग से ही इनको प्राप्त किया जा सकता है। और कोई मार्ग नहीं - न कर्म, न योग न ज्ञान। कर्म से स्वर्ग मिलेगा, योग से स्वरूप में स्थिति होगी, ज्ञान से आत्मा का आनंद मिलेगा, ब्रह्मज्ञान भी नहीं हो सकता। केवल भक्ति से ही साध्य मिलेगा।

साध्य क्या है ? प्रेम।

प्रेम माने - ह्लादिनी शक्तेर परम सार तार प्रेम नाम - भगवान् की जो परामान्तरंग शक्ति है, ह्लादिनी शक्ति, उसके भी सारभूत तत्त्व का नाम प्रेम है। वो दिव्य वस्तु है। वो साधना से नहीं मिलती। लेकिन साधना से अन्तःकरण की शुद्धि होती है। तो शुद्ध अंतःकरण में स्वरूप शक्ति का आविर्भाव होता है। भगवान् अपनी पर्सनल पॉवर स्वरूप शक्ति को उसके अंतःकरण में प्रकट कर देते हैं। तो वो स्वरूप शक्ति विद्या-माया को समाप्त करके इन्द्रिय-मन-बुद्धि को दिव्य बना देती है। तब पात्र दिव्य प्रेम को ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाता है। दिव्य प्रेम दिव्य आधार में ही रुकेगा। हमारी इन्द्रिय-मन-बुद्धि सब उपकरण मायिक हैं। इनमें दिव्य प्रेम ठहर नहीं सकता। इसलिए इनको शुद्ध करके दिव्य बनाना है। ये साधना-भक्ति से होगा।

इसके आगे साधना से काम नहीं बनेगा। किसी भी साधना से दिव्य वस्तु नहीं मिला करती। साधना से पात्र बनता है।


3) इसके आगे गुरु कृपा आएगी। गुरु कृपा से दिव्य प्रेम मिलेगा, जो कि हमारा साध्य वस्तु है। उस दिव्य प्रेम से फिर इष्टदेव की सेवा होगी।


बस ये तीन तत्त्वज्ञान को सदा बुद्धि में रखकर उपासना करनी है।

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भगवान् सब के हृदय में रहते हैं यह बात बुद्धि में सदा बिठाये रहो। वैसे तो लोग बोलते हैं, 'घट घट व्यापक राम' - सबके भीतर भगवान् रहते हैं। लेकिन ये बात मानने वाले अरबों में कोई एक होता होगा। क्योंकि मानने का मतलब हम हर समय, हर जगह ये मानें।


कोई भी संसार में चाहे कहीं भी जाए, उसको ये नहीं भूलता कि मैं पुरुष हूँ, मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, पंजाबी, बंगाली, मद्रासी आदि हूँ। हमें हमेशा याद रहता है कि 'मैं हूँ', जो मैं रात को सपना देख रहा ता वही 'मैं हूँ' आदि। हम 'मैं' को हमेशा महसूस करते हैं। ऐसे ही जब हम निरंतर यह रियलाइज़ करें कि मेरे पास भगवान् बैठे हैं, हृदय में ठीक उसी जगह जहाँ हम हैं। आत्मा हृदय में रहकर पूरे शरीर को चेतना देती है।

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति॥ (वेद)

यानी हमारे हृदय में दो परसनैलिटी हैं - एक मैं और एक मेरा पालक, यानी पिता भगवान्। दोनों एक जगह रहते हैं, ज़रा भी दूरी नहीं। लेकिन एक कर्म करता है और कर्म का फल भोगता है। दूसरा कुछ करता नहीं, केवल हमारे कर्मों को नोट करता है और उन कर्मों का फल देता है। कर्म करने में हम स्वतंत्र हैं, लेकिन फल भोगने में परतंत्र हैं। अच्छे-बुरे कर्मों का हमें फल भोगना पड़ेगा - उसमे कोई रियायत नहीं है, चाहे कोई भगवान् के ही पिता बनकर आए (जैसे दशरथ आए)। तो ये सोचकर मूर्खता नहीं करना कि भगवान् ही कर्म 'कराते' हैं। अगर कराते हैं तो वो भगवत्प्राप्ति के बाद करेंगे। भगवत्प्राप्ति के बाद ही हमारी छुट्टी होती है। भगवान् हमारे साथ सदा से रहे, माँ के पेट में आने से लेकर संसार से जब शरीर छोड़कर जाते हैं, तब भी हमारे साथ जाते हैं। और उसके बाद भी साथ रहते हैं चाहे हम कुत्ते के शरीर में जाएँ या कीड़े के शरीर में। वे ऐसे बाप नहीं हैं कि कभी साथ छोड़ दें। क्योंकि अगर साथ नहीं जाएँगे तो हम को चेतना कौन देगा ? हमारे शरीर में चेतना शक्ति भगवान् ही देते हैं। उसी से हमारे इन्द्रियों को कर्म करने की शक्ति मिलती है।


तो ये बात सदा मान लें, बस, भगवत्प्राप्ति हो जाएगी। ये एक मिनट या ये एक दिन में नहीं हो जाएगा, क्योंक हमारी आदत ख़राब है। इसलिए हमको अभ्यास करना होगा। संसार में भी हमारा हर काम अभ्यास से हुआ है।


भक्त लोग किसी की कोई बात को फील नहीं करते क्योंकिं वो हर समय ये महसूस करते हैं कि अनंतकोटि ब्रह्माण्ड नायक हमारे हृदय में बैठे हैं, और तभी वो मस्ती में रहते हैं। हम लोगों में फील करने की बीमारी है क्योंकि हम ये नहीं रियलाइज़ करते कि अनंत दोष और पाप हमारे अंदर हैं।


अगर हम दूसरों के अंदर भगवान् को मानेंगे तो हम दूसरों को कभी दुःख नहीं देंगे। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई - दूसरे को दुःख देने के बराबर कोई पाप नहीं। हमको ये लगेगा की उसमें भी तो मेरे श्यामसुंदर बैठे हैं।


तो हमें अभ्यास करना होगा कि श्यामसुन्दर -

1) हमारे अंदर हैं।

2) सब के अंदर भी हैं। और जब हम इन दोनों का अभ्यास कर लेंगे, तो तीसरी अवस्था आएगी कि वे

3) सर्वव्यापक हैं, जड़ वस्तु में भी हैं। इस बात को हमें समझाने के लिए भगवान् हिरण्यकषिपु को मारने खम्बे में से निकले। भगवान् पत्थर में भी रहते हैं - जो ये मान ले, उसके लिए वे भगवान् हैं और जो न माने उसके लिए वो सिर्फ एक पत्थर है। मन से जो मानेगा उसी को फल मिलेगा - लेकिन जड़ वस्तु में भगवान् को रियलाइज़ करना बड़ी ऊँची अवस्था है।


अभ्यास करते-करते हमें इतनी बढ़िया शांति मिलेगी की अनंतकोटि ब्रह्माण्डनायक सर्वद्रष्टा, सर्वनियंता, सर्वसाक्षी, सर्वसुहृत, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान भगवान् हमारे अंदर बैठे हैं। अगर ये बात हर समय हम अभ्यास में लाएँगे तो हम कभी गलत काम नहीं कर सकते क्योंकि हमें ये फीलिंग होगी कि वे मेरे 'विचार' को लिख लेंगे। हम सदा आनंदमय शान्तिमय रहेंगे। जब तत्त्वज्ञान को सदा साथ रखेंगे, तो फिर चाहे कोई भी मुसीबत आए, आप हसते जाएँगे। कोई बीमार हो जाए तो भी राधे राधे, मर जाए तो भी राधे राधे करेंगे। तत्त्वज्ञान इतना दृढ़ हो जाएगा। तो इसका अभ्यास कीजिए, केवल सुनिए नहीं, तब काम बनेगा।


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July 5, 2025: Highlights of soulful morning sadhana🎼


🌷✨Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj ki Jai!✨🌷

Jagadguru Aadesh:

do ko jani bhūlo mana goviṃda rādhe।

eka mauta dūjo hari guru ko batā de॥


Always remember two spiritual truths:

1) The unpredictable nature of death, and

2) Devotion to God and Guru.



The thought of death crosses your mind occasionally, especially when you witness someone passing away. In such moments, you briefly reflect that one day, you, too, will have to die. However, you do not retain this awareness constantly. Except for God-realized saints, no one can predict the exact moment of their death.


In the Mahabharata, when Yaksha questioned Yudhishthir, "Kim āścaryam?" - What is the greatest wonder of the world? Yudhishthir replied:

“ahanyahanibhūtāni gacchantīha yamālayam। śeṣā: sthiratvamicchanti kimāścaryamataḥ param”

Even though people witness others departing from this world every day, they continue to believe that they themselves will remain here forever. Nothing is more astonishing than this.


By constantly remembering death, you will not become careless. You will not procrastinate your devotional practice (sādhanā).


A person who has never met a genuine saint remains unaware of who they truly are and what their ultimate purpose in life should be. All their parents have ever taught them is to earn a living, eat, love their children, and die. Such a life is truly unfortunate.


On the other hand, you are extremely fortunate because you have understood this profound philosophy. God has bestowed three immense graces upon you:

manuṣyatvaṃ mumukṣutvaṃ mahāpuruṣa saṃbhava: -

1. Human body,

2. The association of a genuine saint and

3. Receiving divine knowledge from him.


Now, the fourth grace lies in your hands - you must engage in sādhanā.

Kirtan:

- Jenvat mam Sadguru (Jagannath) Sarkar (Braj Ras Madhuri, part 1, page no. 244, sankirtan no. 132)

- Jai Jagannath Jai Jagannath Jai Jagannath Swami Jai Jagannath

Jai Baldeva Jai Subhadra Jai Baldeva Jai Subhadra

Jagannath Swami nayan pathgaami nayan pathgaami bhavatu me

- Ho Rasiya ! Kasa surati bisari (Prem Ras Madira, Viraha Madhuri, pad no. 214)

- Haaya! Hiya, kaiso tava Akroora (Prem Ras Madira, Viraha Madhuri, pad no. 213)