जुलाई 5, 2025: दूसरे सत्र की भावपूर्ण साधना के मुख्य आकर्ष


🌷✨जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की जय!✨🌷

कीर्तन:

- जय जय राधारमना, राधारमना (ब्रज रस माधुरी, भाग 1, पृष्ठ सं.15, संकीर्तन सं. 11)

- अहो पिय! जब तुम्हरी बनि जैहौं (प्रेम रस मदिरा, दैन्य माधुरी, पद सं. 4)

- जो पिय रुचि महं रुचि राखे (ब्रज रस माधुरी 1, पृष्ठ सं. 17, संकीर्तन सं. 14)

- जय जगन्नाथ जय जगन्नाथ (भक्तिरस सिंधु , पृष्ठ सं. 52, संकीर्तन सं. 69)

- हरि हरि बोल बोल हरि बोल

मुकुंद माधव गोविन्द बोल, केशव माधव हरि हरि बोल

हरि हरि बोल के ले ले हरि मोल

गौर हरि बोल कृपालु हरि बोल

हरि बोल हरि बोल हरि बोल हरि बोल

- राधे राधे राधे राधे श्यामा श्यामा श्यामा श्यामा




- अहो हरि! तुम मम साहूकार (प्रेम रस मदिरा, दैन्य माधुरी, पद सं. 11)

- मेरे ठाकुर गोविन्द ठकुरानी राधे (ब्रज रस माधुरी, भाग 3, पृष्ठ सं. 129, संकीर्तन सं. 71)

- राधे गोविन्द राधे, राधे गोविन्द राधे (धुन - तेरा नाम सुनके दाता)

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- अरे मन! यह जग एक सराय (प्रेम रस मदिरा, सिद्धांत माधुरी, पद सं. 80)

- राधा गोविन्द गीत (भाग 1, अध्याय - मानव देह)


जग छोड़ना ही होगा गोविंद राधे।

पहले ही छोड़ि मन हरि में लगा दे॥

हरि मन लाये नहिं गोविंद राधे।

केहि बल पर इतराय बता दे॥

सब तज हरि भज गोविंद राधे। 

तेरी सब बिगरी आपु बना दे॥

प्रवचन बिंदु:

बस तीन बातों का ध्यान रखना है। तीन ज्ञान सदा सर्वत्र बुद्धि में भरना है।

1) हमारे आराध्य, यानी इष्टदेव दो हैं - गुरुदेवतात्मा - एक राधाकृष्ण और एक गुरु। दोनों बराबर हैं - यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। - वेद कहता है कि भगवान् को प्राप्त करने के लिए भक्ति करनी है। लेकिन जैसी भक्ति भगवान् के प्रति हो, वैसी ही भक्ति गुरु के प्रति हो।


2) उनको पाने का उपाय - निष्काम भक्ति। भक्ति मार्ग से ही इनको प्राप्त किया जा सकता है। और कोई मार्ग नहीं - न कर्म, न योग न ज्ञान। कर्म से स्वर्ग मिलेगा, योग से स्वरूप में स्थिति होगी, ज्ञान से आत्मा का आनंद मिलेगा, ब्रह्मज्ञान भी नहीं हो सकता। केवल भक्ति से ही साध्य मिलेगा।

साध्य क्या है ? प्रेम।

प्रेम माने - ह्लादिनी शक्तेर परम सार तार प्रेम नाम - भगवान् की जो परामान्तरंग शक्ति है, ह्लादिनी शक्ति, उसके भी सारभूत तत्त्व का नाम प्रेम है। वो दिव्य वस्तु है। वो साधना से नहीं मिलती। लेकिन साधना से अन्तःकरण की शुद्धि होती है। तो शुद्ध अंतःकरण में स्वरूप शक्ति का आविर्भाव होता है। भगवान् अपनी पर्सनल पॉवर स्वरूप शक्ति को उसके अंतःकरण में प्रकट कर देते हैं। तो वो स्वरूप शक्ति विद्या-माया को समाप्त करके इन्द्रिय-मन-बुद्धि को दिव्य बना देती है। तब पात्र दिव्य प्रेम को ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाता है। दिव्य प्रेम दिव्य आधार में ही रुकेगा। हमारी इन्द्रिय-मन-बुद्धि सब उपकरण मायिक हैं। इनमें दिव्य प्रेम ठहर नहीं सकता। इसलिए इनको शुद्ध करके दिव्य बनाना है। ये साधना-भक्ति से होगा।

इसके आगे साधना से काम नहीं बनेगा। किसी भी साधना से दिव्य वस्तु नहीं मिला करती। साधना से पात्र बनता है।


3) इसके आगे गुरु कृपा आएगी। गुरु कृपा से दिव्य प्रेम मिलेगा, जो कि हमारा साध्य वस्तु है। उस दिव्य प्रेम से फिर इष्टदेव की सेवा होगी।


बस ये तीन तत्त्वज्ञान को सदा बुद्धि में रखकर उपासना करनी है।

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भगवान् सब के हृदय में रहते हैं यह बात बुद्धि में सदा बिठाये रहो। वैसे तो लोग बोलते हैं, 'घट घट व्यापक राम' - सबके भीतर भगवान् रहते हैं। लेकिन ये बात मानने वाले अरबों में कोई एक होता होगा। क्योंकि मानने का मतलब हम हर समय, हर जगह ये मानें।


कोई भी संसार में चाहे कहीं भी जाए, उसको ये नहीं भूलता कि मैं पुरुष हूँ, मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, पंजाबी, बंगाली, मद्रासी आदि हूँ। हमें हमेशा याद रहता है कि 'मैं हूँ', जो मैं रात को सपना देख रहा ता वही 'मैं हूँ' आदि। हम 'मैं' को हमेशा महसूस करते हैं। ऐसे ही जब हम निरंतर यह रियलाइज़ करें कि मेरे पास भगवान् बैठे हैं, हृदय में ठीक उसी जगह जहाँ हम हैं। आत्मा हृदय में रहकर पूरे शरीर को चेतना देती है।

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति॥ (वेद)

यानी हमारे हृदय में दो परसनैलिटी हैं - एक मैं और एक मेरा पालक, यानी पिता भगवान्। दोनों एक जगह रहते हैं, ज़रा भी दूरी नहीं। लेकिन एक कर्म करता है और कर्म का फल भोगता है। दूसरा कुछ करता नहीं, केवल हमारे कर्मों को नोट करता है और उन कर्मों का फल देता है। कर्म करने में हम स्वतंत्र हैं, लेकिन फल भोगने में परतंत्र हैं। अच्छे-बुरे कर्मों का हमें फल भोगना पड़ेगा - उसमे कोई रियायत नहीं है, चाहे कोई भगवान् के ही पिता बनकर आए (जैसे दशरथ आए)। तो ये सोचकर मूर्खता नहीं करना कि भगवान् ही कर्म 'कराते' हैं। अगर कराते हैं तो वो भगवत्प्राप्ति के बाद करेंगे। भगवत्प्राप्ति के बाद ही हमारी छुट्टी होती है। भगवान् हमारे साथ सदा से रहे, माँ के पेट में आने से लेकर संसार से जब शरीर छोड़कर जाते हैं, तब भी हमारे साथ जाते हैं। और उसके बाद भी साथ रहते हैं चाहे हम कुत्ते के शरीर में जाएँ या कीड़े के शरीर में। वे ऐसे बाप नहीं हैं कि कभी साथ छोड़ दें। क्योंकि अगर साथ नहीं जाएँगे तो हम को चेतना कौन देगा ? हमारे शरीर में चेतना शक्ति भगवान् ही देते हैं। उसी से हमारे इन्द्रियों को कर्म करने की शक्ति मिलती है।


तो ये बात सदा मान लें, बस, भगवत्प्राप्ति हो जाएगी। ये एक मिनट या ये एक दिन में नहीं हो जाएगा, क्योंक हमारी आदत ख़राब है। इसलिए हमको अभ्यास करना होगा। संसार में भी हमारा हर काम अभ्यास से हुआ है।


भक्त लोग किसी की कोई बात को फील नहीं करते क्योंकिं वो हर समय ये महसूस करते हैं कि अनंतकोटि ब्रह्माण्ड नायक हमारे हृदय में बैठे हैं, और तभी वो मस्ती में रहते हैं। हम लोगों में फील करने की बीमारी है क्योंकि हम ये नहीं रियलाइज़ करते कि अनंत दोष और पाप हमारे अंदर हैं।


अगर हम दूसरों के अंदर भगवान् को मानेंगे तो हम दूसरों को कभी दुःख नहीं देंगे। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई - दूसरे को दुःख देने के बराबर कोई पाप नहीं। हमको ये लगेगा की उसमें भी तो मेरे श्यामसुंदर बैठे हैं।


तो हमें अभ्यास करना होगा कि श्यामसुन्दर -

1) हमारे अंदर हैं।

2) सब के अंदर भी हैं। और जब हम इन दोनों का अभ्यास कर लेंगे, तो तीसरी अवस्था आएगी कि वे

3) सर्वव्यापक हैं, जड़ वस्तु में भी हैं। इस बात को हमें समझाने के लिए भगवान् हिरण्यकषिपु को मारने खम्बे में से निकले। भगवान् पत्थर में भी रहते हैं - जो ये मान ले, उसके लिए वे भगवान् हैं और जो न माने उसके लिए वो सिर्फ एक पत्थर है। मन से जो मानेगा उसी को फल मिलेगा - लेकिन जड़ वस्तु में भगवान् को रियलाइज़ करना बड़ी ऊँची अवस्था है।


अभ्यास करते-करते हमें इतनी बढ़िया शांति मिलेगी की अनंतकोटि ब्रह्माण्डनायक सर्वद्रष्टा, सर्वनियंता, सर्वसाक्षी, सर्वसुहृत, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान भगवान् हमारे अंदर बैठे हैं। अगर ये बात हर समय हम अभ्यास में लाएँगे तो हम कभी गलत काम नहीं कर सकते क्योंकि हमें ये फीलिंग होगी कि वे मेरे 'विचार' को लिख लेंगे। हम सदा आनंदमय शान्तिमय रहेंगे। जब तत्त्वज्ञान को सदा साथ रखेंगे, तो फिर चाहे कोई भी मुसीबत आए, आप हसते जाएँगे। कोई बीमार हो जाए तो भी राधे राधे, मर जाए तो भी राधे राधे करेंगे। तत्त्वज्ञान इतना दृढ़ हो जाएगा। तो इसका अभ्यास कीजिए, केवल सुनिए नहीं, तब काम बनेगा।


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July 5, 2025: Highlights of soulful morning sadhana🎼


🌷✨Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj ki Jai!✨🌷

Jagadguru Aadesh:

do ko jani bhūlo mana goviṃda rādhe।

eka mauta dūjo hari guru ko batā de॥


Always remember two spiritual truths:

1) The unpredictable nature of death, and

2) Devotion to God and Guru.



The thought of death crosses your mind occasionally, especially when you witness someone passing away. In such moments, you briefly reflect that one day, you, too, will have to die. However, you do not retain this awareness constantly. Except for God-realized saints, no one can predict the exact moment of their death.


In the Mahabharata, when Yaksha questioned Yudhishthir, "Kim āścaryam?" - What is the greatest wonder of the world? Yudhishthir replied:

“ahanyahanibhūtāni gacchantīha yamālayam। śeṣā: sthiratvamicchanti kimāścaryamataḥ param”

Even though people witness others departing from this world every day, they continue to believe that they themselves will remain here forever. Nothing is more astonishing than this.


By constantly remembering death, you will not become careless. You will not procrastinate your devotional practice (sādhanā).


A person who has never met a genuine saint remains unaware of who they truly are and what their ultimate purpose in life should be. All their parents have ever taught them is to earn a living, eat, love their children, and die. Such a life is truly unfortunate.


On the other hand, you are extremely fortunate because you have understood this profound philosophy. God has bestowed three immense graces upon you:

manuṣyatvaṃ mumukṣutvaṃ mahāpuruṣa saṃbhava: -

1. Human body,

2. The association of a genuine saint and

3. Receiving divine knowledge from him.


Now, the fourth grace lies in your hands - you must engage in sādhanā.

Kirtan:

- Jenvat mam Sadguru (Jagannath) Sarkar (Braj Ras Madhuri, part 1, page no. 244, sankirtan no. 132)

- Jai Jagannath Jai Jagannath Jai Jagannath Swami Jai Jagannath

Jai Baldeva Jai Subhadra Jai Baldeva Jai Subhadra

Jagannath Swami nayan pathgaami nayan pathgaami bhavatu me

- Ho Rasiya ! Kasa surati bisari (Prem Ras Madira, Viraha Madhuri, pad no. 214)

- Haaya! Hiya, kaiso tava Akroora (Prem Ras Madira, Viraha Madhuri, pad no. 213)

जुलाई 5, 2025: सुबह की भावपूर्ण साधना के मुख्य आकर्षण


🌷✨जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की जय!✨🌷

जगद्गुरु आदेश:

दो को जनि भूलो मन गोविंद राधे।

एक मौत दूजो हरि गुरु को बता दे॥


दो तत्त्व ज्ञान को सदा याद रखना चाहिये -

1) मृत्यु और

2) हरि गुरु की भक्ति।



मौत का ध्यान हमारे मस्तिष्क में कभी-कभी आता है जब हम किसी को मरा हुआ देखते हैं। उस समय मनुष्य थोड़ा सोचता है कि हमको भी मरना होगा एक दिन। लेकिन ये बात हम सदा नहीं सोचते। सिद्ध महापुरुषों के अलावा कोई ये बता नहीं सकता कि हम अमुक तारीख को मरेंगे।


महाभारत में जब यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया - 'किमाश्चर्यं ?' संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? तो उस समय युधिष्ठिर ने उत्तर दिया था - अहन्यहनिभूतानि गच्छन्तीह यमालयम्। शेषा: स्थिरत्वमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।

अर्थात् प्रतिदिन लोगों को अपनी आँखों के सामने इस संसार से जाते हुए, मरते हुए देखकर भी शेष लोग यही समझते हैं कि हम तो अभी नहीं मरेंगे। इससे बड़ा आश्चर्य और कोई नहीं हो सकता।


मृत्यु को सदा याद रखने से लापरवाही नहीं होगी, हम साधना में उधार नहीं करेंगे।


जिस को कोई संत नहीं मिला, न कभी जाना उसने कि हम कौन हैं, हम को क्या लक्ष्य रखना चाहिए, उसके माँ बाप ने यही सिखाया हमेशा कि कमाओ खाओ, बाल बच्चों से प्यार करो और मर जाओ - यही किया उसने सारा जीवन - वो तो बेचारा अभागा है। लेकिन हम तो जान गए हैं - भगवान् की ओर से हम पर ये तीन बड़ी बड़ी कृपाएँ हो गई हैं - 'मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुष संभव:' -

1. मानव देह,

2. महापुरुष मिलन

3. उनके द्वारा तत्त्व ज्ञान हो जाय।

अब चौथी कृपा तो हम को ही करनी है - वह है साधना।

कीर्तन:

- जेंवत मम सद्गुरु (जगन्नाथ) सरकार  (ब्रज रस माधुरी, भाग 1, पृष्ठ सं. 244, संकीर्तन सं. 132)

- जय जगन्नाथ जय जगन्नाथ जय जगन्नाथ स्वामी जय जगन्नाथ

जय बलदेवा जय सुभद्रा जय बलदेवा जय सुभद्रा

जगन्नाथ स्वामी नयन पथगामी नयन पथगामी भवतु मे

- हो रसिया ! कस सुरति बिसारी (प्रेम रस मदिरा,विरह माधुरी, पद सं. 214)

- हाय ! हिय, कैसो तव अक्रूर (प्रेम रस मदिरा, विरह माधुरी, पद सं. 213)

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*सुश्री ब्रज मंजरी जी (1965)*



जिस प्रकार कमल चाहे सरोवर के निर्मल जल में जन्म ले या पंक में, वह अपने सौन्दर्य, सुकुमारता व सुगंधि आदि गुणों से शोभनीय होता है। अंशुमालि की किरणों का स्पर्श पाते ही वह मुकुलित हो जाता है। उसी प्रकार एक संस्कारी जीव चाहे जिस काल, जाति या परिस्थिति में जन्म ले, महापुरुष का सान्निध्य मिलते ही उसके सुसंस्कारों के दल एक-एक कर के खुलने लगते हैं। और वह भाग्यशाली जीव एक दिन अपने गुणों से उजागर हो जाता है।

सुश्री शकुन्तला सरदाना ने मुल्तान में जन्म लिया था। पाकिस्तान बनने के बाद वह अपने परिवार के साथ वापस आईं थीं। इस जन्म में परिवार द्वारा उन्हें श्रीकृष्ण भक्ति के कोई संस्कार नहीं प्राप्त हुए थे। किन्तु फिर भी विरक्ति के स्वाभाविक संस्कार इतने तीव्र थे कि एक बार ये घर से भाग कर वृन्दावन भी चली गईं थी। पश्चात् जैसे - तैसे बी.ए. तक की शिक्षा ग्रहण की। आगे पढ़ने की इच्छा नहीं थी। इनके परिवार में सब उच्च शिक्षा से सम्पन्न थे। अतः इनके पिता श्री की महती इच्छा थी कि यह भी कम से कम एम.ए. की परीक्षा तो उत्तीर्ण कर ले। इन्होंने बेमनी से एम.ए. करने का निश्चय किया।

सन् 1958 में ये एम.ए. की एक छात्रा थीं। पहले अर्थशास्त्र में एम.ए. करने का विचार किया किन्तु उसमें मन नहीं लगा तो संस्कृत विषय को चुन लिया। प्रतिदिन शाम को वह शिक्षण (ट्यूशन) प्राप्त करने के लिये पंडित गजानन के पास जाती थीं। एक दिन जाते समय मार्ग में दया जी (ब्रज सहचरी जी) मिल गईं।

दया माथुर उस समय मुरारी लाल गर्ल्स इन्टर कालेज की प्रधानाध्यापिका थीं। शकुन्तला जी पहले दया माथुर के ही कालेज की छात्रा थीं। अतः उनका अभिवादन करके शकुन्तला जी ने पूछा कि वह कहाँ जा रही हैं। दया जी ने कहा

हमारे गुरु जी आज आने वाले हैं। मैं उन्हीं के स्वागतार्थ जा रही हूँ। यह सुनते ही उनके प्रसुप्त संस्कार मानो अकस्मात् जागृत हो गये। मानो उन्हें भगवत्कृपा से अपने गुरु के दर्शन का आन्तरिक आमंत्रण प्राप्त हो गया। अज्ञात रूप से उनका मन अपने युग-युग से संबद्ध गुरु के दर्शन के लिये मानो तीव्र पुकार कर बैठा किन्तु उन्हें कुछ नहीं पता चला कि ये सब क्यों हुआ अथवा इनके ये गुरु कौन हैं जिनके विषय में एक वाक्य सुनकर इतना आकर्षण हो रहा है। अतः अनजाने में ही शकुन्तला जी ने उनके साथ चलने की इच्छा व्यक्त की। किन्तु दयाजी ने यह कह कर कि आज तो मैं शीघ्रता में हूँ, फिर कभी दर्शन करा दूँगी, उस समय उनको श्री महाराज जी के पास ले जाने की बात टाल दी। शकुन्तला जी किंचित् निराश हो गईं। ऐसा लगा हाथ से अकस्मात् पाई हुई निधि छिन गई हो । अस्तु, वह विह्वलतापूर्वक उनके दर्शन के सौभाग्य की प्रतीक्षा करने लगीं। उनसे मिलने का माध्यम केवल श्रीमती दया माथुर (कालान्तर में प्रचारिका ब्रज सहचरी जी) थीं। किन्तु दया जी इनको अल्प वयस्का युवती सोचकर सत्संग में ले जाने से घबरा रही थीं कि कहीं इनके अभिभावकों को इसमें कोई आपत्ति न हो।