कर्म का अभिप्राय उससे है जिसमें व्यक्ति श्रुति - स्मृति प्रतिपादित विधिवत कर्म का पालन करे किन्तु ईश्वर - भक्ति न करे । ऐसे कर्म में प्रमुख विचारणीय बात यह है कि श्रुति - स्मृति की विधि में थोडा भी गडबड न हो, अन्यथा -
यदि एक वैदिक स्वर की भी त्रुटि रह जायगी तो कर्मकर्ता को लाभ के बजाय हानी हो जायगी । एक राक्षस ने ऋषियों को पकड कर बरबस एक यज्ञ करवाया । उसमें मंत्र "इन्द्रशत्रुर्विवर्धस्य" रखा गया, जिसका अर्थ था कि इन्द्र का शत्रु अर्थात राक्षस बढे । किन्तु, अक्षर वही रखते हुए भी ऋषियों ने एक स्वर बदल दिया । उस राक्षस को वैदिक स्वरों का ज्ञान नहीं था अतएव वह इस चातुरी को नहीं समझ सका
यज्ञ सम्पन्न हुआ । भगवान ने भी मंत्रानुसार फल देने का वरदान दिया । पश्चात् राक्षस ने इन्द्र पर आक्रमण कर दिया, परिणामस्वरूप राक्षस मारा गया । मरते समय उसने कहा कि यह ईश्वर के समदर्शित्व पर कलंक है कि उसने वरदान देकर भी पूरा नहीं किया । ईश्वर ने आकाशवाणी द्धारा इस रहस्य का उदघाटन किया कि "इन्द्रशत्रुर्विवर्धस्व", इस मंत्र में जो स्वर लगाया था उसका अर्थ यही था कि इन्द्र की शक्ति बढे, अतएव इन्द्र विजयी हो गया यह विधिहीन कर्म का फल है और यदि विधियुक्त कर्म सम्पन्न हो गया तो उसका फल स्वर्ग है, जो नश्वर है । अतएव शास्त्रोक्त विधिवत् कर्म की निन्दा सी पाई जाती है ।
जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
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