अनोखी, पिय प्यारी की बात ।
समुझि सकी नहिं बात सखी ! यह, सोचि थकी दिन-रात ।
जब पिय कहँ देखहुँ तब पिय मोहिं, प्यारिहुँ-सरस लखात ।
जब प्यारिहिं देखहुँ तब प्यारिहुँ, पिय ते सरस जनात ।
पुनि इन दुहुँन लखहुँ जिन अंगनि, तिनहिंन रस अधिकात ।
कह ‘कृपालु’ दोउ चिन्मय याते, नित नव रस सरसात ।।
भावार्थ:- प्रिया-प्रियतम के वैलक्षण्य से विस्मित होकर एक सखी कहती है- “अरी सखी ! प्रिया-प्रियतम की अटपटी अलौकिक गति बुद्धि में नहीं समाती। बुद्धि द्वारा मैं दिन-रात विचार करके थक गई किन्तु यह बात नहीं समझ सकी । अरी सखी! बात यह है कि जब मैं प्रियतम को देखती हूँ तब प्रियतम, प्यारी से भी अधिक सरस प्रतीत होते हैं, और जब प्यारी जी को देखती हूँ तब प्यारी, प्रियतम से भी अधिक सरस लगती हैं । इतना ही नहीं इन दोनों के जिन अंगों को देखती हूँ, उन्हीं अंगों को अन्य अंगों से अधिक सरस अनुभव करती हूँ ।”
‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं- अरी सखी! इसका रहस्य यह है कि दोनों दिव्य चिन्मय देह वाले हैं। अतएव प्रतिक्षण वर्द्धमान नित्य-नवीन रस की अनुभूति होना स्वाभाविक ही है ।
🌹प्रेम रस मदिरा:- युगल-माधुरी🌹
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित:- राधा गोविन्द समिति।
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