अरि देखो आली, लाली को फुलन सिंगार।
फुलन की चंद्रकला सिर सोहति, फुलन की वंदनिधार।
झूमत श्रवण फुलन के झुमके, बेसर कलिन निहार।
पहुँची बाजूबंद फुलन को, फुलन को गल बिच हार।
नीलांबर पर फुलन पंक्ति जनु, तारे गगन अपार।
फुलन की पायल अँगुरिन बिछुये, वेणिहिं फुलन सँवार।
अंग अंग प्रति फुलन रंग रँग, लखि ‘कृपालु’ बलिहार॥
भावार्थ :- फूलों के श्रृंगार से सजी हुई किशोरी जी को देखकर एक सखी अपनी अंतरंग सखी से कहती है कि अरी सखी! देख तो, किशोरी जी का फूलों से किया हुआ श्रंगार क्या ही सुंदर प्रतीत हो रहा है! सिर में फूलों की चंद्रकला शोभित हो रही है, एवं फूलों की बंदनवार धारण कर रखी है। कान में फूलों के झुमके हिल रहे हैं तथा नाक में कलियों की बेसर शोभायमान हो रही है। हाथ में फूलों के ही बाजूबंद एवं पहुँची पहने हैं, एवं गले में विविध प्रकार के फूलों का हार पहन रखा है। नीले वस्त्र पर फूलों की कतारें इस प्रकार शोभा दे रही हैं मानो नीले आकाश में तारे खिले हुए हों। पैरों में फूलों की पायल एवं अंगुरियों में बिछुये पहने हुए हैं। वेणी भी विविध प्रकार के फूलों से सुशोभित हो रही है।
‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि इस प्रकार प्रत्येक ही अंग में रंग-बिरंगे फूलों के श्रृंगार को देखकर मैं बार-बार बलिहार जाता हूँ।
🌹प्रेमरस मदिरा निकुंज माधुरी 🌹
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
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