आनन्द स्वरूप भगवान् मिले और हमने संसार माँगा या बिना मिले ही माँगना प्रारम्भ किया जैसा कि हमारे संसार में आज लगभग 99.9 परसेन्ट हो रहा है। जितनी भक्ति दिखाई पड़ रही है हमारे देश में- ये देवी जी के यहाँ, देवता जी के यहाँ, बालाजी के यहाँ, वैष्णोदेवी के यहाँ, अनेक मन्दिरों में, अनेक तीर्थों में, बस संसार माँगने की बीमारी है क्योंकि और बुद्धि में कुछ है ही नहीं। भगवान् भी क्या सोचते होंगे-
एई बड़ मूर्ख।
आमाय भजे मांगे विषय सुख।(चै.)
गौरांग महाप्रभु कहते हैं कि कितने मूर्ख हैं जीव कि मेरी भक्ति करते हैं और माँगते हैं संसार का सुख!
तो हम कामना बनायें भी तो भी सही-सही नहीं बना सकते। इसलिये क्यों इस बीमारी में पड़ें। छोड़ दीजिये भगवान् के ऊपर। चुप। जब मैंने अपने को समर्पण कर दिया तो मुझे बुद्धि लगाने का अधिकार नहीं, इसलिये माँगने का अधिकार नहीं, बात खतम। कौन माँगे, क्यों माँगे? अपने आपको दे दिया, अब क्या माँगना है और हमको पता है- योगक्षेमं वहाम्यहम्। जब वो योगक्षेम वहन करेगा- योग माने अप्राप्त को देना और क्षेम माने प्राप्त की रक्षा करना। जब दोनों ठेका वो ले रहा है तो हम अपनी ये दो अंगुल की खोपड़ी लगावें क्यों ?
अतएव कामनायें चाहे वो मृत्युलोक की हों, चाहे स्वर्ग लोक की हों, कहीं की भी हों, जितना भी मायिक जगत् है, उनकी शरण में नहीं जाना है। उनको सेन्ट परसेन्ट हृदय से निकलना है क्योंकि सब में विष का मिश्रण है, सब में पॉइजन का मिक्सर है। वो देखने का अंतर है। भू भुव:, मह:, जन:, तप:, सत्य लोक में एक से एक उत्तरोत्तर वैभव है लेकिन सब में एक पॉइजन - वही अतृप्ति,अपूर्णता, अशांति।
जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज
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