मनुष्य में चार दोष होते हैं --भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा, कर्णापाटव । तो चार दोष हैं इसलिए उसका कुछ भी मत गलत है । भ्रम माने एक वस्तु को दूसरा समझना । रस्सी को सांप समझना, पीतल को सोना समझना, आत्मा को देह मानना, यह भ्रम है और प्रमाद मन की असावधानी। मन चंचल है न। एक मिनट में बदल गया। उसी मां के प्रति, उसी बाप के प्रति, उसी बीवी, बेटा, बेटी के प्रति हमारे आइडियाज़ दिन भर में कितने बदलते रहते हैं ? हमारा मन हमारे वश में नहीं है। तो उसका मत क्या बनेगा ? वो तो बदलता रहता है। ये प्रमाद दोष है। और विप्रलिप्सा ये तो बहुत बड़ा दोष है हम लोगों में। क्या ? विप्रलिप्सा माने वास्तविकता को छुपाना, असलियत को छिपाना। काम, क्रोध,लोभ, मोह ये तमाम सारे दोष हैं इनको हम छिपाते रहते हैं कि कोई जाने न। हम बड़े शरीफ हैं, बड़े भले आदमी हैं, ऐसा लोग जानें। हैं नहीं, बनना भी नहीं चाहते। लेकिन ऐसा लोग मानें, ये चाहते हैं। अगर बनना चाहते तो कब के महापुरुष बन गये होते।
और कर्णापाटव, चौथा दोष क्या है ? अनुभव की कमी। अनुभव की कमी, जितने मायिक जीव हैं मायाबद्ध जीव हैं, सबका अनुभव लिमिटेड है । परिपूर्ण नहीं है किसी सब्जेक्ट में। जिंदगी भर एक आदमी एक सब्जैक्ट में लगा है। फिर भी कहता है कि हम अधूरे हैं।
जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज
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