लोकरंजन का लक्ष्य भी घोर कुसंग है। प्राय: साधक थोड़ा बहुत समझ लेने पर अथवा थोड़ा बहुत अनुभव कर लेने पर, उसे दुनिया के सामने गाता फिरता है, एवं धीरे धीरे यह अभिमान का रूप धारण कर लेता है,जिसके परिणाम-स्वरूप साधक की वास्तविक निधि , दीनता छिन जाती है एवं हँसी-हँसी में लोकरंजन की बुद्धि परिपक्व हो जाती है। अतएव साधक को लोकरंजन रूपी महाव्याधि से बचना चाहिये।
अहंकार से बचना और अपमान को फील न करना - साधना की आधारशिला है । यह बात साधना करने वाले जीवों के लिये श्री गणेश है । पाँचों इन्द्रियों को जीतना और किसी से अनुराग न करना फिर भी सम्भव है । किन्तु मान-अपमान की फीलिंग जब तक नहीं मिटती तब तक आप में अहंकार सदा रहेगा एवं बढ़ता ही जायगा । संकीर्तन में आपके आँसू नहीं आते, यह अहंकार के कारण है । और अगर आँसू आते हैं और साधक सोचता है, वाह ! हमें तो आँसू आते हैं - यह सूक्ष्म अहंकार है । इसका पकड़ में आना कठिन है । इस अहंकार को सिर्फ महापुरुष ही बतला सकता है और इसी अहंकार को ठीक करने के लिये ही संत की विशेष आवश्यकता होती है । हम अपनी मायिक बुद्धि से यह निश्चय नहीं कर सकते कि हम अहंकार कर रहे हैं । इसलिये मान-अपमान पर विचार न करते हुये हमें यह सोचना है कि हम तृण से बढ़कर दीन किस प्रकार बनें ? हम दीन नहीं हैं लेकिन लोकरंजन के लिये यह भावना रहती है कि लोग हमें दीन समझें - यह भी अहंकार है ।
जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज
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