उनके लिये यह अनिवार्य नियम था कि वह जगद्गुरु पद की मर्यादा हेतु सिंहासन
बैठकर ही प्रवचन देंगे। अतः वे जहाँ जाते, चार व्यक्ति श्री महाराज जी का सिंहासन ले कर ट्रक द्वारा पहले पहुँचते थे। महाराज जी स्वछन्द प्रकृति के, ब्रजरस में उन्मत्त रहने वाले एक रसिक सन्त थे । अतः उन्हें यह सब बंधन कहाँ सुहाते ? ये तो भक्तों की भावना के आधीन थे। अतः श्री महाराज जी ने इस मर्यादा का सम्मान रखते हुए उस सिंहासन को 5 वर्ष 10 माह तो रखा। पश्चात् 20 नवम्बर सन् 1962 को चीन आक्रमण के समय भारतीय राजकोष में दान कर के उससे भी मुक्ति पा ली ।
इलाहाबाद में शोभा यात्रा
कुछ दिनों के पश्चात् उसी प्रकार की शोभा यात्रा का आयोजन इलाहाबाद में हुआ। वहाँ भी इस महोत्सव का खूब प्रचार हुआ। इलाहाबाद स्टेशन पर रात्रि 8.30 पर ट्रेन पहुँची। हजारों लोग फूल माला ले स्वागत की तैयारी में पहले से ही खड़े थे। महाराज जी प्रियदर्शी जी, प्रियाशरण जी, लल्ला बाबू, केशव, रामसमुझ ओझा आदि लोगों के घेरे के साथ बाहर आये। सभी प्रमुख नागरिकों ने उन्हें माल्यार्पण किया और चरण वंदन किया। चारों दिशायें जय-जयकार से आप्लावित हो गईं।
उस भीड़ से थोड़ा अलग, ढीले ढाले कपड़े पहने हुए, सिर पर टोपी व आँख पर काला चश्मा पहने हुए एक व्यक्ति बड़ी भावना से दूर से ही केवल दर्शनों का सुख ले रहा था। वह पूरे समय एक रिक्शे पर बैठकर यात्रा के साथ-साथ, दूर से श्री महाराज जी के दर्शन करता हुआ, एक रहस्य का विषय बना हुआ था।
सबसे आगे बैंड बाजा व श्री महाराज जी के आगे-पीछे अनेकानेक कीर्तन मंडलियाँ अपने वाद्यों के साथ चल रही थीं। शोभा यात्रा स्टेशन से नेत्र चिकित्सालय रोड, खुल्दाबाद चौराहा, चौक व बहादुर गंज होती हुई 251 मुट्ठी गंज पहुँची। वहाँ मैदान को चमकीली झंडियों, फूलों व बहुरंगी लाइट से सजाया गया था। मैदान के एक सिरे के मध्य में सुन्दर सा चार फुट ऊँचा मंच बनाया गया था। श्री महाराज जी उसी पर विराजित हुए और एक बार पुनः जयघोष से सारा वातावरण गुंजरित हो गया। तत्पश्चात् प्रसन्नता से नाचते-कूदते व कीर्तन करते-करते रात्रि का एक बज गया। अब श्री महाराजजी व अन्य सत्संगियों ने रामपती जी के घर पर जाकर विश्राम किया।
अगले दिन शोभा यात्रा अभूतपूर्व आनंद की खूब चर्चायें व हास परिहास हुआ। उसी मध्य प्रियदर्शी जी ने उस विचित्र व्यक्ति की भी चर्चा की, जो निरन्तर महाराज जी की सवारी के साथ-साथ रिक्शा पर चल रहा था। तब पता चला कि वह कोई और नहीं अपनी रामपती जी थीं। लगभग 42 वर्षीय रामपती जी उस समय की भूगोल की प्रवक्ता थीं जब स्त्रियाँ अधिक से अधिक हाईस्कूल पास करती थीं। वही भूगोल में एम.ए. थीं एवम् स्वभावतः उनमें ऐसा वैराग्य था कि उन्होंने विवाह नहीं किया और सदा श्वेत वस्त्र ही धारण करती थीं। श्री महाराज जी का केवल एक प्रवचन सुन कर ही वह भक्ति में पूर्णतया डूब गई और कुछ ही दिनों के पश्चात् उनके अंगों में सात्विक भावों के उद्रेक दृष्टिगत होने लगे थे। जो इने गिने भक्तों में ही प्रतिलक्षित होते थे। उनकी गणना योगभ्रष्ट संस्कारी साधकों में हो सकती है।
दूसरी ओर वह स्वभाव से ही कितनी मसखरी थीं, इसका अनुमान उनके इस परिहास से ही पता चल जाता है। उनसे ऐसा वेष बदल कर जाने का कारण जब पूछा गया तो उन्होंने कहा, क्या करें? महाराज जी का आदेश था कि कोई स्त्री शोभा यात्रा में न आये। अब ये घटना कभी दुबारा तो होनी नहीं थी। अतः महाराज जी अच्छे लग रहे थे, उन्हें देखना तो था ही।
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