जिस प्रकार कमल चाहे सरोवर के निर्मल जल में जन्म ले या पंक में, वह अपने सौन्दर्य, सुकुमारता व सुगंधि आदि गुणों से शोभनीय होता है। अंशुमालि की किरणों का स्पर्श पाते ही वह मुकुलित हो जाता है। उसी प्रकार एक संस्कारी जीव चाहे जिस काल, जाति या परिस्थिति में जन्म ले, महापुरुष का सान्निध्य मिलते ही उसके सुसंस्कारों के दल एक-एक कर के खुलने लगते हैं। और वह भाग्यशाली जीव एक दिन अपने गुणों से उजागर हो जाता है।
सुश्री शकुन्तला सरदाना ने मुल्तान में जन्म लिया था। पाकिस्तान बनने के बाद वह अपने परिवार के साथ वापस आईं थीं। इस जन्म में परिवार द्वारा उन्हें श्रीकृष्ण भक्ति के कोई संस्कार नहीं प्राप्त हुए थे। किन्तु फिर भी विरक्ति के स्वाभाविक संस्कार इतने तीव्र थे कि एक बार ये घर से भाग कर वृन्दावन भी चली गईं थी। पश्चात् जैसे - तैसे बी.ए. तक की शिक्षा ग्रहण की। आगे पढ़ने की इच्छा नहीं थी। इनके परिवार में सब उच्च शिक्षा से सम्पन्न थे। अतः इनके पिता श्री की महती इच्छा थी कि यह भी कम से कम एम.ए. की परीक्षा तो उत्तीर्ण कर ले। इन्होंने बेमनी से एम.ए. करने का निश्चय किया।
सन् 1958 में ये एम.ए. की एक छात्रा थीं। पहले अर्थशास्त्र में एम.ए. करने का विचार किया किन्तु उसमें मन नहीं लगा तो संस्कृत विषय को चुन लिया। प्रतिदिन शाम को वह शिक्षण (ट्यूशन) प्राप्त करने के लिये पंडित गजानन के पास जाती थीं। एक दिन जाते समय मार्ग में दया जी (ब्रज सहचरी जी) मिल गईं।
दया माथुर उस समय मुरारी लाल गर्ल्स इन्टर कालेज की प्रधानाध्यापिका थीं। शकुन्तला जी पहले दया माथुर के ही कालेज की छात्रा थीं। अतः उनका अभिवादन करके शकुन्तला जी ने पूछा कि वह कहाँ जा रही हैं। दया जी ने कहा
हमारे गुरु जी आज आने वाले हैं। मैं उन्हीं के स्वागतार्थ जा रही हूँ। यह सुनते ही उनके प्रसुप्त संस्कार मानो अकस्मात् जागृत हो गये। मानो उन्हें भगवत्कृपा से अपने गुरु के दर्शन का आन्तरिक आमंत्रण प्राप्त हो गया। अज्ञात रूप से उनका मन अपने युग-युग से संबद्ध गुरु के दर्शन के लिये मानो तीव्र पुकार कर बैठा किन्तु उन्हें कुछ नहीं पता चला कि ये सब क्यों हुआ अथवा इनके ये गुरु कौन हैं जिनके विषय में एक वाक्य सुनकर इतना आकर्षण हो रहा है। अतः अनजाने में ही शकुन्तला जी ने उनके साथ चलने की इच्छा व्यक्त की। किन्तु दयाजी ने यह कह कर कि आज तो मैं शीघ्रता में हूँ, फिर कभी दर्शन करा दूँगी, उस समय उनको श्री महाराज जी के पास ले जाने की बात टाल दी। शकुन्तला जी किंचित् निराश हो गईं। ऐसा लगा हाथ से अकस्मात् पाई हुई निधि छिन गई हो । अस्तु, वह विह्वलतापूर्वक उनके दर्शन के सौभाग्य की प्रतीक्षा करने लगीं। उनसे मिलने का माध्यम केवल श्रीमती दया माथुर (कालान्तर में प्रचारिका ब्रज सहचरी जी) थीं। किन्तु दया जी इनको अल्प वयस्का युवती सोचकर सत्संग में ले जाने से घबरा रही थीं कि कहीं इनके अभिभावकों को इसमें कोई आपत्ति न हो।
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