कर्मयोगी एवं कर्मसंन्यासी


........... आप कह सकते कि अच्छा, यदि हम यह भी मान लें तो भी कर्मयोगी का नकलची कर्मी बना एवं कर्मसंन्यासी का नकलची विकर्मी बना । तो इसमें अन्तर क्या है ? कर्मी को स्वर्ग मिलेगा वह भी अन्त में दु:खमय है । हाँ बात तो साधारण बुद्धि से ठीक सी है किन्तु फिर भी इतना विचारणीय है कि विकर्मी से कर्मी श्रेष्ठ है क्योंकि वह उच्छृङ्खल नहीं रहेगा । जैसे ही उसे कोई तत्वज्ञ मिल जायगा और समझा देगा कि तू ऐसे ही कर्म किये जा किन्तु इन कर्मों को ईश्वरार्पित करते हुए मन का लगाव ईश्वर में किये जा तो उस कर्म का भी फल न बनेगा अर्थात यह कर्मयोग बन जायगा । किन्तु विकर्मी को यदि कोई तत्वज्ञ मिल भी जायगा तो उच्छृङ्खल होने का कारण एवं शास्त्र - वेद पर आस्था न होने के कारण वह प्रथम यही स्वीकार न करेगा कि शास्त्र - वेद सत्य हैं एवं अवश्य माननीय हैं और यदि कदाचित स्वीकार भी करेगा तो चिरन्तन उच्छृङ्खलता के अभ्यास के कारण ईश्वर - भक्ति आदि में प्रवृत्ति दु:सम्भव ही है । इसके अतिरिक्त लौकिक, सामाजिक व्यवस्था भी कर्म के द्धारा यथोचित चलती रहेगी, जब कि विकर्मी द्धारा लोक में क्रान्ति ही की संभावना रहेगी । यह कर्मयोग एवं कर्मसंन्यास के अनुकरण का अन्तर है ।
अब आप समझ गये होंगे कि ईश्वर भक्ति युक्त कर्म ही वन्दनीय है, शेष कर्म निन्दनीय हैं, फिर भी विकर्म से कर्म अच्छा है । एक बात और भी प्रमुखरुपेण विचारणीय है, वह यह कि जैसे कर्मी को वेदविहित विधि के थोडे उल्लंघन से भी दण्ड मिलता है, वैसे कर्मयोगी को दण्ड मिलने का प्रश्न नहीं है अर्थात साधक कर्मयोगी यदि कुछ थोडी भी विधि का पालन करता है तो भी वह श्रेष्ठ बनकर लाभ पहुँचाता है -
पुनः जब परिपक्व कर्मयोगी बन जाता है, तब तो कर्मफल भोगने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है । अतएव शास्त्रों, वेदों एवं अनान्य आप्त - ग्रन्थों ने जो कर्म - धर्म का खंडन किया है, वह एक मात्र उन्हीं कर्मों के विषय में है जो ईश्वर को पृथक करके, केवल कर्म के द्धारा ही कर्मबन्धनों को समाप्त करने की योजना बनाते हैं । किन्तु, ईश्वरभक्तियुक्त कर्म तो परम वन्दनीय हैं । उनसे अपना तो लाभ पूर्णतया होता ही है, साथ - साथ अनुकरणकर्ता का भी लाभ होता है ।


जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

ध्यानकरना है, ध्यान l


                 ये ध्यान का काम कौन करता है ? आँख, कान, नाक, त्वचा, रसना ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ध्यान नहीं कर सकती l आँख देखेने का काम कराती है, कान सुनने का, नासिका सूँघने का, रसना रस लेने का, त्वचा स्पर्श करने का l ध्यान करने का काम कौन करता है ? मन, अंतःकरण, चित्त अनेक नाम हैं उसके l तो ध्यान करना चाहिये भगवान् का, उसी का नाम, भक्ति उपासना, पूजा, पाठ जो कुछ शब्द बोलो l वो सब मन को करना है, इन्द्रियों को नहीं l तो भगवान् का ध्यान करना है, बस एक बात l दूसरी कोई बात न सुनु, न पढ़ो, न सोचो, न करो l ध्यान करना है और अगर कोई और बात पढ़ो, सुनो, करो, तो ध्यान नम्बर एक, बाद में और सब कुछ जैसे कीर्तन, भगवान् का नाम, रूप, गुण, लीला धाम ये गाते हैं l ये रसना का काम है बोलना l लेकिन नम्बर एक ध्यान, फिर गान l यानी इन्द्रियों को अगर साथ लेते हो तो कोई एतराज नहीं है, लेकीन अगर मन साथ में नहीं है तो ज़ीरो में गुणा हो जायेगा l ज़ीरो गुणा ज़ीरो बराबर ज़ीरो, ज़ीरो गुणा लाख बराबर ज़ीरो, ज़ीरो गुणा करोड़ बराबर ज़ीरो l इसलिये रूपध्यान ही साधना है, उपासना है, भक्ति है l

                     ---- जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

विनम्रता में छुपा जीवन की सफलता रहस्य



कुरुक्षेत्र में भीष्म पितामह शरशैय्या पर पड़े हुए थे। कौरव व पांडव समूह के अनेक लोग उनके चारों ओर खड़े थे। भीष्म पितामह ने धीमे स्वर में कहा, अब मृत्यु का वरण करना चाहता हूं। मेरे पास कुछ ही समय शेष है। यह सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर उनके पास बैठते हुए बोले, पितामह आपके मार्गदर्शन से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला। आज जब आपका अंतिम समय है तो मै आपसे निवेदन करना चाहता हूं कि आप हमे ऐसी कोई उपयोगी शिक्षा दें जो आगे जाकर हमारे काम आए। भीष्म पितामह ने कहा, आज मै तुम्हें नदी की एक छोटी कहानी सुनाता हूं। जिसमें जीवन का सार छिपा है। एक दिन समुद्र ने नदी से प्रश्न किया, तुम बड़े बड़े पेड़ों को अपने प्रवाह में बहा ले आती हो पर क्या कारण है कि नन्हीं घासों, कोमल बेलों को तुम अपने साथ नहीं ला पाती। समुद्र की बात सुनकर नदी मुस्कुराती हुई बोली- जब जब मेरे पानी का बहाव आता है तब-तब नरम बेलें, घास के तिनके व नरम पौधे झुक जाते है। वृक्ष अपनी कठोरता के कारण झुकने को तैयार नहीं होते। वे अंहकार के कारण सीधे खड़े रहते है और तो जानते ही है कि विनम्रता के आगे हमेशा अंहकार परास्त हो जाता है। नदी के जवाब से समुद्र संतुष्ट हो गया। यह कहानी सुनाकर भीष्मपितामह बोले, शायद आप सभी इस कहानी में छिपा हुआ सार समझ गए होंगे। व्यक्ति को हमेशा विनम्र होना चाहिए और विनम्र रहते हुए ही जीवन में आगे बढना चाहिए।

जय जय श्री राधे

🌷सर्वश्रेष्ठ हितैषी .....सद्गुरू देव !🌷


"सदगुरु महिमा कहन को, मन बहुत लुभाया ।
मुख में जिह्वा एक ही, तातैं पछताया ।।"
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किसी भी साधक का सर्वश्रेष्ठ हितैषी उसका सद्गुरु ही होता है ।  सद्गुरु से बढकर किसी का भी कल्याण चाहने वाला अन्य कोई नहीं होता । सद्गुरु का सम्बन्ध शाश्वत होता है । वे न सिर्फ अपने शिष्य को भगवद् प्राप्ति का उपाय बताते हैं बल्कि उसके साथ साथ साधना भी करते हैं, और उसकी भावी विपदाओं और सांसारिक समस्याओं से रक्षा भी करते हैं । गुरु को समर्पित की हुई साधना में कोई त्रुटी भी रह जाए तो सद्गुरु उसमें शोधन कर देते हैं ।
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किसी भी साधक को अपनी साधना का सिर्फ 25 प्रतिशत ही पूर्ण निष्ठा से करना होता है । 25 प्रतिशत सद्गुरु करता है । बाकि 50 प्रतिशत जगन्माता पद्माकी असीम करुणा से उसे फल मिल जाता है । पर स्वयं के भाग का 25 प्रतिशत तो हर साधक को शत प्रतिशत करना पड़ता है ।
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वास्तविक आध्यात्मिक जीवन को पाने के लिए हर क्षण गुरु प्रदत्त साधना के सहारे जीना आवश्यक है । जीवन की विपरीतम परिस्थितियों में जहाँ कहीं कोई आशा की किरण दिखाई न दे, और चारों ओर अंधकार ही अंधकार हो, वहाँ एकमात्र सद्गुरु ही हैं जो साथ नहीं छोड़ते । बाँकि सारी दुनिया साथ छोड़ सकती है, पर सद्गुरु महाराज कभी हमारा साथ नहीं छोड़ते । हम ही उन्हें भुला सकते हैं पर वे नहीं । उनसे मित्रता बनाकर रखो उनका साथ शाश्वत है । वे हमारे आगे के भी सभी जन्मों में साथ रहेंगे ।
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अपनी सारी पीडाएं, सारे दु:ख, सारे कष्ट उन्हें सौंप दो । उन्हें मत भूलो, वे भी हमें नहीं भूलेंगे । निरंतर उनका स्मरण करो । हमारे सुख-दुःख सभी में वे हमारे साथ रहेंगे । अपने ह्रदय का समस्त प्रेम उन्हें बिना किसी शर्त के दो ।
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'गु' शब्द का अर्थ है ..... अन्धकार, और 'रू' का अर्थ है दूर करने वाला ।
जो अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करते हैं वे ही गुरु हैं। शिष्य को गुरु का ध्यान अपने सहस्त्रार में निरंतर करना चाहिये । गुरु ही वास्तव में तीर्थ और देवता हैं क्योंकि वे भेदबुद्धि के विनाशक हैं।
"संतन ह़ी में पाईये, राम मिलन को घाट।
सहजै ही खुल जात है, सुंदर ह्रदय कपाट ।।"
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श्री गुरवे नमः, श्री परम गुरवे नमः, श्री परात्पर गुरवे नम:, श्री परमेष्टि गुरवे नमः, श्री जगत गुरवे नमः, श्री  आत्म गुरवे नमः, श्री विश्व गुरवे नमः ! ॐ गुरु ! जय गुरु !

जय जय श्री राधे ।