हम चाकर उन ब्रज नारिनि के |



हम चाकर उन ब्रज नारिनि के |
भूखे रहत ब्रह्म खायेहु पै, जिन ब्रजनारिन गारिनि के |
थेइ थेइ करि नित नाचत गावत, जिनकी तारन तारिनि के |
घर घर फिरत सुनन कटु वचनन, जिनकी चोरिनि जारिनि के |
याचत चरण रेणु ब्रह्मादिक, जिन ब्रज की पनिहारिनि के |
धनि ‘कृपालु’ ब्रजनारिन जिन नित, विहरति संग विहारिनि के ||

भावार्थ    -    हम इन ब्रजांगनाओं के दास हैं, जिनकी सदा गाली खाने पर भी ब्रह्म श्यामसुन्दर भूखे ही बने रहते हैं | जिनके हाथ की तालियों की ताल पर श्यामसुन्दर थेइ - थेइ करते हुए नाचते हैं | जिनके चोरी जारी के कड़वे वचनों को सुनने के लिए श्यामसुन्दर बरबस उनके घरों में जाते हैं | जिनकी चरणधूलि देवाधिदेव ब्रह्मादिक भी चाहते हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि वे ब्रजांगनाएँ धन्य हैं जो स्वामिनी कुंज - विहारिणी के साथ विहार करती हैं  |

( प्रेम रस मदिरा    सिद्धान्त  -  माधुरी )
     जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित  -  राधा गोविन्द समिति

🌼मानव देह का महत्व 🌼

🌼मानव देह का महत्व 🌼

यह मनुष्य का शरीर बार बार नहीं मिलता । दयामय भगवान चौरासी लाख योनियों में भटकने के पश्चात् दया करके कभी मानव देह प्रदान करते हैं । मानव देह देने के पूर्व ही संसार के वास्तविक स्वरुप का परिचय कराने के लिए गर्भ में उल्टा टांग कर मुख तक बाँध देते हैं । जब गर्भ में बालक के लिए कष्ट असह्य हो जाता है तब उसे ज्ञान देते हैं और वह (जीव) प्रतिज्ञा करता है कि मुझे गर्भ से बाहर निकाल दीजिये, मैं केवल आपका ही भजन करूँगा । जन्म के पश्चात जो श्यामसुंदर को भूल जाता है, उसकी वर्तमान जीवन में भी गर्भस्थ अवस्था के समान ही दयनीय दशा हो जाती है । 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि यह मानव देह देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, इसलिए सावधान हो कर श्यामसुंदर का स्मरण करो ।
                          -----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

मैं तेरा मेरा तेरा गोविंद राधे।
तेरी वस्तु को माना अपनी क्षमा दे।।

हे हरि! मैं आपका ही हूँ। मेरी हर वस्तु आपकी ही है। वस्तुतः मैंने आपकी ही वस्तु को अपना मान लिया था। इसके लिए आप मुझे क्षमा प्रदान करें।

तन मन प्राण तेरा गोविंद राधे।
मैं तो हूँ सदा का भिखारी तोहिं का दे।।

हे प्रभु! मेरा तन,मन, प्राण सब तुम्हारा ही दिया हुआ है। मैं भिखारी हूँ। मैं भला तुम्हें क्या दे सकता हूँ।

माटी का पुतला तू गोविंद राधे।
काल जब चाहे तोहिं माटी बना दे।।

यह मानव शरीर पंचतत्वों -पृथ्वी, जल, अग्नि,वायु और आकाश द्वारा निर्मित है। मृत्यु किसी भी क्षण इस शरीर को नष्ट कर पंचतत्वों में विलीन कर सकती है।

तन यौवन धन गोविंद राधे
चार दिन की है सब चाँदनी बता दे।।

सुन्दर शरीर, युवावस्था एवं धन केवल चार दिन के हैं। इनमें से कोई भी स्थिर रहने वाली वस्तु नहीं है।

तू ही बिनु हेतु दाता गोविंद राधे।
जग कछु लै के कछु दे दान ना दे।।

 हे नाथ! संसार में कोई किसी से कुछ लेकर उसे कुछ देता है। बिना हेतु के दान देने वाले एकमात्र दाता तो तुम ही हो।

तन क्षणभंगुर गोविंद राधे।
तजि दे गुमान मन हारि में लगा दे।।

हे मानव! शरीर नाशवान है। इसका गर्व न कर। अपने मन को तुरन्त श्रीहरि में लगा दे।

नंगे तनु आया था गोविंद राधे।
बिनु तनु जाये  काल तनु भी  छिना दे।।

हे जीव! तू संसार में नग्न शरीर लेकर आया था जाते समय यह शरीर भी तुझसे मृत्यु छीन लेगी।

कोटि यतन करू गोविंद राधे।
तन धन धाम तेरा कोई साथ ना दे।।

हे प्राणी ! तू करोड़ों प्रयास क्यों न कर ले। शरीर, धन या भवन कोई तेरे साथ नहीं जायगा।

हरि की शरण गहु गोविंद राधे।
हाय हाय में काहे जनम गँवा दे।।

श्री कृष्ण की शरणागति ग्रहण कर। सांसारिक कामनाओं के चक्कर में पड़ कर क्यों अपने जीवन को व्यर्थ नष्ट कर रहा है?

गर्भ ते न लाया कछु गोविंद राधे।
संग भी न जाये कछु मन को बता दे।।

जब जीव माँ के गर्भ से संसार में आता है तो खाली हाथ ही आता है। इसी प्रकार जब वह शरीर छोड़कर जाता है तब उसे खाली हाथ ही जाना पड़ता है। थोड़े से बीच के समय के लिए जोड़ा- जोड़ी कर वह अपना भविष्य बिगाड़ लेता है।

मुट्ठी बाँधे आया था तू गोविंद राधे।
हाथ पसारे जाये मन को बता दे।।

अरे जीव ! जब तू जगत में आया था तब तेरी मुट्ठी बंधी हुई थी। उस समय भी तू खाली हाथ ही था। अपनी आयु पूरी होने पर जब तुझे इस मृत्युलोक से वापस जाना होगा तब भी तू खाली हाथ ही जायगा। अपने मन को बार-बार इस सत्य का स्मरण करा ताकि वह इस जगत में आसक्त न हो।

जो आया जाये वह गोविंद राधे।
केहि लगि तू धन धाम सजा दे।।

जो इस संसार में आया है उसे यहाँ से जाना भी होगा फिर धनादि के एकत्र करने में अपने अमूल्य जीवन को क्यों नष्ट कर रहा है? तेरे पूर्व जन्मों के पुण्य-पुञ्जों के परिणाम स्वरुप श्रीहरि ने कृपा करके तुझे सीमित काल के लिए मानव-तन प्रदान किया है इसे तो क्षण-क्षण हरि स्मरण में ही लगाना उचित है-    "दो बातन को भूल मत जो चाहे कल्याण।
         नारायण इक मौत को दूजे श्रीभगवान्।"

तेरे जैसा दाता कौन गोविंद राधे।
मेरे जैसा भिक्षु कौन बानक बना दे।।

हे प्रेम-दानियों में सर्वश्रेष्ठ उदार शिरोमणि युगल किशोर! तुम्हारे जैसा देने वाला नहीं और मेरे जैसा माँगने वाला भी नहीं। मुझे भी अपने किसी प्रेमी से प्रेम की भिक्षा दिलाकर कृतार्थ करो।

पुस्तक-दानमेकं कलौ युगे                                                  रचयिता-जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

एक बार श्री गुरु नानक देव जी घोड़े पर बैठे कहीं से करतारपुर को लौट रहे थे।

एक बार श्री गुरु नानक देव जी घोड़े पर बैठे कहीं से करतारपुर को लौट रहे थे।

भाई लहणा जी, पुत्र बाबा श्री चन्द जी, बाबा लखमीचन्द जी और साधसंगत संग चल रही थी।

रास्ते में कीचड़ से भरा एक गन्दा नाला आया।

श्री गुरु नानक जी के पास एक कटोरा था।
उन्होंने वो कटोरा पुल पार करते समय उस गन्दे नाले में फेंक दिया,
और सबको ऐसा प्रतीत हुआ जैसे ये कटोरा गुरु जी के हाथ से छिटक कर गन्दे नाले में जा गिरा है।

श्री गुरु नानक देव जी ने हुक्म किया- कोई भाई जाकर के ये कटोरा इस नाले से निकाल लाओ।

कोई आगे नही बढ़ा।
श्री गुरु नानक देव जी ने अपने पुत्र बाबा श्री चन्द जी को कटोरा निकालने को कहा।

बाबा श्री चन्द जी ने उत्तर दिया- पिता जी! आप जैसे दिव्यात्मा को कटोरे से इतना मोह नहीं करना चाहिए।
आप चाहें तो आपको नया कटोरा ले देते हैं।

बाबा लखमी चन्द जी के भी यही विचार थे।

एक साधारण से कटोरे की खातिर एक गंद से भरे नाले में कूदना सबको बेवकूफी लग रही थी।

लेकिन वो कटोरा मुझे अतिप्रिय है।
इतना कह कर श्री गुरु नानक देव जी ने भाई लहणा जी की तरफ देखा।

मेरे गुरु को अतिप्रिय।
बस इतना सुना और अगले ही पल भाई लहणा जी उस कीचड़ से भरे गंदे नाले में कूद चुके थे,
और श्री गुरु नानक देव जी का प्रिय कटोरा ढूंढ़ रहे थे।

कुछ देर के बाद भाई लहणा जी को वो कटोरा मिल गया।
कटोरे को अच्छी तरह मांज-धो कर और साफ करके गुरु जी के चरणों में पेश किया।

श्री गुरु नानक देव जी ने पूछा- भाई लहणे! जब कोई इस कीचड़ में उतरने को तैयार नहीं था,
तो तूँ क्यों कूदा?

भाई लहणा जी ने हाथ जोड़ कर कहा- दाता! मैं सिर्फ इतना जानता हूँ,
मेरा गुरु नानक जिससे प्रेम करता है,
उसको कभी पापों से भरे कीचड़ में फंसा नहीं रहने देता।
वो अपनी कुदरत को हुक्म देकर,
उस प्रिय को उस नरक से निकालकर,
उसे अपने लायक बनाकर,
उसे अंगीकार करता है।
दाता! मैंने कुछ नही किया।
जो कुछ करवाया है वो तो आपने ही करवाया है।

ऐसे विचार सुन श्री गुरु नानक देव जी ने भाई लहणा जी को अपने हृदय से लगा लिया,
और बोले- भाई लहणा! कोई मन में आस है तो बोल।

भाई लहणा जी ने कहा- हे दातार! इस कटोरे की तरह मुझे भी आपका इतना प्यार मिले,
कि विकारों से भरा मैं पापी,
आपके अंगीकार हो सकूँ।

श्री गुरु नानक देव जी बोले- भाई लहणा! आप मुझे अतिप्रिय हो।
आप अपने आपको पाप और विकार से भरा कहते हो,
आप तो सेवा और सिमरन की ऐसी गंगा हो,
जिसमें पाप और विकार कभी ठहर ही नहीं सकते।

ऐसे दीन दयाल सत्गुरु, सेवा और सिमरन के सोमे श्री गुरु नानक देव जी के दूसरे अवतार धन्न गुरु अंगद देव जी महाराज जी (भाई लहणा जी) हुए।

------ ये है अपने गुरु/सत्गुरु के प्रति प्यार ------
अगर हमको हमारे गुरु पर पूरा भरोसा है,
तो फिर गुरु हमें कभी भी अकेला नहीं छोड़ते हैं।
हमें सिर्फ और सिर्फ उनके बताए हुए मार्ग पर और उनके कहे हुए शब्दों पर चलना चाहिए।

दयामय ! दया चहौं नहिं न्याय |

दयामय ! दया चहौं नहिं न्याय |

नहिं पैहौ प्रभु ! पार न्याय करि, एतिक मम अन्याय |बिनु जाने अपराध करत जो, सोऊ दंडहिं पाय |पुनि जो जानि जानि कर पापन, नाथ ! कौन गति वाय |न्याय होत जगहूँ, पै तुम तो, करुणाकर कहलाय |कहत ‘कृपालु’ न चतुराइहिं कछु, देखहु उर पुर आय  ||


भावार्थ  -  हे दयासिन्धु श्यामसुन्दर ! मैं दया चाहता हूँ, न्याय नहीं चाहता | हे प्रभो ! यदि न्याय करोगे तो मेरे अगणित पापों की गणना भी न कर सकोगे | जब अनजाने में ही अपराध करने पर आपके यहाँ दण्ड अवश्य भोगना पड़ता है तब फिर जो जान - जान कर पाप करता है, हे नाथ ! उसकी क्या गति होगी | न्याय तो संसार में यथा शक्ति होता ही है, किन्तु तुम तो अकारण - करुण हो इसका ख्याल करो | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैं कुछ चतुराई से नहीं कह रहा हूँ, मेरे हृदय में झाँक कर देख लो  | 


( प्रेम रस मदिरा   दैन्य  -  माधुरी )
  जगद्गुरूत्तम  श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति