क्रूर !, तू कत अक्रूर कहाय |


क्रूर !, तू कत अक्रूर कहाय |
कुलिश करोर कठोर तोर हिय, कहु केहि धातु बनाय |
धनि धनि अवनि जननि उन जिन तोहिं, जाय माय पद पाय |
सखियन गति अँखियनहूँ देखत, हा ! कत नहिं पतियाय |
लै ले प्राण प्राणप्रिय दै दे, प्राण हाय ! अब जाय | 
कह ‘कृपालु’ बहुब्रीहि समासहिं, क्रूर न जासों पाय ||

भावार्थ   –   ( मथुरा गमन के समय अक्रूर के प्रति ब्रजांगनाओं की उक्ति )
अरे क्रूर ! तेरा नाम अक्रूर कैसे पड़ गया ? करोड़ों वज्र के समान तेरा कठोर हृदय किस धातु से बनाया गया है ? उस पृथ्वी एवं उस तेरी माता को क्या कहूँ, जिसने तुझे पैदा करके माता के पद को लज्जित किया है | तू अपनी आँखों से भी सखियों की दयनीय दशा देखकर विश्वास नहीं करता | हम लोगों का प्राण ले ले, किन्तु हमारे प्राण श्यामसुन्दर को न ले जा | हम लोगों का प्राण कथमपि नहीं रह सकता | इतने में ‘श्री कृपालु जी’ ने कहा – अरी ब्रजांगनाओं ! ‘अक्रूर’ शब्द में बहुव्रीहि समास है जिसका अर्थ है जिनके समान विश्व में कोई भी क्रूर न हो | अतएव उसका क्रूर व्यवहार स्वाभाविक ही है   | 

 
( प्रेम रस मदिरा     विरह   –   माधुरी )
    जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित  -  राधा गोविन्द समिति

चलन लागे, लाल घुटुरुवनि चाल |




चलन लागे, लाल घुटुरुवनि चाल |
तनक झुकी सिर मोर चंद्रिका, लटुरिन छवि घुँघराल |
नील – कलेवर झलमलात भल, झँगुली पीत रसाल |
कटि किंकिनि पग पैजनियनि धुनि, मोहीं सब ब्रजबाल |
दुध दँतुलिन किलकनि का कहनो, लखत बनत छवि लाल |
पकरि ‘कृपालु’ महरि कर अँगुरिन, तनक चलत गोपाल   ||

भावार्थ  –  छोटे से ठाकुरजी घुटनों के बल चलने लगे हैं, सिर पर थोड़ी – सी झुकी हुई मोर चन्द्रिका सुशोभित है | घुँघराली लटों की झाँकी अत्यन्त मनोहारी है | नीले शरीर पर पीले रंग का झंगुला झलमल करता हुआ अत्यन्त सुन्दर लग रहा है | कमर की करधनी एवं चरण की पायल की रुनझुन ध्वनि ने समस्त ब्रजांगनाओं को मोह लिया | दूध के कुछ दाँतों से युक्त किलकने का रस तो इतना विलक्षण है कि बस देखते ही बनता है | ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में, मैया के हाथ की उँगलियों को पकड़कर छोटे से ठाकुरजी थोड़ा – थोड़ा चल लेते हैं  |

( प्रेम रस मदिरा   श्री कृष्ण - बाल लीला – माधुरी )
   जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति

आजा आजा राधे, आके ना जा मेरी राधे ।।

आजा आजा राधे, आके ना जा मेरी राधे ।।

सुत को भुलाया ऐसी कैसी माँ तू राधे  ।।
उर ते लगा जा आजा निज शिशु राधे ।।

देखा कैसे जाए तोसों सुत दुःख राधे ।।
रोता रहूँ तब दर्शन हित राधे ।।

तेरी कृपा मै न कमी मेरी कमी राधे ।।
मन से मै हारा मन लेले मेरी राधे  ।।

तू ही मेरी थी रहेगी स्वामिनी राधे ।।
है प्रतीति एक दिन आएगी तू राधे ।।

आजा आजा राधे, आके ना जा मेरी राधे ।।

माने या न माने मै हूँ तेरी दासी राधे ।।
मोको क्यों भुलाया तोसों बोलू नहीं राधे ।।

प्रेम अगाधे मेरी प्यारी प्यारी राधे ।।
तू तो है "कृपालु" क्यों कठोर बनी राधे ।।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराजजी से साधक का प्रश्न:

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराजजी से साधक का प्रश्न: जब हम अपने दोस्त,रिश्तेदार आदि को भगवद विषय समझाने का प्रयत्न करते हैं तब समझने के बजाय कभी-कभी वे और अकड़ जाते हैं। इससे हमे बहुत दुख होता है। ऐसे में हम क्या करें?

श्री महाराजजी द्वारा उत्तर: अश्रद्धालु एवं अनाधिकारी से अपने मार्ग अथवा साधना आदि के विषय में वाद-विवाद करना भी कुसंग है,क्योंकि जब अनाधिकारी को सर्वसमर्थ महापुरुष भी आसानी के साथ बोध नहीं करा पाता,तब साधक भला किस खेत की मूली है। यदि कोई परहित की भावना से भी समझाना चाहता है,तब भी उसे ऐसे नहीं करना चाहिए,क्योंकि अश्रद्धालु होने के कारण उसका विपरीत ही परिणाम होगा। साथ ही अश्रद्धालु के न मानने पर साधक का चित्त अशांत हो जाता है।
शास्त्रानुसार भी भक्तिमार्ग को लेकर वाद-विवाद करना घोर पाप है। अतएव न तो वादविवाद सुनना चाहिए,न तो स्वयं करना चाहिए। यदि अनाधिकारी जीव इन विषयों को नहीं समझता ,तो इसमें आश्चर्य या दुख भी नहीं होना चाहिए,क्योंकि कभी तुम भी तो नहीं समझते थे। यह तो परम सौभाग्य महापुरुष एवं भगवान की कृपा से प्राप्त होता है कि जीव भगवदविषय को समझकर उसकी और उन्मुख हो।
अनाधिकारी को भगवदविषयक कोई अंतरंग रहस्य भी न बताना चाहिए,क्योंकि वर्तमान अवस्था में अनुभवहीन होने के कारण अनाधिकारी उन अचिंत्य विषयों को नहीं समझ सकता। उलटे अपराध कमाकर अपनी रही सही अस्मिता को भी खो बैठेगा। साथ ही अंतरंग रहस्य बताने वाले साधक को भी अशांत करेगा।