May 19, 2025: Highlights of a soulful morning sadhana

 💫May 19, 2025: Highlights of a soulful morning sadhana🎼

🌷✨Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj ki Jai!✨🌷

Jagadguru Aadesh:


Two key points for a sadhak -

1. When you have idle time, anytime, anywhere, chant the name of Radha with each breath. When you inhale, think 'Ra,' and think 'dhey' when you exhale. Otherwise, the mind tends to think about the impure material world because of its habit, and if someone sits next to you, you will indulge in useless conversations with them.

2. Speak less and only as much as is necessary. When you speak too much, you will eventually say something wrong. This will become harmful to you. Speaking causes more harm than thinking because worldly thinking causes harm only to us, but talking about worldly affairs causes harm to others as well. And the other person may start to hate you. Generally, people tend to exaggerate things to prove themselves right. No one gives a truthful description of what happened. 99.9% of conflicts in the world arise from speaking. The more one speaks, the more one invites anxiety, conflicts, and hatred from others. Don't think that you will defeat others by speaking. No one accepts defeat. If someone at home speaks to you angrily, remain silent because if you argue back, the matter will only escalate further. By speaking less, you will save time, attain peace of mind, and avoid the many afflictions like anger, etc., that arise from excessive speech. So, practice speaking minimally.


If you repeatedly do something, it becomes a habit. Firmly resolve to practice these two things. Initially, it will require effort, but it will start happening naturally with practice. Practice this for a month and experience the immense benefit.

Kirtan:

- Radha Govind Geet (Part 2, Chapter - Shri Radha naam mahima)

- Hamare mana bhaayin Bhanulali (Prem Ras Madira, Siddhant Madhuri, pad no. 133)

- Shri Radhey Shri Radhey prem agaadhe Shri Radhey


'rā' suni soce piya goviṁda rādhe।

aba 'dhe' kahegā roma roma harṣā de॥

kr̥ṣṇa kaheṁ jo kou goviṁda rādhe।

‘rā' kahe vāya deum̐ bhakti batā de॥

puni jaba 'dhā' kahe goviṁda rādhe।

pāche pāche calūm̐ rādhā nāma sunā de॥

jihvā pai rādhe nāma goviṁda rādhe।

kānoṁ meṁ rādhe gunagāna sunā de॥

sāṁsa khīṁco 'rā' kahu goviṁda rādhe।

sāṁsa choṛo 'dhe' kā abhyāsa karā de॥

khāte pīte calate phirate goviṁda rādhe।

rādhe nāma jani bhūlo pala china ādhe॥

calo mana barasāno goviṁda rādhe।

taham̐ rādherānī nāma gunagana gā de॥

māyā te na ḍaro mana goviṁda rādhe।

rādhe rādhe bola bola māyā ko ḍarā de॥

rādhā pada araviṁda goviṁda rādhe।

makaraṁda hita mana madhupa banā de॥

rādhā tere ura meṁ haiṁ govinda rādhe।

bani jā pataṁga ḍorī rādhe ko thamā de॥

  इस प्रकार सम्मेलन का उद्घाटन स्वागताध्यक्ष संत शिरोमणि श्री कृपालु महाप्रभु के संक्षिप्त प्रवचन एवं समागत संतों के अभिनंदन करने के पश्चात् स्वागत मंत्री श्री बलवीर जी ने छोटा सा वक्तव्य देकर सबका स्वागत किया व कार्यक्रम की रूपरेखा व समय-सारिणी से अवगत कराया। उनके वक्तव्य का सारांश इस प्रकार है…..

मेरे प्रिय पावन आत्मीय जन!

मैं हृदय से आप सब का स्वागत करता हूँ। युगों-युगों से प्रसिद्ध तपोभूमि में प्रेम रसिक सन्तों का शुभागमन! परम कृपालु के इन भक्तिमय लाड़ले बच्चों की यथार्थ स्वागत क्षमता परम भगवती माँ के अतिरिक्त और किसमें हो सकती है ? उन्हीं का यह नादान बालक बलवीर सिंह आज स्वागत मंत्री बना कर यहाँ खड़ा कर दिया गया है। संतों के स्वागत के लिये, जिसके मैं सर्वथा अयोग्य हूँ। किन्तु उनकी ही कृपा से आप लोगों का स्वागत करूँगा। आज मुझे संतों की सेवा का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ है। "बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता।"

लोकाभिराम श्री राम का यह विचित्र तपोधाम स्वनाम धन्य है। आज यहाँ पधारे हुए संतों व अन्य बांधवों का मैं हृदय से स्वागत करता हूँ। प्रेम-रस-रसिक संत परम आदरणीय श्री कृपालुदास जी महाराज जैसे सुयोग्य स्वागताध्यक्ष के अमृत वचनों के पश्चात् अब मेरे कुछ कहने की आवश्यकता तो रह ही नहीं जाती। तथापि सबको अपने-अपने कर्तव्य का पालन तो करना ही होता है। अत: मैं अपनी क्षमता के अनुसार आप सब से कुछ कहने जा रहा हूँ।

यह धार्मिक सम्मेलन है। यहाँ टीका टिप्पणियों का कोई स्थान नही होगा। यहाँ खंडन नहीं मंडन होगा। मत-मतान्तरों का समन्वय साधन होगा। मानव देह के सर्वमान्य एवं सर्वसुलभ पथ का प्रकाशन एवं सर्वमान्य लक्ष्य की ओर निर्देश होगा। मैं यहाँ पर उपस्थित गुप्त व प्रकट संवेदनशील सन्तों से निवेदन करता हूँ कि हम साधारण कोटि के जीवों की उलझनों को दूर कीजिये। हमारी दुर्दशा पर ध्यान देते हुए हम आर्त जीवों की पुकार सुनिये। आज मात्र बाँदा ही नहीं संपूर्ण मानव जाति आपका मुँह ताक रही है। अरे! कौन अभागा नहीं चाहता उस अनन्त सुख सिंधु की एक बिंदु को प्राप्त करना ? किन्तु कौन ले चले उधर ? ओ हमारे श्रद्धेय संतो ! भगवत्प्राप्त महापुरुषो! आज के शुभ अवसर पर हमारी प्रार्थना है कि भिन्न-भिन्न पन्थों और ग्रन्थों के जाल से हमें निकाल कर हमारा समुचित पथ-प्रदर्शन करें।

आज से 15 दिन तक हमें आप सब वन्दनीय महापुरुषों का सत्संग व सान्निध्य प्राप्त होता रहेगा। हम सब मिलकर आपका यथेष्ट स्वागत, सत्कार व आपकी सुविधा के लिये हर प्रकार की व्यवस्था रखने का पूर्ण प्रयास करेंगे। तथापि हमसे त्रुटियों का होना अवश्यम्भावी है। किन्तु हम आशा करते हैं कि हमारे क्षमाशील संत हम असंस्कृतों की त्रुटियों को अवश्य क्षमा कर देंगे, जहाँ हमसे कुछ बिगड़ता होगा बनवा लेंगे।

जनता से भी मेरा अनुरोध है कि इस अभूतपूर्व संत समागत में उपस्थित होकर इसका पूरा लाभ लें व हमारे प्रबन्ध में यदि कहीं भी प्रासंगिक त्रुटि रह गई हो तो अधिकारपूर्वक हमें सूचित करें।

आप सबका आशीर्वाद सदा अपेक्षित है।

बोलिये राजा रामचन्द्र भगवान् की - जय ।

बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की - जय।

पश्चात् श्रीमहाराज जी द्वारा प्रणीत कतिपय उन युग्म प्रश्नों का सूची पत्र, जो परस्पर विरोधार्थक लक्षित होते थे, समस्त समागत प्रवक्ताओं के मध्य वितरित कर दिया गया व उनसे इन युग्म प्रश्नों का समन्वयात्मक समाधान करने की प्रार्थना की। तदुपरांत महात्माओं के प्रवचन, रासलीला, भगवत् कथाओं आदि के द्वारा सम्मेलन का प्रथम दिवस सम्पन्न हुआ।

तीन चार दिन निकल गये। किसी भी संत या विद्वान ने उन प्रश्नों का समाधान नहीं किया। श्री महाराज जी बारम्बार घोषणा करते रहे “जनता परेशान है। उन्हें इन भ्रमात्मक प्रश्नों का उत्तर नहीं प्राप्त हो रहा है। समस्त प्रवक्ताओं से अनुरोध है कि वे इसका समाधान करें।"अधिकांश विद्वानों व संतों ने इनका समाधान असंभव बताते हुए एक परिहास समझा। क्योंकि उनके युग्मों का समाधान श्री कृपालु जी महाराज स्वयं करने में भी सर्वथा असमर्थ ही होंगे। क्योंकि जिसे समस्त वेदों व अन्यान्य धर्मग्रन्थों का भी सम्यक् ज्ञान हो, वही समन्वय करने में सक्षम हो सकता है और ऐसा करना मानव जीवन में किसी के लिये संभव नहीं है। अतः करपात्री जी ने मर्यादा की रक्षा करते हुए विनम्र स्वरों में रंगमंच से ही घोषणा की “हम तो इन प्रश्नों का समन्वय करने में असमर्थ हैं, किन्तु संभवतः श्री कृपालु जी महाराज स्वयं इनका समन्वय करने में सक्षम होंगे। अतः श्री कृपालु जी महाराज से हम सब विद्वानों का विनम्र निवेदन है कि आप स्वयं इन प्रश्नों का समन्वय करें।" ये भी विनम्र शब्दों में परोक्ष रूप से श्रीमहाराज जी के लिये एक चुनौती थी।


श्री महाराज जी ने भी रंगमंच पर आकर जनता व विद्वत् समाज से निवेदन किया “मुझे इन प्रश्नों के समन्वय करने में कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु मैं स्वागताध्यक्ष हूँ । अतः नियमानुसार मुझे अन्य संतों व विद्वानों की भाँति व्यास गद्दी से प्रवचन देने का अधिकार नहीं है। हाँ, यदि हमारे अध्यक्ष श्री राघवेन्द्र सरकार मुझे बोलने की अनुमति दें तो निश्चय ही मुझे आप लोगों का आदेश स्वीकार है। "


उनकी यह उद्घोषणा सुनते ही आश्चर्यजनक रूप से राम दरबार के स्वरूप श्री राघवेन्द्र सरकार, जो बालक ही थे और कभी रंगमंच से बोले ही नहीं थे, अति प्रसन्न होकर झपट कर माइक पर आये और बोले “मैं स्वागताध्यक्ष श्री कृपालु जी महाराज को प्रवचन देने की अनुमति देता हूँ।" यह सुनते ही सारा पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान् हो गया, चारों ओर प्रसन्नता का एक अद्भुत वातावरण छा गया।


श्री महाराज जी ने भी ऐसा करना परमावश्यक समझ के सम्मेलन के अध्यक्ष श्री राघवेन्द्र सरकार का आदेश पाकर उसी समय समाधान करने की उद्घोषणा कर दी और कहा कि मैं पूर्व निश्चित कार्यक्रमों में बिना परिवर्तन किये अन्त में रात्रि 9 बजे से बोलूँगा। जनता व समागत विद्वानों व संतों से प्रार्थना है कि वे सभी सुनने के लिये उपस्थित हों।


वहाँ इसी ज्ञान की लालसा लेकर आई हुई जनता के लिये रात्रि 9 बजे तक प्रतीक्षा करना मानो असंभव सा हो रहा था। क्योंकि ज्ञान-लालसा से भी अधिक प्रबल जिज्ञासा यह हो गई कि जिन प्रश्नों का समाधान इतने सारे विद्वान् मिलकर भी नहीं दे सके, उनका समन्वय ये अल्प वयस्क मात्र 33 वर्षीय श्री कृपालु जी कैसे देंगे ?


सायं आठ बजे से ही पंडाल पूर्णतया जनाकीर्ण होने लगा। आये हुए समस्त अस्तु, संत, महन्त व विद्वानों ने भी समय के पूर्व आकर अपना-अपना आसन ग्रहण कर लिया । ठीक 9 बजे श्री महाराज जी आकर व्यास गद्दी पर समासीन हो गये। उनकी जय घोष से संपूर्ण चित्रकूट गुंजरित हो गया। जनता के मुख पर आशामयी हास का आनंद नर्तन होने लगा।


श्री महाराज जी ने अपने प्रवचन को श्रीकृष्ण स्तुति से प्रारंभ कर वेद मंत्र के साथ भगवद् स्तवन किया। पश्चात् अखिल वातावरण में भगवद् भाव को उल्लसित करते हुए “ भजो गिरिधर गोविन्द गोपाला" का दो-तीन मिनट रसमय कीर्तन करा कर सबको विभोर कर दिया। पश्चात् पत्रांकित युग्म प्रश्नों के समाधान का कार्य प्रारंभ किया।


प्रथम दिवस ही उनकी अद्भुत समन्वय शैली, शास्त्र वेदों पर आश्चर्यजनक अधिकार, चकित कर देने वाली प्रवचन शैली का सारल्य आदि देखकर साधारण जनता तो क्या श्रेष्ठ विद्वान् भी दाँतों तले उँगली दबा कर रह गये। भीड़ दिन प्रतिदिन द्विगुणित होती गई।


इन प्रवचनों में भी श्री महाराज जी ने मुख्यतः वेदान्त को आधार बनाकर शास्त्रों से उसका अभिन्नत्व बताया। मीमांसादि नास्तिक दर्शनों की भी उपादेयता को प्रमाणित किया। वेदों व शास्त्रों में दृष्टिगत होने वाले वैमत्य का समन्वय किया। भारतीय दर्शनों का यथा द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, अचिन्त्य भेदाभेदवाद, पुष्टि मार्ग आदि का सविस्तार विवेचन करते हुए उनका समन्वय व अध्यात्म जगत में उसकी उपादेयता का भी वर्णन किया। पाश्चात्य दार्शनिकों के दर्शन का भी सविस्तार वर्णन किया। अंत में भगवान् श्रीराम व श्रीकृष्ण का ऐक्य सिद्ध करते हुए उनके नाम, रूप, लीला, गुण, धाम आदि का रूपध्यान करते हुए कलियुग में भगवत्प्राप्ति का सरलतम व सरसतम मार्ग प्रशस्त कर के सबको रस से सराबोर कर दिया। उन्होंने वेद, पुराण, न्याय शास्त्र आदि ग्रन्थों के आधार पर यह भी सिद्ध किया कि भक्तिमार्ग ईश्वर प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग ही नहीं, एकमात्र मार्ग है।


अन्य महात्माओं के कार्यक्रम में कोई बाधा न पहुँचे, एतदर्थ उन्होंने अपने प्रवचन का समय रात्रि में सबके बाद 9 बजे से 11 बजे तक रखा था। किन्तु परिणामतः सायंकाल से पंडाल खाली-खाली सा रहता था और सर्वाधिक जनता 9 बजे एकत्र होती थी। इस पर कतिपय महात्माओं को समय के विषय में आपत्ति हुई और उनका समय बदलने को कहा। तो श्री महाराज जी के बोलने का समय 6.30 से 8 बजे कर दिया गया, जो कथा वाचकों का समय होता था और लोग उस समय भोजनादि में व्यस्त रहते थे। किन्तु जब श्री महाराज जी इस समय बोलने लगे तो सारी जनता जल्दी आकर उनके प्रवचन के बाद भोजन के लिये जाने लगी। अंत में उनका समय सर्व सम्मति से 8 से 9.30 कर दिया गया। किन्तु वह कभी कभी 10 या 11 बजे तक भी बोलते थे और बाल, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, महात्मा जन, विद्वज्जन आदि सभी मंत्र मुग्ध होकर सुनते थे और अपनी-अपनी योग्यतानुसार झोली भर-भर के ज्ञान के मोती ले जाते थे।


इस सम्मेलन में दो लाख लोगों की भीड़ थी। धर्मशालाओं में स्थान न मिलने के कारण लोग रात्रि में पंडाल में ही सो जाते थे।


इस सम्मेलन के साक्षी बनने के पश्चात् महाराज जी के प्रिय भक्तों ने जाना कि हमारे महाराज जी इतने बड़े विद्वान् भी हैं और ऐसा ओजस्वी प्रवचन देने में भी दक्ष हैं कि बड़े से बड़े विद्वानों की भी बोलती इनके सामने बंद हो गई। क्योंकि अभी तक तो या तो प्रवचन देते सुना ही नहीं था या वे आँख बन्द करके सात-सात आठ-आठ घंटे प्रवचन देते थे जो किसी की समझ से बाहर था।


इस आयु में ऐसी प्रतिभा कि समस्त शास्त्र वेदों का सम्यक् ज्ञान होना, पुनः सबका समन्वय करना, इनके अलौकिकत्व का स्पष्ट संकेत है।


इस प्रकार शेष दिनों में प्रतिदिन उनका धारावाहिक प्रवचन चला। श्री महाराज जी ने समस्त शास्त्रों, वेदों, उपनिषदों आदि 12 दर्शनों, जगद्गुरुओं के सिद्धान्तों के विचारों का समन्वय करने के अतिरिक्त प्राच्य व प्रतीच्य दार्शनिकों के मतों को भी प्रस्तुत करते हुए समन्वय किया। जगद्गुरुओं के सिद्धान्तों का समन्वय करते हुए सिद्ध किया कि वे सब सिद्धान्त समानरूप से वेद शास्त्र सम्मत व माननीय हैं। पुनः अपना सिद्धान्त भी प्रस्तुत किया और भक्तिमार्ग को ही ईश्वरप्राप्ति का एकमात्र साधन बताया।


श्री महाराज जी ने मुख्यतः वेदान्त का ही आश्रय लिया, किन्तु छहों दर्शन के मुख्य विषयों की चर्चा करते हुए बताया कि वेदान्त दर्शन का सार समझने के लिये शेष छहों दर्शन को भली प्रकार समझना अनिवार्य है।


जनसाधारण से ले कर शिखरस्थ विद्वानों ने हृदय से यह स्वीकार किया कि यह ज्ञान अद्वितीय व सर्वथा अकाट्य है । सबने भूरि-भूरि सराहना करते हुए यह माना कि यह अद्वितीय सम्मेलन था और यहाँ आ कर हमारा जीवन सार्थक हो गया।


भारत में आध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ मान्यता प्राप्त कतिपय संत व विद्वान् जो श्री महाराज जी के अद्भुत शास्त्रीय ज्ञान से अत्यन्त विस्मित व मुग्ध थे, उन महानुभावों में मुख्यतः महामहोपाध्याय श्री गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी थे। ये काशी विद्वत् परिषत् के अध्यक्ष भी थे। इन्होंने काशी जाकर विद्वन्मंडल के अन्य लोगों से भी 33 वर्षीय नवयुवक के अपरिमेय व अपौरुषेय ज्ञान की मुक्त कंठ से सराहना की। ये विद्वान् विचार में पड़ गये कि एक ही शास्त्र का ज्ञान अर्जित करने में संपूर्ण आयु समाप्त हो जाती है। ये 33 वर्षीय युवक भला सारे शास्त्रों का सम्यक् व समन्वयात्मक ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकता है ? अतः उन्हें लगा कि ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे अध्यक्ष को कुछ मतिभ्रम हो गया है। वास्तव में ऐसा होना असंभव है। अतः बात को टाल गये।

मई 5, 2025: सुबह की रसमय साधना के मुख्य आकर्षण

 💫मई 5, 2025: सुबह की रसमय साधना के मुख्य आकर्षण🎼

🌷✨जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की जय!✨🌷

*जगद्गुरु आदेश:*

भक्ति में उधार मत करो -

हम लोग यह सुनते तो हैं कि भगवान् सब जीवों के हृदय में सदा रहते हैं। 1/100 सेकंड को भी जीवात्मा परमात्मा से पृथक नहीं हो सकता। लेकिन यह बात हम मानते नहीं हैं। जो मान ले वह महापुरुष हो जाये, भगवत्प्राप्ति फ्री में हो जाये। मुँह से जो लगातार बोलता भी रहे, वो भी नहीं मानता। यह सबसे बड़ा आश्चर्य है।



तो इसका अभ्यास करना होगा। अगर हम हरि गुरु को सदा अपने साथ मान लें तो फिर न कोई साधना करनी है न कुछ गड़बड़ी होनी है। हम कोई पाप कर ही नहीं सकते। अपने आप को अकेले मानने पर ही हम लोग पाप करते हैं। हम सोचते हैं कि जो हम सोच रहे हैं कोई नहीं जानता। तभी तो निर्भय होकर पाप करते हैं। तभी हम भगवान् से भी अपराध करते हैं, गुरु से भी। गुरु से चोरी करना सबसे बड़ा पाप का मूल है (गुरुस्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति)।


तो गन्दा चिंतन बंद करो, अच्छे बन जाओ। मन की मत सुनो - उसको तो संसारी चिंतन मीठा लगता है - राग भी अच्छा लगता है द्वेष भी अच्छा लगता है। हम सब इसी दोष से ग्रस्त हैं - इस दोष को मिटाओ। अभी समय है। मरने के एक क्षण पहले तक बिगड़ी बात बन सकती है। उसके बाद कुछ नहीं हो सकता। फिर अगर यमराज से कहो कि एक सेकंड रुक जाओ - बिल्कुल नहीं। अभ्यास नहीं करने का हमारी ज़िद की वजह से हमें करोड़ों कल्प चौरासी लाख योनियों में घूमकर दुःख भोगना होगा। क्या मिलेगा इस असहनीय दुःख को भोगकर ?


तो दृढ़ निश्चय करके हरि गुरु को सदा अपने साथ मानने का अभ्यास करना होगा। तभी हमारा कल्याण हो सकता है। जानने से काम नहीं बनेगा। मानने से ही काम बनेगा। यह स्वयं को ही करना होगा, कोई करके नहीं देगा।


भगवत्कृपा की अंतिम सीमा हो गयी है। आपको तत्त्व ज्ञान करा दिया गया है। अब हर समय अभ्यास करो - हरि गुरु हमारे अंदर बैठे हैं और हमारे विचार नोट कर रहे हैं। अच्छे बन जाओ।

*कीर्तन:*

- बलिहार युगल सरकार, हमरिहुँ ओर निहार (ब्रज रस माधुरी, भाग 1, पृष्ठ सं. 188, संकीर्तन सं. 121)

- अहो हरि! तुम मम साहूकार (प्रेम रस मदिरा, दैन्य माधुरी, पद सं. 11)

- हरे राम संकीर्तन

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💫May 5, 2025: Highlights of a blissful morning sadhana🎼

🌷✨Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj ki Jai!✨🌷

*Jagadguru Aadesh:*

Do not procrastinate devotional practice -

We have heard many times that God resides within all souls all the time. A soul cannot stay separated from God even for 1/100th of a second. However, we do not accept this fact. Accepting this fact alone can make one a saint and get God-realization for free. Even the one who constantly chants doesn't accept this fact. This is the greatest surprise of all.


So we must practice this. If we accept Hari and Guru to be with us all the time, we don't need to do any further sadhana, nor will we commit any transgressions. Then, we can just not commit any sins. We do sins only when we think we are alone. We think that no one knows what we are thinking. This is the reason why we commit sins fearlessly. This is the very reason why we commit transgressions against God as well as Guru. Doing stealthy actions, thinking these are unbeknownst to Guru, is the root cause of the greatest of sins (gurusthāne kṛtaṃ pāpaṃ vajralepo bhaviṣyati).


Hence, stop impure thoughts and become truly good. Do not listen to the mind. It finds all material thoughts sweet - it loves both attachment and hatred alike. We are all filled with this fault. Work on removing this fault. We still have time. We can resolve our miserable state till a moment before death; nothing can be done afterward. At that time, if we ask Yamraj to wait for one more second - Absolutely not! Our stubbornness in not practicing this will make us wander around in the 84 lakh forms for billions of years and undergo misery. What will we get out of going through this unbearable suffering?


Hence, make a firm resolve and practice to realize Hari and Guru are always with you. Only this can lead to our welfare. Merely knowing this fact will not do. We must accept this fact. We have to do this ourselves - no one else can do this for us.


We have now received the ultimate grace of God. We have been given divine knowledge. Now practice all the time - Hari and Guru sit within us and note our ideas. Become truly good.

*Kirtan:*

- Balihaar Yugal Sarkar, hamarihun or nihaar (Braj Ras Madhuri, part 1, page no. 188, sankirtan no. 121)

- Aho Hari! Tum mam sahookar (Prem Ras Madira, Dainya Madhuri, pad no. 11)

- Hare Ram sankirtan

मई 2, 2025: सुबह की भावपूर्ण साधना के मुख्य आकर्षण

 💫मई 2, 2025: सुबह की भावपूर्ण साधना के मुख्य आकर्षण🎼

🌷✨जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की जय!✨🌷

*जगद्गुरु आदेश:*

दीनता बढ़ाओ -

हमें तीन बातें समझनी हैं और तीन काम करने हैं:

1. दीन भाव

2. रूपध्यान

3. श्यामा श्याम का नाम गुण लीलादि संकीर्तन।



इनमें से हम एक करते हैं - संकीर्तन। किन्तु दो नहीं करते। केवल रसना से संकीर्तन करना ऐसे है जैसे प्राण हीन शरीर। बिना दीनता और रूपध्यान के आँसू नहीं आयेंगे। बिना आँसू का कीर्तन, कीर्तन नहीं है। वो तो तोता रटंत है। इन्द्रियों के वर्क को तो भगवान् नोट ही नहीं करते।


1. दीन भाव - यह भक्ति के विषय में पहला अध्याय है - नम्रता बढ़ाओ। सबको सम्मान देने की भावना रखो। अपने में सबसे नीचे की भावना रखो। माया के सब अवगुण (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य) हमारे अंदर हैं। बार-बार सोचो, "मैं अधम हूँ, पतित हूँ, गुनहगार हूँ। भगवान् के कीर्तन में भी आँसू नहीं बहाता। मैं ये नहीं मानता कि सब में भगवान् बैठे हैं। नास्तिक हूँ मैं!" ऐसे बार-बार फील करो, रियलाइज़ करो। अगर कोई बुराई करे भी तो यही कहेगा कि "तुम कामी हो, क्रोधी हो, लोभी हो, बदमाश हो" आदि। वो तो हम हैं ही हैं। हम महापुरुष तो नहीं हैं। बुराई करने वाला तो हमारा हितैषी है। वो हमारे अवगुण बता रहा है। निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय (तुलसीदास) - आँगन में उसकी कुटी बना दो ताकि वो रोज़ निंदा करे और तुम अभ्यास करो कि बुरा नहीं मानेंगे। सब में भगवान बैठे हैं। कभी भी किसी के प्रति दुर्भावना न लाओ, दोष न देखो, नीचा न समझो, द्वेष न लाओ। निन्दनीय के प्रति भी निन्दनीय की भावना न हो क्योंकि इससे हमारा मन और गंदा हो जायेगा। इससे भगवान् प्रसन्न नहीं होंगे। गुरु भी दुःखी होंगे यह सोचकर कि "मैंने इतना समझाया, फिर भी ये मन में राग-द्वेष लाकर उसको गन्दा कर रहा है।" मन में भगवान् और गुरु को लाओ, यही दो शुद्ध हैं, इन्हीं से मन शुद्ध होगा। ईश्वरीय जगत में लोकरंजन की बुद्धि न लाओ। जितना अधिक अपने में नीच भावना करोगे, उतने तुम भगवान् के प्रिय बनोगे - ये याद कर लो सबक - भगवत्प्राप्ति तक काम देगा। अन्यथा ये माया बड़ी खतरनाक है। लोकरंजन की बुद्धि से बड़े-बड़े योगीश्वरों का पतन हो गया।

2. रूपध्यान - मन से भगवान को सामने खड़ा करो। जितना मन भगवान् का रूपध्यान करेगा उतना ही भगवान् के पास जाओगे, भगवान् तुम्हारे पास आएँगे।

3. श्यामा श्याम नाम गुण लीला संकीर्तन - रोकर पुकारो। ये प्रमुख साधना है, और ये दीनता के बिना नहीं होगी।


सोते समय सोचो - आज हमने कहाँ अहंकार किया ? कहाँ हमने प्रतिष्ठा की भावना बनाई मन में ? यह मूर्ख मन ही हमें 84 लाख में घुमा रहा है।

अहंकार घोर शत्रु है उससे बचकर साधना करो। सबसे बड़ी बात - जो अंदर गड़बड़ी आप लोगों ने पैदा कर ली है, उसको निकाल दो। जिसके प्रति दुर्भावना हो गई है, उसके पास जाएँ, उससे क्षमा मांगें और मधुर व्यवहार करें - ऐसा व्यवहार करें कि वो झुक जाए। ये विशेषता होनी चाहिए। इसका अभ्यास करना है।


इस तरह साधना करो और फिर देखो दिन प्रतिदिन कितनी उन्नति होगी। फिर देखो कृपालु बिना बुलाये बार-बार आयेंगे और आपकी सेवा करेंगे।

*कीर्तन:*

- मेरो राधारमण चितचोर (ब्रज रस माधुरी, भाग 1, पृष्ठ सं. 35, संकीर्तन सं. 28)

- प्रभु जी! भले बुरे हम तेरे (प्रेम रस मदिरा, दैन्य माधुरी, पद सं. 67)

- कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहिमाम्।

राम राघव राम राघव राम राघव रक्षमाम्।

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💫May 2, 2025: Highlights of a soulful morning sadhana🎼

🌷✨Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj ki Jai!✨🌷

*Jagadguru Aadesh:*

Increase your humility -

You must understand and practice three things:

1. Humility

2. Roopdhyan

3. Chanting of the names, qualities, and pastimes of Shri Radha Krishna.

Among these, you all practice only one - sankirtan (chanting the names, qualities, and pastimes). Doing kirtan just with the physical senses is like a lifeless body. Without humility and Roopdhyan, tears will not flow. Chanting without tears is not true kirtan. That is merely repeating like a parrot. God does not even take note of the mere work of the senses.


1. Become humble - this is the first chapter in devotion - increase humility. Respect everyone. Consider others to be better than you. We have all the faults of Maya (lust, anger, greed, attachment, pride, jealousy). Repeatedly think, "I am fallen and sinful. I don't even shed tears while singing God's glories. I don't accept that God resides in everyone. I am an atheist!" Bring this feeling within and realize it deeply. Even if someone speaks ill of you, they will only say, "You are lustful, angry, greedy, wicked," etc. Indeed, we are all these things. We aren't saints. The one who criticizes us is actually our well-wisher. They are pointing out our faults. Tulsidas Ji says, niṃdaka niyare rākhie, āṃgana kuṭī chavāya - build their hut for your critic in your courtyard so they criticize daily and you practice not taking offense. Realize that Shri Krishna resides in everyone. Never harbor ill feelings towards anyone, don't look for faults, don't consider anyone inferior, don't keep hatred. Do not have ill feelings even if the person is genuinely deplorable because this will further pollute your mind; that person won't change anyway. This won't please God. The Guru will also be sad, thinking, "I explained so much, yet this person is still polluting their mind with attachment and hatred."  Bring God and Guru into your mind; only they are pure. Through Them alone, our minds can be cleansed. Do not desire position, prestige, popularity, or appreciation on the spiritual path. The more humble you become, the dearer you will be to God and Guru - Memorize this - it will help you until you attain God. Otherwise, this Maya is very dangerous. The desire for reputation has caused the downfall of great yogis.

2. Roopdhyan - bring God in front of you in your mind. The more the mind does Roopdhyan of God, the closer you will get to God, and the closer God will come towards you.

3. Sankirtans of the name, quality, and pastimes of Shri Radha Krishna - shed tears of love and call out to Them. This is the primary devotional practice, which will not happen until we become humble.


Think before sleeping - when were the times that I was arrogant today? In what instances did my mind try to establish a reputation? This foolish mind is the one that is making us wander around in the 84 lakh forms. Pride is a dangerous enemy - save yourself from it and do sadhana. The most important thing is to wipe out the ill feelings you have developed against anyone.

If you have developed any ill feelings against someone,  go to them, ask for forgiveness, and behave sweetly. Behave in such a way that they feel humbled. You must practice and develop this quality within you.


Practice this and see how much progress you make day by day. Then Shri Maharaj Ji will come here again and again without being called and serve you.

*Kirtan:*

- Mero Radharaman chitchor (Braj Ras Madhuri, part 1, page no. 35, sankirtan no. 28)

- Prabhu Ji! Bhale bure hum tere (Prem Ras Madira, Dainya Madhuri, pad no. 67)

- Krishna Keshav Krishna Keshav Krishna Keshav pahimam।

Ram Raghav Ram Raghav Ram Raghav rakshamam।