मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय l ( गीता १२.८ )



ध्यानकरना है, ध्यान l
ये ध्यान का काम कौन करता है ? आँख, कान, नाक, त्वचा, रसना ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ध्यान नहीं कर सकती l आँख देखेने का काम कराती है, कान सुनने का, नासिका सूँघने का, रसना रस लेने का, त्वचा स्पर्श करने का l ध्यान करने का काम कौन करता है ? मन, अंतःकरण, चित्त अनेक नाम हैं उसके l तो ध्यान करना चाहिये भगवान् का, उसी का नाम, भक्ति उपासना, पूजा, पाठ जो कुछ शब्द बोलो l वो सब मन को करना है, इन्द्रियों को नहीं l तो भगवान् का ध्यान करना है, बस एक बात l दूसरी कोई बात न सुनु, न पढ़ो, न सोचो, न करो l ध्यान करना है और अगर कोई और बात पढ़ो, सुनो, करो, तो ध्यान नम्बर एक, बाद में और सब कुछ जैसे कीर्तन, भगवान् का नाम, रूप, गुण, लीला धाम ये गाते हैं l ये रसना का काम है बोलना l लेकिन नम्बर एक ध्यान, फिर गान l यानी इन्द्रियों को अगर साथ लेते हो तो कोई एतराज नहीं है, लेकीन अगर मन साथ में नहीं है तो ज़ीरो में गुणा हो जायेगा l ज़ीरो गुणा ज़ीरो बराबर ज़ीरो, ज़ीरो गुणा लाख बराबर ज़ीरो, ज़ीरो गुणा करोड़ बराबर ज़ीरो l इसलिये रूपध्यान ही साधना है, उपासना है, भक्ति है l

---- जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

"ईश्वरोपासना ही सर्वप्रमुख"




ईश्वरोपासना रहित, केवल ब्रम्हचर्य रहने मात्र से मुक्ति होनी होती तो विश्व के सब नपुंसक तर गये होते । यदि संतान होने से मुक्ति होनी होती तो कुत्ते, बिल्ली, सुअर सबसे पहले तरते । यदि वानप्रस्थी या सन्यासी के व्याज मात्र से मुक्ति होनी होती तो शेर, चीते, भालू परम त्यागी बनवासी सर्वप्रथम तरते ............!!!!!!!!!!!!!

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

"कर्म"



कर्म का अभिप्राय उससे है जिसमें व्यक्ति श्रुति - स्मृति प्रतिपादित विधिवत कर्म का पालन करे किन्तु ईश्वर - भक्ति न करे । ऐसे कर्म में प्रमुख विचारणीय  बात यह है कि श्रुति - स्मृति की विधि में थोडा भी गडबड न हो, अन्यथा -
यदि एक वैदिक स्वर की भी त्रुटि रह जायगी तो कर्मकर्ता को लाभ के बजाय हानी हो जायगी । एक राक्षस ने ऋषियों को पकड कर बरबस एक यज्ञ करवाया । उसमें मंत्र "इन्द्रशत्रुर्विवर्धस्य" रखा गया, जिसका अर्थ था कि इन्द्र का शत्रु अर्थात राक्षस बढे । किन्तु, अक्षर वही रखते हुए भी ऋषियों ने एक स्वर बदल दिया । उस राक्षस को वैदिक स्वरों का ज्ञान नहीं था अतएव वह इस चातुरी को नहीं समझ सका
 यज्ञ सम्पन्न हुआ । भगवान ने भी मंत्रानुसार फल देने का वरदान दिया । पश्चात् राक्षस ने इन्द्र पर आक्रमण कर दिया, परिणामस्वरूप राक्षस मारा गया । मरते समय उसने कहा कि यह ईश्वर के समदर्शित्व पर कलंक है कि उसने वरदान देकर भी पूरा नहीं किया । ईश्वर ने आकाशवाणी द्धारा इस रहस्य का उदघाटन किया कि "इन्द्रशत्रुर्विवर्धस्व", इस मंत्र में जो स्वर लगाया था उसका अर्थ यही था कि इन्द्र की शक्ति बढे, अतएव इन्द्र विजयी हो गया यह विधिहीन कर्म का फल है और यदि विधियुक्त कर्म सम्पन्न हो गया तो उसका फल स्वर्ग है, जो नश्वर है । अतएव शास्त्रोक्त विधिवत् कर्म की निन्दा सी पाई जाती है ।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

अनन्त नाम रूपाय

    
भगवान् का न कोई रूप होता है, न कोई नाम होता है l तुम जैसा मान लो, वैसे ही तुमको मिल जायेंगे l ‘क’ बोलो ‘ख’ बोलोl देखो ब्रजवासियों ने कभी श्रीकृष्ण नहीं कहा, लाला, अपनी भाषा में बेटा बोल दो l बस बेटा बेटा l हरे बेटा हरे बेटा बेटा बेटा हरे हारेl इससे कोई मतलब नहींl नाम का महत्व नहीं है, नामी का महत्व है यानी नाम में नामी भरा है l ये बुद्धि में भरो, तब लाभ मिलेगाl मन जहाँ रहेगा, मन का अटैचमेन्ट जहाँ होगा, उसी की उपासना मानी जायगीl तुमने कहा- राधे राधे, लक्ष्य क्या है तुम्हारा राधे बोलने में ? हमारी नौकरानि का नाम है, हमारी मम्मी का नाम है, बीबी का नाम है l हमारी बहिन का नाम है राधे l तो राधे राधे दिन रात बोलो ऑसू बहाओ, बेहोश हो जाओ, वही राधे माँ मिलेग, वही राधे बीबी मिलेगी, वही राधे बहिन मिलेगीl वही राधे नौकरानी मिलेगी l वो राधा तत्व पर्सनेलिटी का स्वप्न भी नहीं मिल सकता l जहाँ मन का अटैचमेन्ट होगा, उसी पर्सनेलिटी का लाभ मिलेगा l
तो इसलिये भगवान् का नाम ले रहे हो कीर्तन कर रहे हो, ये बात तब साबित होगी जब तुम्हारा यह विश्वास सेन्ट परसेन्ट दृढ़ हो कि इस नाम में भगवान् का निवास है l फिर कोई नाम लोl राम कहो, कृष्ण कहो, गधा कहो, मन में आये जो कहो l कोई शर्त नहीं भगवान् का l

   ----- जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज