गुरु मेटत अँधियार .....!!!

गुरु मेटत अँधियार .....!!!

गुरु अपने अनुगत के लिए सदा कृपालु होता है,किन्तु कृष्ण प्राप्ति हेतु लालसा बनाए रखने की पात्रता अनिवार्य है। पात्रता का तात्पर्य शरणागति से है। निष्काम भाव से गुरु की शरणागति करने से वह महापुरुष अनुगत साधक के अंत:करण की भूमि को उर्वरक बना उसमें ईश्वर भक्ति का बीज बोता है। गुरु कृपा पाने की शर्त यह है की साधक की गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा एवं दृढ़ निष्ठा हो। विपरीत से विपरीत परिस्थिति में उसकी गुरु भक्ति निष्कंप और निश्चल रहे। तभी शिष्य की चेतना गुरु की चेतना से एकाकार हो सकती है,उसकी वत्सलता और कृपा को अनुभूत कर सकती है। गुरु अनुगत के अंत:करण की निर्मलता को नहीं देखता बल्कि उसका समर्पण देखता है और हरी की गोद उपलब्ध करवा देता है।
गुरु माता शिशु मन गोविंद राधे। विमल बना के हरि गोद बैठा दे।।
अत: गुरु की महिमा का बखान असंभव है;शब्दातीत है।
काम ,क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या,द्वेष, अहंकार आदि मन के शत्रु घटाटोप की तरह मन को आछादित किए रहते हैं। ऐसे भीषण शत्रुओं से घिरे मन की स्थिति के प्रति उसके कृपालु मन में भाव- संवेदनाओं की अजस्र धार फूट पड़ती है और वह अपने अनुगत के अंत:करण के मल का अनवरत प्रक्षालन करता रहता है। गुरु के हर व्यवहार,हर कार्य का विशिष्ट अर्थ होता है,भले ही वह ऊपरी तौर पर कितना भी निरर्थक क्यों न लगे। हमें उसकी किसी बात की अवहेलना नहीं करनी चाहिए,बल्कि अटूट श्रद्धा रखनी चाहिए क्योंकि गुरु के रूठ जाने पर जीव के कल्याण का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। गुरु आज्ञापालन और सेवा ही जीव को ईश्वर तक पहुंचाने का मूल मंत्र है। गुरु सेवा का अर्थ है- गुरु जो भी कहे,जैसा भी काम सौंपे,करना है।

---जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

कान्ह कछु कै गयो टोना री |


कान्ह कछु कै गयो टोना री |
यमुना – तट रह धेनु चरावत, श्याम सलोना री |
हौं तहँ गई, अचानक देखी, नंद डुठोना री |
देखत ही मोहिं डस्यो दृगन जनु, नागिनि छोना री |
तन, मन, प्राण सबै सखि ! लै अब, दै गयो रोना री |
दिवस ‘कृपालु’ न चैन एक छिन, रैन न सोना री ||

भावार्थ  -  ( एक सखी का प्यारे श्यामसुन्दर से प्रथम मधुर – मिलन, एवं उसका अपनी एक अंतरंग सखी से कहना | ) अरी सखी ! श्यामसुन्दर मेरे ऊपर कुछ टोना – सा कर गया | यमुना के किनारे वह श्यामसुन्दर गाय चरा रहा था | मैं अचानक ही वहाँ पर गई एवं मैंने उसको देखा | देखते ही उसकी आँखों ने नागिन बनकर मुझे डस लिया | अरी सखी ! वह मेरा तन, मन और प्राण सभी कुछ लेकर उसके बदले में रोना – मात्र ही दे गया | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अब उसके वियोग में न तो मुझे दिन में एक क्षण के लिए चैन ही मिलता है और न तो रात में नींद ही आती है अर्थात् उसके मधुर – मिलन के लिए निरंतर तड़पती ही रहती हूँ   |

( प्रेम रस मदिरा    मिलन   –   माधुरी )
    जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति

निज गुरु पादाश्रय


श्री गुरवे नम: 
निज गुरु पादाश्रय 
मैं श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष श्री कृपालु महाराज के चरण कमल रज की अनन्य शरण का आकांक्षी हूँ क्योंकि सुधी साधकजन सभी महापुरुषों के श्री चरणों का नमन तो करते हैं किन्तु आश्रय केवल निज गुरु पाद पद्मों का ही लेते हैंl 
कुछ स्नेही भावुक स्वजनों ने मुझसे कहा है कि मेरे लिए तो आप के लेख ही काफी हैं, आदि आदिl 
मैंने सदैव यह घोषणा की है कि मेरे लेख और उनमे दिए गए वेद, पुराण, शास्त्र, गीता, ब्रह्मसूत्र आदि के उदाहरण मेरी स्व-अर्जित ज्ञान संपत्ति नहीं हैl मैं ब्रह्म विद्या तो दूर आस्तिकता से भी नितांत परे तमोगुणी, रजोगुणी अर्थहीन-रसहीन परिश्रम में जीवन गंवा रहा थाl
जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज ने कृपा करके अपनाया तब तत्व ज्ञान की शिक्षा से मेरा परिचय हुआl मेरी बुद्धि सीमित है अत: वह ज्ञान जो मैंने श्री गुरुवर से सुना उसका भी अल्पांश ही बुद्धि में धारण कर पायाl
गोस्वामी तुलसी दास जी के शब्दों में;
“मैं पुनि निज गुरु सन सुनी कथा सो सूकरखेतl समुझी नहि तसि बालपन तब अति रहेउं अचेतl”
उनसे ही साधना पद्धति सुनी और अटकल लगा लगा के अभ्यास कियाl जो भी किया गुरु कृपा से अति अल्प रस मिलने लगा इसलिए “और साधना करूं” इसकी प्रेरणा मिलीl गुरु कृपा से जो प्राप्त हुआ उसका मैंने कुछ वर्णन पिछले 4 वर्षों के लेखों में किया हैl
आशय यह कि मैं अत्यंत निम्न कोटि का साधक ही हूँl इसके अतिरिक्त कुछ भी नहींl
मान लो यदि मेरे स्थान पर कोई महापुरुष भी हो तो भी सबका परम कल्याण पंचम मूल जगद्गुरु श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ निखिल दर्शन समन्वयाचार्य श्री कृपालुजी महाराज की शरणागति में ही हैl
चिन्मय लाभ केवल निज गुरु चरण आश्रय दे सकता हैl अन्य महापुरुष भी नहीं, तो फिर कोई मेरे जैसा अन्नमय कोष में स्थित, स्थूल शरीर, स्थूल बुद्धि वाला प्राणी क्या देगाl
सभी आदरणीय हैं, सभी कृपामय हैंl किन्तु हमें सौभाग्य तो मूल जगद्गुरु के अनुयायी होने का प्राप्त हैl
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालुजी महाराज के निज धाम, निज कृतियाँ, निज संकल्प से प्रकट संस्थाएं, भक्ति मंदिर, प्रेम मंदिर मंदिर, निकट भविष्य में कीरति मंदिर, नि:शुल्क, विद्यालय एवं नि:शुल्क चिकित्सालय आदि ही हमारी आध्यात्मिक सम्पदा एवं सेवा के सौभाग्यावसर हैंl
उनकी निज संतान, मेरी तीनों दीदियां गुरुवर की वह आध्यात्मिक शक्तियां हैं जो उनके समस्त संकल्पों को सम्पूर्ण करने में और उनके आश्रमवासियों व सत्संगियों के हितों का ध्यान रखने में दिन-रात अथक परिश्रम कर रही हैं किन्तु सभी संकल्प सिद्ध होने का श्रेय वह सदा गुरु चरण रजकण की कृपा को ही देती हैंl मैं केवल यह ही कह सकता हूँ कि उनका महत्व मेरे लिए गुरु कमल-कोमल-गात की दिव्य ज्योति के समान हैl
भगवदीय लाभ हेतु सदैव आध्यात्मिक संपदा का ही आश्रय लेना ही उचित हैl

श्रीराधारानी/गोपीजन माधुर्य

राधे राधे..

'ब्रजभाव माधुर्य'
खंड : श्रीराधारानी/गोपीजन माधुर्य

टॉपिक : प्रेम की रीति (गोपनीयता)

प्रेम ढँका हुआ होने पर बढ़ता है और प्रेम खुला हुआ होने पर लोगों की उस पर नजर लगती है. इसीलिए प्रेम के संबंध में यह बात कही गई :

प्रेमाद्वयो रसिकयोरपि दीप एव हृद्वेश्म भासयति निश्चल एष भांति ।
द्वारादयं वदनुतस्तु बहिष्कृतश्चेन् निर्वाति शान्तिमथवा लघुतामुपैति ।।

एक बार भगवान् गोपदेवी बनकर के, साँवरी सखी बनकर के राधारानी के पास गये और जाकर के बताया कि मैं ब्रज में बहुत दिन से आई हूँ स्वर्ग की देवी हूँ. लेकिन मैं दुःखी होकर तुम्हारे पास आई हूँ, तुम हमें उस दुःख से बचाओ. राधारानी ने पूछा - तुमको क्या दुःख है? तो बोली कि तुम विश्वास नहीं करोगी हमारी बात पर, तो कैसे बतायें? राधा जी बोलीं - तुम कहो तो सही. बोलीं कि मैं जब से यहाँ आई हूँ, एक नंदनंदन श्यामसुन्दर है नंद बाबा का छोरा,

देखो री यह नन्द का छोरा बरछी मारे जाता है,
बरछी सी, तिरछी चितवन से पैनी छुरी चलाता है..

वह हमारे पीछे लगा रहता है. हमको न सोने दे, न बैठने दे, न कहीं जाने दे, न आने दे, वह हमको बहुत सताता है, हमारे साथ बड़ा अन्याय करता है. राधारानी ने कहा - सखी ! तू झूठ बोलती है, हमारा नंदनंदन, श्यामसुन्दर, हमारा प्राण प्यारा तो हमको छोड़कर दूसरे की ओर देखता ही नहीं है. वह बोली कि नहीं; एक दिन तो मैं धोखे में आ गई सखी ! असल में वह दस गाँव में किसी भी गोपी को शान्ति से नहीं रहने देता है, सबको परेशान करता है. अब तो प्रेम की चर्चा छिड़ गई.

प्रेम की जब चर्चा चली, तब राधारानी ने उसको बताया कि प्रेम है दीपक की लौ. और वह हृदय के मंदिर में सर्वदा प्रज्जवलित रहता है और प्रेमी और प्रियतम दोनों के हृदय को प्रकाशित करता रहता है, लेकिन जब वह मुँह (जुबान) के दरवाजे से बाहर निकलता है, तो लड़खड़ा जाता है, या तो बाहर की हवा लगती है, और बुझ जाता है. इसलिए सखी प्रेम कोई ऐसी चीज नहीं है कि गाँव में इसको बताते फिरें कि हम बड़े प्रेमी, हम बड़े प्रेमी. यह प्रेम ढिंढोरा पीटने की वस्तु नहीं है; गोपी नाम ही इसलिये है कि गोपी अपने प्रेम को गुप्त रखने में समर्थ है, गोपन (छिपाने) करने में समर्थ है...

(एक संत के व्याख्यान से उद्धृत; साधना में लाभ हेतु साभार)

* ब्रजभाव माधुर्य
* श्री कृपालु भक्तिधारा प्रचार समिति