उपमन्यु शंकरजी भक्त का कथा |

 एक शंकर जी के भक्त थे, उपमन्यु उनका नाम था, तो शंकर जी को कुछ विनोद सूझा, तो उन्होंने अपना स्वरूप बनाया इन्द्र का और अपने बैल को बनाया ऐरावत, त्रिशूल को बनाया वज्र और इन्द्र का पूरा साज-बाज सब बना करके, ऐरावत हाथी पर बैठकर के और उपमन्यु के पास पहुँचे तो उन्होंने देखा- अरे ! स्वर्ग सम्राट् इन्द्र हमारे घर आया है! वो खड़े हो गये, नमस्कार किया, स्वागत किया, बैठाया तो इन्द्र ने कहा- बेटा! वर माँगो। मैं तुमसे खुश हूँ, वर माँगो। वरं ब्रूहि। तो उपमन्यु ने कहा कि देखिये साहब! सम्मान करना अलग बात है। सम्मान तो आये हुए शत्रु का भी करना चाहिये। इसलिये मैंने कर दिया। लेकिन आप जो कह रहे हैं- माँगो-वाँगो तो मैं मँगता नहीं हूँ। अच्छा बाबा ! मैं कुछ दे रहा हूँ, अपनी ओर से। मैं लेता भी नहीं हूँ किसी से।



अपिकीटः पतंगो वा भवेयं शंकराज्ञया।

न त्विंद्राहं त्वयादत्तं त्रैलोक्यमपि कामये॥


भगवान् शंकर अगर हमको आज्ञा दे दें- नरक में जाओ, कीड़े-पतंगे बन जाओ, मैं विभोर होकर उसको स्वीकार करूँगा लेकिन शंकर जी के अलावा, तुम इन्द्र हो, चाहे जो हो, मैं किसी और की दी हुई कितनी बड़ी वस्तु हो, हम स्पर्श नहीं कर सकते। यह अनन्यता।


देवी-देवताओं में शत्रुता नहीं लानी है। याद रखना। देवी-देवताओं को नमस्कार करो, उनको प्रणाम करो, सम्मान करो, ये भगवान् की विशेष विभूतियाँ हैं-


यद्यद्विभूति मत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्॥

(गीता १०-४१)


लेकिन मन का अटैचमेन्ट यानी शरणागति केवल श्रीकृष्ण में हो। कुछ लोग कहते हैं कि जो प्रेम की आचार्या हैं, गोपियाँ, उन्होंने देवी की भक्ति की, कात्यायनी व्रत। आप लोगों ने पढ़ा-सुना होगा भागवत में, तो देवी की भक्ति क्यों की? क्योंकि अनन्य भक्तों में टॉप पर हैं गोपियाँ, उनके आगे और कोई सीट नहीं। अरे! गवर्नर जो ब्रह्मा, विष्णु, शंकर हैं, ये भी नीचे हैं तो उन्होंने कात्यायनी व्रत क्यों किया? कात्यायनी देवी को नमस्कार क्यों किया? सिर क्यों झुका? सिर झुकाने में पाप नहीं है।

भिक्षामटन्नरिपुरे श्वपाकमपि वंदते।


भगवान् के भक्त तो चाण्डाल के आगे सिर झुका देते हैं, देवताओं की कौन कहे। सिर झुकाना कोई पाप नहीं है क्योंकि वह भक्त यह देखता है कि इस चाण्डाल के अन्तःकरण में मेरे श्यामसुन्दर बैठे हैं। यह फैक्ट है, कल्पना नहीं। भावना नहीं बनाना है। प्रत्येक जीवात्मा के अन्दर परमात्मा बैठा हुआ गवर्न करता है, कर्म-फल देता है, इन्द्रिय, मन, बुद्धि को तत्तत् कर्म करने की शक्ति देता है। यह फैक्ट है। उसको देख रहा है भक्त, उसको नमस्कार कर रहा है और अगर उसके विषय में कोई हेल्पर हो तो उसको नमस्कार तो करना ही चाहिये, अच्छा ही है वह तो । गौरांग महाप्रभु अपने शिष्यों का पैर पकड़ कर रोने लगते थे- प्रेमदान कर दो और वह बेचारा गुरु से आशा कर रहा है और गुरु जी उसके पैर पकड़ करके रो रहे हैं कि हमको प्रेमदान कर दो। हाँ, नोट कीजिये- भागवत में आया है कि गोपियों ने कहा-


नन्द गोपसुतं देवि पतिं मे कुरुते नमः।

(भाग. १०-२२-४)


हे देवी जी ! कात्यायनी देवी! हम आपको नमस्कार करते हैं कि हमारे पति श्यामसुन्दर बनें, यह वर दो। जैसे - सीता ने वर माँगा था पार्वती जी से यानी मैं आपको नहीं चाहती, आपके द्वारा श्रीकृष्ण को चाहती हूँ? मेरे 'अन्य' में आश्रय नहीं है हमारा। हम देवी को भाश्रय नहीं मान रहे हैं। जैसे- हम खाना खाते हैं। किसलिये? भजन करना है। अगर शरीर में खाना नहीं जायगा तो भक्ति-साधना नहीं हो सकती तो खाना हमारा आश्रय नहीं है। आश्रय तो है श्रीकृष्ण- भक्ति लेकिन वह हेल्पर है इसलिए उसका हम अवलम्ब लेते हैं। वह हमारा एम नहीं। आगे कहा, बड़ा सुन्दर। श्रीकृष्ण ने कहा- गोपियों से-


संकल्पो विदितः साध्व्यो भवतीनां मदर्चनम्।

मयानुमोदितः सोऽसौ सत्यो भवितुमर्हति।

(भाग. १०-२२-२५)


सत्यो भवितु मर्हति क्योंकि मदर्चनम् तुम लोगों ने कात्यायनी व्रत के बहाने जो मेरी अर्चना की है, मेरी भक्ति की है, मैं अनुमोदन करता हूँ, मैं एडमिट करता हूँ, मैं जानता हूँ। मैं देख रहा हूँ, तुम लोग केवल मेरी भक्ति कर रही हो और संसार को दिखा रही हो कि मैं कात्यायनी व्रत कर रही हूँ। यह मैं जानता हूँ क्योंकि अगर कोई अविवाहिता लड़की इस प्रकार का डायरेक्ट नाटक करे कि मैं उस लड़के को चाहती हूँ तो आज से पाँच हजार वर्ष पहले के हमारे समाज में कितनी भयंकर बात होगी। तो यह बात प्राइवेट है, इसलिये कात्यायनी व्रत के बहाने तुम लोगों ने मदर्चनम् - मेरी भक्ति की। तो मयानुमोदितः मैं उसको स्वीकार करता हूँ और मैं तुम्हारा प्रियतम बनूँगा। अरे! देखिये तुलसीदास जी को, गणेश जी इत्यादि की वो वन्दना कर रहे हैं, अपने ग्रन्थों में-


गाइये गणपति जग वन्दन।


लेकिन गणपति से माँगते क्या हैं?


माँगत तुलसीदास कर जोरे।

बसहुँ रामसिय मानस मोरे॥

(दोहावली, विनय पत्रिका)


तो हम किसी की भी हैल्प से अपने आश्रय में ही मन का अटैचमेन्ट रखें। हाँ-


बने तो रघुवर ते बने, बिगरे तो भरपूरि।


बने तो अपने इष्टदेव से, बिगड़े तो अपने इष्टदेव की उस क्रिया पर विभोर हो जाओ, ऐतराज नहीं।


प्रवचनांश- भक्तियोगरसावतार जगद्गुरूत्तम १००८ स्वामि श्री कृपालु जी महाराज*

*♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻*


       

महाराज जी सन् 1936 में वाराणसी से व्याकरणाचार्य की परीक्षा पास की। विषय बड़ा गंभीर था किन्तु समय बहुत थोड़ा। महाराज जी पढने का विचित्र ही ढंग रखे हुए थे। कक्षा में बहुत कम बैठते। पुस्तक घर पर ले जाकर पढते और उसके किसी अंश को चिन्हित कर लेते। उन्हीं अंशों को वे अलग कर लेते और बाद में उसका अर्थ अपने अध्यापक से पूछते। संतुष्ट न होने पर कभी-कभी ऐसा होता कि वह उन अंशों की स्वयं अपनी एक अलग ही व्याख्या कर देते। इस पर वह अध्यापक उनसे सहमत न होता तब दोनों लोग स्कूल के मुख्य प्रधान अध्यापक के पास जाकर अपनी अपनी व्याख्या बताते तब महाराज जी की व्याख्या उचित ठहरायी जाती।



बनारस की ही बात है एक बार सहपाठियों में कम्पटीशन हुआ कि कौन एक निश्चित समय में अधिक से अधिक संस्कृत का श्लोक याद कर सकता है। तब महाराज जी ने सात घण्टे में संस्कृत के 67 कठिन श्लोक याद किया जो एकदम नये थे। दूसरे स्थान पर पहुंचने वाले छात्र ने 7 घण्टे में केवल 27 श्लोक को ही याद कर पाया था।


मध्यमा साहित्य की परीक्षा के समय एक प्रश्न था, हिन्दी से संस्कृत में अनुवाद करना था। श्री महाराज जी ने उस हिन्दी का संस्कृत में तीन अलग-अलग ढंग से अनुवाद किया। पहले अनुवाद का शीर्षक दिया, मध्यमा कक्षा के अनुसार, दूसरा अनुवाद का शीर्षक था साहित्य जानने वालों के लिए और तीसरे अनुवाद का शीर्षक था, विशेष योग्यता वालों के लिए।


उसके पश्चात् यह भी लिख दिया, जैसी योग्यता हो उसके अनुसार मान लिया जाये।


श्री शम्भू नाथ शास्त्री उन दिनों वहां के प्रधान अध्यापक थे। उन्होंने इसे पढ लिया। इन्हें बुलाकर कहा, परीक्षक को इस प्रकार नहीं लिखा जाता। यदि फेल कर दे तो, इनका विनम्र उत्तर था, दोबारा जाँच करा ली जायेगी।


और जब मध्यमा का परीक्षा फल आया इनका नाम द्वितीय श्रेणी में था। समाचार पत्र पढा और फेंक दिया। तुरन्त ही परीक्षक संस्था को लिखा ज्ञात होता है कि काॅपियां देखी नहीं गयी हैं, उछाल कर न० दिये गये हैं। कृपया मेरी काॅपी दोबारा जांची जाय। काॅपी दोबारा जाँची(चैक) गयी और महाराज जी प्रथम श्रेणी में पास हुए।


इसी प्रकार वर्ष 1944 में आपने साहित्याचार्य की परीक्षा कलकत्ता विद्यापीठ से एक वर्ष में ही प्रथम श्रेणी में पास की। महू से महाराज जी ने प्रथम एव मध्यमा की परीक्षाएं वाराणसी विद्यापीठ से उत्तीर्ण की। इसके पश्चात् आपने आर्युवेदाचार्य की परीक्षा इंदौर दिल्ली विद्यापीठ से दी।


 🍁🍁🍁


*।। हमारे प्यारे प्यारे महाराज जी की जय।।*

   🍁🍁🍁

न श्वः श्व उपासीत को हि पुरुषस्य श्वो वेद। (वेद)




 कल कल कल मत करो, कल आवे न आवे। प्रह्लाद ने कहा था- कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह (भागवत ७६.१) अरे! बचपन से ही लग जाओ भगवान् की ओर युवावस्था आवे न आवे। आ गई? हाँ। अरे, अब तो कर लो। फिर वृद्धावस्था में क्या करोगे ? आज हार्ट-अटैक है, कल डायबिटीज बढ़ गया, परसों ब्लड प्रेशर बढ़ गया, गुर्दे काम नहीं कर रहे हैं खाट पर लेटे हैं और चिल्ला रहे हैं नाती पोतों को। फिर क्या करोगे ? " चतुर्थे किं करिष्यति ?" फिर भी हम लोग डटे हैं अपनी जिद्द पर ये सबसे बड़ा आश्चर्य है। इसलिये वेद कह रहा है उधार न करो कल-कल का, क्या पता काल, यमराज कल आने न दे। रात को ही चल बसो ।  हमारे देश में क्या दुनियाँ भर में सैकड़ों मृत्यु ऐसी होती है जो बुद्धि से परे हैं। सो रहा था सोते ही रह गया। न चिल्लाया, न दर्द की फीलिंग हुई, न डाक्टर बुलाने का मौका मिला, सोते-सोते ही सो गया। ये क्या है? इसको कहते हैं हार्ट अटैक । अटैक हो गया। ये हार्ट अटैक नहीं है ये यमराज का अटैक है। अब टाइम पूरा हो गया बस चलो। एक सेकन्ड का समय नहीं देता कि जरा साइन कर लें, अरबों की प्रापर्टी है। ना ना। इसलिये तुरन्त करना है भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति । ये आशय है। जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज

लोकरंजन का लक्ष्य भी घोर कुसंग है।

 लोकरंजन का लक्ष्य भी घोर कुसंग है। प्राय: साधक थोड़ा बहुत समझ लेने पर अथवा थोड़ा बहुत अनुभव कर लेने पर, उसे दुनिया के सामने गाता फिरता है, एवं धीरे धीरे यह अभिमान का रूप धारण कर लेता है,जिसके परिणाम-स्वरूप साधक की वास्तविक निधि , दीनता छिन जाती है एवं हँसी-हँसी में लोकरंजन की बुद्धि परिपक्व हो जाती है। अतएव साधक को लोकरंजन रूपी महाव्याधि से बचना चाहिये।



अहंकार से बचना और अपमान को फील न करना - साधना की आधारशिला है । यह बात साधना करने वाले जीवों के लिये श्री गणेश है । पाँचों इन्द्रियों को जीतना और किसी से अनुराग न करना फिर भी सम्भव है । किन्तु मान-अपमान की फीलिंग जब तक नहीं मिटती तब तक आप में अहंकार सदा रहेगा एवं बढ़ता ही जायगा । संकीर्तन में आपके आँसू नहीं आते, यह अहंकार के कारण है । और अगर आँसू आते हैं और साधक सोचता है, वाह ! हमें तो आँसू आते हैं - यह सूक्ष्म अहंकार है । इसका पकड़ में आना कठिन है । इस अहंकार को सिर्फ महापुरुष ही बतला सकता है और इसी अहंकार को ठीक करने के लिये ही संत की विशेष आवश्यकता होती है । हम अपनी मायिक बुद्धि से यह निश्चय नहीं कर सकते कि हम अहंकार कर रहे हैं । इसलिये मान-अपमान पर विचार न करते हुये हमें यह सोचना है कि हम तृण से बढ़कर दीन किस प्रकार बनें ? हम दीन नहीं हैं लेकिन लोकरंजन के लिये यह भावना रहती है कि लोग हमें दीन समझें - यह भी अहंकार है ।

जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज