चौरासी लाख योनियों के चक्र का शास्त्रों में वर्णन-


           

#३० लाख बार वृक्ष योनि में जन्म होता है ।इस योनि में सर्वाधिक कष्ट होता है ।धूप ताप,आँधी, वर्षा आदि में बहुत शाखा तक टूट जाती हैं ।शीतकाल में पतझड में सारे पत्ता पत्ता तक झड़ जाता है।लोग कुल्हाड़ी से काटते हैं ।


उसके बाद जलचर प्राणियों के रूप में ९ लाख बार जन्म होता है । हाथ और पैरों से रहित देह और मस्तक। सड़ा गला मांस  ही खाने को मिलता है ।

एक दूसरे का मास खाकर जीवन  रक्षा करते हैं ।


उसके बाद कृमि योनि में १० लाख बार जन्म होता है ।

  

और फिर ११ लाख बार पक्षी योनि में जन्म होता है। वृक्ष ही आश्रय स्थान होते हैं ।जोंक, कीड़-मकोड़े, सड़ा गला जो कुछ भी मिल जाय, वही खाकर उदरपूर्ति करना।स्वयं भूखे रह कर संतान को खिलाते हैं और जब संतान उडना सीख जाती है  तब पीछे मुडकर भी नहीं देखती । काक और शकुनि का जन्म दीर्घायु होता है ।


उसके बाद २० लाख बार पशु योनि,वहाँ भी अनेक प्रकार के कष्ट मिलते हैं ।अपने से बडे हिंसक और बलवान् पशु सदा ही पीडा पहुँचाते रहते हैं ।भय के कारण पर्वत कन्दराओं में छुपकर रहना। एक दूसरे को मारकर खा जाना । कोई केवल घास खाकर ही जीते हैं । किन्ही को  हल खीचना, गाडी खीचना आदि कष्ट साध्य कार्य करने पडते हैं । रोग शोक आदि होने पर  कुछ बता भी नहीं सकते।सदा मल मूत्रादि में ही रहना पडता है ।


  गौ का शरीर समस्त पशु योनियों में श्रेष्ठ एवं अंतिम माना गया है ।


तत्पश्चात् ४ लाख बार मानव योनि में जन्म होता है ।इनमे सर्वप्रथम घोर अज्ञान से आच्छादित ,पशुतुल्य आहार -विहार,वनवासी वनमानुष का जन्म मिलता है।


उसके बाद पहाडी जनजाति के रूप में नागा,कूकी,संथाल आदि में ।


उसके बाद वैदिक धर्मशून्य अधम कुल में ,पाप कर्म करना एवं मदिरा आदि निकृष्ट और निषिद्ध वस्तुओं का सेवन ही सर्वोपरि ।


उसके बाद शूद्र कुल में जन्म होता है । 

उसके बाद वैश्य कुल में ।

फिर क्षत्रिय  और अंत में ब्राह्मणकुल में जन्म मिलता है ।


और सबसे अंत में ब्राह्मणकुल में जन्म मिलता है ।यह जन्म एक ही बार मिलता है ।जो ब्रह्मज्ञान सम्पन्न है वही ब्राह्मण है।अपने उद्धार के लिए वह आत्मज्ञान से परिपूर्ण हो जाता है ।यदि इस दुर्लभ जन्म में भी ज्ञान नहीं प्राप्त कर लेता तो पुनः चौरासी लाख योनियों में घूमता रहता है ।भगवत शरणागति के अलावा कोई और सरल उपाय नहीं है।


राधेश्याम

घरों में साफ-सफाई और बर्तन

 मंगला लोगों के घरों में साफ-सफाई और बर्तन  साफ करने का काम करती थी ।उसके घर में उसका एक लड़का एक लड़की और पति था ।उसके मन में यह इच्छा थी कि वह अपने बच्चों को पढ़ा कर कुछ काबिल बनाए ।लेकिन उसके पति का कोई पक्का काम नहीं था कभी उसको कारखाने में काम  मिलता तो कभी ना मिलता ।इसलिए मजबूरी में मंगला को लोगों के घर में साफ सफाई का काम करना पड़ता था ।मंगला जब  काम पर जाती तो रास्ते में एक मंदिर पड़ता था मंदिर की सीढ़ियों से ही ठाकुरजी और किशोरी जी के दर्शन होते थे। मंदिर में नित्य प्रतिदिन संकीर्तन होता था ।मंगला को संकीर्तन सुनने में बड़ा आनंद आता था इसलिए वह काम पर जाने से पहले पांच  दस मिनट के लिए मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर संकीर्तन का आनंद लेती। लेकिन उसको बाहर से अच्छी तरह ठाकुरजी और किशोरी जी के दर्शन नहीं होते थे ।अपने गरीब अवस्था फटी हुई साड़ी के कारण उसको हमेशा शर्मिंदगी महसूस होती यदि मैं  मंदिर के अंदर जाऊंगी कहीं पुजारी जी मुझे बाहर  न निकाल  दें ।इसलिए वह मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर संकीर्तन का आनंद लेती थी ।वह हमेशा देखती लोग ठाकुर जी और किशोरी जी    के लिए नित्य प्रतिदिन तरह-तरह के पकवान बनाकर उनको भोग लगाकर उनकी भोग सेवा  करते हैं , कुछ भगत नई नई पोशाक लेकर आते हैं और कई स्त्रियां मंदिर के प्रांगण में सोहनी सेवा और पोछा लगाती नजर आती है ।उसका भी बड़ा मन होता वह भी ठाकुर जी को भोग लगाए नए वस्त्र लेकर आए ठाकुर जी के मंदिर का प्रांगण साफ करें लेकिन अपनी इस मैली कुचली अवस्था के कारण मंदिर के अंदर ना जा पाती थी क्योंकि मंदिर के अंदर हमेशा बड़े बड़े सेठ सेठानी और अमीर लोग ही आते थे जिसके कारण उसको अंदर जाने में  लज्जा महसूस होती थी। जिस घर में मंगला काम करती थी उस घर के लोग कुछ महीनों के लिए विदेश जा रहे थे जिसके कारण मंगला का काम  छूट गया। मंगला के पास  अब कोई काम नहीं था इसलिए वह घर से तो आ जाती थी लेकिन मंदिर की सीढ़ियों पर घंटों बैठी रहती और ठाकुर जी की और किशोरी जी की सेवा करते लोगों को देखती रहती। एक दिन  वह  मंदिर की सीढ़ियों पर बैठी हुई थी तभी वहां से एक नवविवाहित सेठ सेठानी का जोड़ा जोकि अत्यंत सुंदर था अत्यंत रूपवान था मंदिर की सीढ़ियों से होकर नीचे उतर रहा था तभी अचानक से   सेठानी का पैर सीढ़ियों में से फिसल गया तो मंगला ने झट से उसको पकड़ लिया जिसके कारण वह सीढ़ियों से गिरने से बच गई सेठ और सेठानी ने मंगला का अत्यंत धन्यवाद किया और  सेठ अपनी सेठानी का हाथ पकड़कर आगे की तरफ चल पड़ा तभी मंगला ने पीछे से सेठ को आवाज  लगाई बाबू जी सेठानी को उठाते वक्त आप के कुर्ते की जेब में से यह आपका बटुआ मंदिर की सीढ़ियों पर  गिर पड़ा था । सेठ मंगला की इमानदारी को देखकर प्रसन्न हुआ और उसका और आभारी होने लगा कि तुम तो  नरम दिल के साथ-साथ ईमानदार भी हो ।तुम क्या करती हो तो मंगला ने बताया कि मैं लोगों के घर में काम करती थी लेकिन आजकल मेरा काम छूटा हुआ है तो सेठ ने कहा हमारी नई नई शादी हुई है क्या तुम हमारे घर में काम करोगी तो मंगला ने सहर्ष स्वीकार कर लिया ।लेकिन सेठ ने कहा हमारा घर तो यहां से काफी दूर है तुम ऐसा करो कि रोज मंदिर आ जाया करो और हमारे साथ हमारे घर चला करो।  अब तो हर रोज़ सेठ और सेठानी मंदिर आते और मंगला उनके साथ  गाडी में बैठकर उनके घर चली जाती । सेठ सेठानी का घर..घर नहीं बल्कि आलीशान महल जैसा घर था ।मंगला घर को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई उसने तो स्वपन में भी इतना सुंदर घर नहीं देखा था घर में एक अजीब तरह की अलौकिक शांति थी अजीब तरह के इत्र की खुशबू घर के चारों ओर फैली हुई थी घर के हर कोने में आनंदमई वातावरण  था । घर में इतनी साफ सफाई थी कि मंगला को भी ज्यादा सफाई करने में मेहनत नहीं लगती थी । अब तो मंगला  उस घर का अहम हिस्सा बन चुकी थी वह हर रोज नहा धोकर आती और सेठानी के लिए तरह-तरह के पकवान बनाकर उनको खिलाती । सेठानी के अत्यंत सुंदर रूप को देखकर वह सेठानी को  कहती थी क्या मैं आज आपका श्रृंगार करूं और वह  बहुत सुंदर तरीके से  सेठानी का श्रृंगार करती उसके हाथों में मेहंदी लगाती कभी उसके बालों में गजरा लगाती कभी उसके पांव में पायल  पहनाती । सेठानी हमेशा बहुत खुश होकर मंगला को कहती कि तुम्हारे द्वारा किया गया श्रृंगार सेठ जी को बहुत पसंद आता है। सेठ सेठानी के घर में काम करते करते मंगला के घर की हालत भी सुधर चुकी थी सेठ की शहर में बहुत जान पहचान थी जिसके कारण मंगला के पति को भी एक अच्छी जगह पक्की नौकरी  मिल गई थी उसके घर के हालात अब बहुत ही अच्छे हो गए थे। मंगला के अब बच्चे बहुत अच्छे स्कूल में पढ़ना शुरू हो गए थे। अब मंगला पहले जैसी गरीब ना रही।अब उसके पास इतना धन इकट्ठा हो गया था कि वह भी अपने घर में नौकर रख सकती थी लेकिन वह सेठ सेठानी का घर को नहीं छोड़ना चाहती थी । एक दिन अचानक ही ना जाने कैसे उसके मन में यह भाव आया कि सेठ सेठानी की सेवा करते मुझे इतनी देर हो गई है अब तो मेरे पास भी  इतना धन है कि मैं भी नौकर रख सकती हूं लेकिन फिर उसने सोचा नहीं नहीं  मुझे अपने घर से ज्यादा तो सेठ सेठानी के घर से लगाव है अगर मैं अपने घर में भी जाती हूं तो मेरी आत्मा इस घर में और  सेठ सेठानी की सेवा में लगी रहती है ।अगले दिन जब वह मंदिर की सीढ़ियों पर खड़ी थी तो उसको सेठ सेठानी लेने नहीं आए। ऐसे ही दो-तीन दिन हो गए उसको वह लोग लेने नहीं आए।

 अब मंगला बहुत  चिंतित रहने लगी सेठ और सेठानी ठीक तो होंगे  । किसी अनिष्ट की आशंका से मंगला के शरीर में अजीब सी उथल-पुथल होने लगी ।वह सारा दिन मंदिर की सीढ़ियों पर बैठी रहती थी कि शायद सेठ सेठानी थोड़ी देर से आते होंगे लेकिन आज भी वो ना आए । मंगला काफी सालों से  उनके घर जा रही थी इसलिए उनके घर का रास्ता उसको पता चल चुका था तो वह अगले दिन सुबह पैदल ही उनके घर चल दी काफी देर चलने के बाद वह उस जगह पहुंची तो वह देखकर हक्की-बक्की रह गई कि वहां पर तो कोई आलीशान घर है ही नहीं । वहां एक वृक्ष के नीचे एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है जिसमें छोटे छोटे ठाकुर जी और किशोरी जी की प्रतिमा पड़ी हुई है । वह इधर-उधर भाग भाग कर  सबसे पूछती रही यहां पर जो एक आलीशान घर था वह कहां चला गया सब लोग कहने लगे क्या तुम बाबंरी हो गई हो यहां तो सालों से कोई भी घर नहीं है यहां तो वृक्ष के नीचे यही एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है मंगला तो अपनी बात पर अडी रही  मैं तो उनके यहां सालों से काम कर रही थी लेकिन किसी को भी उनके घर का पता मालूम न था मंगला तो पागल हो चुकी थी और रोती रहती थी कि मेरे सेठ और सेठानी कहां चले गए हैं मैं जिनके यहां सालों से आ रही हूं उनका यहां घर है ही नहीं ।लगातार एक हफ्ता वह वहां आती रही लेकिन उसको वह घर का पता ना मिल सका थक हार कर वो उसी मंदिर में गई आज वो मंदिर की सीढ़ियों पर ना बैठकर मंदिर के अंदर चली गई क्योंकि अब वह पहले जैसी गरीब न रही थी आज उसने साफ-सुथरे कपड़े पहने हुए थे  । आज ठाकुर जी और किशोरी जी के मंदिर में उनकी प्रतिमा के दर्शन को कर के वह एकदम से अचंभित हो गई अरे यह तो वही सेठ और सेठानी के रूप जैसी प्रतिमा है अब उसका माथा ठनका जिनके यहां मैं सालों से काम कर रही थी क्या वह ठाकुर जी और किशोरी जू थे। क्या उन्होंने मेरे मन के भावों को पड़ा था कि मैं उनकी सेवा करूं मैं उनको भोग लगाऊं मैं उनके लिए नए-नए वस्त्र बनाकर उनको पहनाऊं उनके प्रांगण की सेवा करूं तो क्या यह मौका उन्होंने मुझे अलग से दिया है यह सोचकर मंगला के पैरों तले जमीन खिसक गई कि क्या सच में ठाकुर जी और किशोरी जू  थे।वह अपने आप को कोसने लगी कि जब तक मेरे मन में भाव था कि मैं ठाकुर किशोरी जी की सेवा करुं तब तक तो उन्होंने मुझे अपनी सेवा में रखा लेकिन जब मेरे मन में यह भाव आया कि अब तो मेरे पास इतना धन हो गया है कि मैं भी नौकर रख सकती हूं तो तब  उन्होंने मेरे मन के भावों को पढ़ा और उन्होंने मुझे अपनी सेवा से मुक्त कर दिया ।वह ठाकुर किशोरी जी के प्रतिमा के आगे जोर जोर से रोने लगी और क्षमा मांगने लगी जिसके कारण आज मैं यहां तक पहुंची हूं आज उन्होंने मुझे सेवा मुक्त कर दिया है सब आने जाने वाले उसकी तरफ देखकर हैरान हो रहे थे कि इस देवी को क्या हो गया है ! मंगला तो जैसे बावंरी सी हो गई थी वह बस अब मंदिर की सीढ़ियों पर बैठी रहती और हर आने-जाने वाले  भगतजन  की चरण धूलि अपने मस्तक पर लगाती रहती और  लाडली लाल जू से प्रार्थना करती रहती कि उस सेवा से वंचित कर दिया लेकिन जब तक मेरे तन में प्राण है तू अपने भक्तजनों की चरण धूलि से मुझे विमुख मत करना ‌।

           हमारे जैसे भाव  होते हैं ठाकुर जी तुरंत पहचान जाते हैं और वैसे ही सेवा और फल प्रदान करते हैं इसलिए हमें ठाकुर जी के प्रति सेवा भाव सच्चे मन से रखनी चाहिए क्योंकि ठाकुर जी भाव के भूखे हैं ना कि धन के इसलिए जैसी जैसी भावना जिसकी वैसा ही फल ठाकुर जी और किशोरी जी हमें देते हैं।

💚💛जय जय श्री राधेश्याम💛💚

श्री महाराज जी की एक प्रमुख

 श्री महाराज जी की एक प्रमुख आज्ञा थी की प्रत्येक साधक श्वास श्वास से 'राधे' नाम अथवा 'राधेश्याम' नामों का मन से जाप करे | हम इतने लापरवाह हैं की हजारों बार श्री महाराज जी से यह सुन कर भी कभी डट कर अभ्यास नहीं किया, उनकी इस आज्ञा का महत्त्व नहीं समझा | 


कुछ ही दिन पहले हमारी आदरणीयाँ दीदिलोगों ने सारे सत्संगीयों से एक निवेदन किया है (या आज्ञा समझ लीजिये) -


दिन में १० मिनट निकाल कर, श्वास श्वास से 'राधे' नाम का जाप करते हुए श्री महाराज जी, युगल सर्कार अथवा दोनों का पूर्ण मनोयोग से रूपध्यान करो | और पूरे १० मिनट तक आधे क्षण को भी मन कहीं और न जाने पाए | पूरे १० मिनट तक उनका रूपध्यान बना रहे | यह स्थिति लाओ | 


पहले पहल यह सुनने में कठिन लगता होगा की एक क्षण को भी भगवदस्मरण न छूटे | किन्तु यह कोई बड़ी बात नहीं है | कुछ ही दिनों के दृढ़ अभ्यास से स्वभावतः यह स्थिति आती है | हम पहले १० मिनट से शुरू करें |  


श्री महाराज जी ने एक बार कहा था "प्रत्येक महापुरुष के श्वास से भगवन्नाम निरंतर निकलता रहता है। अगर एक महापुरुष सो रहा है और आप ध्यान से कान लगा कर सुने, तो आपको भगवन्नाम सुनाई देगा" यह बात तो महापुरुषों की है लेकिन हम साधकों को भी गुरु आज्ञा समझ कर यह अभ्यास करना है | 


इस अभ्यास का अनंत लाभ है | एक बार ये अभ्यास जम जाए, तो ऐसा लगेगा की अपने आप हमारे श्वास से भगवन्नाम निकल रहा है | कोई भी काम करते समय हमारे हृदय में भगवान् और गुरु की उपस्थिति का अनुभव स्वयमेव और स्वभावतः हो जायेगा | कोई गलत चिंतन भी न हो सकेगा | 


मै कोई कही सुनी बात नहीं लिख रहा हूँ | आप कुछ दिन नियमित रूप से लगातार अभ्यास करके देख लीजिये | पहले १० मिनट से ही शुरू करें, फिर धीरे धीरे अपना समय बढ़ाइए | 


One of Shri Maharaj Ji's prime instructions was to mentally chant the name 'Radhey' in each breath (Mentally say 'Ra' when inhaling and 'dhe' when exhaling). Despite hearing this thousands of times from Shri Maharaj Ji, most of us never wholeheartedly practiced and understood the importance of this instruction. 


A few weeks ago, our dear VSK Didis have requested (or instructed) all the devotees to practice this 'jaap' while focusing your mind on the form of Shri Maharaj Ji and/or Radha Krishna. Didis have instructed to perform this while doing roopdhyan for 10 whole minutes without your mind wandering anywhere else, even for half a second. 


In the beginning this may seem very tough- to not let anything else enter your mind for 10 minutes- but this is not as difficult as it seems. Only with a few days of firm practice, 10 minutes becomes natural. 


Shri Maharaj Ji had once said "The divine name of God is always flowing out of a Saint's breath. If some Saint is sleeping and you carefully listen to His breathing, you will hear God's name". Though this is the state of realized saints, we as aspirants must obey our Guru's instructions and practice. 


There is infinite benefit from this practice. Once our mind gets used to this practice, it will feel as if you are automatically chanting 'Radhey' in each breath. It will become so effortless. You will naturally feel the presence of God and Guru. Your mind will be naturally peaceful. 


This is not something that's very difficult or which requires great effort. It is just a matter of some consistent practice. Simply resolve to practice a few times in a day in 10 minute slots. Once you are able to successfully do it for 10 whole minutes, increase your time.


-- Photo: Shri Maharaj Ji in Ranikhet, late 1960s

अनमोल तेरा जीवन यूँ ही गवाँ रहा है,

 अनमोल तेरा जीवन यूँ ही गवाँ रहा है, किस ओर तेरी मंज़िल किस ओर जा रहा है।


सपनों की नींद में ही यह रात ढल न जाए, पल भर का क्या भरोसा यह जान निकल न जाए।


गिनती की ये साँसें यूँ ही लूटा रहा है, किस ओर तेरी मंजिल किस और जा रहा है।


जायेगा जब यहाँ से कोई न साथ देगा, इस हाथ जो किया है उस हाथ जा तू लेगा।


कर्मों की है यह खेती, फल आज पा रहा है । किस ओर तेरी मंज़िल किस और जा रहा है।


ममता के बंधनो ने क्यों आज तुझको घेरा, सुख में सभी हैं साथी, दुःख में कोई नहीं है तेरा।


तेरा ही मोह तुझको, कब से रुला रहा है। किस ओर तेरी मंज़िल किस और जा रहा है।


जब तक है भेद मन में, भगवान से जुदा है, देखे जो दिल का दर्पण, इस घर में ही ख़ुदा है।


सुख रूप होके भी तू दुःख आज पा रहा है, किस ओर तेरी मंजिल किस ओर जा रहा है।।


जय श्री राधे।

गुरुः मेरो कृपालु गुरुः मेरो कृपालु

 गुरुः मेरो कृपालु गुरुः मेरो कृपालु

              गुरुः मेरो कृपालु गुरुःमेरो कृपालु

1 - गुरुः के ही वचन प़तीति भ इ मेरे

             तिनि युग चरनन प़िति भ इ मेरे     

पदरज सोँ नहालु  करि आरती रिझालु

             गुरुःमेरो कृपालु गुरुःमेरो कृपालु


2 - वारि वारि जाऊँ स्वामी आग्या  को पाइके

           करु पुनि सेवा निज  तन मन लाईके

वाकि रुचि आपुनालु  वाकि शरण मैं पालु

             गुरुः  कृपालु   गुरुःमेरो कृपालु


3 - प़ात काल लाल को  ऊठाऊँ कछु गाईके

            करु सिँगार माथे    चन्दन्  लगाइ कै

लैके गोद दुलारु  पै पान करालु

            गुरुः मेरो कृपालु  गुरुःमेरो कृपालु


4 - अरपन करि तन  मन धन सरवस

            रीझवहु कैसे  हुँ   पिय मन वरवस

गर हार वनालु   हिय आसन विठालु

            गुरुःमेरो कृपालु  गुरुःमेरो कृपालु


मैतो घढि घढि गाऊँ गुरुः मेरो कृपालु.......

मैतो वारि वारि जाऊँ गुरुःमेरो कृपालु........

मैतो गलि गलि गाऊँ गुरुः मेरो कृपालु........

मैंतो वावरि मेँ नाचु   गुरुःमेरो कृपालु.........

मैतो काहू को ना देखुँ गुरुः मेरो कृपालु........

श्यामा श्याम गीत

 गुरु नाता मन ते जोड़ो, सदा आठु यामा।

जग नाता मन ते तोड़ो, मिले श्याम श्यामा॥

- श्यामा श्याम गीत


Withdraw your mind from the material world and always keep it attached to your Guru; only then will you attain Shyama Shyam.

- Shyama Shyam Geet

Bhagavad Bhakti - True Devotion

 ज्ञान और वैराग्य दोनों बेटे हैं भक्ति के। भक्ति पैदा करती है इन दोनों को।

-भगवद् भक्ति


Devotion gives rise to both knowledge (gyan) and detachment (vairagya).

- Bhagavad Bhakti - True Devotion

- Shyama Shyam Geet, Verse No. 64

 रहा नाहिं जाये जब मिले बिनु श्यामा।

तब जानो प्रेमबीज, जामा उरधामा॥

- श्यामा श्याम गीत, दोहा संख्या 64


When there is such intense yearning that life seems to be a burden without Shri Shyama, it is only then that the seed of divine love begins to grow within you.

- Shyama Shyam Geet, Verse No. 64

 सिद्धान्त ज्ञान में आलस्य नहीं करना।

-भगवद् भक्ति


One should not be lazy in the matter of acquiring spiritual knowledge.

- Bhagavad Bhakti - True Devotion

 कम दोस्ती रखो। कम लोगों से मिलो। कम लोगों से बात करो।


Limit your friendships and limit your interaction with others.

- Radha Govind Geet

 हरि का तो सर्व कर्म गोविंद राधे।

जीव कल्याण हित ही हो बता दे॥

-राधा गोविंद गीत


All the actions of God are simply for the welfare of all living beings.

- Radha Govind Geet

 संसार को व्यवहार से खरीदा जा सकता है एवं भगवान् को प्यार से।


The world can be fooled by external behaviour, but God is controlled only by true love.

 श्याम को रिझाना हो दो आँसू निष्कामा।

भाजे अइहैं तजि गोलोक निज धामा॥

- श्यामा श्याम गीत


If you wish to please Shyamsundar, offer Him selfless tears of longing. Without any delay He will appear before you, leaving His divine abode Golok.

- Shyama Shyam Geet

निकुंज लीला



आज संध्या के समय जब कान्हा नंद भवन में अपने महल के चौबारे में खड़ा था तभी उसका हाथ अपनी कमर पर लगी बांसुरी पर पड़ा जो उसको बांसुरी को हाथ लगाते कुछ गीला गीला महसूस हुआ कान्हा ने जब बांसुरी को हाथ में पकड़ा तो ऐसा लगा कि जैसे बांसुरी अश्रु बहा रही है उसका मुख मुरझाया सा लग रहा था कान्हा को बहुत हैरानी हुई कि आज मेरी प्रिय बांसुरी को क्या हुआ है तभी उन्होंने बांसुरी से कहा क्या हुआ प्रिया आज तुम्हारा मुख मंडल इतना मुरझाया हुआ क्यों है और किस के वियोग में आंसू बहा रही हो तो बांसुरी कहने लगी अरे कान्हा आज सुबह से तूने मुझे अपने अधरों पर नहीं लगाया जब तक मैं तुम्हारे अधर के रस का पान नहीं करती और तुम्हारी सांस जब तक मेरे अंदर नहीं चली जाती तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैं प्राण हीन हूं और सुबह से इसी तड़प इसी पीड़ा से मेरा यह बुरा हाल हुआ है।


कान्हा सोचने लगा हां आज सचमुच में मैंने बांसुरी को सुबह से छुआ तक नहीं यह गलती मुझसे कैसे हो गई। तभी कान्हा चेहरे पर मुस्कान लाते हुए बड़े प्यार से बांसुरी के छिद्रों को अपने हाथ से सहलाने लगा और अपने अधरों पर बांसुरी को लगाकर अपनी सांसो को भरने लगा ।उधर सावन का पहला दिन होने के कारण निकुंज में किशोरी जी कान्हा की बड़ी देर से प्रतीक्षा कर रही थी इतनी दूर से बांसुरी की धुन सुनकर किशोरी जी बेचैन सी हो गई कि आज कान्हा दूर से ही बांसुरी क्यों बजा रहा है।


इसी बेचैनी से लाडली जू इधर उधर घूमने लगी उधर कान्हा अपनी धुन में बांसुरी को बजाये जा रहा था और इधर किशोरी जी कान्हा की विरह में तड़पने लगी और निकुंज में ही इधर-उधर टहलने लगी सभी सखियां सावन का पहला दिन होने के कारण निकुंज में बड़ी लगन से झूले को सजा रही थी किशोरी जी के श्रृंगार का सामान भी अभी उनके पास ही पड़ा था वह चाह रही थी जल्दी से झूले का श्रृंगार करके कान्हा के आने से पहले ही हम किशोरी जू का श्रृंगार कर देंगी। उनका ध्यान किशोरी जी की तरफ नहीं गया जो कि वह कान्हा के वियोग में इधर-उधर टहल रही है। जब किशोरी जू से ना रहा गया तो वह एक वृक्ष की टहनी के ऊपर जाकर बैठ गई और धीरे-धीरे उस पर लेट गई पास ही बैठा एक मोर अपनी स्वामिनी की इस दशा को देख कर व्याकुल हो रहा था वह कितने चक्कर निकुंज में लगा आया था कि अब तक कान्हा क्यों नहीं आ रहा उसके वियोग में मेरी स्वामिनी का यह हाल हो रहा है तभी अचानक से आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट शुरू हो गई बादलों की आवाज को सुनकर तभी एकदम से कान्हा की तंद्रा भंग हुई और उसको याद आया कि निकुंज में किशोरी जी मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी वह जल्दी से बांसुरी को अपने पीतांबर में लगाकर निकुंज की तरफ भागा ।वहां पहुंचते-पहुंचते काफी बरखा होनी शुरू हो गई निकुंज में जाकर जब इन्होंने चारों तरफ देखा तो उसनेे देखा सखियां झूले को फूलों से सजा रही थी तभी कान्हा उस वृक्ष के नीचे जाकर खड़े हो गए जहां पर किशोरी जू उसकी टहनी पर लेटी हुई थी कान्हा के वियोग में उसकी आंखों से आंसू टपक रहे थे तभी बारिश की ठंडी बूंदों के साथ-साथ कान्हा के कंधे पर कुछ गरम गरम बूंदो का एहसास हुआ जब कान्हा ने उपर देखा तो किशोरी जू की आंखों के आंसू उसके कंधे पर गिर रहे थे , लाडो की इस दुर्दशा का दोष कान्हा अपने आप को दोष देने लगा लेकिन फिर भी उसने अपने आप को संभाल कर किशोरी जू को उस वृक्ष की टहनी से अपनी गोद में उठाकर नीचे उतारा और किशोरी जू के श्रृंगार विहीन और मुरझाए हुए चेहरे देखकर कन्हैया कहने लगा अरे मेरी प्रिय आज तुम्हें क्या हो गया है तुम्हारा श्रृंगार विहीन मुख मंडल मुझे व्याकुल कर रहा है।वैसे तो तुम्हारी सुंदरता का तीनों लोगों में कोई सानी नहीं है लेकिन तुम्हारे ऊपर सोलह श्रृंगार अति शोभायमान होते हैं और तुम्हारा श्रृंगारिक मुख ही मेरे मन को अति प्रसन्न करता है । तभी किशोरी जी का ध्यान कान्हा की मनमोहक चेहरे पर गया किशोरी जी की आंखों में अभी भीआंसू भरे हुए थे और वह रुआंसी सी होती कान्हा से बोली अरे कन्हैया आज तुम्हारा मुख मंडल तो चमक रहा है लेकिन तुम्हारे अधरों की लालिमा आज कुछ कम है और अपनी कटाक्ष नेत्रों को फैलाते हुए और भृकुटी को टेढी करती हुई कान्हा को बोलीआज किस को अपने अधरों के रस का पान करवा कर आए हो ऐसी बातें सुनकर कान्हा एकदम से सकपका गया और मुस्कुराता हुआ किशोरी जी को अपने हृदय से लगाकर बोला अरे प्रिय ऐसा मत कहो और साथ में टेढ़ी नजरों से बांसुरी की तरह देख कर मुस्कुराने लगा और बांसुरी भी प्रसन्नता से इतराती हुई ठाकुर जी की तरफ देख रही थी । बात को पलटने के लिए तभी ठाकुर जी ने सभी सखियों को जानबूझकर डांटते हुए कहा अरे सखियों आज तूने मेरी राधिका का श्रृंगार क्यों नहीं किया ।सभी सखियों डर के मारे भागते हुए श्रृंगार का थाल लेकर वहां आ गई और किशोरी जी का श्रृंगार करने लगी लेकिन कान्हा ने जानबूझकर उनको डांटते हुए कहा अब रहने दो आज अपनी लाडो का श्रृंगार मैं खुद कर लूंगा सखियां एकदम से हैरान होकर एक दूसरे की तरफ देखने लगी क्योंकि उनको पता था कि ठाकुर जी को इतना सुंदर श्रृंगार करना नहीं आता लेकिन फिर भी ठाकुर जी ने उनके हाथ से श्रृंगार के सामान से भरा थाल ले लिया और किशोरी जू की वेणी कोबहुत सुंदर तरीके से गूंथने लगे और उस पर गजरा लगाने लगे।माथे पर टीका ,गले में हार ,कानों में कुंडल आंखों में काजल बिंदिया सब कुछ लगाया और प्रसंता से इतराते हुए बोले देखो प्रिया आज मैंने तुम्हारा कितना सुंदर श्रृंगार किया है जब किशोरी जु ने अपना मुख दर्पण में देखा तो एकदम से हैरान हो गई क्योंकि उसको दर्पण में अपना नहीं कान्हा का चेहरा नजर आ रहा था क्योंकि आज कान्हा नेअपने जैसा श्रृंगार किशोरी जू का कर दिया था ।किशोरी जू पहले तो एकदम से घबरा गई फिर जोर से खिलखिला कर हंसने लगी और कहने लगी चपल कन्हैया आज तुम्हें मेरा श्रृंगारअपने जैसा कर दिया है तो कान्हा मुस्कुराते हुए किशोरी जी के मुख हो ऊपर करके एक उंगली से किशोरी जी की ठोड़ी को को टेक देते हुए उसके रूप रस का पान करते हुए बोले क्या तुझ में और मुझ में कुछ फर्क है प्रिय ।तभी सभी सखियों निकुंज में होने वाली बरखा में कान्हा और राधा रानी को खींच कर ले गई। ठाकुर जी और किशोरी जी बहुत सुंदर नृत्य करने लगे पास में ही खड़ा मोर जो कि अपने स्वामिनी के उदास होने से उदास था लेकिन अब उनको प्रसन्न देखकर वह भी प्रसन्न हुआ और वह भी उनके साथ में नृत्य करने लगा और तभी नृत्य करते करते कान्हा और लाडली जू की नजर एकदम से सखियों द्वारा सजाए हुए बहुत सुंदर झूले पर पड़ी और किशोरी जू भागी भागी झूले की तरफ गई और जाकर वहां पर विराजमान होकर झूले की शोभा को बढ़ाने लगी और ठाकुर जी पीछे से झूले को पकड़कर झूला झुलाने लगे ।किशोरी जी और ठाकुर जी सावन की पहली बरखा का आनंद ले रहे थे तभी ठाकुर जी भी आकर झूले पर किशोरी जी संग विराजमान हो गए और दोनों झूले का आनंद लेने लगे । झूले पर विराजमान उन दोनों की सुंदर और मनमोहक छवि का वर्णन करना असंभव है और सखियां उन दोनों की सुंदरता का रस पान करके अपनी आंखों को सौभाग्यशाली मान रही थी तभी अचानक से एकदम कुछ जोर से आवाज आई। किशोरी जी ठाकुर जी का ध्यान उस आवाज की तरफ गया और देखा कि जिस टहनी पर किशोरी जी ठाकुर जी के विरह में लेटी हुई थी वह एकदम से टूट कर नीचे गिर गई है किशोरी जी घबरा कर कान्हा की तरफ देखने लगी और कान्हा को कहने लगी हो कुछ समय पहले तो यह बिल्कुल कठोर थी एकदम से यह नीचे कैसे गिर गई तो कान्हा ने मुस्कुराते हुए कहा हे मेरी प्रिय लाडो आज तूने अपने चरण इस टहनी पर डालकर उस पर बहुत बड़ा उपकार किया ना जाने यह कितने जन्मों से इधर उधर भटक कर सौभाग्य के उदय होने पर निकुंज की इस टहनी के रूप में यहां थी लेकिन आज तूने इसके ऊपर चरण पग रखकर इसको हर योनि से मुक्त कर दिया है।


हे किशोरी जू हमें भी अपने चरण रज प्रदान करो और हमारे भी किए हुए युगों युगों के पापों को नष्ट करके हमें भी जन्म मरण के बंधन से मुक्त करके अपनी चरणों की चेरी बना कर अपने चरणों में स्थान दो।


सावन की पहली घटा और पहले दिन की आप सबको बहुत-बहुत बधाई हो।
बोलो श्यामा श्याम जू की जय हो ।

श्री गोपाल मंदिर (महू) लीला



                  Gopal Mandir located at MhoW(Military Headquarter of War) currently known as Ambedkar Nagar is a very old temple of Krishn.Mhow is a small town place located about 32km from the city of Indore & is famous for its large military establishments.Gopal Mandir is located at the periphery of Mhow.Today colonies have grown round it but during 30's & 40's it was a secluded place with few houses belonging to the people of Marwadi community & few to the muslim community.This Gopal Mandir has been a witness of the starting of the Divine Spiritual mission of our Maharajji.



Maharajji has studied आयुर्वॆद at the अष्टांग‌ आयुर्वॆद महाविघालय‌ located at Indore & संस्कृत‌ at the संस्कृत महाविघालय‌ located at Mhow during 1936-1938.And in the year of 1938 when he was just 16 years old he started a non-stop chanting session of हरॆ राम महामन्त्र at the Gopal Mandir which continued for six months.Thus distributing the bliss of ब्रज रस & निकुंज रस‌ to the deserving souls.


It was the early part of the सावन मास‌ of the year of 1938 when the Main priest of the temple had an unusual dream in which he saw the deity of Gopal in its original divine form as Krishn sheding tears & looking at the gate of the temple & saying प्रिया जू तुम कब आऒगी! & immediately Radha appearing from the gate & asking for the permission of the priest to carry a chanting session of Mahamantra.The priest waked up with a thrill in his heart.He pondered over the dream but was unable to understand the essence of the dream & so endulged himself into his daily activities.


"Swamiji-Swamiji"-The priest overheard the voice of one of his attendants when he was about to rest after completing the noon rituals.
"Swamiji a young Boy of संस्कृत महाविघालय named राम कृपालु त्रिपाठी has come to meet u who is considered to be a महापुरूष‌ even by the learned scholars of the महाविघालय"-The attendent exclaimed with amazement.




"महापुरूष"-The priest laughed.
"Anway bring him to me immediately else i have to rest"-The priest replied with a heavy tone.
"राम‍ राम‌ swamiji"-The young boy wished the priest while entering the room.
"राम‍ राम‌...What do u want?"-The priest replied with a taunt.
"I want to carry a non-stop chanting session of Mahamantra in the temple for few months"-The young boy said.
"For few months!"...exclaimed the priest in amazement & said-"Boy even a महापुरूष श्री स्वामी राघवाचार्य‌ of Rajasthan who has many disciples in the marwadi community couldn't carry it for few days ...then how could u?
"Do u consider urself to be a Mahapurush?"-The priest again taunted.
"No swamiji"-The young boy humbly replied.
"Then boy there is the gate...its time for u to take leave"-The priest grudged while pointing to the door.
"OK Swamji...So may i take ur leave"-The young boy said with a naughty smile to the priest who in time has turned his back towards the young boy.


"How many times should i say it"-The priest said bitterly turning to the young boy.
But to his amazement he saw Radha in place of the young boy smilingly mischieviously at the priest thus reminding him of his dream.Having this vision the priest understood who this young boy is...& so stood there with folded hands & threw himself at the feet of the young boy saying माँ-माँ & sheding profuse tears.


Now the scene was radicaly changed...when Maharajji came to meet the priest he was sitting on the bed & maharajji on the floor.But,Now the priest made maharajji to sit on the bed & himself sat down on the floor crying & repenting on his mistake.But as we all know how naughty our maharajji is...so he once again asked for the permission to carry out the chanting session...But this time priest replied..."माँ आप भी उतनी ही चंचल हॊ जितना की कान्हा है"|


But how can we carry the session for few months in this secluded place?-The priest questioned with doubt.
"Leave it to me"-Maharajji said smilingly.

मनगढ़ धाम तुझे प्रणाम



       !! मैं हूँ मनगढ़ ग्राम !!
          !! मैं हूँ मनगढ़ धाम !!
           
      मनगढ़ धाम तुझे प्रणाम 

           
मैं इसकी महिमा का क्या वर्णन करूँ |  धन्यातिधन्य है ये मनगढ़ ग्राम, यह धरती, जहाँ अहर्निश भगवन्नाम की मधुर ध्वनि गूँजती रहती है | राधे राधे नाम मेरे परमाणु परमाणु में व्याप्त हो गया है | समस्त तीर्थ मेरे अन्दर आकर समा गये हैं |

मनगढ़ ग्राम-  मेरा जगदगुरु तो सारे शास्त्र वेद बोलता है | सब श्रुतियाँ, पुराण, रामायण, गीता, महाभारत सबके श्लोक जगदगुरु के स्वर में यहाँ का वायुमंडल बन चुके हैं | तब ही तो यहाँ कि वायु का स्पर्श आनंद का स्रोत हो गया है |

मैं अक्सर देखता हूँ कर्मी, ज्ञानी,भक्त, यहाँ आते हैं, मेरी धूलि मस्तक पर धारण करते हैं और पोटली बाँध कर ले जाते है, मेरे पूछने पर उत्तर देते हैं - प्यारे मनगढ़ ग्राम ! तुम भी अपनी महिमा का स्वयं गुणगान नहीं कर पाओगे, यहीं जगदगुरु खेला है, इसी रज में पला है बड़ा हुआ है.........।

जा मनगढ़ को धूल कण श्री राधारति दैन,
जहँ चहुँ दिसि सो सुनि परै राधे राधे बैन।

👏👏मनगढ़ धाम तुझे प्रणाम। 👏👏

"बाल गोपाल की कथा"



           लाला ने देखा कि बहुत देर से मैया दही बिलो रही है तो उठकर आये, रात्रि को सोते समय मैया कृष्ण की आँखों में काजल लगाती है तो सबेरे उठते ही कन्हैया दोनों हाथ से आँखें मलकर आये तो जगन्नाथ भगवान् की सी गोल-गोल आँखें बन गयी, वो काजल आधे गाल पर फैल जाता, घुटमन-घुटमन चलकर आये, मटकी को पकड़कर खड़े हो गये।

          मैया बोली- ओहो ! आ गये तुम, कन्हैया ने कही- मैया, बड़ी जोर की भूख लग रही है, माखन दे दो, मैया बोली- माखन तो अबहीं निकरयो नांय, पहले हाथ मुँह धो, ज्यादा भूख लगी है तो रात्रि को माखन वा मटकी में धरयो है, नेक मिश्री मिलायकें खायले, ना मैया, मैं तो ताजौ माखन लुँगौ, याही मटकी में से लुँगो और अबही लुँगो, मचल गये। मैया बोली- लाला तू मोय तंग करै, तो मौकूं अच्छौ नाय लगै, तू बड़ो ऊधम मचावै, अबही निकरयो ही नाय तो माखन, बोले, ना मै तो ताजौ ही लूंगो, मैया ने सोचा, भूख-वूख तो इसे लगी नहीं है, बच्चों को तो जो बात मन में आ जाय बस वही चाहिये, मैया ने लाला कौ गोदी में लै लियौ और बोली, देखियो ये ऊपर क्या है ? कन्हैया बोले, क्या है ? मैया बोली- चन्दा मामा है, सो चन्दा को देखते ही कान्हा माखन भूल गये, हम तो चन्दा लेंगे, हम तो चन्दा लेंगे, हमकूं चंदा चाहिये और अब ही चाहिये, मैया ने कही- हाँ, चंदा लेंगे, चंदा लेंगे करतो रह तब-तक मेरो माखन निकल आयगो, साड़ी पकड़कर खड़े हो गये, माखन-वाखन बाद में निकलेगा पहले चंदा चाहिये, मैया बोली- हे भगवान् अब क्या करूं ?


         मैया ने बहुत बड़ी परात में पानी भरकर रख दिया, ले आय गयौ चंदा, हाथ मारकर बोले ये तो पानी है, मैं तो वाही को लुँगो, अब ज्यादा तंग जब करने लगे तो मां यशोदा को थोड़ा क्रोध आ गया, मैया बोली, बहुत ही परेशान करै, लाला को गोदी से नीचे पटक दियौ, चलौ जा यहां से, चंदा लेंगे चंदा लेंगे सुबेरे से परेशान कर रहयौ है मोय। जैसे ही मैया ने फटकार लगा दी तो गुस्सा के मारे गुब्बारे जैसौ मुंह फूल गयो गोविन्द को, कमर पर हाथ धर के यशोदा मैया की ओर देख रहे हैं, बोले- ओ बुढ़िया मैया, चंदा दोगी कि नहीं, मैया बोली- धमकी देय रहयौ है मोय? नाय देय रही चंदा, बोल क्या करेगौ, संसार में दो ही हठ सबसे विचित्र होती हैं, एक बाल हठ और दूसरा आप सब जानते हैं, मैं बताऊँगा नहीं।

         बालकों की हठ बड़ी विचित्र होती है, बालक यदि अपनी बात पर अड़ जाये तो उस काम को करके ही मानै और दूसरी हठ अपनी बात पर आ जाय तो करके माने, कन्हैया मचल गये कितनी सुंदर धमकी दे रहे हैं मैया यशोदा को "चन्द्र खिलौना लैहों री मैया चन्द्र खिलौना लैहों" यदि तुमने चंदा नहीं दिया तो जमीन पर लेट जायेंगे, पूरे शरीर पे बालू लगा लेंगे, तुम्हारी गोद में बिल्कुल नहीं आयेंगे। मैया बोली- दारी के मत आ, मेरी गोद मैं नाय आवेगो तो मैं बलराम को गोद में लेय लूंगी पर चंदा नहीं दूंगी, जो करनो है सो कर ले, कन्हैया ने सोचा, ये धमकी काम नहीं कर रही है तो "सुरभि को पय पान न करिहों बेणी सिर न गुथैहों" यदि तुम चंदा नहीं देओगी तो सुरभि गाय को दूध नहीं पिऊँगो, बालों में फूल नाय लगाऊँगों।

           मैया बोली- दारी के एक तो वैसे ही तू दुबलौ-पतलौ है, दूध ना पीवैगो तो तेरो पेट पीठ में ही चिपक जायगो और दुबलो हो जावेगो, तू कारौ तो है ही लाला, सुन्दर तो है नाय, तेरी चोटी गूंथ के मैं तौहै थोड़ा सुन्दर बना देती हूँ, चोंटी ना गुथवावोगौ तो मैं तो बलराम की गूंथ देऊँगी, मत आवे मेरी गोद में, भगवान् ने देखा कि ये धमकी भी काम नहीं कर रही है। कन्हैया बोले- या तो हमें चंदा दे दो नहीं तो हमारे पास एक बात ऐसी है, सुनाय दयी तो चंदा देनों ही पड़ेगो, मैया बोली- तू जै बात होयै जा सबने सुना दें मैं चंदा ना दे रही, अब लाला सोचने लगा कुछ तो करना पड़ेगा, यदि तुमने हमें चंदा नहीं दियो तो ब्रजवासीयों की पंचायत में कह देंगे, सुनो मैया हम केवल नंदबाबा के बेटा है, यशोदा के बेटा नहीं हैं। यदि मोकुं अपनो पुत्र बनानो है तो पहले हमको चंदा दे दो, नहीं तो तू हमारी मैया नहीं और हम तुम्हारे पुत्र नहीं, रूठकर जाकर कौने में बैठ गये, साढ़े तीन बरस का कृष्ण जब रूठकर कौने में जाकर बैठा तो मैया यशोदा के नेत्रों से प्रेमाश्रु निकल पड़े, मैया बोली- अरे तू ऐसी तोतरी वाणी बोले तोकूं कहीं मेरी ही नजर ना लग जाये।

         दौड़कर यशोदा ने लाला को अंक में भर लिया और गोद में बिठा लिया, अरे लाला, एक मीठी बात कहूं, बोले कह दो, तूं रूठ्यौ ना कर, ऐसो नाराज मत हो, माखन से भी कोमल, चंदा से भी सुन्दर तेरे लिए एक नयी बहू लै आऊँगी, बहू का नाम सुनते ही चंदा भी भूल गये, श्रीमान् बोले बहू लेंगे हम तो बहू लेंगे, मैया हंसकर बोली- मुंह धोयबो तौ आवै नाय और बहू लेंगे। तोहे भोजन तो मैं अपनी गोद में बिठाकर कराऊँ, भोजन करनो आवे नाय, बहू लेगो, तू जानै बहू कैसी होवै? बहुत लम्बी होय बहू, तू तो छोटो सो लाला है बहू तो बड़ी लम्बी होय, कन्हैया बोले- हम छोटे है तो बहू भी छोटी ही ले लेंगे, मैया बोली- ठीक है आज माखन बाद में निकारूंगी पहले तेरे लिए बहू ही लै आऊँ, बता कितनी बड़ी बहू लै आऊँ।

         कन्हैया बोले- इतनी बड़ी लै आइयो जो हम गाय चरावे जायो करें तो जेब में धर के लै जायो करै, मैया बोली- गुड़ियाकी कह रहयो दीखै, सो लाकर गुड़िया हाथ में दै दई और सब भूल गये, साढ़े तीन बरस का बालक क्या जाने बहू क्या होती है? अब सब भूल गये कन्हैया और मैया यशोदा की गोद में चढ़ गये।

Guidelines for Devotees:


Respected Badi Didi has recommended the following guidelines for devotees considering their welfare:

1. Always believe that God (Hari) and Master (Guru) are with you. Never think that you are alone, they are always protecting you and will continue to do so. Build on this faith. Keep calling them with tears in your eyes and they will definitely hear you one day.

2. Think about Maharaj ji’s leelas (pastimes), his qualities, his acts of kindness and his grace continuously.

3. Do not let your mind be a free bird. Keep it engaged in thoughts of Maharaj ji only in some way or the other. Listen to his lectures and sankirtan on YouTube, if that does not hold your mind then pick up any book written by Maharaj ji and read it. If your mind still roams about here and there, then cry and pray to Maharaj ji asking for his grace.

4. Do not have any ill feelings towards one another. Work on increasing feelings of mutual respect towards each other.

5. The amount of labour that Maharaj ji has put in with us is beyond our imagination. Do not let his efforts go waste, lead your life based on his principles only.

6. Getting depressed is a sign of disrespect towards Maharaj ji. One gets sad only due to lack of sadhana (spiritual practice). Both sadhana and sewa (service) are equally important. Engage in service of Hari and Guru while remembering “Radhey” name with every breathe.

7. Use mobile phone at bare minimum, limit your conversations to necessary talks. Else use your phone only to hear and watch Maharaj ji’s matter.

Radhe Radhe

💐मेरे गुरुदेव💐


वृन्दाबन धाम मह श्यामा श्याम धामा ।ठाम सो कृपालु, रसिकन सरनाम।।

सोई मम गुरु बसे मनगढ़ धामा। भगवति सुत, तिय पदमा सी बामा।।

रूप मनोहर, तनु अभिरामा। वारी वारी जाउँ गुरु–गुन-गन-ग्रामा।।

 लीनो सेवा-व्रत बाल्यकाल कृपा धामा। भरे जन-जन प्रेम भाव श्याम श्यामा।।

आपु रहें डूबे नित, प्रेम घनश्यामा ।औरहुँ डुबावें प्रेम - सिन्धु अष्ट यामा ।।

जाने बिनु प्रेमतत्त्व, जीव रत -कामा ।गुरु की कृपा ते लगे, लूटन प्रकामा।।

याते कभू प्रेम - भाव, बढ़े वसु - यामा। कभू मूढ़ मन गति जाए अति वामा।।

लखि जीव - दीन दशा,पुनि कृपा धामा। देन लगे तत्त्व - ज्ञान, बिनुहिं विरामा।।

किय महा सम्मेलन चित्रकूट धामा । दिशि दिशि ते बुलाए, सन्त रामधामा।।

दीनी प्रश्नावली तिन, जन - हित कामा। उत्तर प्रतीक्षा करे, जनता प्रकामा।।

भए असमर्थ सब भाजे निज ठामा। पुनि समाधान कियो स्वयम् कृपाधामा ।।

लखि अल्प आयु अस ज्ञान अभिरामा। कहें सब, धन्य ज्ञान-मूर्ति ललामा।।

ऐसी कीर्ति फैली चहूँ ओर इन नामा। शत पन्च पण्डित बुलाए काशी धामा ।।

पण्डित - निमन्त्रण पे, गए काशी धामा। भए वे चकित लखि दिव्य ज्ञानधामा।।

मानो सर्व वेद शास्त्र खड़े आठों यामा। करत चिरौरी सेवा हेतु कृपा धामा।।

बिन शास्त्रार्थ वे तो, झुके इन पामा। मान दियो पद दे, जगद् गुरु नामा।।

कर्म, ज्ञान, भक्ति को समन्वय ललामा। करें प्रेम प्राप्ति हित, अति अभिरामा।।

निज सुख सोचें नहि, जन- हित कामा। रात - दिन सेवा करें, बिनु विश्रामा ।।

ऐसो को उदार? भयो कब? केहि नामा ? ऐसे गुरु-

चरनन कोटिन प्रणामा।।

सेवा की ही बात समुझाएँ आठों यामा। प्रेम करु श्यामा श्याम है निष्कामा।।

मन - शुद्धि हुए बिन, बने नहि कामा। मन -शुद्धि हेतु मन ; गहो गुरु पामा।।

धन्य मम गुरु पिये रस श्याम श्यामा। सोई पिलावे निज जन वसु - यामा।।

धनि वे जन, रस लूटे गुरु - धामा। धनि मम सद्गुरु, बाँटे बिनु दामा।।

सुधि लो हमारी भी ओ प्रभु कृपा धामा ; दे दो एक बूंद बस, बनि जाय कामा।।

हौं तो अस कुटिल न नरकहुँ ठामा। तुम तो कुपालु करो सार्थक नामा।।

—श्यामा त्रिपाठी

🌸पावन कुंड की महिम🌸




                   एक बार प्रयाग राज का कुम्भ योग था। चारों ओर से लोग प्रयाग-तीर्थ जाने के लिये उत्सुक हो रहे थे। श्रीनन्द महाराज तथा उनके गोष्ठ के भाई-बन्धु भी परस्पर परामर्श करने लगे कि हम भी चलकर प्रयाग-राज में स्नान-दान-पुण्य कर आवें ।

                 किन्तु कन्हैया को यह कब मंज़ूर था। प्रातः काल का समय था , श्रीनन्द बाबा वृद्ध गोपों के साथ अपनी बैठक के बाहर बैठे थे कि तभी सामने से एक भयानक काले रंग का घोड़ा सरपट भागता हुआ आया। भयभीत हो उठे सब कि कंस का भेजा हुआ कोई असुर आ रहा है ।

                 वह घोड़ा आया और ज्ञान-गुदड़ी वाले स्थल की कोमल-कोमल रज में लोट-पोट होने लगा। सबके देखते-देखते उसका रंग बदल गया, काले से गोरा, अति मनोहर रूपवान हो गया वह। श्रीनन्दबाबा सब आश्चर्यचकित हो उठे। वह घोड़ा सबके सामने मस्तक झुका कर प्रणाम करने लगा । श्रीनन्दमहाराज ने पूछा-' कौन है भाई तू ? कैसे आया और काले से गोरा कैसे हो गया ?

                   वह घोड़ा एक सुन्दर रूपवान विभूषित महापुरुष रूप में प्रकट हो हाथ जाड़ कर बोला- हे व्रजराज! मैं प्रयागराज हूँ। विश्व के अच्छे बुरे सब लोग आकर मुझमें स्नान करते हैं और अपने पापों को मुझमें त्याग कर जाते हैं, जिससे मेरा रंग काला पड़ जाता है। अतः मैं हर कुम्भ से पहले यहाँ श्रीवृन्दावन आकर इस परम पावन स्थल की धूलि में अभिषेक प्राप्त करता हूँ। मेरे समस्त पाप दूर हो जाते हैं। निर्मल-शुद्ध होकर मैं यहाँ से आप व्रजवासियों को प्रणाम कर चला जाता हूँ। अब मेरा प्रणाम स्वीकार करें ।

             इतना कहते ही वहाँ न घोड़ा था न सुन्दर पुरुष। श्रीकृष्ण बोले- बाबा! क्या विचार कर रहे हो? प्रयाग चलने का किस दिन मुहूर्त है ?

            नन्दबाबा और सब व्रजवासी एक स्वर में बोल उठे- अब कौन जायेगा प्रयागराज? प्रयागराज हमारे व्रज की रज में स्नान कर पवित्र होता है, फिर हमारे लिये वहाँ क्या धरा है ? सबने अपनी यात्रा स्थगित कर दी । ऐसी महिमा है श्रीब्रज रज व श्रीधाम वृन्दावन की ।।

अपना सब समय......

                 


हम लोग अपना सब समय,आत्मशक्ति इसी में नष्ट कर रहें हैं कि लोग हमें अच्छा कहें,जबकि उपर्युक्त सिद्धान्त से यह सर्वथा असंभव है। हम अच्छा बनने का प्रयत्न नहीं करते,हम अच्छा कहलाने का प्रयत्न करते है। परिणाम-स्वरूप हमारा जीवन दंभमय हो जाता है। प्रतिक्षण ऐक्टिंग,बनावट,एटीकेट के ही चक्कर में परेशान रहते है। जरा सोचिये कि संसार में अच्छे एवं बुरे दो प्रकार के लोग हैं एवं सदा रहेंगे। ईश्वर के क्षेत्र वाले अच्छे हैं,तीन गुणों के आधीन रहने वाले बुरे हैं। फिर उन बुरों में भी तामस से राजस अच्छे,राजस से सात्त्विक अच्छे हैं।

               अब आपको ईश्वरीय क्षेत्र का वास्तविक'अच्छा' बनना है,जिसके पश्चात् पुन: बुरा बनने की नौबत न आए। ऐसे 'अच्छे' के विरोधी सात्त्विक,राजस,तामस,तीन प्रकार के लोग हैं। तो फिर आप कैसे आशा करते हैं कि स्वभाविक विरोधी गुण वाले आपके अनुकूल रहेंगे ? यदि आप सात्त्विक बनेंगे तो आपको राजस,तामस,एवं ईश्वरीय लोग बुरा कहेंगे। यदि तामस बनते हैं तो राजस,सात्त्विक,ईश्वरीय बुरा कहेंगे। जब तीन पार्टी विरोधी हैं ही तो ईश्वरीय अच्छा क्यों न बना जाय,जिससे सदा के लिए अच्छे ही बन जायें यानी आनन्दमय हो जायें?संसार तो अपना कार्य स्वभाविक गुणों के आधीन होने के कारण करेगा ही,उसकी चिन्ता हम क्यों करें?

           भावार्थ यह कि संसार को उपर्युक्त प्रकार से परस्पर विरोधी समझकर अच्छा कहलाने में समय एवं आत्मशक्ति का अपव्यय न करें,अपितु सत्यमार्ग का अवलम्बन करें। संसार को मिटाना भी हमारे हाथ में नहीं है,अतएव,हमें अपने अन्तरंग संसार को मिटाकर अपना लक्ष्य प्राप्त करना है।

#जगद्गुरुश्रीकृपालुजीमहाराज।

आज


https://www.jkpliterature.org.in/




आज सम्पूर्ण विश्व अत्यधिक विपत्ति का सामना कर रहा है। चारों ओर अत्यधिक भयानक वातावरण हो गया है। दुख, अशांति, और निराशा से घिरे हुए लोग समझ नहीं पा रहें हैं क्या करें Lockdown में और इस कोरोना काल में।

ऐसे विपत्ति के समय में जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज की तीनों सुपुत्रियाँ कोरोना के अंधकार को दूर करने के लिए रात दिन कठिन प्रयास कर रहीं हैं।  Social media के द्वारा WhatsApp से, Youtube से, Facebook से, Instagram से, अनेक प्रकार के उपाय अपनाकर और TV के द्वारा जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज के प्रवचन घर घर में पहुंचा रही हैं जिससे लोगों को बहुत राहत मिल रही है। ऐसे समय में उन्हें श्री महाराजजी के प्रवचन सुन कर अत्यधिक लाभ हो रहा है।

उनकी सबसे बड़ी बेटी सुश्री विशाखा त्रिपाठीजी, जिन्हें सब प्यार से बड़ी दीदी कहते हैं उन्होंने अपना संदेश देते हुए कहा, "निराश क्यों होते हो? टेंशन की कोइ बात नहीं है, spiritual progress का सबसे अच्छा समय है यह Lockdown। केवल भगवान् और गुरु को अपने अंत:करण में lock कर लो फिर सबकुछ ठीक हो जाएगा। Down, होने की कोई आवश्यकता नहीं है, Depression और tension से छुट्टी के लिए सबसे अच्छा रास्ता है अपने मन को भगवान् और गुरु के चिन्तन में लगाए रहो। भगवान् सदा हमारे साथ हैं इस बात पर विश्वास कर लो।"

Come Out of Stress...


                                                                   हिंदी में पढ़ें

Today the whole world is facing an unprecedented crisis under the throes of a global pandemic. There has been a dreaded atmosphere all around with people instilled with apprehensions, sorrow, unrest, and despair, unable to comprehend and respond in these lockdown and corona times.

Amid such calamity, the three daughters of Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj are relentlessly endeavouring to transform the negativities surrounding us into divine opportunities. By adopting diverse communication channels of social media like Facebook, Instagram, Twitter, WhatsApp, YouTube, and via soul-stirring discourses of Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj on TV channels touching every household, they are propagating positiveness which is subsequently bringing much-needed relief to the people in these trying times. Undoubtedly, people are immensely benefited from listening to the discourses of Shri Maharajji.

The eldest daughter of Shri Maharajji, Dr Vishakha Tripathi, whom everyone affectionately calls Badi Didi, conveys in her message, "Why get disappointed? There is no question of tension; lockdown is the best opportunity for spiritual progress. Only lock God and Guru in your heart and soul, everything else will be alright. There is no need to be down. The best way to get away from depression and tension is to keep your mind focused on God and Guru. God is always with us, firmly BELIEVE this.”

Prem Ras Siddhant


An important excerpt from the 1st edition of Prem Ras Siddhant. In these pages, Shri Maharaj Ji explains the three classes of spiritual aspirants who tread on the path of devotion.
---
"The individual who is neither too attached nor is he too detached from the world; such an individual (aspirant) is worthy to tread on the path of devotion. There are three classes of such aspirants:
1. Best Class of Aspirants
The aspirant who is well versed in scriptural knowledge (the essence) and is logically firm in its philosophy. He has unbreakable faith. This type of sadhak is best deserving of treading on path of devotion. This class of aspirants do not sway when they are exposed to 'kusang'. They continuously progress on their path of devotion.
2. Medium Class of Aspirants
This second class of aspirant does not possess logical knowledge of the scriptures, however they possess immense faith. Because their philosophy is not firm, these aspirants have a chance of downfall if met with 'kusang', as they are standing only on the base of faith. But if they are never exposed to kusang, these aspirants will reach their ultimate aim merely on the basis of their immense faith! However, exposure to kusang will lead to their downfall, as it will make their mind doubtful which will demotivate them.
3. Lower Class of Aspirants
These class of aspirants possess some faith, yet they are totally devoid of any philosophical knowledge. Since they neither possess scriptural knowledge nor strong faith, these type of aspirants are in constant danger of downfall. If they are met with the slightest kusang, they will fall from their path.
Thus, spiritual aspirants must strengthen their philosophical knowledge and understand logically. They must also continuously practice to increase their faith. Only then will the aspirant fearlessly and with an undoubtful mind, progress towards God and ultimately reach the aim" - Prem Ras Siddhant 1st Ed.

बहुत सुंदर कथा ..🖋जय हनुमान जी



एक साधु महाराज श्री रामायण कथा सुना रहे थे।  लोग  आते  और  आनंद विभोर होकर जाते। साधु महाराज का नियम था रोज कथा शुरू  करने से पहले  "आइए  हनुमंत  जी  बिराजिए" कहकर हनुमान जी का आह्वान करते थे, फिर एक घण्टा प्रवचन करते थे।

एक वकील साहब हर रोज कथा सुनने आते। वकील साहब के भक्तिभाव पर एक दिन तर्कशीलता हावी हो गई।
 उन्हें लगा कि महाराज रोज "आइए हनुमंत जी बिराजिए" कहते हैं तो क्या हनुमान जी सचमुच आते होंगे!

अत: वकील साहब ने महात्मा जी से पूछ ही डाला- महाराज जी, आप रामायण की कथा बहुत अच्छी कहते हैं।
 हमें बड़ा रस आता है परंतु आप जो गद्दी प्रतिदिन हनुमान जी को देते हैं उसपर क्या हनुमान जी सचमुच बिराजते हैं?

साधु महाराज ने कहा… हाँ यह मेरा व्यक्तिगत विश्वास है कि रामकथा हो रही हो तो हनुमान जी अवश्य पधारते हैं।

वकील ने कहा… महाराज ऐसे बात नहीं बनेगी।
हनुमान जी यहां आते हैं इसका कोई सबूत दीजिए ।
आपको साबित करके दिखाना चाहिए कि हनुमान जी आपकी कथा सुनने आते हैं।

महाराज जी ने बहुत समझाया कि भैया आस्था को किसी सबूत की कसौटी पर नहीं कसना चाहिए यह तो भक्त और भगवान के बीच का प्रेमरस है, व्यक्तिगत श्रद्घा का विषय है । आप कहो तो मैं प्रवचन करना बंद कर दूँ या आप कथा में आना छोड़ दो।

लेकिन वकील नहीं माना, वो कहता ही रहा कि आप कई दिनों से दावा करते आ रहे हैं। यह बात और स्थानों पर भी कहते होंगे,इसलिए महाराज आपको तो साबित करना होगा कि हनुमान जी कथा सुनने आते हैं।

इस तरह दोनों के बीच वाद-विवाद होता रहा।
 मौखिक संघर्ष बढ़ता चला गया। हारकर साधु महाराज ने कहा… हनुमान जी हैं या नहीं उसका सबूत कल दिलाऊंगा।
कल कथा शुरू हो तब प्रयोग करूंगा।

जिस गद्दी पर मैं हनुमानजी को विराजित होने को कहता हूं आप उस गद्दी को आज अपने घर ले जाना।
कल अपने साथ उस गद्दी को लेकर आना और फिर मैं कल गद्दी यहाँ रखूंगा।
मैं कथा से पहले हनुमानजी को बुलाऊंगा, फिर आप गद्दी ऊँची उठाना।
यदि आपने गद्दी ऊँची कर दी तो समझना कि हनुमान जी नहीं हैं। वकील इस कसौटी के लिए तैयार हो गया।

महाराज ने कहा… हम दोनों में से जो पराजित होगा वह क्या करेगा, इसका निर्णय भी कर लें ?.... यह तो सत्य की परीक्षा है।

 वकील ने कहा- मैं गद्दी ऊँची न कर सका तो वकालत छोड़कर आपसे दीक्षा ले लूंगा।
 आप पराजित हो गए तो क्या करोगे?
साधु ने कहा… मैं कथावाचन छोड़कर आपके ऑफिस का चपरासी बन जाऊंगा।

अगले दिन कथा पंडाल में भारी भीड़ हुई जो लोग रोजाना कथा सुनने नहीं आते थे,वे भी भक्ति, प्रेम और विश्वास की परीक्षा देखने आए।
काफी भीड़ हो गई।
पंडाल भर गया।
श्रद्घा और विश्वास का प्रश्न जो था।

साधु महाराज और वकील साहब कथा पंडाल में पधारे... गद्दी रखी गई।
महात्मा जी ने सजल नेत्रों से मंगलाचरण किया और फिर बोले "आइए हनुमंत जी बिराजिए" ऐसा बोलते ही साधु महाराज के नेत्र सजल हो उठे ।
 मन ही मन साधु बोले… प्रभु ! आज मेरा प्रश्न नहीं बल्कि रघुकुल रीति की पंरपरा का सवाल है।
 मैं तो एक साधारण जन हूँ।
 मेरी भक्ति और आस्था की लाज रखना।

फिर वकील साहब को निमंत्रण दिया गया आइए गद्दी ऊँची कीजिए।
लोगों की आँखे जम गईं ।
वकील साहब खड़ेे हुए।
उन्होंने गद्दी उठाने के लिए हाथ बढ़ाया पर गद्दी को स्पर्श भी न कर सके !

जो भी कारण रहा, उन्होंने तीन बार हाथ बढ़ाया, किन्तु तीनों बार असफल रहे।

महात्मा जी देख रहे थे, गद्दी को पकड़ना तो दूर वकील साहब गद्दी को छू भी न सके।
 तीनों बार वकील साहब पसीने से तर-बतर हो गए।
 वकील साहब साधु महाराज के चरणों में गिर पड़े और बोले महाराज गद्दी उठाना तो दूर, मुझे नहीं मालूम कि क्यों मेरा हाथ भी गद्दी तक नहीं पहुंच पा रहा है।

अत: मैं अपनी हार स्वीकार करता हूं।
 कहते है कि श्रद्घा और भक्ति के साथ की गई आराधना में बहुत शक्ति होती है। मानो तो देव नहीं तो पत्थर।

प्रभु की मूर्ति तो पाषाण की ही होती है लेकिन भक्त के भाव से उसमें प्राण प्रतिष्ठा होती है तो प्रभु बिराजते है।

  🙏🙏जय श्री राम🙏🙏

जगद्गुरुत्तम संदेश



*( हमेशा याद रखें यह सिद्धान्त ) :-🙏

*द्वेष करने वाले व्यक्ति के प्रति भी द्वेष न करें | उदासीन रहे |

*आज कोई नास्तिक भी है तो कल उच्च साधक बन सकता है अत: साधक यह न सोचे कि इसका पतन सदा को हो चुका | सूरदास संत उदाहरण हैं |

*गुरु की सेवा करने वाला तो साधक ही है, उसके प्रिय होने के कारण उस से द्वेष करना पाप है |

*सचमुच भी कोई अपराधी हो तो भी मन से भी' उसके भूतपूर्व अपराधों को न सोचे , न बोलें |

*संसार में भगवत्प्राप्ति के पूर्व सभी अपराधी हैं |

*बड़े बड़े साधकों का पतन एवं बड़े-बड़े पापियों का भी उत्थान एक क्षण में हो सकता है |

*सब में श्री कृष्ण का निवास है अत: उनको ही महसूस करें |

*मन को सदा श्री कृष्ण एवं उनके नाम , रुप , गुण , लीला , धाम, तथा उनके स्वजन में ही रखना है |

*अपने शरण्य ( हरि एवं गुरु ) को सदा अपने साथ रक्षक रुप में मानना है |

*परदोष दर्शनादि कुसंगों से बचना है |

*दोष चिन्तन करते हुए शनै-शनै बुद्धि भी दोषयुक्त हो जाती है |

*परदोष दर्शन ही स्वयं के सदोष होने का पक्का प्रमाण है l
*हमारा निन्दक हमारा हितैषी है |

*निन्दनीय के प्रति भी दुर्भावना न होने पाये क्योंकि उसके हृदय में भी तो श्री कृष्ण हैं |

*कम बोलो मीठा बोलो |

*निरर्थक बात न करो | काम की बात करो |

*प्रतिदिन सोते समय सोचो आज हमने कितनी बार ऐसे अपराध किये |

*कम दोस्ती रखो | कम लोगों से मिलो | कम लोगों से बात करो |

*बहुत संभल के संयम के साथ वाणी का प्रयोग करो |

*किसी का अपमान न करो | कड़क न बोलो | किसी को दु:खी न करो |

*सबसे बड़ा पाप कहा गया, दूसरे को दु:खी करना |

*सहनशीलता बढ़ाओ, नम्रता बढ़ाओ , दीनता बढ़ाओ |

*मौत को हर समय याद रखो | पता नहीं अगला क्षण मिले न मिले |

*सारे संसार में सब स्वार्थी हैं, किसी के धोखे में मत आना |

*मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है |

*संसार में कहीं राग भी न हो , द्वेष भी न हो , उसको वैराग्य कहते हैं |

*भक्त के लिय भगवान् का प्राण समर्पित है |

*वह दास नही जो भगवान से कुछ माँगे | वह तो व्यापारी है |

*दास माने क्या ? स्वामी की इच्छानुसार सेवा करे |

*सांसारिक कामना की पूर्ति के लिए कोई भी व्यक्ति झूठ बोलेगा , पाप करेगा , सब कुछ करता है |

*संसार की कामना के स्थान पर भगवान् की कामना बनाना है | बड़ी सीधी सी बात है उसी का नाम भक्ति है |

*संसार का वैभव पागल बना देता है | वो अकिंचन नहीं महसूस करता अपने आपको |

*भगवान् से प्रेम करना है तो संसार की कामना छोड़ना पड़ेगा |

*यदि भगवान् को सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ समझकर यह सब उन्ही पर छोड़ दिया जाय , तो माँगने की बीमारी ही उत्पन्न न होगी |

*जिस दिन किसी जीव को यह दृढ़ विश्वास हो जाएगा कि भगवान् और भगवान् का नाम एक ही है, तो उसी क्षण उसे भगवत्प्राप्ति हो जाएगी |

*भगवत्प्राप्ति केवल भगवत्कृपा से ही संभव है , अन्य कर्म , ज्ञानादि किसी भी साधन से असम्भव है |

*भगवत्कृपा के हेतु अन्त:करण शुद्ध करना होगा |

*यह कार्य वास्तविक गुरु की सहायता से ही होगा |

*सब कुछ देकर भी न सोचो कि मैने कुछ दिया क्योंकि कोई भी प्रदत्त मायिक वस्तु दिव्य सामान का मूल्य नहीं हो सकती |

*संत और भगवान् दया के सिवाय और कुछ कर ही नहीं सकते |

*अपनी बुध्दि को संत की बुध्दि में जोड़ दो | बस पूर्ण शरणागति यही है |

*संसार में न सुख है न दु:ख हैं , हमारी मान्यता से सुख या दु:ख मिलता है |

*संसारी कामना ही दुखों का मूल है , क्योंकि कामना पूर्ति पर लोभ एवं अपूर्ति पर क्रोध बढ़ता है |

*केवल कान फुकवा लेने मात्र से अथवा गुरुजी के पैर दबाने मात्र से , अथवा गुरु जी को संसारिक द्रव्य देने मात्र से अथवा बातें बनाने मात्र से , शरणागति नहीं हो सकती |

*वास्तविक गुरु तत्त्वज्ञानी एवं भगवत्प्रेम प्राप्त होना चाहिए |

*मन से हरि गुरु में अनुराग करना एवं तन से संसार का कर्म करना ही कर्मयोग है |

*भक्ति के अनेक भेद हैं किन्तु श्रवण , कीर्तन , एवं स्मरण तीन ही प्रमुख है |

*सर्व प्रमुख स्मरण भक्ति ही है |

*-- तुम्हारा कृपालु

So beautifully written



A young girl Nandini in Mayapur wrote this:

May I be quarantined in the heart of Sri Sri Radha Madhava for the rest of eternity.

May They have me locked down beneath Their reddish lotus feet for the rest of eternity, keeping me safe from the virus of illusion.

May They increase my immune system by giving me the vitamins of Their service.

“This is an order from the government of my heart to the citizens of my mind, during the lockdown period which will extend till the existence of the soul. “

Let me use the hand wash called sincerity, to cleanse me of the germs of superficiality. (This should be done as many times in the day as possible, for at least 20 seconds, as per the time of Lord Brahma. )

Let me keep great distance from the people called lust, anger, pride and hypocrisy who have arrived from a foreign land full of virus.

Let me at the least keep a two meter distance of anger, from anyone who sneezes and coughs out harsh words against You or Your devotees.

Let me cover my mouth with the tissue of intelligence, whenever I cough or sneeze any complaints about the service of Your Lordships.

Let me always keep in my mouth the antivirus of Your holy names and pastimes

एक बार की बात है.....

एक बार की बात है। एक संत जंगल में कुटिया बना कर रहते थे और भगवान श्री कृष्ण का भजन करते थे। संत को यकीं था कि एक ना एक दिन मेरे भगवान श्री कृष्ण मुझे साक्षात् दर्शन जरूर देंगे।

उसी जंगल में एक शिकारी आया। उस शिकारी ने संत कि कुटिया देखी। वह कुटिया में गया और उसने संत को प्रणाम किया और पूछा कि आप कौन हैं और आप यहाँ क्या कर रहे हैं।

संत ने सोचा यदि मैं इससे कहूंगा कि भगवान श्री कृष्ण के इंतजार में बैठा हूँ। उनका दर्शन मुझे किसी प्रकार से हो जाये। तो शायद इसको ये बात समझ में नहीं आएगी। संत ने दूसरा उपाय सोचा। संत ने किरात से पूछा- भैया! पहले आप बताओ कि आप कौन हो और यहाँ किसलिए आते हो?

उस किरात(शिकारी) ने कहा कि मैं एक शिकारी हूँ और यहाँ शिकार के लिए आया हूँ।

संत ने तुरंत उसी की भाषा में कहा मैं भी एक शिकारी हूँ और अपने शिकार के लिए यहाँ आया हूँ।

शिकार ने पूछा- अच्छा संत जी, आप ये बताइये आपका शिकार दिखता कैसे है? आपके शिकार का नाम क्या है? हो सकता है कि मैं आपकी मदद कर दूँ?

संत ने सोचा इसे कैसे बताऊ, फिर भी संत कहते हैं- मेरे शिकार का नाम है । वो दिखने में बहुत ही सुंदर है। सांवरा सलोना है। उसके सिर पर मोर मुकुट है। हाथों में बंसी है। ऐसा कहकर संत जी रोने लगे।

किरात बोला: बाबा रोते क्यों हो ? मैं आपके शिकार को जब तक ना पकड़ लूँ, तब तक पानी भी नहीं पियूँगा और आपके पास नहीं आऊंगा।

अब वह शिकारी घने जंगल के अंदर गया और जाल बिछा कर एक पेड़ पर बैठ गया। यहाँ पर इंतजार करने लगा। भूखा प्यासा बैठा हुआ है। एक दिन बीता, दूसरा दिन बीता और फिर तीसरा दिन। भूखे प्यासे किरात को नींद भी आने लगी।

बांके बिहारी को उन पर दया आ गई। भगवान उसके भाव पर रीझ गए। भगवान मंद मंद स्वर से बांसुरी बजाते आये और उस जाल में खुद फंस गए।

जैसे ही किरात को फसे हुए शिकार का अनुभव हुआ हुआ तो तुरंत नींद से उठा और उस सांवरे भगवान को देखा।

जैसा संत ने बताया था उनका रूप हूबहू वैसा ही था। वह अब जोर जोर से चिल्लाने लगा, मिल गया, मिल गया, शिकार मिल गया।

शिकारी ने उसे शिकार को जाल समेत कंधे पर बिठा लिया। और शिकारी कहता हुआ जा रहा है आज तीन दिन के बाद मिले हो, खूब भूखा प्यासा रखा। अब तुम्हे मैं छोड़ने वाला नहीं हूँ।

शिकारी धीरे धीरे कुटिया की ओर बढ़ रहा था। जैसे ही संत की कुटिया आई तो शिकारी ने आवाज लगाई- बाबा! बाबा !

संत ने तुरंत दरवाजा खोला। और संत उस किरात के कंधे पर भगवान श्री कृष्ण को जाल में फंसा देख रहे हैं। भगवान श्री कृष्ण जाल में फसे हुए मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं।

किरात ने कहा: आपका शिकार लाया हुँ। मुश्किल से मिले हैं।

संत के आज होश उड़ गए। संत किरात के चरों में गिर पड़े। संत आज फूट-फूट कर रोने लगे। संत कहते हैं- मैंने आज तक आपको पाने के लिए अनेक प्रयास किये प्रभु लेकिन आज आप मुझे इस किरात के कारण मिले हो।

भगवान बोले: इस शिकारी का प्रेम तुमसे ज्यादा है। इसका भाव तुम्हारे भाव से ज्यादा है। इसका विस्वास तुम्हारे विश्वास से ज्यादा है। इसलिए आज जब तीन दिन बीत गए तो मैं आये बिना नहीं रह पाया। मैं तो अपने भक्तों के अधीन हूँ।

और आपकी भक्ति भी कम नहीं है संत जी। आपके दर्शनों के फल से मैं इसे तीन ही दिन में प्राप्त हो गया। इस तरह से भगवान ने खूब दर्शन दिया और फिर वहां से भगवान चले गए।

मसूरी लीला.........



साधक-श्री महाराजजी संवाद।

एक बार एक सत्संगी ने श्री महाराजजी से पूछा कि हम संसार के लोगों को बाकी सभी प्रश्नों के उत्तर तो दे देते हैं किन्तु एक प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाते। जब लोग हमसे बहस करते हैं कि रामजी, कृष्णजी,और गौरांग महाप्रभु जी के गुरु थे,तो फिर तुम्हारे गुरु (श्री महाराजजी) के कोई गुरु क्यों नहीं है?

श्री महाराजजी: अरे! तो तुम कह दो न की उनके भी गुरु हैं।

सत्संगी: महाराजजी,लेकिन आपके गुरु तो कोई भी नहीं है।

महाराजजी: हैं.....हैं .....पर बताएँगे नहीं।

सत्संगी: महाराजजी,प्लीज बताइये न?

महाराजजी: जब प्रचारक लोग प्रवचन करते हैं और सत्संगी फिर उनसे जुड़ते हैं और बाद में ये प्रचारक लोग बताते हैं कि हमारे गुरु 'जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज' हैं तो सब उन लोगों को छोड़ के मेरे पास आ जाते हैं। इसलिए अगर मैं भी अपने गुरु का नाम बता दूँगा तो तुम लोग भी मुझे छोड़ के उनके पास चले जाओगे, और मैं अकेले बैठा रह जाऊँगा मसूरी में।

थोड़ी देर बाद सिद्धान्त समझाया कि देखो दो प्रकार के महापुरुष होते हैं एक साधन सिद्ध,और एक नित्य सिद्ध। तो साधन सिद्ध को तो गुरु बनाना ही पड़ता है लेकिन नित्य सिद्ध महापुरुष को कोई आवश्यकता नहीं है,फिर भी चाहे तो बना सकते हैं।

इसके बाद फिर मज़ाक करते हुए बोले  : हमारे भी गुरु हैं पर बताएँगे नहीं।

जय हो ऐसे विनोदी स्वभाव वाले श्री कृपालु महाप्रभु की।

पूर्ण विश्वास और सर्वसमर्पण...✍



एक राजा की पुत्री के मन में वैराग्य की भावनाएं थीं। जब राजकुमारी विवाह योग्य हुई, तो राजा को उसके विवाह के लिए योग्य वर नहीं मिल पा रहा था।
 राजा ने पुत्री की भावनाओं को समझते हुए बहुत सोच-विचार करके उसका विवाह एक गरीब संन्यासी से करवा दिया।
राजा ने सोचा कि एक संन्यासी ही राजकुमारी की भावनाओं की कद्र कर सकता है।
विवाह के बाद राजकुमारी खुशी-खुशी संन्यासी की कुटिया में रहने आ गई।
पहले ही दिन कुटिया की सफाई करते समय राजकुमारी को एक बर्तन में दो सूखी रोटियां दिखाई दीं। उसने अपने संन्यासी पति से पूछा कि रोटियां यहां क्यों रखी हैं ?
संन्यासी ने जवाब दिया कि- ये रोटियां कल के लिए रखी हैं, अगर कल खाना नहीं मिला तो हम एक-एक रोटी खा लेंगे।
संन्यासी का ये जवाब सुनकर राजकुमारी हंस पड़ी, राजकुमारी ने कहा- कि मेरे पिता ने मेरा विवाह आपके साथ इसलिए किया था, क्योंकि उन्हें ये लगा कि आप भी मेरी ही तरह वैरागी हैं, आप केवल भक्ति करते हैं... भजन, कीर्तन करते हैं और कल की चिंता करते ही नहीं हैं।
पर स्वामी! मैं जितना जानती हुं की- सच्चा भक्त वही है जो कल की चिंता कदापि नहीं करता और भगवान पर पूरा भरोसा करता है। सर्वसमर्पण करता है।
अगले दिन की चिंता तो पशु भी नहीं करते हैं, हम तो मनुष्य हैं। अगर भगवान चाहेगा तो हमें खाना मिल जाएगा और नहीं मिलेगा तो रातभर आनंद से प्रार्थना करेंगे।
ये बातें सुनकर संन्यासी की आंखें खुल गई। उसे समझ आ गया कि उसकी पत्नी ही असली संन्यासी है। वो नतमस्तक हो गया।
उसने राजकुमारी से कहा कि- आप तो राजा की बेटी हैं, राजमहल छोड़कर मेरी छोटी सी कुटिया में आई हैं। जबकि मैं तो पहले से ही एक सन्यासी हूं, फिर भी मुझे कल की चिंता सता रही थी। केवल कहने से ही कोई संन्यासी नहीं होता, संन्यास को जीवन में उतारना पड़ता है। आपने मुझे वैराग्य का महत्व समझा दिया। जो सारे संसार की पालनहार है,वो मेरा भी तो पालनहार है।

अगर हम सतगुरु की भक्ति करते हैं, तो विश्वास भी होना चाहिए कि सतगुरु हर समय हमारे साथ हैं। सतगुरु को हमारी चिंता हमसे ज्यादा रहती है। कभी आप बहुत परेशान हो, कोई मार्ग नजर नहीं आ रहा हो तो आप आँखे बंद कर के विश्वास के साथ पुकारें, सच मानिये थोड़ी देर में आप की समस्या का समाधान मिल जायेगा...(संगृहीत संदेश)

हमें जो प्राप्त है-पर्याप्त है...श्रीहरि गुरु का आसरा है हमें...राधे राधे🙏

Divine Past Time....



The city of Agra has had the immense fortune of becoming one of the primary leela-sthalis of Shri Maharaj Ji. He had first arrived here in 1940. Since then, up until around 1975, Shri Maharaj Ji had kept visiting Agra multiple times a year, showering His immense grace and bliss upon the residents here.
This is a brief description of the 'rath yatra' procession in Agra which took place in January of 1957, after Shri Maharaj Ji was awarded the title of 'Jagadguruttam'.

The rath yatra had started at 11am in the morning. A large truck was beautifully decorated with flowers and the silver Jagadguru throne was placed on top. The throne too was shining incredibly bright and was also decorated with various flowers, etc. In front of the truck were a few bands which were playing enchanting tunes of keertans.

Shri Maharaj Ji arrived wearing beautifully shiny yellow garments, followed by a devotee who was carrying the silver Jagadguru umbrella over His head. Shri Maharaj Ji was also wearing the silver Jagadguru sandals, which were gifted to Him by the Vidvat Parishad. Shri Maharaj Ji climbed on top of the truck and sat on the throne. That scene was incredibly attractive.. Shri Maharaj Ji in bright golden robes sitting on a silver throne, amidst various exotic flowers.. this scene was looking exactly like Jagadguru Shri Krishn sitting so majestically on His throne in Dwarika. It is totally beyond words to even describe that beauty. Shri Maharaj Ji's chest was also slightly visible, as the robes were not tightly tied.. this immensely added to the beauty.

Shri Maharaj Ji was chanting various keertan while sometimes sitting, sometimes standing. The most notable keertans were 'Radhey Govinda Bhajo, Vrindavan Chanda Bhajo' and 'Bhajo Giridhar Govind Gopala'. Shri Maharaj Ji's voice in those days was incredibly enchanting. Sometimes Shri Maharaj Ji would take breaks and sit down silently.. then the keertan bands were continue the same keertan.

The procession stopped many times in between, where devotees overcome with love, performed aartis. Throughout the entire procession, flowers were being showered from the roofs of the buildings and from all sides. It almost felt as if the gods in heaven were expressing their immense gratitude and love for Shri Maharaj Ji that they were in fact showering the flowers, not the satsangees. Every once in a while loud chants of 'Jagadguru Kripalu Ji Maharaj Ki Jai!' were purifying the entire atmosphere. 

In the end when the procession reached it's final destination, Shri Maharaj Ji's aarti was performed on an enormous scale. Some scholars of Kashi were also invited to this procession, who were reciting the auspicous vedic hymns during Shri Maharaj Ji's aarti. It was such a pious scene.

--- This photo is not of that scene. This was taken in the 1960s during Shri Maharaj Ji's lectures in some city.

'राधा गोविन्द गीत' ग्रन्थ से (जब श्याम ने सुनी राम की कथा)



एक साँझ लाला बोले गोविन्द राधे, आ मैया एक कहानी सुना दे..
मैया बोली सुनु लाला गोविन्द राधे, थे नृप दशरथ अवध के बता दे..
उनके थे चार सुत गोविन्द राधे, नारि कौशल्या आदि तीन थीं बता दे..
सुत राम लछिमन गोविन्द राधे, भरत शत्रुघन नाम बता दे..
सब ते बड़े थे राम गोविन्द राधे, उनकी थी नारि नाम सीता बता दे..
सीता को लै गया गोविन्द राधे, रावण हरि निज लंका बता दे..
यह सुनि चट उठि गोविन्द राधे, बैठे लाला रौद्र स्वरुप दिखा दे..
लाला कह लछिमन गोविन्द राधे, कहाँ है धनुष मेरा वेगि ला दे ला दे..
मैया डरि लाला को गोविन्द राधे, गोद ले उर अँचल में छिपा दे..
पुनि राई नोन लै के गोविन्द राधे, सात बार तनु पै उतारि बहा दे..

भावार्थ : एक रात कन्हैया ने मैया को आग्रहपूर्वक अपने पास बैठाकर कहा, 'मैया आज मुझे कोई कहानी सुना.' मैया लाला के पास बैठकर प्रभु श्रीराम की कथा सुनाने लगी. मैया बोली, 'लाला ! प्राचीन काल में अवध देश के एक राजा थे, उनका नाम था - दशरथ. राजा दशरथ के तीन रानियाँ थीं - कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी. और उनके चार पुत्र थे - राम, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न. सभी पुत्रों में राम सबसे बड़े थे. राम की पत्नी थीं - सीता. रावण नामक असुर सीता का हरण करके अपनी नगरी लंका में ले गया.'

इतना सुनते ही छोटे से कन्हैया अचानक खड़े हो गए और रौद्र स्वरुप में आकर कहने लगे, 'लक्ष्मण मेरा धनुष कहाँ है? तुरंत मेरा धनुष लाकर मुझे दो.' मैया लाला की इस विचित्र दशा को देखकर अत्यंत ही भयभीत हो गयीं और लाला को अपनी गोद में लेकर अपने आँचल में छिपा लिया. इसके बाद मैया ने राई और नमक लेकर लाला के शरीर पर से सात बार उतारा और बहा दिया. (श्रीकृष्ण ही पूर्व अवतार में त्रेतायुग में श्रीराम थे, मैया से कहानी सुनते हुए उन्हें उसी की स्मृति हो आई और वे आवेश में आ गए).

(राधा गोविन्द गीत, दोहा संख्या 8104 से 8113)
जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज विरचित
जो जिस भाव से जितनी मात्रा में शरणागत होता है बस मैं उसको उतनी ही मात्रा में अपनापन , प्यार , कृपा , स्प्रिचुअल पावर देता हूँ। पूरा चाहते हो तो पूरी शरणागति , अधूरा चाहते हो तो अधूरी शरणागति कर लो। बिल्कुल नहीं चाहते तो शरीर को पटकते जाओ, मन संसार में आसक्त रहे , ऐसा कर लो। तुम्हें जो फल चाहिये वैसा ही कर्म करो।
#जगद्गुरुश्रीकृपालुजीमहाराज।


अटैचमेन्ट जब गम्भीर हो जायेगा संसार में तो उतनी ही मेहनत पड़ेगी डिटैचमेन्ट में , फिर ईश्वर में लगाने में उतना ही लेबर होगा ।

#जगद्गुरुश्रीकृपालुजीमहाराज.



भुक्ति माँगें मूढ़ जन मिटै नहिं कामा।
मुक्ति माँगें महामूढ़ कहें ब्रज बामा।।

भावार्थः- जो लोग भगवान् से सांसारिक-भोग माँगते हैं, वे मूर्ख हैं, मुक्ति की कामना करने वाले तो और भी अधिक मूर्ख हैं, क्योंकि मुक्त हो जाने पर तो भगवत्प्रेम मिलने की सम्भावना भी नहीं रहेगी।

(श्यामा श्याम गीत)
#जगद्गुरुश्रीकृपालुजीमहाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति


विष कीड़ा विष रस माँगे आठु यामा।
मन माँगे विषयन नहिं माँगे श्यामा।।

भावार्थः- जिस प्रकार विष का कीड़ा निरन्तर विष के रस में ही संतुष्ट रहता है, उसी प्रकार यह धूर्त मन भी निरन्तर विषयों के रस में ही आनंद का अनुभव करता है। यह श्री राधिका के नाम, रूप, लीला, गुणादि का गायन, स्मरण आदि कर सुखानुभूति नहीं करता।

(श्यामा श्याम गीत)
#जगद्गुरुश्रीकृपालुजीमहाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति



भगवान् का भजन करते समय संसार को याद नहीं करना चाहिये और संसार का काम करते समय भगवान् को भूलना नहीं चाहिये।
#जगद्गुरुश्रीकृपालुजीमहाराज.


हरि-गुरु को मन में जितनी बार लाओगे उतनी ही मन की गंदगी शुद्ध होगी,और अगर गंदी बातें लाओगे तो मन और गंदा होगा।
#जगद्गुरुश्रीकृपालुजीमहाराज।



भगवान दूर नहीं है केवल उसको पाने की लगन में कमी है।"
#जगद्गुरुश्रीकृपालुजीमहाराज



#जगद्गुरुश्रीकृपालुजीमहाराज के #श्रीमुख से:

#नींद जो है वो #तमोगुण है। #जाग्रत #अवस्था में हम #सत्वगुण में जा सकते हैं,#रजोगुण में भी जा सकते हैं। लेकिन नींद जो है वो प्योर(pure) तमोगुण है। बहुत ही #हानिकारक है। अगर #लिमिट से #अधिक #सोओ तो भी #शारीरिक #हानी होती है। आपके #शरीर के जो पार्ट्स हैं उनको खराब करेगा वो अधिक सोना भी। रेस्ट की भी लिमिट है। रेस्ट के बाद #व्यायाम #आवश्यक है। देखिये शरीर ऐसा बनाया गया है कि इसमें दोनों आवश्यक हैं। तुम्हें #संसार में कोई #जरूरी काम आ जाए,या कोई तुम्हारा #प्रिय मिले तब नींद नहीं आती। इसलिए कोई #फ़िज़िकल #रीज़न नहीं #कारण #केवल #मानसिक #वीकनेस है। #लापरवाही,#काम न होना,#नींद आने का #प्रमुख कारण है। हर #क्षण यही #सोचो की अगला क्षण मिले न मिले अतएव भगवदविषय में उधार न करो।



[#जगद्गुरुश्रीकृपालुजीमहाप्रभुकेश्रीमुख_से]

क्रोध आया कि सर्वनाश हुआ। 'बदतमीज़' कहने पर 'बदतमीज़' बन गए। आप इतने बड़े मूर्ख हैं कि एक 'मूर्ख' ने 'मूर्ख' कह कर आपको 'मूर्ख' बना दिया।



संसार में आपका मन 10-15 लोगों में लगा हुआ है । शेष समस्त संसार में आप बाहरी व्यवहार करते हैं । वहाँ न आपका राग होता है न द्वेष होता है। तो इन 10-15 लोगों से भी मन को हटाकर भगवान में लगा दो। इनसे भी बाहरी संसारी व्यवहार करो। Duty करो।
#जगद्गुरुश्रीकृपालुजीमहाराज।


दयामय! अब तो दया करो...!!!

🤗 भाव भक्ति 🤗



                                                     मैं अति पतित, पावन गुरु गोविंद राधे।
                                                     पतितपावन नाम धराया काहे बता दे।।

1- जब 50% से ऊपर भक्ति हो जाती है 
तो उसको भाव भक्ति कहते हैं।

2- भाव भक्ति में पहुंचने पर संसार की बाते सुनने पर ऐसा लगता है कि जैसे मुंह में कोई गोबर ठूस रहा हो ।

3- भगवान के नाम में विश्वास बढ़ जाता है, भगवान का नाम लेते ही, सुनते ही आँसू आने लगते हैं।

4- बार बार भगवान की लीला सुनने का मन करता है।

4- भगवान के धाम में जाने का बार बार मन करता है, भगवान के धाम अच्छे लगने लगते हैं।

5- अपनी बुराई सुनने का शौंक पैदा होता है, आज किसी ने बुराई नही की।

6- वो जरूर मिलेंगे, भगवान, परम आस हो जाती है, एक दिन वो अवश्य मिलेंगे, जरूर से जरूर।

7-संसार के संयोग-वियोग में सुख-दुख का अनुभव नही होता है।

8- भाव भक्ति में कभी-कभी सिद्धियां भी सेवा के लिए आती हैं, इनके प्रलोभन में फंसने पर पतन हो जाता है, इसलिए  इनसे उदासीन रहना चाहिए।

9- भाव भक्ति में पहुंचने पर स्वरुप शक्ति अंतःकरण का चक्कर लगाने लगती है उस शक्ति को यह विश्वास  हो जाता है कि इसका अंतकरण अब शुद्ध होने वाला है ।

10-भाव भक्ति में पहुंचने पर  कभी कभी भगवान का दर्शन होता है पर वो अपना ही बनाया भ्रम होता है इसीलिए भागवत प्राप्ति से पहले रुकना नही चाहिए।

11- जब बहुत भाव भक्ति बढ़ जाती है तो भगवान के बिना रहा नही जाता  बस तभी काम बन जाता है।

इसलिए आसा वह मिलेंगे ढृढ़ कर गहिए।
आंसू बहाए नाम, रुप, गुण सुमिरत रहिए।।🌷🌸🙏🙏🙏

ठाकुर जी की महावर सेवा



एक दिन प्रियतम श्रीकृष्ण श्री ललिता जी से विनम्र हो से कहा-
मेरी एक विनती है मैं आज प्रिया जी के चरणों में महावर लगाने की सेवा करना चाहता हूंl मुझे श्री चरणो मैं महावर लगाने का अवसर दिया जाए।

प्रियतम की बात सुनकर ललिता जी बोली – क्या आप महावर लगा पाऐंगे?

तो प्रियतम ने कहा – मुझे अवसर तो देकर देखो, मैं रंगदेवी से भी सुंदर उत्तम रीति से महावर लगा दूंगा ।

श्री ललिता जी ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया रंग देवी से कहा – कि आज श्री चरणो मैं महावर लगाने की सेवा प्रियतम करेंगे।

प्रिया जी के स्नान के बाद सुदेवी जी ने कलात्मक ढंग से प्रिया जी की वेणी गूँथ दी।

विशाखा जी ने प्रियाजी के कपोलों पर सुंदर पत्रावली की रचना कर दी। अब प्रिया जी के चरणों में महावर लगाना था।
रंगदेवी जी को ललिता जी ने कहा – आज महावर की सेवा प्रियतम करेगे।

प्रियतम पास में ही महावर का पात्र लेकर खड़े थे और विनती करने लगे आज महावर की सेवा में करू ऐसी अभिलाषा हैl


प्रिया जू ने कहा – लगा पाएंगे? उस दिन वेणी तो गूँथ नहीं पाये आज महावर लगा पाएंगे?

प्रियतम ने अनुरोध किया – अवसर तो दे के देखें।
प्रिया जू ने नयनों के संकेत से स्वीकृति दे दी और मन ही मन सोचने लगीं की प्रेम भाव में लगा नहीं पाएंगे,  स्वीकृति मिलते ही प्रियतम ने प्रिया जी चरण जैसे ही हाथ में लिए, श्री चरणो की अनुपम सुंदरता कोमलता देखकर श्याम सुंदर के हृदय में भावनाओं की लहर आने लगीं।

प्रियतम सोचने लगे, कितने सुकोमल हैं श्रीचरण, प्यारी जी कैसे भूमि पर चलती होंगी?

कंकड़ की बात तो दूर, भय इस बात का है ककि धूल के मृदुल कण भी संभवतः श्री चरणों में चुभ जाते होंगे।

तब श्याम सुंदर ने वृंदावन की धूलि कण से प्रार्थना‌ की कि जब प्रिया जी बिहार को निकलें तो अति सुकोमल मखमली धूलि बिछा दिया करो और कठिन कठोर कण को छुपा लिया करो।
प्रियतम भाव बिभोर सोचने लगे कि श्री चरण कितने सुंदर, सुधर, अरुणाभ, कितने गौर, कितने सुकोमल हैं, मुझे श्री चरणों को स्पर्श का अवसर मिला।
प्रियतम ने बहुत चाहा पर महावर नहीं लगा पाये, चाहकर भी असफल रहे।

ऐसी असफलता पर विश्व की सारी सफलता न्योछावर, अनंत कोटि ब्रह्माण्ड नायक शिरोमणि जिनके बस में सब कुछ है।
हर कार्य करने में अति निपुण हैं उनकी ऐसी असफलताओं पर बलिहार जाऊं।

                       जय हो प्रभु
            श्री गिरिराज धरन की जय

अहा!





अहा! आज हमने ऐसा किया, गुरु की आज्ञा का पालन किया। ये अहंकार न हो, इसके लिए कहा जा रहा है,अर्पित कर दो।
जो कुछ किया, महाराज! आपकी कृपा से किया, वरना मैं एक बार ‘राधे’ न बोलता। आप जितने बैठे हैं, सब लोग अकेले में सोचें, अगर ये 'कृपालु' न मिला होता, तो हम लोग न जानते, कौन हैं राधे, कौन है श्याम, और क्या है भक्ति और क्या है ज्ञान और क्या होता है दान।
बस, मम्मी-डैडी और बीबी-पति, बच्चे, नाती-पोते और मर गए, बस। यही करते रहते!

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज