बड़ो कब ह्वैहैं हमरो लाल।

बड़ो कब ह्वैहैं हमरो लाल।
कब चलिहहिं घुटुवन बल आँगन, करिहैं हमहिं निहाल।
कब कर–अँगुरि पकरि ह्वै ठाढ़ो, चलिहैं लटपट चाल।
कब तुतरिन बतियन कछु मोते, बोलिहहिं वचन रसाल।
कब दृग जल भरि मम अंचल गहि, कछु माँगिहहिं गोपाल।
कब ‘कृपालु’ मोते कह ‘मैया,’ इमि कहि चूमति गाल।।

भावार्थ:– यशोदा अपने लाल को गोद में लेकर वात्सल्य–प्रेम में विभोर होकर विधाता से कामना करती हैं,और कहती हैं कि वह दिन कब आयेगा जब मेरे लाल बड़े हो जायेंगे। कब हमारे आँगन में घुटनों के बल चलते हुए हमें निहाल करेंगे। कब हमारे हाथ की अँगुलियों के सहारे खड़े होकर लड़खड़ाते हुए चलेंगे। कब हमसे तोतली भाषा में मधुर–मधुर बाल–विनोद–युक्त बातें करेंगे। कब अपनी आँखों में आँसू भरकर हमारा अंचल पकड़े हुए कोई वस्तु माँगेंगे। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मुझे मेरा लाल कौन सी घड़ी में ‘मैया’ कहेगा? इसके पश्चात् वात्सल्य–प्रेम में विभोर यशोदा कुछ भी न कह सकी। इतना ही कहकर बार–बार अत्यन्त प्यार से अपने लाल के दोनों गाल चूमने लगीं।

(प्रेम रस मदिरा:-श्री कृष्ण–बाल लीला–माधुरी)
-------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा  रचित

🙏🙏  राधे राधे 🙏🙏

अपनापन रखना, मेरे घनश्याम |


अपनापन रखना, मेरे घनश्याम |
घड़ी - घड़ी पल - पल नाम तिहारो, रटे मेरी रसना मेरे घनश्याम |
लली - लाल दोउ दै गरबाहीं, हमारे हिये बसना, मेरे घनश्याम |
भाव - हिँडोरे डारि हिये में, झुलावूँ नित झुलना, मेरे घनश्याम |
दै उपहार हार अँसुवन को, बना लूँ तुझे अपना, मेरे घनश्याम |
कैसेहुँ करि ‘कृपालु’ प्रभु अपनो, पुरवो मम सपना, मेरे घनश्याम  ||

भावार्थ  -   हे मेरे श्यामसुन्दर ! अपने अकारण करुण विरद की सदा ही रक्षा करना अथवा हे मेरे श्यामसुन्दर ! तुम मुझे सदा अपना ही समझना | हे श्यामसुन्दर ! मेरी यही कामना है कि मेरी जिह्वा प्रत्येक क्षण तुम्हारे नामों की रटना लगाया करे | हे श्यामसुन्दर ! हे वृषभानुनन्दिनी ! तुम दोनों गले में हाथ डाले हुए हमारे हृदय में नित्य ही निवास करना | हृदय में विविध भावों के झूले में मैं तुम दोनों को नित्य ही झुलाया करूँ एवं आँसुओं की माला की भेंट देकर मैं तुमको सदा के लिए अपना बना लूँ | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि हे श्यामसुन्दर ! किसी भी प्रकार से मुझको अपना बनाकर मेरी इस कामना को पूर्ण करो  |

( प्रेम रस मदिरा   प्रकीर्ण  –  माधुरी )
   जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति

Shri Maharajji in the old sadhana bhawan in Mangarh



Sometimes, or on any occasion, Shri Maharajji would dress up in unique outfits. Sometimes, He would dress like a 'seth' or a 'sardar ji' etc, and whenever he used to travel, he used to wear white clothes. So that people would not think that he is a baba ji, or any Holy person.

Here, Shri Maharajji is wearing an ordinary t-shirt which was gifted to Him by a devotee from America (one of Prakashanand Ji's satsangees). Shri Maharajji loved it so much that He wore it almost the whole day.

One satsangee asked Maharajji if we could take His photo. He jokingly replied saying "ye bhi puchne ki bat hai! photo le isiliye to t-shirt pehene hai!" (Is this even something to ask! I wore this t-shirt so that you people would take my photo!)

Hence this photo was taken by Badi Didi

(Mangarh, 1979)

Copied# janaki prasad bhaiya ji page

इक आई मालिनि स्वामिनी !|


इक आई मालिनि स्वामिनी !|
रूप अनूप लखी सखि जो ही, मोही सो ही भामिनी |
झूमति झुकति चलति मन भावति, लजवति गति गजगामिनी |
तनु सोरह श्रृंगार सुशोभित, नख शिख छवि अभिरामिनी |
श्यामल रंग अंग प्रति अंगनि, वारत रति – पति कामिनी |
लिये पारिजातादिक फूलनि, माल अनेकन नामिनी |
लली ‘कृपालु’ कहीं ‘लै आवहु, कहहु इहैं रह यामिनी’  ||

भावार्थ    –     मालिन भेषधारी श्यामसुन्दर के संकेत से एक सखी किशोरी जी से कहती है कि हे स्वामिनी जू ! एक ऐसी मालिन आई है, जिसकी अनुपम छवि को जो भी सखी देखती है वही मोहित हो जाती है | वह झूमती एवं झुकती हुई इतनी सुन्दर गति से चलती है कि मतवाले हाथी की चाल भी लज्जित हो जाती है |  वह सोलहों श्रृंगार से सुशोभित है, वह सर्वांग सुन्दरी है | उसका श्याम रंग है | उसके अंग अंग पर कामदेव अपनी रति को न्यौछावर करता है | वह कल्पवृक्ष आदि अनेक नाम वाले फूलों की मालाएँ लिये हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि किशोरी जी ने कहा कि उसको यहीं ले आओ और कहो कि आज रात भर यहीं विश्राम करे  |

( प्रेम रस मदिरा      लीला   –   माधुरी )
     जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित  -  राधा गोविन्द समिति

प्रश्न ३२ :- महाराजजी ! साधना में कैसे आगे बढे़ं ?

प्रश्न ३२ :- महाराजजी ! साधना में कैसे आगे बढे़ं ?

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर :-

मन ने हमारे अनन्त जन्म बरबाद किये । अब मन कर रहा है ऐसा करें , बस हो गया । देखो यहाँ जितने लोग उठते हैं सबेरे तीन बजें , साढे़ तीन बजे और कीर्तन करते हैं , ये अपने घर जाकर तीन बजे उठते है क्या ? कितने आदमी उठते हैं । और जो नहीं उठते हैं वो क्यों नहीं उठते ? मन के गुलाम । अरे! अकेले ही तुम अपना भगवान् का ध्यान करो या इतनी सारी पुस्तकें हमने बना दी हैं पढ़ो । मन को लगाओ भगवान् में , किसी प्रकार से लगाओ । नहीं जी अब मन कह रहा है सोओ , कोई महाराज जी थोड़े ही हैं डाँटेंगे । सो रहे हैं अपना छः बजे उठे , सात बजे उठे । तमोगुण में सुख मिलता है । पढाई और साधना एक बात है । जैसे बड़े - बड़े आदमियों के लडके अरबपतियों के लड़के , प्राइममिनिस्टर के लड़के भी परीक्षा के लिये पढ़ते हैं । जागते है रात - रात भर । अगर वो मन के बहकावे में आ जायें - अरे चलो सोओ , हटाओ , जो होगा देखा जायेगा । तो देखा क्या जायेगा , फेल हो जाओगे । और क्या देखा जायेगा । जितने श्वास बचे हैं मृत्यु के पहले वाले उनको काम में लेना चाहिये । चाहे हजार लोग बैठे हो हम श्वास-श्वास से 'राधे-राधे' बोलें । कौन क्या जानेगा क्या कर रहे हैं हम । ये अवसर फिर नहीं मिलेगा । मनुष्य का शरीर ,भारतवर्ष में जन्म और तत्त्वदर्शी का मिलना , तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेना , सब बनाव तो बन गया और अब कौन सी कृपा बाकी है भगवान् की । अब तो तुम्हारी कृपा आवश्यक है । भगवान् की तो सब हो गई । 'लापरवाही' बस और कुछ बात नहीं । यें लापरवाही जो मैं शब्द बोल रहा हूँ , उसको सोचो ,बार - बार । इसमें पच्चीसो बीमार हैं किसी की कमर ख़राब , किसी का पैर खराब ,किसी का कुछ खराब लेकिन जब मन को डाँट करके लगाते हैं आप लोग तो आँखों में आसूँ भी आ रहे है कीर्तन भी हो रहा है । और अगर ये सब न करो , न हो , महाराज जी भी न हो सत्संग भवन में और आप कमरे में अपने बैठे हों , अरे सर दर्द हो रहा है , अरे लेट जायें , लेट गये , फिर सो गये । क्या मिला ? मन के गुलाम । सब उत्थान और पतन का कारण मन है । केवल मन । इसी मन को जिसने दुश्मन मान लिया और उसके ऊपर लगाम कस ली , वो महापुरुष हो गया । और क्या है महापुरुषों के पास । वही हाथ , पैर ,नाक , कान , आँखे उनके भी है हमारे भी है । उन्होंने प्रतिज्ञा कर लिया ,मैं जो कहूंगा वो होगा और मैं वही कहूँगा जो गुरु ने बताया है । उसके अनुसार मन को गवर्न करूँगा । बस । अभ्यास कर ले कुछ दिन जबरदस्ती , उसके बाद आदत पड़ जायेगी । पहले शौक से कोई व्यक्ति शराब पीता है , कोई व्यक्ति सिगरेट पीता है । ऐसा नहीं होता कि एकदम से हमारी प्यास हो गई शराब की कि शराब लाओ । ऐसा कहीं विश्व में हुआ है ? पहले कुसंग से अपने साथियों के कहने से और ऐसे ही शौक से पिया कि देखें तो , क्या बात है शराब में , सब बड़े - बड़े लोग उसके चक्कर में पड़े है । जिनके पास तमाम वैभव है । उसमें सुख नहीं मिलता उनको तभी तो , शराब पीते होंगे । डेली , शराब पी के लोग सोते हैं बड़े - बड़े अरबपति । बस एक बार पिया , तो शराब का तो अपना काम है नशा करना , बस उसी को आनन्द मान लिया । और रोज पीने लगा , फिर पियक्कड़ हो गया ।

तो संसार में भी सब काम पहले बेमनी से करते हैं । फिर आदत पड़ जाती है । ऐसे ही पहले जबरदस्ती मन को रोको ,गलत चिन्तन न करें , एक सैकिण्ड भी खराब न होने दे । और उसके लिये पच्चीसों साधन हैं । हरि गुरु का चिन्तन ; चिन्तन से थक गये तो पठन । एक - एक विषय पर सैकड़ों , हजारों पद हमने लिख दिये हैं ,बना दिये हैं । एक को पढो , गाओ । फिर बोर हो गये , दूसरा उठाओ , तीसरा उठाओ ,लापरवाही छोड़ो ।

पुस्तक :- प्रश्नोत्तरी ( भाग ३ )
पृष्ठ संख्या :- ७८ , ७९ एवं ८०

🌼जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज🌼

सत्संग का फल


एक था मजदूर। मजदूर तो था, साथ-ही-साथ किसी संत महात्मा का प्यारा भी था। सत्संग का प्रेमी था। उसने शपथ खाई थी! मैं उसी का बोझ उठाऊँगा, उसी की मजदूरी करूँगा, जो सत्संग सुने अथवा मुझे सुनाये. प्रारम्भ में ही यह शर्त रख देता था। जो सहमत होता, उसका काम करता। एक बार कोई सेठ आया तो इस मजदूर ने उसका सामान उठाया और सेठ के साथ वह चलने लगा। जल्दी-जल्दी में शर्त की बात करना भूल गया। आधा रास्ता कट गया तो बात याद आ गई। उसने सामान रख दिया और सेठ से बोला:- “सेठ जी ! मेरा नियम है कि मैं उन्हीं का सामान उठाऊँगा, जो कथा सुनावें या सुनें। अतः आप मुझे सुनाओ या सुनो।
सेठ को जरा जल्दी थी। वह बोला- “तुम ही सुनाओ।” मजदूर के वेश में छुपे हुए संत की वाणी से कथा निकली। मार्ग तय होता गया। सेठ के घर पहुंचे तो सेठ ने मजदूरी के पैसे दे दिये। मजदूर ने पूछा:- “क्यों सेठजी ! सत्संग याद रहा?” “हमने तो कुछ सुना नहीं। हमको तो जल्दी थी और आधे रास्ते में दूसरा कहाँ ढूँढने जाऊँ? इसलिए शर्त मान ली और ऐसे ही ‘हाँ… हूँ…..’ करता आया। हमको तो काम से मतलब था, कथा से नहीं।”भक्त मजदूर ने सोचा कि कैसा अभागा है ! मुफ्त में सत्संग मिल रहा था और सुना नहीं ! यह पापी मनुष्य की पहचान है। उसके मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे. अचानक उसने सेठ की ओर देखा और गहरी साँस लेकर कहा:- “सेठ! कल शाम को सात बजे आप सदा के लिए इस दुनिया से विदा हो जाओगे। अगर साढ़े सात बजे तक जीवित रहें तो मेरा सिर कटवा देना।”
जिस ओज से उसने यह बात कही, सुनकर सेठ काँपने लगा। भक्त के पैर पकड़ लिए। भक्त ने कहा:- “सेठ! जब आप यमपुरी में जाएँगे तब आपके पाप और पुण्य का लेखा जोखा होगा, हिसाब देखा जाएगा। आपके जीवन में पाप ज्यादा हैं, पुण्य कम हैं। अभी रास्ते में जो सत्संग सुना, थोड़ा बहुत उसका पुण्य भी होगा। आपसे पूछा जायेगा कि कौन सा फल पहले भोगना है? पाप का या पुण्य का ? तो यमराज के आगे स्वीकार कर लेना कि पाप का फल भोगने को तैयार हूँ पर पुण्य का फल भोगना नहीं है, देखना है। पुण्य का फल भोगने की इच्छा मत रखना। मरकर सेठ पहुँचे यमपुरी में।
चित्रगुप्तजी ने हिसाब पेश किया। यमराज के पूछने पर सेठ ने कहा:- “मैं पुण्य का फल भोगना नहीं चाहता और पाप का फल भोगने से इन्कार नहीं करता। कृपा करके बताइये कि सत्संग के पुण्य का फल क्या होता है? मैं वह देखना चाहता हूँ।” पुण्य का फल देखने की तो कोई व्यवस्था यमपुरी में नहीं थी। पाप- पुण्य के फल भुगताए जाते हैं, दिखाये नहीं जाते। यमराज को कुछ समझ में नहीं आया। ऐसा मामला तो यमपुरी में पहली बार आया था। यमराज उसे ले गये धर्मराज के पास। धर्मराज भी उलझन में पड़ गये। चित्रगुप्त, यमराज और धर्मराज तीनों सेठ को ले गये। सृष्टि के आदि परमेश्वर के पास । धर्मराज ने पूरा वर्णन किया। परमपिता मंद-मंद मुस्कुराने लगे। और तीनों से बोले:- “ठीक है. जाओ, अपना-अपना काम सँभालो।” सेठ को सामने खड़ा रहने दिया। सेठ बोला:- “प्रभु ! मुझे सत्संग के पुण्य का फल भोगना नहीं है, अपितु देखना है।”
प्रभु बोले:- “चित्रगुप्त, यमराज और धर्मराज जैसे देव आदरसहित तुझे यहाँ ले आये और तू मुझे साक्षात देख रहा है, इससे अधिक और क्या देखना है?”
       एक घड़ी आधी घड़ी,आधी में पुनि आध।
       तुलसी सत्संग साध की, हरे कोटि अपराध।।
जो चार कदम चलकर के सत्संग में जाता है, तो यमराज की भी ताकत नहीं उसे हाथ लगाने की।
सत्संग-श्रवण की महिमा इतनी महान है. सत्संग सुनने से पाप-ताप कम हो जाते हैं। पाप करने की रूचि भी कम हो जाती है। बल बढ़ता है दुर्बलताएँ दूर होने लगती हैं।
गुरू प्यारी साध संगत जी सभी सतसंगी भाई बहनों और दोस्तों को हाथ जोड़ कर प्यार भरी राधे राधे ।।

क्रूर !, तू कत अक्रूर कहाय |


क्रूर !, तू कत अक्रूर कहाय |
कुलिश करोर कठोर तोर हिय, कहु केहि धातु बनाय |
धनि धनि अवनि जननि उन जिन तोहिं, जाय माय पद पाय |
सखियन गति अँखियनहूँ देखत, हा ! कत नहिं पतियाय |
लै ले प्राण प्राणप्रिय दै दे, प्राण हाय ! अब जाय | 
कह ‘कृपालु’ बहुब्रीहि समासहिं, क्रूर न जासों पाय ||

भावार्थ   –   ( मथुरा गमन के समय अक्रूर के प्रति ब्रजांगनाओं की उक्ति )
अरे क्रूर ! तेरा नाम अक्रूर कैसे पड़ गया ? करोड़ों वज्र के समान तेरा कठोर हृदय किस धातु से बनाया गया है ? उस पृथ्वी एवं उस तेरी माता को क्या कहूँ, जिसने तुझे पैदा करके माता के पद को लज्जित किया है | तू अपनी आँखों से भी सखियों की दयनीय दशा देखकर विश्वास नहीं करता | हम लोगों का प्राण ले ले, किन्तु हमारे प्राण श्यामसुन्दर को न ले जा | हम लोगों का प्राण कथमपि नहीं रह सकता | इतने में ‘श्री कृपालु जी’ ने कहा – अरी ब्रजांगनाओं ! ‘अक्रूर’ शब्द में बहुव्रीहि समास है जिसका अर्थ है जिनके समान विश्व में कोई भी क्रूर न हो | अतएव उसका क्रूर व्यवहार स्वाभाविक ही है   | 

 
( प्रेम रस मदिरा     विरह   –   माधुरी )
    जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित  -  राधा गोविन्द समिति

चलन लागे, लाल घुटुरुवनि चाल |




चलन लागे, लाल घुटुरुवनि चाल |
तनक झुकी सिर मोर चंद्रिका, लटुरिन छवि घुँघराल |
नील – कलेवर झलमलात भल, झँगुली पीत रसाल |
कटि किंकिनि पग पैजनियनि धुनि, मोहीं सब ब्रजबाल |
दुध दँतुलिन किलकनि का कहनो, लखत बनत छवि लाल |
पकरि ‘कृपालु’ महरि कर अँगुरिन, तनक चलत गोपाल   ||

भावार्थ  –  छोटे से ठाकुरजी घुटनों के बल चलने लगे हैं, सिर पर थोड़ी – सी झुकी हुई मोर चन्द्रिका सुशोभित है | घुँघराली लटों की झाँकी अत्यन्त मनोहारी है | नीले शरीर पर पीले रंग का झंगुला झलमल करता हुआ अत्यन्त सुन्दर लग रहा है | कमर की करधनी एवं चरण की पायल की रुनझुन ध्वनि ने समस्त ब्रजांगनाओं को मोह लिया | दूध के कुछ दाँतों से युक्त किलकने का रस तो इतना विलक्षण है कि बस देखते ही बनता है | ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में, मैया के हाथ की उँगलियों को पकड़कर छोटे से ठाकुरजी थोड़ा – थोड़ा चल लेते हैं  |

( प्रेम रस मदिरा   श्री कृष्ण - बाल लीला – माधुरी )
   जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति

आजा आजा राधे, आके ना जा मेरी राधे ।।

आजा आजा राधे, आके ना जा मेरी राधे ।।

सुत को भुलाया ऐसी कैसी माँ तू राधे  ।।
उर ते लगा जा आजा निज शिशु राधे ।।

देखा कैसे जाए तोसों सुत दुःख राधे ।।
रोता रहूँ तब दर्शन हित राधे ।।

तेरी कृपा मै न कमी मेरी कमी राधे ।।
मन से मै हारा मन लेले मेरी राधे  ।।

तू ही मेरी थी रहेगी स्वामिनी राधे ।।
है प्रतीति एक दिन आएगी तू राधे ।।

आजा आजा राधे, आके ना जा मेरी राधे ।।

माने या न माने मै हूँ तेरी दासी राधे ।।
मोको क्यों भुलाया तोसों बोलू नहीं राधे ।।

प्रेम अगाधे मेरी प्यारी प्यारी राधे ।।
तू तो है "कृपालु" क्यों कठोर बनी राधे ।।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराजजी से साधक का प्रश्न:

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराजजी से साधक का प्रश्न: जब हम अपने दोस्त,रिश्तेदार आदि को भगवद विषय समझाने का प्रयत्न करते हैं तब समझने के बजाय कभी-कभी वे और अकड़ जाते हैं। इससे हमे बहुत दुख होता है। ऐसे में हम क्या करें?

श्री महाराजजी द्वारा उत्तर: अश्रद्धालु एवं अनाधिकारी से अपने मार्ग अथवा साधना आदि के विषय में वाद-विवाद करना भी कुसंग है,क्योंकि जब अनाधिकारी को सर्वसमर्थ महापुरुष भी आसानी के साथ बोध नहीं करा पाता,तब साधक भला किस खेत की मूली है। यदि कोई परहित की भावना से भी समझाना चाहता है,तब भी उसे ऐसे नहीं करना चाहिए,क्योंकि अश्रद्धालु होने के कारण उसका विपरीत ही परिणाम होगा। साथ ही अश्रद्धालु के न मानने पर साधक का चित्त अशांत हो जाता है।
शास्त्रानुसार भी भक्तिमार्ग को लेकर वाद-विवाद करना घोर पाप है। अतएव न तो वादविवाद सुनना चाहिए,न तो स्वयं करना चाहिए। यदि अनाधिकारी जीव इन विषयों को नहीं समझता ,तो इसमें आश्चर्य या दुख भी नहीं होना चाहिए,क्योंकि कभी तुम भी तो नहीं समझते थे। यह तो परम सौभाग्य महापुरुष एवं भगवान की कृपा से प्राप्त होता है कि जीव भगवदविषय को समझकर उसकी और उन्मुख हो।
अनाधिकारी को भगवदविषयक कोई अंतरंग रहस्य भी न बताना चाहिए,क्योंकि वर्तमान अवस्था में अनुभवहीन होने के कारण अनाधिकारी उन अचिंत्य विषयों को नहीं समझ सकता। उलटे अपराध कमाकर अपनी रही सही अस्मिता को भी खो बैठेगा। साथ ही अंतरंग रहस्य बताने वाले साधक को भी अशांत करेगा।

गुरु मेटत अँधियार .....!!!

गुरु मेटत अँधियार .....!!!

गुरु अपने अनुगत के लिए सदा कृपालु होता है,किन्तु कृष्ण प्राप्ति हेतु लालसा बनाए रखने की पात्रता अनिवार्य है। पात्रता का तात्पर्य शरणागति से है। निष्काम भाव से गुरु की शरणागति करने से वह महापुरुष अनुगत साधक के अंत:करण की भूमि को उर्वरक बना उसमें ईश्वर भक्ति का बीज बोता है। गुरु कृपा पाने की शर्त यह है की साधक की गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा एवं दृढ़ निष्ठा हो। विपरीत से विपरीत परिस्थिति में उसकी गुरु भक्ति निष्कंप और निश्चल रहे। तभी शिष्य की चेतना गुरु की चेतना से एकाकार हो सकती है,उसकी वत्सलता और कृपा को अनुभूत कर सकती है। गुरु अनुगत के अंत:करण की निर्मलता को नहीं देखता बल्कि उसका समर्पण देखता है और हरी की गोद उपलब्ध करवा देता है।
गुरु माता शिशु मन गोविंद राधे। विमल बना के हरि गोद बैठा दे।।
अत: गुरु की महिमा का बखान असंभव है;शब्दातीत है।
काम ,क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या,द्वेष, अहंकार आदि मन के शत्रु घटाटोप की तरह मन को आछादित किए रहते हैं। ऐसे भीषण शत्रुओं से घिरे मन की स्थिति के प्रति उसके कृपालु मन में भाव- संवेदनाओं की अजस्र धार फूट पड़ती है और वह अपने अनुगत के अंत:करण के मल का अनवरत प्रक्षालन करता रहता है। गुरु के हर व्यवहार,हर कार्य का विशिष्ट अर्थ होता है,भले ही वह ऊपरी तौर पर कितना भी निरर्थक क्यों न लगे। हमें उसकी किसी बात की अवहेलना नहीं करनी चाहिए,बल्कि अटूट श्रद्धा रखनी चाहिए क्योंकि गुरु के रूठ जाने पर जीव के कल्याण का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। गुरु आज्ञापालन और सेवा ही जीव को ईश्वर तक पहुंचाने का मूल मंत्र है। गुरु सेवा का अर्थ है- गुरु जो भी कहे,जैसा भी काम सौंपे,करना है।

---जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

कान्ह कछु कै गयो टोना री |


कान्ह कछु कै गयो टोना री |
यमुना – तट रह धेनु चरावत, श्याम सलोना री |
हौं तहँ गई, अचानक देखी, नंद डुठोना री |
देखत ही मोहिं डस्यो दृगन जनु, नागिनि छोना री |
तन, मन, प्राण सबै सखि ! लै अब, दै गयो रोना री |
दिवस ‘कृपालु’ न चैन एक छिन, रैन न सोना री ||

भावार्थ  -  ( एक सखी का प्यारे श्यामसुन्दर से प्रथम मधुर – मिलन, एवं उसका अपनी एक अंतरंग सखी से कहना | ) अरी सखी ! श्यामसुन्दर मेरे ऊपर कुछ टोना – सा कर गया | यमुना के किनारे वह श्यामसुन्दर गाय चरा रहा था | मैं अचानक ही वहाँ पर गई एवं मैंने उसको देखा | देखते ही उसकी आँखों ने नागिन बनकर मुझे डस लिया | अरी सखी ! वह मेरा तन, मन और प्राण सभी कुछ लेकर उसके बदले में रोना – मात्र ही दे गया | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अब उसके वियोग में न तो मुझे दिन में एक क्षण के लिए चैन ही मिलता है और न तो रात में नींद ही आती है अर्थात् उसके मधुर – मिलन के लिए निरंतर तड़पती ही रहती हूँ   |

( प्रेम रस मदिरा    मिलन   –   माधुरी )
    जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति

निज गुरु पादाश्रय


श्री गुरवे नम: 
निज गुरु पादाश्रय 
मैं श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष श्री कृपालु महाराज के चरण कमल रज की अनन्य शरण का आकांक्षी हूँ क्योंकि सुधी साधकजन सभी महापुरुषों के श्री चरणों का नमन तो करते हैं किन्तु आश्रय केवल निज गुरु पाद पद्मों का ही लेते हैंl 
कुछ स्नेही भावुक स्वजनों ने मुझसे कहा है कि मेरे लिए तो आप के लेख ही काफी हैं, आदि आदिl 
मैंने सदैव यह घोषणा की है कि मेरे लेख और उनमे दिए गए वेद, पुराण, शास्त्र, गीता, ब्रह्मसूत्र आदि के उदाहरण मेरी स्व-अर्जित ज्ञान संपत्ति नहीं हैl मैं ब्रह्म विद्या तो दूर आस्तिकता से भी नितांत परे तमोगुणी, रजोगुणी अर्थहीन-रसहीन परिश्रम में जीवन गंवा रहा थाl
जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज ने कृपा करके अपनाया तब तत्व ज्ञान की शिक्षा से मेरा परिचय हुआl मेरी बुद्धि सीमित है अत: वह ज्ञान जो मैंने श्री गुरुवर से सुना उसका भी अल्पांश ही बुद्धि में धारण कर पायाl
गोस्वामी तुलसी दास जी के शब्दों में;
“मैं पुनि निज गुरु सन सुनी कथा सो सूकरखेतl समुझी नहि तसि बालपन तब अति रहेउं अचेतl”
उनसे ही साधना पद्धति सुनी और अटकल लगा लगा के अभ्यास कियाl जो भी किया गुरु कृपा से अति अल्प रस मिलने लगा इसलिए “और साधना करूं” इसकी प्रेरणा मिलीl गुरु कृपा से जो प्राप्त हुआ उसका मैंने कुछ वर्णन पिछले 4 वर्षों के लेखों में किया हैl
आशय यह कि मैं अत्यंत निम्न कोटि का साधक ही हूँl इसके अतिरिक्त कुछ भी नहींl
मान लो यदि मेरे स्थान पर कोई महापुरुष भी हो तो भी सबका परम कल्याण पंचम मूल जगद्गुरु श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ निखिल दर्शन समन्वयाचार्य श्री कृपालुजी महाराज की शरणागति में ही हैl
चिन्मय लाभ केवल निज गुरु चरण आश्रय दे सकता हैl अन्य महापुरुष भी नहीं, तो फिर कोई मेरे जैसा अन्नमय कोष में स्थित, स्थूल शरीर, स्थूल बुद्धि वाला प्राणी क्या देगाl
सभी आदरणीय हैं, सभी कृपामय हैंl किन्तु हमें सौभाग्य तो मूल जगद्गुरु के अनुयायी होने का प्राप्त हैl
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालुजी महाराज के निज धाम, निज कृतियाँ, निज संकल्प से प्रकट संस्थाएं, भक्ति मंदिर, प्रेम मंदिर मंदिर, निकट भविष्य में कीरति मंदिर, नि:शुल्क, विद्यालय एवं नि:शुल्क चिकित्सालय आदि ही हमारी आध्यात्मिक सम्पदा एवं सेवा के सौभाग्यावसर हैंl
उनकी निज संतान, मेरी तीनों दीदियां गुरुवर की वह आध्यात्मिक शक्तियां हैं जो उनके समस्त संकल्पों को सम्पूर्ण करने में और उनके आश्रमवासियों व सत्संगियों के हितों का ध्यान रखने में दिन-रात अथक परिश्रम कर रही हैं किन्तु सभी संकल्प सिद्ध होने का श्रेय वह सदा गुरु चरण रजकण की कृपा को ही देती हैंl मैं केवल यह ही कह सकता हूँ कि उनका महत्व मेरे लिए गुरु कमल-कोमल-गात की दिव्य ज्योति के समान हैl
भगवदीय लाभ हेतु सदैव आध्यात्मिक संपदा का ही आश्रय लेना ही उचित हैl

श्रीराधारानी/गोपीजन माधुर्य

राधे राधे..

'ब्रजभाव माधुर्य'
खंड : श्रीराधारानी/गोपीजन माधुर्य

टॉपिक : प्रेम की रीति (गोपनीयता)

प्रेम ढँका हुआ होने पर बढ़ता है और प्रेम खुला हुआ होने पर लोगों की उस पर नजर लगती है. इसीलिए प्रेम के संबंध में यह बात कही गई :

प्रेमाद्वयो रसिकयोरपि दीप एव हृद्वेश्म भासयति निश्चल एष भांति ।
द्वारादयं वदनुतस्तु बहिष्कृतश्चेन् निर्वाति शान्तिमथवा लघुतामुपैति ।।

एक बार भगवान् गोपदेवी बनकर के, साँवरी सखी बनकर के राधारानी के पास गये और जाकर के बताया कि मैं ब्रज में बहुत दिन से आई हूँ स्वर्ग की देवी हूँ. लेकिन मैं दुःखी होकर तुम्हारे पास आई हूँ, तुम हमें उस दुःख से बचाओ. राधारानी ने पूछा - तुमको क्या दुःख है? तो बोली कि तुम विश्वास नहीं करोगी हमारी बात पर, तो कैसे बतायें? राधा जी बोलीं - तुम कहो तो सही. बोलीं कि मैं जब से यहाँ आई हूँ, एक नंदनंदन श्यामसुन्दर है नंद बाबा का छोरा,

देखो री यह नन्द का छोरा बरछी मारे जाता है,
बरछी सी, तिरछी चितवन से पैनी छुरी चलाता है..

वह हमारे पीछे लगा रहता है. हमको न सोने दे, न बैठने दे, न कहीं जाने दे, न आने दे, वह हमको बहुत सताता है, हमारे साथ बड़ा अन्याय करता है. राधारानी ने कहा - सखी ! तू झूठ बोलती है, हमारा नंदनंदन, श्यामसुन्दर, हमारा प्राण प्यारा तो हमको छोड़कर दूसरे की ओर देखता ही नहीं है. वह बोली कि नहीं; एक दिन तो मैं धोखे में आ गई सखी ! असल में वह दस गाँव में किसी भी गोपी को शान्ति से नहीं रहने देता है, सबको परेशान करता है. अब तो प्रेम की चर्चा छिड़ गई.

प्रेम की जब चर्चा चली, तब राधारानी ने उसको बताया कि प्रेम है दीपक की लौ. और वह हृदय के मंदिर में सर्वदा प्रज्जवलित रहता है और प्रेमी और प्रियतम दोनों के हृदय को प्रकाशित करता रहता है, लेकिन जब वह मुँह (जुबान) के दरवाजे से बाहर निकलता है, तो लड़खड़ा जाता है, या तो बाहर की हवा लगती है, और बुझ जाता है. इसलिए सखी प्रेम कोई ऐसी चीज नहीं है कि गाँव में इसको बताते फिरें कि हम बड़े प्रेमी, हम बड़े प्रेमी. यह प्रेम ढिंढोरा पीटने की वस्तु नहीं है; गोपी नाम ही इसलिये है कि गोपी अपने प्रेम को गुप्त रखने में समर्थ है, गोपन (छिपाने) करने में समर्थ है...

(एक संत के व्याख्यान से उद्धृत; साधना में लाभ हेतु साभार)

* ब्रजभाव माधुर्य
* श्री कृपालु भक्तिधारा प्रचार समिति

'ब्रजभाव-माधुर्य'

राधे राधे..

'ब्रजभाव-माधुर्य'
खंड : साधना संबंधी परामर्श

टॉपिक : भगवतरुचि कम क्यों हो जाती है? वह कैसे बढ़े? (जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु के प्रवचन के अंश से)

"..प्रारम्भ में जब कोई साधक किसी महापुरुष के संपर्क में आता है तो उसमें अश्रु (आँसू) आदि अनेक सात्विक भावों का प्रचुर मात्रा में प्रादुर्भाव देखा जाता है और यह भी देखा जाता है कि भगवत् स्मरण में उसका मन खूब लग रहा है. लेकिन किसी साधक के ये भाव कम हो गये दिखाई पड़ते हैं, उसका एकमात्र कारण यह है कि उसने प्रतिक्षण उस भाव को संजोये (बनाये) रखने का प्रयत्न नहीं किया, आगे की स्थिति को प्राप्त करने का उद्योग नहीं किया और कुछ समय साधना करके, अपनी भगवत् मार्ग में उपार्जित (कमाई हुई) उस तुच्छ स्थिति पर ही संतोष कर लिया, इस कारण से ऐसी स्थिति में वह आ गया है. अब भी अगर वह इस बात को अनुभव करे और निरंतर साधक प्रभु स्मरण की इस राह पर चल जाय तो वह न केवल अपनी पुरानी स्थिति को प्राप्त कर लेगा वरन आगे भी बढ़ जाएगा.."

- जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज..
Ref. आध्यात्म संदेश मैगजीन, अक्टूबर 1998, पृष्ठ 51

* ब्रजभाव माधुर्य
* सुश्री गोपिकेश्वरी देवी जी
* श्री कृपालु भक्तिधारा प्रचार समिति

श्याम तन भले भये घनश्याम |

श्याम तन भले भये घनश्याम |
जो तुम होते गौर बरन तो, विष खातीं ब्रजबाम |
भले भये अति निठुर श्याम जो, रहे द्वारिका ठाम |
जो तुम होते सरल हृदय तो, प्रलय होत ब्रजधाम |
भले भये तुम श्याम कंत इक, प्रिया अनंत ललाम |
जो होते मोहन अनन्य तो, क्यों जीती सो बाम |
जो ‘कृपालु’ तुम होत लली तो, होति कौन गति राम  ||




भावार्थ  –  एक सखी कहती है कि हे श्यामसुन्दर ! बड़ा अच्छा हुआ कि तुम काले रंग के हुए, अगर तुम गोरे रंग के होते तो समस्त ब्रजांगनायें तुम्हारे वियोग में जहर खाकर मर जातीं | बड़ा अच्छा हुआ कि तुमने अत्यन्त निष्ठुर स्वभाव पाया जो कि द्वारिकापुरी से लौट कर नहीं आये | अगर कहीं तुम सरल हृदय के होते तो समस्त ब्रजधाम में प्रलय हो जाती | बड़ा अच्छा हुआ कि तुम प्रियतम एक और तुम्हारी प्रेयसी अनन्त हैं | अगर तुम एक ही प्रेयसी से अनन्य प्रेम करते तो आनन्द के मारे उसके प्राण रह ही न पाते | इतने में ‘श्री कृपालु जी’ ने कहा कि यह सब तो ठीक है, किन्तु यदि तुम लली होते, तो हाय राम ! कौन गति होती  |

 ( प्रेम रस मदिरा     सिद्धान्त   –   माधुरी )
    जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति

कबहुँ सखि हमहुँ देखिहौं श्याम |

कबहुँ सखि हमहुँ देखिहौं श्याम |
बहुत दिनन ते गुनन सुनति हौं, कोटि काम अभिराम |
अंग अंग जनु चुवत सुधारस, अस कह सब ब्रजबाम |
इक तो सुनति चपल चितवनि ते, बिके सबै बिनु दाम |
दूजो सुनति मधुर मृदु मुसुकनि, होत सबै बेकाम |
कह ‘कृपालु’ इक और मुरलिधुनि, घायल कर अविराम   ||



भावार्थ -  अरी सखी ! श्यामसुन्दर को कभी मैं भी देखूँगी? कभी ऐसा सौभाग्य मेरा भी होगा ? बहुत दिनों से उनके गुणों को सुन रही हूँ कि वे करोड़ों कामदेवों से अधिक सुन्दर हैं | उनके अंग-अंग से मानो अमृत रस चूता रहता है, ऐसा समस्त ब्रजांगनाएँ कहती हैं | एक तो सुनती हूँ कि उनके चंचल नेत्र की चितवनि में विलक्षण जादू है जिससे सब बिना दाम के बिक जाते हैं | दूसरे यह भी सुनती हूँ कि उनकी मधुर मुस्कान से सब विह्वल हो जाते हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अरी सखी ! एक और भी बात है, उनकी मुरली की धुनि से तो कोई भी नहीं बच पाता, वह निरन्तर सबको घायल करती रहती है |


( प्रेम रस मदिरा     दैन्य   -   माधुरी )
    जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित  -  राधा गोविन्द समिति

धरो मन ! गौर - चरन को ध्यान |

धरो मन ! गौर - चरन को ध्यान |
जिन चरनन को राखत निज उर, सुंदर श्याम सुजान |
भटकत कोटि कल्प तोहिँ बीते, खायो सिर पदत्रान |
चार प्रकार लक्ष चौरासी, द्वार फिर् यो जनु स्वान |
चरण - शरण कबहूँ नहिं आयो, अबहूँ करत न कान |
येहि दरबार दीन को आदर, पतितन को सनमान |
पुनि ‘कृपालु’ तुम कत चूकत मन, पंडित बनत महान ||


भावार्थ - अरे मन ! कीर्ति - कुँवरी राधिका जी के चरणों का निरन्तर ध्यान किया कर, जिन चरणों का ध्यान सच्चिदानंद श्रीकृष्ण भी करते हैं | अरे मन ! तुझे भटकते हुए अनन्त जन्म बीत चुके, एवं तूने उन विषयों के अनन्त बार जूते खाये | स्वेदज, अंडज, उद् भिज, जरायुज इन चार प्रकार की उत्पत्ति के द्वारा कुत्ते की तरह तूने चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाया है, किन्तु किशोरी जी के चरण - कमलों की शरण कभी नहीं ली | आज भी मेरी बात नहीं मान रहा है | अरे मन ! किशोरी जी के दरबार में पतितों एवं दीनों को ही सम्मान मिलता है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अरे मन ! तुम बहुत बड़े पंडित बनते हो फिर ऐसा अवसर क्यों खो रहे हो, अर्थात् किशोरी जी के चरणों की शरण क्यों नहीं लेते ?
( प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त - माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचित
सुखमय, मंगलमय व् भक्तिमय रविवार की शुभकामनाओं के साथ
🙏🙏 राधे राधे 🙏🙏

हम चाकर उन ब्रज नारिनि के |



हम चाकर उन ब्रज नारिनि के |
भूखे रहत ब्रह्म खायेहु पै, जिन ब्रजनारिन गारिनि के |
थेइ थेइ करि नित नाचत गावत, जिनकी तारन तारिनि के |
घर घर फिरत सुनन कटु वचनन, जिनकी चोरिनि जारिनि के |
याचत चरण रेणु ब्रह्मादिक, जिन ब्रज की पनिहारिनि के |
धनि ‘कृपालु’ ब्रजनारिन जिन नित, विहरति संग विहारिनि के ||

भावार्थ    -    हम इन ब्रजांगनाओं के दास हैं, जिनकी सदा गाली खाने पर भी ब्रह्म श्यामसुन्दर भूखे ही बने रहते हैं | जिनके हाथ की तालियों की ताल पर श्यामसुन्दर थेइ - थेइ करते हुए नाचते हैं | जिनके चोरी जारी के कड़वे वचनों को सुनने के लिए श्यामसुन्दर बरबस उनके घरों में जाते हैं | जिनकी चरणधूलि देवाधिदेव ब्रह्मादिक भी चाहते हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि वे ब्रजांगनाएँ धन्य हैं जो स्वामिनी कुंज - विहारिणी के साथ विहार करती हैं  |

( प्रेम रस मदिरा    सिद्धान्त  -  माधुरी )
     जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित  -  राधा गोविन्द समिति

🌼मानव देह का महत्व 🌼

🌼मानव देह का महत्व 🌼

यह मनुष्य का शरीर बार बार नहीं मिलता । दयामय भगवान चौरासी लाख योनियों में भटकने के पश्चात् दया करके कभी मानव देह प्रदान करते हैं । मानव देह देने के पूर्व ही संसार के वास्तविक स्वरुप का परिचय कराने के लिए गर्भ में उल्टा टांग कर मुख तक बाँध देते हैं । जब गर्भ में बालक के लिए कष्ट असह्य हो जाता है तब उसे ज्ञान देते हैं और वह (जीव) प्रतिज्ञा करता है कि मुझे गर्भ से बाहर निकाल दीजिये, मैं केवल आपका ही भजन करूँगा । जन्म के पश्चात जो श्यामसुंदर को भूल जाता है, उसकी वर्तमान जीवन में भी गर्भस्थ अवस्था के समान ही दयनीय दशा हो जाती है । 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि यह मानव देह देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, इसलिए सावधान हो कर श्यामसुंदर का स्मरण करो ।
                          -----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

मैं तेरा मेरा तेरा गोविंद राधे।
तेरी वस्तु को माना अपनी क्षमा दे।।

हे हरि! मैं आपका ही हूँ। मेरी हर वस्तु आपकी ही है। वस्तुतः मैंने आपकी ही वस्तु को अपना मान लिया था। इसके लिए आप मुझे क्षमा प्रदान करें।

तन मन प्राण तेरा गोविंद राधे।
मैं तो हूँ सदा का भिखारी तोहिं का दे।।

हे प्रभु! मेरा तन,मन, प्राण सब तुम्हारा ही दिया हुआ है। मैं भिखारी हूँ। मैं भला तुम्हें क्या दे सकता हूँ।

माटी का पुतला तू गोविंद राधे।
काल जब चाहे तोहिं माटी बना दे।।

यह मानव शरीर पंचतत्वों -पृथ्वी, जल, अग्नि,वायु और आकाश द्वारा निर्मित है। मृत्यु किसी भी क्षण इस शरीर को नष्ट कर पंचतत्वों में विलीन कर सकती है।

तन यौवन धन गोविंद राधे
चार दिन की है सब चाँदनी बता दे।।

सुन्दर शरीर, युवावस्था एवं धन केवल चार दिन के हैं। इनमें से कोई भी स्थिर रहने वाली वस्तु नहीं है।

तू ही बिनु हेतु दाता गोविंद राधे।
जग कछु लै के कछु दे दान ना दे।।

 हे नाथ! संसार में कोई किसी से कुछ लेकर उसे कुछ देता है। बिना हेतु के दान देने वाले एकमात्र दाता तो तुम ही हो।

तन क्षणभंगुर गोविंद राधे।
तजि दे गुमान मन हारि में लगा दे।।

हे मानव! शरीर नाशवान है। इसका गर्व न कर। अपने मन को तुरन्त श्रीहरि में लगा दे।

नंगे तनु आया था गोविंद राधे।
बिनु तनु जाये  काल तनु भी  छिना दे।।

हे जीव! तू संसार में नग्न शरीर लेकर आया था जाते समय यह शरीर भी तुझसे मृत्यु छीन लेगी।

कोटि यतन करू गोविंद राधे।
तन धन धाम तेरा कोई साथ ना दे।।

हे प्राणी ! तू करोड़ों प्रयास क्यों न कर ले। शरीर, धन या भवन कोई तेरे साथ नहीं जायगा।

हरि की शरण गहु गोविंद राधे।
हाय हाय में काहे जनम गँवा दे।।

श्री कृष्ण की शरणागति ग्रहण कर। सांसारिक कामनाओं के चक्कर में पड़ कर क्यों अपने जीवन को व्यर्थ नष्ट कर रहा है?

गर्भ ते न लाया कछु गोविंद राधे।
संग भी न जाये कछु मन को बता दे।।

जब जीव माँ के गर्भ से संसार में आता है तो खाली हाथ ही आता है। इसी प्रकार जब वह शरीर छोड़कर जाता है तब उसे खाली हाथ ही जाना पड़ता है। थोड़े से बीच के समय के लिए जोड़ा- जोड़ी कर वह अपना भविष्य बिगाड़ लेता है।

मुट्ठी बाँधे आया था तू गोविंद राधे।
हाथ पसारे जाये मन को बता दे।।

अरे जीव ! जब तू जगत में आया था तब तेरी मुट्ठी बंधी हुई थी। उस समय भी तू खाली हाथ ही था। अपनी आयु पूरी होने पर जब तुझे इस मृत्युलोक से वापस जाना होगा तब भी तू खाली हाथ ही जायगा। अपने मन को बार-बार इस सत्य का स्मरण करा ताकि वह इस जगत में आसक्त न हो।

जो आया जाये वह गोविंद राधे।
केहि लगि तू धन धाम सजा दे।।

जो इस संसार में आया है उसे यहाँ से जाना भी होगा फिर धनादि के एकत्र करने में अपने अमूल्य जीवन को क्यों नष्ट कर रहा है? तेरे पूर्व जन्मों के पुण्य-पुञ्जों के परिणाम स्वरुप श्रीहरि ने कृपा करके तुझे सीमित काल के लिए मानव-तन प्रदान किया है इसे तो क्षण-क्षण हरि स्मरण में ही लगाना उचित है-    "दो बातन को भूल मत जो चाहे कल्याण।
         नारायण इक मौत को दूजे श्रीभगवान्।"

तेरे जैसा दाता कौन गोविंद राधे।
मेरे जैसा भिक्षु कौन बानक बना दे।।

हे प्रेम-दानियों में सर्वश्रेष्ठ उदार शिरोमणि युगल किशोर! तुम्हारे जैसा देने वाला नहीं और मेरे जैसा माँगने वाला भी नहीं। मुझे भी अपने किसी प्रेमी से प्रेम की भिक्षा दिलाकर कृतार्थ करो।

पुस्तक-दानमेकं कलौ युगे                                                  रचयिता-जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

एक बार श्री गुरु नानक देव जी घोड़े पर बैठे कहीं से करतारपुर को लौट रहे थे।

एक बार श्री गुरु नानक देव जी घोड़े पर बैठे कहीं से करतारपुर को लौट रहे थे।

भाई लहणा जी, पुत्र बाबा श्री चन्द जी, बाबा लखमीचन्द जी और साधसंगत संग चल रही थी।

रास्ते में कीचड़ से भरा एक गन्दा नाला आया।

श्री गुरु नानक जी के पास एक कटोरा था।
उन्होंने वो कटोरा पुल पार करते समय उस गन्दे नाले में फेंक दिया,
और सबको ऐसा प्रतीत हुआ जैसे ये कटोरा गुरु जी के हाथ से छिटक कर गन्दे नाले में जा गिरा है।

श्री गुरु नानक देव जी ने हुक्म किया- कोई भाई जाकर के ये कटोरा इस नाले से निकाल लाओ।

कोई आगे नही बढ़ा।
श्री गुरु नानक देव जी ने अपने पुत्र बाबा श्री चन्द जी को कटोरा निकालने को कहा।

बाबा श्री चन्द जी ने उत्तर दिया- पिता जी! आप जैसे दिव्यात्मा को कटोरे से इतना मोह नहीं करना चाहिए।
आप चाहें तो आपको नया कटोरा ले देते हैं।

बाबा लखमी चन्द जी के भी यही विचार थे।

एक साधारण से कटोरे की खातिर एक गंद से भरे नाले में कूदना सबको बेवकूफी लग रही थी।

लेकिन वो कटोरा मुझे अतिप्रिय है।
इतना कह कर श्री गुरु नानक देव जी ने भाई लहणा जी की तरफ देखा।

मेरे गुरु को अतिप्रिय।
बस इतना सुना और अगले ही पल भाई लहणा जी उस कीचड़ से भरे गंदे नाले में कूद चुके थे,
और श्री गुरु नानक देव जी का प्रिय कटोरा ढूंढ़ रहे थे।

कुछ देर के बाद भाई लहणा जी को वो कटोरा मिल गया।
कटोरे को अच्छी तरह मांज-धो कर और साफ करके गुरु जी के चरणों में पेश किया।

श्री गुरु नानक देव जी ने पूछा- भाई लहणे! जब कोई इस कीचड़ में उतरने को तैयार नहीं था,
तो तूँ क्यों कूदा?

भाई लहणा जी ने हाथ जोड़ कर कहा- दाता! मैं सिर्फ इतना जानता हूँ,
मेरा गुरु नानक जिससे प्रेम करता है,
उसको कभी पापों से भरे कीचड़ में फंसा नहीं रहने देता।
वो अपनी कुदरत को हुक्म देकर,
उस प्रिय को उस नरक से निकालकर,
उसे अपने लायक बनाकर,
उसे अंगीकार करता है।
दाता! मैंने कुछ नही किया।
जो कुछ करवाया है वो तो आपने ही करवाया है।

ऐसे विचार सुन श्री गुरु नानक देव जी ने भाई लहणा जी को अपने हृदय से लगा लिया,
और बोले- भाई लहणा! कोई मन में आस है तो बोल।

भाई लहणा जी ने कहा- हे दातार! इस कटोरे की तरह मुझे भी आपका इतना प्यार मिले,
कि विकारों से भरा मैं पापी,
आपके अंगीकार हो सकूँ।

श्री गुरु नानक देव जी बोले- भाई लहणा! आप मुझे अतिप्रिय हो।
आप अपने आपको पाप और विकार से भरा कहते हो,
आप तो सेवा और सिमरन की ऐसी गंगा हो,
जिसमें पाप और विकार कभी ठहर ही नहीं सकते।

ऐसे दीन दयाल सत्गुरु, सेवा और सिमरन के सोमे श्री गुरु नानक देव जी के दूसरे अवतार धन्न गुरु अंगद देव जी महाराज जी (भाई लहणा जी) हुए।

------ ये है अपने गुरु/सत्गुरु के प्रति प्यार ------
अगर हमको हमारे गुरु पर पूरा भरोसा है,
तो फिर गुरु हमें कभी भी अकेला नहीं छोड़ते हैं।
हमें सिर्फ और सिर्फ उनके बताए हुए मार्ग पर और उनके कहे हुए शब्दों पर चलना चाहिए।

दयामय ! दया चहौं नहिं न्याय |

दयामय ! दया चहौं नहिं न्याय |

नहिं पैहौ प्रभु ! पार न्याय करि, एतिक मम अन्याय |बिनु जाने अपराध करत जो, सोऊ दंडहिं पाय |पुनि जो जानि जानि कर पापन, नाथ ! कौन गति वाय |न्याय होत जगहूँ, पै तुम तो, करुणाकर कहलाय |कहत ‘कृपालु’ न चतुराइहिं कछु, देखहु उर पुर आय  ||


भावार्थ  -  हे दयासिन्धु श्यामसुन्दर ! मैं दया चाहता हूँ, न्याय नहीं चाहता | हे प्रभो ! यदि न्याय करोगे तो मेरे अगणित पापों की गणना भी न कर सकोगे | जब अनजाने में ही अपराध करने पर आपके यहाँ दण्ड अवश्य भोगना पड़ता है तब फिर जो जान - जान कर पाप करता है, हे नाथ ! उसकी क्या गति होगी | न्याय तो संसार में यथा शक्ति होता ही है, किन्तु तुम तो अकारण - करुण हो इसका ख्याल करो | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैं कुछ चतुराई से नहीं कह रहा हूँ, मेरे हृदय में झाँक कर देख लो  | 


( प्रेम रस मदिरा   दैन्य  -  माधुरी )
  जगद्गुरूत्तम  श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति