💞गुरू महिमा💞



इस संसार - सागर में डूबते हुये निराश्रित जीवों का आश्रय एकमात्र गुरु चरण ही हैं । गुरु ही अकुलाते हुये , बिलबिलाते हुये , अचेतन जीवों को भव - सागर से बाँह पकड़कर उबारते हैं । त्रैलोक्य पावन गुरुदेव की करुणा का ही सहारा लेकर जीव इस दुर्गम पयोनिधि से पार जा सकता है , अन्य कोई मार्ग नहीं । किसी मनुष्य की सामर्थ्य ही क्या है जो एक भी जीव को अज्ञानांधकार से मुक्ति दिला सके , गुरु ही अज्ञान के अंधकार को दूर करके ज्ञान का प्रकाश देता है।


 जय जय श्री राधे।

अब देखो यहाँ चार-पाँच सौ आदमी आये हैं ।


अब देखो यहाँ चार-पाँच सौ आदमी आये हैं । अब अगर एक आदमी सोचे- हमसे तो बात ही नहीं किया । भई कोई संसारी व्यवहार हो कि चलो एक-एक आदमी को नम्बर-वार बुलाओ और एक-एक आदमी से बात करो, ऐसा तो नहीं । और जिससे बात करेंगे उससे अधिक प्यार है, ये सोचना गलत है । मेरी गोद में कोई बैठा रहे 24 घण्टे इससे कुछ नहीं होगा । उसका मन जितनी देर मेरे पास रहेगा बस उसको हम नोट करते हैं । खुले आम सही बात करते हैं ।  बदनाम हैं सारे विश्व में हम स्पष्ट व्यक्तित्व में साफ-साफ । आप ये ना सोचें कि हम बहिरंग अधिक सम्पर्क पा करके और बड़े भाग्यशाली हो गए । और एक को बहिरंग सम्पर्क न मिला, उससे बात तक नहीं किया मैंने तो उसका कोई मूल्य नहीं है हमारे हृदय में । ये सब कुछ नहीं । कुछ लोगों की आदत होती है बहुत बोलने की । वो जैसे ही लैक्चर से उतरेंगे सीधे हमारे पास आएंगे और बकर-बकर बोलते जाएंगे । कुछ लोग अपना हृदय में ही भाव रखते हैं, दूर से ही अपना आगे बढ़ते जाते हैं । मैं तो केवल हृदय को देखता हूँ । मुझे इन बहिरंग बातों से कोई मतलब नहीं है । और कभी बहिरंग बातों के धोखे में आना भी मत । इतना कानून याद रखना- “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम” ।  जितनी मात्रा में हमारा सरेण्डर होगा, हमारी शरणागति होगी उतनी मात्रा में ही उधर से फल मिलेगा ।


जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

जो ज्ञान अनंत जन्मो मे शास्त्रों वेदों को पढ़ कर भी तुम्हें न मिलता वो हमने तुम्हें करा दिया है।



जो ज्ञान अनंत जन्मो मे शास्त्रों वेदों को पढ़ कर भी तुम्हें न मिलता वो हमने तुम्हें करा दिया है। और ऐसा नही की रट्टू विद्या ,हमारी बुद्धि ने माना की हां बात तो ठीक कह रहे हैं महाराज जी। फिर अब practical साधना करो न ।जी महाराज जी जरा ये हो जाए जरा लड़का धंधा सम्भाल ले फिर यही करेंगे।अभी जरा ये नासमझ है । तुम्हारा लड़का तुम्हारे लिए तो हमेशा ही बच्चा ही रहेगा । ये जो उधार करने की बिमारी ने तुम्हारे अनंत जन्म बिगाडे और फिर उधार कर रहे हो ? उधार छोड़कर तुरंत साधना मे लग जाओ ।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

भक्ति का एक बीज अपने मन में लगा लेने की ज़रूरत है।



 🔹गुरू एक तेज हे जिनके आते ही
     सारे सन्शय के अंधकार खतम हो
     जाते हे।
🔹गुरू वो मृदंग हे जिसके बजते ही
     अनाहद नाद सुनने शुरू हो जाते
     हे l
🔹गुरू वो ज्ञान हे जिसके मिलते ही
     पांचो शरीर एक हो जाते हे।
🔹गुरू वो दीक्षा हे जो सही मायने मे
     मिलती हे तो पार हो जाते हे।
🔹गुरू वो नदी हे जो निरंतर हमारे
     प्राण से बहती हे।
🔹गुरू वो सत चित आनंद हे जो हमे
     हमारी पहचान देता हे।
🔹गुरू वो बासुरी हे जिसके बजते ही
     अंग अंग थीरक ने लगता हे।
🔹गुरू वो अमृत हे जिसे पीके कोई
     कभी प्यासा नही।
🔹गुरू वो मृदन्ग हे जिसे बजाते ही
     सोहम नाद की झलक मिलती हे।
🔹गुरू वो कृपा हि हे जो सिर्फ कुछ
     सद शिष्यो को विशेष रूप मे
     मिलती हे l

🔹गुरू वो खजाना हे जो अनमोल हे।
🔹गुरू वो समाधि हे जो चिरकाल
     तक रहती हे।
🔹गुरू वो प्रसाद हे जिसके भाग्य में
  हो उसे कभी कुछ मांगने की
     ज़रूरत नहीं l

हरिगुरु प्रेम


जो व्यक्ति हरिगुरु प्रेम से वास्तविक रुप से भरता जाता है वह संसार मे भी व्यवहारिक होता जाता है शालिनता आती जाती है उसका व्यवहार निश्चल , निश्कपट होता जाता है , आन्तरिक  परिवर्तन , शुध्दता उसके व्यवहार के आईने मे साफ गोचर होता है , वह हर किसी को एक ही भाव से देखता है कि उसमे हमारे प्रेमास्पद बैठे हैं, हमारा व्यवहार ही हमारे सोच और प्रगति का आइना होता हैं , छल , कपट मलिनता दुर होती जाती है , जैसे जैसे अंत:करण शुध्द होता जाता है  अहंकार , क्रोध, राग, द्वेश , ईर्श्या घृणा आदी समाप्त होती जाती है, अगर यह नही हो रहा है तो समझो की हम अभी कक्षा एक का भी विध्यार्थी नही है , चाहे हम गुरु के कितने पास ही क्युँ न हो शरीर से  , हम पास होकर भी प्यासे है खाली हैं , चिराग तले अँधेरे की तरह , हरिगुरु से प्रेम का नाटक मात्र किय जा रहे हैं पर उनके सिध्दातं और उनके प्रेम से कोसो दुर हैं  और कोई बहुत दुर है पर उसका कल्याण हो रहा है क्युकि वो वास्तविक रुप से हरिगुरु का परमचरणानुरागी है |

सारा काम चिंतन का है


सारा काम चिंतन का है और कुछ है ही नहीं विश्व में। अधिक चिंतन जिस चीज का करोगे वैसे ही बन जाओगे। अच्छाई का चिंतन करो अच्छे बन जाओगे, बुराई का चिंतन कुछ दिन करो, कितने भी अच्छे हो,जरूर बुरे बन जाओगे। चिंतन की लिंक के अनुसार उत्थान पतन दोनों संभव है। इसलिए मन को खाली मत रखो, गलत सँग में मत डालो। गलत व्यक्तियों से न बात करो, न उनकी सुनो, और कहीं कान में पड़ जाये तो उसको ऐसे फेंक दो जैसे कंकड़ को खाना खाते समय फेंक देते हैं। चिंतन में अनंत शक्ति है, राक्षस बना दे, महापुरुष बना दे।

    जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

ऐसा करके दिखा दो



ऐसा करके दिखा दो कि एक भी शिकायत न मिले । उससे खुशी के मारे हमारा एक किलो खून बढ़ जाऐगा । नुकसान तुम लोगों का होता है और ममता से दु:ख हमें होता है । इतनी सारी भगवत्कृपायें तुम लोगों पर हैं । अब और क्या कृपा चाहते हो ?

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

कमाने- कमाने की बात सोचो।



आलस्य, लापरवाही, दूसरे में दोष देखना, परनिन्दा सुनना- ये सब गड़बड़ी जो हम करते हैं, इसको बन्द करके कमाने- कमाने की बात सोचो।

सावधान होकर के कमाई पर ध्यान दो। गँवाना न पड़े। बचे रहो। कम से कम खर्चा करो तब लखपति, करोड़पति बनोगे। कम से कम संसार में व्यवहार करो और गलत व्यवहार तो होने ही मत दो। अहंकार बढ़ेगा, दीनता छिन जायेगी, भक्ति समाप्त हो जायेगी, मन गन्दा हो जायेगा। क्या करेगा गुरु? भगवान् अन्दर बैठे हैं। क्या करेंगे? जब हम ही नहीं सँभलेंगे तो कोई क्या करेगा? अतः आप लोगों को स्वयं समझ लेना चाहिये हमारा उत्थान-पतन कहाँ है? और आगे के लिये भी सावधान रहना चाहिये। तुम लोग समझदार हो आशा करता हूँ मुझे और दुःखी नहीं करोगे।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज!


साधुसंग मानों चावल का धोया हुआ पानी होता है। किसी को अत्यधिक नशा हो तो उसे चावल का धोया हुआ पानी पिला देने से नशा उतर जाता है। इसी प्रकार साधुसंग संसार में कामना , वासनारूपी मद पीकर जो मत हुए हैं उनका नशा उतार देता है।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

तुमने बहुत बड़ा अपराध किया है।


तुमने बहुत बड़ा अपराध किया है।
भगवान् की कृपा का दुरुपयोग किया है।
क्या किया पैदा होकर?
बी॰ए॰, एम्॰ए॰।
इसके बाद क्या किया?
एक विवाह किया, विषय भोग किया,
दो, चार, दस, बीस बच्चे हुये, नाती -पोते हुये।
और क्या किया?
एक करोड़, दो करोड़, दस करोड़ कमाया।
और फिर क्या हुआ?
फिर मर गये।
इसीलिये मानव देह दिया था?

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

भगवान में भक्ति ll


भगवान में भक्ति होना पर धर्म है, इसका फल परमानन्द प्राप्ति है । किन्तु दूसरा जो अपर धर्म है, वह ईश्वर - भक्ति को छोडकर केवल वर्णाश्रम धर्म का पालन करना मात्र ही है । उसका परिणाम स्वर्गादिक लोक - प्राप्ति ही है । एक बात और भी विचारणीय है, वह यह कि अपर धर्म अर्थात वर्णाश्रम - धर्म परिवर्तनशील है, किन्तु पर धर्म सदा एकरस एवं स्वभाविक है । जैसे, ब्राह्मण के लिए दूसरा धर्म, क्षत्रीय के लिए दूसरा धर्म, वैश्य के लिए दूसरा धर्म एवं शुद्र के लिए दूसरा धर्म । पुनश्च:, वर्णधर्मावलम्बी के आश्रम - धर्म को देखिये । ब्रम्हचारी के लिये कहा गया, स्त्री आदि से बचो, किन्तु २५ वर्ष वाद उसे कहा गया, किसी स्त्री से विवाह कर लो एवं सन्तान पैदा करो, तब पितृ - ऋण से उऋण हो सकोगे । पुनः ५० वर्ष की  आयु में गुरु महाराज ने कहा, अब बाल - बच्चे एवं गृहस्थ के काम - धाम सब छोड दो, स्त्री - पति दोनो जंगल चले जाओ । पुनः ७५ वर्ष की आयु में यह आज्ञा दी गयी कि कौन तुम्हारी स्त्री, कौन तुम्हारा पति, यह सब शारीरिक सम्बन्ध है, अतएव तुम दोनों एक दूसरे से पृथक हो जाओ अर्थात जैसे ब्रम्हचर्याश्रम में अकेले थे, वहीं फिर पहुँछ जाओ । यह बार - बार परिवर्तन हो रहा है, किन्तु पर धर्म सदा एक सा रहता है ।
एक बात और भी विचारणीय है कि शास्त्रों ने प्रत्येक वर्ण एवं प्रत्येक आश्रमधारी अपर - धर्मावलम्बियों को यह प्रमुख आदेश दिया है कि साथ - साथ पर धर्म का पालन सदा होता रहे । ब्रम्हचारी को भी ईश्वरोपासना का आदेश, गृहस्थ को भी, वानप्रस्थी को भी और संन्यासी को  तो एकमात्र यह करना ही है । इसी प्रकार प्रत्येक वर्ण को ईश्वर - भक्ति का आदेश दिया गया है । बस, यही तो कर्मयोग है । भावार्थ यह कि अपरधर्म स्वरुप वर्णाश्रम धर्म में परधर्म स्वरुप ईश्वर - भक्ति का संयुक्त कर देने से पर - धर्म का ही परिणाम प्राप्त होता है । केवल अपर या आगंतुक प्राकृत धर्म से ईश्वर - प्राप्ति या माया - निवृत्ति की समस्या नहीं हल हो शक्ति ।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

श्री महाराजजी से प्रश्न : महाराज जी क्या आप दीक्षा देते हैं ?



श्री महाराजजी द्वारा उत्तर:  देते हैं । अधिकारी को देते हैं। दीक्षा माने समझते हो ? दीक्षा माने दिव्य प्रेम । वो दिव्य प्रेम पाने के लिये दिव्य बर्तन चाहिए। यानि दिव्य अन्तःकरण । ये अंतःकरण जो है, ये मायिक है, प्राकृत है, ये दिव्य प्रेम को सहन नहीं कर सकता। किसी भिखारी की एक करोड़ की लाटरी खुल जाती है तो हार्टफेल हो जाता है उसका। तो अनन्त आनन्दयुक्त जो प्रेम है, वह प्राकृत अन्तःकरण में नहीं समा सकता। तो पहले अन्तःकरण शुद्धि करनी होगी।

ये बाबा लोग आजकल जो ठगते हैं लोगों को कान फूँक- फूँक करके, ये सब वेद विरुद्ध है। ये पाप कर रहे हैं, उनको सबको नरक मिलेगा, हजारों- लाखों वर्ष का। और ये जो कान फुँकाते हैं, इन मूर्खों को इतनी समझ नहीं है कि गुरु जी से पूँछे कि आप क्या दे रहे हैं ? मंत्र ! ये मन्त्र का क्या मतलब है ? हरेक मंत्र का यह अर्थ है कि हे भगवान् ! आपको नमस्कार है । वो अगर हिन्दी में कहें , उर्दू में कहें, पंजाबी , बंगाली , मद्रासी में कहें , तो भगवान् खुश नहीं होंगे ? और फिर अगर तुम कहते हो हमारे मंत्र में पॉवर है, तो तुमने जब कान में दिया तो उस पॉवर की फीलिंग क्यों नहीं हुई। मामूली से करेन्ट को छूने से तो सारा शरीर काँप जाता है और तुम स्प्रिचुअल हैप्पीनेस दिव्यानन्द दे रहे हो कान में, और हमको कोई फीलिंग नहीं। हमारी हालत और फटीचर होती जा रही है । और कान फुँकाये बैठे हैं। तो फिर तुमने क्या दिया ? ये सब धोखा है। पहले भक्ति करनी होगी। जब अन्तःकरण शुद्ध हो जायगा, तब गुरु एक पॉवर देगा, तब अन्तःकरण दिव्य बन जायगा , तब भगवत्प्रेम मिलेगा फिर भगवत्प्राप्ति, माया निवृत्ति , सब इकठ्ठा काम खत्म ।
अरे तमाम मंत्र तो लिखे हैं , पुस्तकों में, वो कान में क्या दे रहे हैं ? हजारों मंत्र शास्त्रों में, भागवत वगैरह सबमे लिखे हैं, कोई भी पढ़े अपना जपे, उससे क्या होगा ?

 जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

🌹श्री कृष्ण की आराधना से ही सबकी पूजा 🌹



श्री महाप्रभु जी ने कहा, राय! तुम श्री कृष्ण के प्रधान भक्त हो, जो तुम्हारे में प्रीति करता है। (भक्त में प्रीति करता है) वही भाग्यवान है। तुम्हारे में राजा की इतनी प्रीति है, तो इसी गुण से श्री कृष्ण उसे अवश्य अंगीकार करेंगे।

क्योंकि शास्त्र कहता है कि-
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि, अर्जुन ! जो केवल मेरे ही भक्त हैं,  किंतु मेरे भक्तों के प्रति जिनकी प्रीति नहीं है। वे मेरे श्रेष्ठ भक्त नहीं हैं, परन्तु जो मेरे भक्तों के भक्त हैं, वे ही मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं।

श्रीमद्भागवत में भी कहा है-
श्री भगवान् ने उद्धव जी से कहा है, मेरी पूजा में प्रीति, सर्वांग से मेरा अभिनन्दन (नमस्कार) मेरी पूजा करना, इन सबसे श्रेष्ठ मेरे भक्तों की पूजा करना है, समस्त प्राणियों में मेरा अस्तित्व मानना, मेरे लिए ही सब शरीर की चेष्टाएं करना एवं वाक्य द्वारा मेरे गुण गान करना । ये समस्त मेरी पूजा की अपेक्षा श्रेष्ठ है, कारण कि इनसे ही मेरी भक्ति उदय होती है ।

समस्त देवी देवताओं की आराधना से श्री कृष्ण की आराधना सर्वश्रेष्ठ है। इसका कारण यह है कि समस्त देवी देवताओं का मूल कारण श्री कृष्ण स्वयं भगवान् ही है। जैसे वृक्ष के मूल में पानी सींचने से लता पता अपने आप परिपुष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार श्री कृष्ण आराधना से ही सब देवी देवताओं की पूजा अपने आप हो जाती है।

दूसरा कारण यह भी है, श्री कृष्ण ही प्रेम भक्ति प्रदान कर सकते है किन्तु अन्यान्य देवी देवता प्रेम भक्ति नहीं दे सकते, अधिक से अधिक मुक्ति एवं वैकुण्ठ प्रदान कर सकते हैं। इसलिए भी श्री कृष्ण आराधना सर्वश्रेष्ठ कही गयी है। फिर श्री कृष्ण किसी किसी को अपने भक्त की भक्ति करता हुआ देखकर इतने अत्यधिक संतुष्ट होते हैं, कि उतनी प्रसन्नता उन्हें अपनी पूजा से भी नहीं होती।

इसलिए भक्त की आराधना अधिक श्रेष्ठ कही गयी है। भक्त ही श्री कृष्ण को देने वाले हैं, विशेषतः जब तक भक्त की कृपा प्राप्त न हो भगवत् कृपा भी प्राप्त नहीं होती, अतः भक्ताराधना को श्रेष्ठतम कहा गया है।

जय जय श्री राधे ।

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गुरु क्या है ?

💞गुरू महिमा💞


गुरु क्या है ?
गुरु का महत्व क्या है ?
गुरु निमित्त है या सर्वस्व है ?

गुरु सब कुछ है, अगर हमें मार्गदर्शक चाहिए तो वो मार्ग दर्शक है ।

हम जो भी माने , श्री गुरु उसी रूप में आ जाते है है ।

हमारे लिए गुरु सर्वस्व है,भगवान है, और प्रेमी है ।

बस इसी तरह गुरु की कृपा हमें प्राप्त होती रहती है ,

बस उसकी भक्ति का एक बीज अपने मन में लगा लेने की ज़रूरत है।

गुरू एक तेज हे जिनके आते ही सारे सन्शय के अंधकार खतम हो जाते हे ।

गुरू वो मृदंग हे जिसके बजते ही अनाहद नाद सुनने शुरू हो जाते हे ।

गुरू वो ज्ञान हे जिसके मिलते ही पांचो शरीर एक हो जाते हे।

गुरू वो दीक्षा हे जो सही मायने मे मिलती हे तो भवसागर पार हो जाते हे।

गुरू वो नदी हे जो निरंतर हमारे प्राण से बहती हे।

गुरू वो सत चित आनंद हे जो हमे हमारी पहचान देता हे।

गुरू वो बासुरी हे जिसके बजते ही अंग अंग थीरक ने लगता हे।

गुरू वो अमृत हे जिसे पीके कोई कभी प्यासा नही।

गुरू वो मृदन्ग हे जिसे बजाते ही सोहम नाद की झलक मिलती हे।

गुरू वो कृपा हि हे जो सब शिष्यो को समान रूप मे मिलती हे,
लेकिन सब अपनी अपनी योग्यता अनुसार पा सकते है ।

गुरू वो खजाना हे जो अनमोल हे।

गुरू वो समाधि हे जो चिरकाल तक रहती हे।

गुरू वो प्रसाद हे जिसके भाग्य मे हो उसे कभी कुछ मांगने की ज़रूरत नही पड़ती।

गुरु गुरु गुरु.................


जय जय श्री राधे

💞 गुरू महिमा 💞


एक बार एक सत्संगी सेवा करने के लिए आया हुआ था, दस दिन की सेवा ख़तम होने के बाद वो घर जाने वाला था कि एक दिन पहले उसकी टांग टूट गयी, वह
काफी दुखी हुआ और उसके मन में ख्याल आया कि दस दिन सेवा की और उसके बदले में टांग टूट गयी
मालिक तो सब जानते हैं, जब महाराज जी संगत
को दर्शन देने के बाद अपनी कोठी जा रहे थे तो रस्ते
में उस भाई से मिले,और उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा कि आज रात को भजन पर जरूर बैठना
जब वह रात को भजन करने के लिए बैठा तो महाराज
जी उसकी सुरत ऊपर के मंडलों में ले गए और
उसको दिखाया कि जिस बस में उसने वापिस
जाना था उसका एक्सीडेंट हो गया था, और उस एक्सीडेंट में उसकी मौत हो गयी थी,महाराज जी ने उसकी सुरतको उसकी deadbody भी दिखाई, क्योंकि वह सतगुरु की शरण में आया हुआ था इसलिए महाराजजी ने उसके कर्म काटकर उसकी सिर्फ टांग ही टूटने दी जब उसकी सुरत नीचे
सिमटी तो उसका रो रो कर बुरा हाल
हुआ और उसने मालिक से अरदास की कि मालिक
बक्श दो –
बक्श दो
सार – सतगुरु पर हमें पूरा विश्वास होना चाहिए,
वो हमारा बाल भी बांका नहीं होने देते,और जो हमारे साथ होता है उसमें कहीं न कहीं हमारा अच्छा ही होता है….🙏🙏🙏
सत्संग में फ़रमाया गया-
हम जो घड़ी, आधी घड़ी ,घंटा दो घंटा भजन बैठते हे वो उस तरह है जैसे हम कोई बिमा पालिसी में थोड़ी थोड़ी रकम installment के रूप में भरते है
फिर जब बिमा पालिसी पक जाती है तब एक बड़ा amount हमें इंटरेस्ट के साथ बोनस के साथ वापिस मिलता है।
ठीक उसी तरह थोडा थोडा किया भजन एक दिन बहुत बड़ा interest और बोनस के साथ हमें सतगुरू एक साथ देता है।
कतरे कतरे से तालाब और बूँद से सागर भरता है।
हम जो डेरे में सेवा में मिटी की एक टोकरी उठाते है सतगुरू हमें उसकी भी मजदूरी देता है।
आओ आज से हम भजन की विमा policy में थोडा थोडा भजन का installment अदा करे ।
फिर आगे की गुरु पर छोड़ दे।
वो हमारे आधे अधुरे भजन की लाज रखेंगे।

जय जय श्री राधे ।


क्या आप जानते हैं कि-



१. विश्व के समस्त शास्त्रों - वेदों का सम्पूर्ण ज्ञान केवल भगवान को ही हो सकता है, अन्य किसी को नहीं.................

२. स्वयं ब्रह्मा जी को भी यह ज्ञान स्वयं भगवान ने ही कराया.............

३. धरती पर भी स्वयं भगवान के अवतार वेद - व्यास ने ही वेदों शास्त्रों को लिपिबद्ध किया.............

४. आज से लगभग ६०० वर्ष पूर्व पृथ्वी पर केवल एक विभूति थी जिनको बिना पढ़े हुए विश्व के समस्त शास्त्र वेद कंठस्थ थे और वह थे श्रीचैतन्य महाप्रभु..............

५. श्रीमहाप्रभु ने २४ वर्ष की अवस्था में सन्यास लेने के पश्चात्त २४ वर्ष तक जगन्नाथ पुरी में रहकर श्रीराधाकृष्ण भक्ति का प्रचार किया.................
(इस अवधि में उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण भी किया)

६. इसके बाद भी जगन्नाथ मंदिर के पुजारियों ने उनको २४ वर्ष तक पाखंडी घोषित करके मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया................

७. ४८ वर्ष की अवस्था में जब श्रीमहाप्रभु अचानक सबके सामने जगन्नाथ जी की प्रतिमा में विलीन हो गए तो उन्ही पुजारियों ने पश्चाताप में अपने सिरों को मंदिर के पत्थरों पर पटक पटक कर फोड़ डाला...............

८. लगभग हम सभी के पूर्वज उस समय जगन्नाथ जी तक दौड़ कर गए थे और सिर पटक कर जगन्नाथ जी से क्षमा मांगी थी कि आप आये और हम आपको पहचान नहीं सके इसलिए आपसे वंचित रह गए............

९. आज की तिथि में पृथ्वी पर एकमात्र विभूति हैं जिनको ९० वर्ष की अवस्था में भी बिना पढ़े ही विश्व के समस्त शास्त्र वेद कंठस्थ हैं और वह हैं कलियुग के पंचम मूल जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु..............

१०. श्री चैतन्य महाप्रभु की तरह ही श्री कृपालु महाप्रभु के श्री चरणों को पखारने वाला साधारण जल भी गंगाजल बन जाता है और कभी ख़राब नहीं होता.............

११. श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने धाम जाने के पूर्व घोषणा कर दी थी कि मै ५०० वर्ष के अन्दर पुनः अवतार लेकर आऊंगा और उसी अवधि में श्री कृपालु महाप्रभु का अवतरण हुआ है..................

१२. श्री कृपालु महाप्रभु को एक बार भी सुन लेने वाले लोग यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि उनके जैसा कोई दूसरा हो ही नहीं सकता .................

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु कि जय ।।


जय जय श्री राधे ।

महापुरुष को पहिचान


किसी महापुरुष को पहिचानने में उसकी बहिरंग वेशभूषा को न देखना चाहिये । कोट पतलून में भी महापुरुष हो सकते हैं एवं रंगीन वस्त्रों में भी कालनेमी मिल सकते हैं । पुनः हमारे इतिहास से भी स्पष्ट है कि ९० प्रतिशत महापुरुष गृहस्थों में हुए है जिनके कपडे रँगे नहीं थे । इस कलियुग में चूँकि लोगों ने यह निश्चय कर लिया है कि बिना कपडे रंगाये कोई महापुरुष नहीं हो सकता, अतएव दंभियो को इस धारणा से लाभ उठाने का मौका मिल गया है । देखो, प्रह्लाद ने हजारों वर्ष सम्राट बन कर राज्य किया है, ध्रुव ने राज्य किया, विभीषण ने राज्य किया, सुग्रीव ने राज्य किया, जनक ने राज्य किया, अम्बरीष आदि ने भी राज्य किया । गोपियों को देखिये, जिनकी चरण धूलि ब्रम्हादिक चाहते हैं, वे पति एवं बच्चे वाली अपढ गवाँर गृहस्थ ही थीं । कबीर, तुकाराम आदि सभी महात्मा गृहस्थ थे ।
विरक्त वेश में भी सब आचार्यों के पृथक - पृथक भेष रहे हैं । कोई गेरुआ, कोई पीला, कोई सफेद आदि । अतएव रंगीन में भी रंग बिरंगे झगडे हैं । उन रंगों से हृदय का निश्चय न करना चाहिये क्योंकि वह तो दो पैसों का ही परिणाम हो सकता है ।

जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज

गुरुदेव कि महिमा



पूजा करो, मगर सदगुरुदेव भगवान् से "सदगुरुदेव भगवान्" को मांगने के लिए ...........
तुम्हारे सारे धर्म तुम्हें मांगना सिखाते हैं। उपवास, पूजा, दर्शन, तीर्थ यात्रा सब तुम इसीलिए करते हो कि संसार मिल जाए यानी पैसा, नौकरी, बेटा, सुख मिल जाए। हमारा मार्ग इससे उलटा है। जो संसार बिगाडऩे को तैयार है, वो यहाँ आए। आप लोग ये सुनकर सोचोगे कि हम कहाँ आ गए। ये तो संसार बिगाडऩे की बात करते हैं, लेकिन आपको पता नहीं है कि संसार बनता भी यहाँ से ही है। यदि आपका अध्यात्म सुधर गया, तो समझो संसार सुधर गया।
मंदिरों पर मेले लगेंगे। कोई लेटकर आएगा, कोई नंगे पैर आएगा। कोई इनसे पूछे कि ऐसा क्यों कर रहे हैं, तो वे संसार पाने की चाह में ही ये सब कर रहे हैं। आप भी उपवास आदि करते हो इसीलिए कि भगवान अन्न-धन देगा। जरा खुद ही सोचिए क्या भगवान चाहेगा कि उसके बच्चे भूखे रहे ? तुम्हे तो उपवास का मतलब भी नहीं पता? कोई मुझे किसी भी प्रामाणिक ग्रंथ में ये लिखा बता दे कि उपवास का मतलब भूखे रहना होता है I जिनके पास अन्न-धन है उन्हें देखो। क्या उनके पास शांति है। वे भी तुम्हें परेशान ही मिलेंगे। फिर तुम अन्न-धन के पीछे क्यों भाग रहे हो। तुम संसार में ऐसे उलझे हो कि पहले बेटे की सेवा, फिर पोते की सेवा। इसी में सारा जीवन गुजर रहा है। तुम अपने लिए कभी कुछ करोगे या नहीं। कई लोग कहते हैं कि अभी उम्र क्या है, जो साधना-ध्यान में जाएं। इसके लिए तो 60-70 की उम्र होना चाहिए। बच्चे अव्वल तो आते नहीं। आएं भी तो तुम यही कहते हो कि अभी से आकर ये क्या करेंगे। अब सोचिए कि जब कुछ भी करने की ताकत नहीं बचेगी, तो ज्ञान लेने की ताकत रह जाएगी। जब करना था, तब नहीं कर पाए, तो बाद में कुछ नहीं कर पाओगे। साधना के बारे में कहते हो कि समय मिला तो कर लेंगे , ऐसे लोगों को आने की जरूरत ही नहीं है। तुम्हें कभी समय नहीं मिलेगा और यूँ देखें तो तुम्हें समय मिला ही हुआ है, मगर तुम संसार में उलझे हो, इसलिए लग रहा है कि समय नहीं है।
तुम जिंदा हो, यही इस बात का सबूत है कि तुम्हारे पास समय है। अभी तुम बेटे के लिए साधना को छोड़ रहे हो। एक दिन जब बेटा मरेगा, तो तुम कहोगे कि इसके कारण मैंने साधना को छोड़ दिया था। कितने सड़े काम के लिए तुमने साधना को छोड़ा, ये बात तुम्हें तब समझ आएगी।
दुनिया में सब लोग गुरुदेव के पास, भगवान के पास पैसे के लिए जा रहे हैं। तुम्हें कभी पैसा नहीं मिलेगा।(तुम्हारे दादा जी ने 5 किलो घी जला दिया ,लक्ष्मी नहीं आयी,तुम्हारे पिता ने 10 किलो घी जला दिया लक्ष्मी नहीं आयीं तुम 50 किलो जला कर देख लेना लक्ष्मी नहीं आएगी( क्या कभी तुम भगवान के पास भगवान के लिए गए ? क्या कभी गुरुदेव के पास गुरुदेव के लिए गए ?
क्या अपने गुरुदेव ,भगवान् को इतना मूर्ख समझ रखा है। तुम दर्शन करने जाते हो कोई मांग लेकर। जैसे तुम जाते हो, वैसे ही चोर भी चोरी से पहले भगवान के पास मांगने जाता है। तुम कहोगे कि भगवान चोर की थोड़ी सुनेंगे, लेकिन तुम भी छोटे-मोटे चोर तो हो। तुम भी तो पैसे के लिए ही भगवान के पास जा रहे हो। तुम भी तो एक नारियल चढ़ाकर बेटा मांग रहे हो। दादा-दादी,नाना-नानी बनने का आशीर्वाद मांग रहे हो, पूजा करना बिलकुल गलत नहीं है नहीं है, लेकिन "ऐसी पूजा को मैं पूजा नहीं मानता जिसमें कुछ मांगा जाता है"। तो तुम्हें खुद अपने जैसा बना सकते है । उनसे कुछ भी मांगना बेईमानी है। तुम इंसान भी नहीं हो पाए, तो भगवान कैसे हो पाओगे। यूं ये आसान है। तुम सच्चे हो जाओ, भगवान हो जाओगे। कुछ लोग कहते हैं कि सच्चाई में क्या मिला? ऐसा कहने वाले भी दरअसल झूठ ही बोलते हैं। राजा हरीशचंद्र का उदाहरण दिया जाता है कि उन्होंने सच्चाई के रास्ते पर चलकर कितना दु:ख भोगा। बताइए कि क्या खुद हरीशचंद्र ने कहा कि उन्हें सच्चाई में दु:ख मिला। यदि वे दु:खी होते तो सच्चाई छोड़कर सुखी हो जाते। बहुत अवसर मिले उन्हें, लेकिन सच्चाई का सुख वे जानते थे। ये तुम्हें दिखाई नहीं देता। तुम गलत करते हो और सोचते हो कि कोई नहीं देख रहा। एक बेटा भी गलती करे, तो बाप उसकी सजा देता है, फिर तुम्हारे गुरुदेव तो ........... है, वो सजा नहीं देंगे ?

क्रमशः .............


गुरूदेव कि महिमा

................ तुम अपने गुरुदेव की ,भगवान् की खूब पूजा करो, लेकिन मांगो कुछ मत। उसे जो देना होगा, देगा। मुझे कुछ नहीं लेना है, ये भाव हमेशा रखो। आप लायक बन जाओ, तुम्हारे गुरु तुम्हारे भगवान तुम्हें सब कुछ अपने आप दे देगा। तुम्हारी तलाश सच्ची होना चाहिए। कहा भी है कि खोजी होय तुरत मिल जाऊं, एक पल की तलाश में। पल कहते हैं पलक झपकने जितने वक्त को, इतने समय में तुम्हें वो मिल सकता है, लेकिन तलाश सच्ची होना जरूरी है। यहाँ हम सबसे महंगी चीज सबसे सस्ती देते हैं। अपने गुरुदेव से महंगा कुछ हो सकता है क्या, लेकिन यहाँ वो मुफ्त मिलता है। केवल आपको उस लायक बनना पड़ता है। यदि आप हिमालय जाना चाहते हैं, तो आपको वहाँ पहुचाने वाले रास्ते पर हि चलना पडेगा । किसी और दिशा में गए तो कहीं भी पहुँच जाओगे, हिमालय नहीं । इसलिए सद्गुरू - भगवान को पाने के लिए सही रास्ते पर चलना आवश्यक हैं ।
आप अक्सर दु:खी होते है । लेकिन वडे से वडे दु:ख में भी हंसा जा सकता है, नाचा जा सकता है । यदि आप ठान ले कि हर हाल में सुखी रहना है, मन में कोई गन्दगी नहीं रखना हैं तो फिर तुम्हें कोई दु:खी नहीं कर सकता । सुख, दु:ख हम ने ही बनाया है । तुम सुख में भी दु:ख ढूंढ लेते हो तो , फिर कैसे सुखी हो सकते हो ? यदि तुम्हें दु:ख में भी सुख देखना आ गया तो कैसे दु:ख पाओगे ? तुम गुरुदेव कि मर्जी में रहना सिख लो, फिर तुम हमेशा के लिए सुखी हो जाओगे। अभी तुम अपनी  मर्जी चलाते हो, इसीलिए दु:खी रहते हो । वो जैसा रखे, वैसा रहो । उस से कुछ भी मत मांगो ।

जय जय श्री राधे ।

जय जय श्री राधे ।

गुरू ऋण




तुम्हारा मेरा इस जीवन का नहीं...कई-कई जन्मो का सम्बन्ध है....मैं तुम्हारे पिछले कई जन्मो से परिचित हूँ.....

और हर जीवन में तुम्हे पुकारा है...तुम्हे आवाज दी है....
जीवन की पगडण्डी पर चलने का आह्वान किया है.....
और तुम्हे समझाने की कोशिश की है...
की तुम मेरी ऊँगली पकड़ कर चलो...
मैं तुम्हे निश्चित ही पूर्णता तक पंहुचा दूंगा....
पर हर बार तुमने धोखा दिया है...
हर बार तुम्हारे पैर फिसले है....
हर बार तुम्हारे होंठो पर झूठ और स्वार्थ की परते बिछी...
हर बार तुमने खुद ही अपना हाथ छुड़ा कर संसार के दलदल में फंसा लिया....
और मैं पुकारता रहा...तुम अनसुना करते रहे..
मैं आवाज देता रहा और तुम कान में ऊँगली ढाल कर बैठे रहे...
हर बार मैंने प्राण-तत्व समर्पित किये....
और हर बार तुम अनजान से भटकते रहे......
और मेरा ऋण तुम पर चढ़ता रहा....
और अब यह समय इस ऋण को चुकाने का है...

जय जय श्री राधे

Leela


एक दिन श्याम सुंदर श्री राधा रानी की श्रृंगार कक्ष में गए और वहां एक पेटी जिसमें राधा रानी के सारे अलंकार आभूषण रखे थे उस को खोला एकांत ना मिलने के कारण बहुत दिनों से सोच रहे थे आज मौका मिला भंडार गृह में कोई नहीं था एकांत था

सबसे पहले श्यामसुंदर जी ने राधा रानी का हरिमोहन नामक कंठ हार निकाला और अपने हृदय से लगाया और सोचने लगे यह हार कितना सौभाग्य शाली है जो हमेशा प्रिया जी के हृदय के समीप रहता है हमेशा उनकी करुणामयी धड़कन को सुनता है उनकी हर धड़कन में श्याम श्याम नाम को प्रतिपल सुनता है कैसा अद्भुद सौभाग्य है इस हार का जो मेरी किशोरी जी के ह्रदय के समीप रहता है फिर शाम को अपनी अधरों से लगा कर और अपने नैनों से लगाकर रख दिया

फिर प्रिया जू की मांग की मोतियों की माला को अपने हृदय से लगाया और कहा मोतियों की माला हे मेरा जीवन है इसे प्रिया जी अपनी सिंदूर रेखा भरी मांग पर धारण करती हैं उसी से मेरा जीवन अस्तित्व है इसकी सौभाग्य की कैसे वंदना करो कैसे वंदना करूं अपने कपोलो से लगा कर भाव बिभोर हो गए नयन सजल हो गये प्रियतम के

फिर श्याम सुंदर ने प्रिया जी की नथ को अपने हाथों से उठाया और कहने लगे नथ की सौभाग्य की बात कैसे करूं यह नथ प्रेम रीति से प्रिया जी के कोमल कपोलो ( गालो) का अखंड सानिध्य प्राप्त् है कैसे प्रिया जी के कपोलो की कांति स्पर्श प्राप्त है

कैसे नथ की सुधरता का वर्णन करू

श्री प्रिया जू के नथ में प्रभाकरी नाम का मोती है यही मेरे जीबन का उजाला है

फिर श्यामसुंदर ने विपक्ष मद माँर्दिनी नामक राधा जी की अंगूठियों को अपने हृदय से लगा लिया और कहने लगे इन की अंगूठियों को पहनकर राधा रानी के हाथ सभी भक्तों को प्रेम और कृपा का दान करते हैं कैसा अनुपम सौभाग्य है अंगूठियों का जिन्हें प्रिया जू अपने वो कोमल हाथों में धारण करती हैं तो फिर श्याम सुनाने अंगूठियों को अपनी उंगलियों में पहन लिया

इन अंगूठियों का केसा अनुपन सोभाग्य है जो प्रिया जी की करुणामयी कृपा मयी कोमल हाथो का सानिंध्य प्राप्त है

फिर श्याम सुंदर श्री राधा रानी के नूपुर पायलों को अपने हाथों से उठाया और अपने हृदय से लगा लिया श्याम सुंदर भाव विभोर हो गए था उनकी नैन सजल हो गए नैनों से अश्रु धारा बह ने लगी श्यामसुंदर ने प्रिया जी के नूपुरों को अपने अधरों से लगाया और उन्हें चूमा और कहने लगे कैसे सराहना करूं इन नूपुरों की परम करुणा में श्री राधा रानी अपने श्री चरणों में धारण करती हैं प्रियां के श्री चरणो मेरी जीवन धन हे केसा सौभाग्य हे इन नूपुरों का जो जिन्हें प्रिय जू श्री चरणों का सानिंध्य मिला हुआ है

🌺🌺 प्रिया जी के बिछिया और नुपर को देख कर कहने लगे प्रिया जी चाहे कोई योग हो या आयोग हो हर किसी को अपने उन्मुक्त भाव से आश्रय देती हैं राधा रानी की हाथ में अंगूठियां इस बात की साक्षी हैं की राधा रानी की कर कमलों में जिनको जो वरदान दिया है वह सदा अमोघ है और यह राधा रानी के कुंडल इस बात के साक्षी है की प्रिया जी सदा सब की सुनती हैं कोई भी सखी हो यह मंजरी हो ऐसी कोई नहीं जिसके कथन पर तो प्रिया ने ध्यान ना दिया हो पिया जू हर अपने भक्तों की बात का ध्यान देती हैं यह कुंडल इस बात के साक्षी है की प्रिया जी अपने भक्तों की बातें कितनी ध्यान से सुनती हैं

प्रिया जो की नथ इस बात की साक्षी है कि वह अपने हर भक्त की जीवन की सांसो का संचार करती है जीवन प्राण हैं अपने भक्तों पर प्रिया जी का हार इस बात का साक्षी है की प्रिया जी अपने भक्तों को अपने हृदय में स्थान देती हैं🌺🌹🌺🙏



सभी आभूषणों को श्यामसुंदर ने अपने हृदय से लगाया श्याम सुंदर के नयन सजल हो गए और उनके नैनों से अश्रुधारा बहने लगी फिर श्यामसुंदर ने एक-एक करके सारे अलंकार पहने अपनी उंगलियों में प्रिया जू की अंगूठी पहनी अपने पैरों में प्रिया जी की पायल पहनी अपने कानों में प्रिया जू का कुंडल पहना अपने गले में प्रिया जू का कंठहार पहना अपने कमर में प्रिया जू की करधनी पहनी सभी अलंकारों को एक-एक करके धारण किया और भावुक होकर इस आनंद का अनुमोदन करने लगे जो प्रिया जी अलंकारों को पहन कर आनंद पाती हैं

उसी समय प्रिया जी रति और रूप मंजिरी के साथ सृंगार कछ में आई और देखा एक श्याम सुंदर उनके के अलंकारों की अपने अंगों पर पहने हुए हैं श्यामसुंदर के इस छवि को देखकर प्रिया जी परम परमानंद पाया प्रिया जी पुलकित काय मान हो गई अपने प्रियतम का अद्भुत प्रेम अपने अलंकारों के प्रति देखकर कभी रुप मंजरी रतिमंजरी से कहने लगी कैसा अनुपम सौभाग्य है इन अलंकारों को जो आज श्यामसुंदर अपना प्रेम रस भर रहे हैं इन अलंकारों को जिससे प्रिया जी जब इन्हें धारण करें श्याम सुंदर की प्रेम से सराबोर हो जाएं ऐसे अलंकारों के सौभाग्य की जय हो जय हो ।

जय जय श्री राधे ।                         

कृपालु अमृतं


जब अनंत जीवों को वो अपना चुकें हैं फिर शंका कैसी ? फिर मेरी बात का भी तो विश्वाश करना चाहिये । सच कह रहा हूँ कि बिल्कुल तुम्हारे पास खड़े होकर मुस्कराते हुए तुम्हारे प्यार को सदा देखते हैं । बताओ वह जीव कितना बड़ा भाग्यवान है जिसको श्यामसुन्दर सदा देखें ।

#* कृपालु अमृतं | विरह रस *#
#* श्री कृपालु जी महाराज *#  
                     
 अरे! मैं तो तैयार बैठा हूँ प्रेम देने के लिए, कोई लेने वाला तो हो .......!❤❤❤❤
अनाधिकारी को भी अधिकारी मैं बना दूंगा , कोई बात तो माने मेरी......!👍👍👍👍👍
किसी को परवाह ही नहीं अपनी , तो मैं क्या कर लूँगा ?😟😟😟
क्षण क्षण अपना, साधना तथा सेवा में व्यतीत करो । आज का दिन फ़िर मिले ना मिले !! ⌚⌚⌚
दोबारा मानव देह फिर मिले ना मिले !! इस समय तो मानव देह भी मिला है और गुरु भी मिल गया है ।
फिर लापरवाही क्यों ?
इससे अच्छा अवसर फ़िर आसानी से नहीं मिलने वाला......।
बार - बार सोचो !!!
" तुम्हारा कृपालु "।

राधारानी कौन हैं ?

कृपया जरूर पढ़ें:

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा राधारानी के विषय में प्रकाश डाला जा रहा है।

राधारानी कौन हैं, थोडा समझ लीजिये। आप लोगों ने भगवान का नाम तो सुना ही होगा। राधा तत्त्व से अधिक लोग परिचित नहीं हैं। भगवान के नाम से अधिक परिचित हैं और भगवान भी बहुत प्रकार के होते हैं। एक भगवान तो श्री कृष्ण हैं, उन भगवान से एक और भगवान प्रकट होते हैं, उनको कहते हैं- प्रथम पुरुष। प्रथम पुरुष भगवान श्री कृष्ण के अंश हैं, उनको महाविष्णु भी कहते हैं। अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के निर्माण करने में पहला काम महाविष्णु का होता है। श्री कृष्ण सृष्टि वगैरह नहीं करते। सृष्टि वगैरह बहुत नीचे वाले भगवान करते हैं। ये सृष्टि वगैरह का कार्य ब्रह्मा-विष्णु-शंकर करते हैं। श्री कृष्ण स्वयं सृष्टि नहीं करते। न करोमि स्वयं- वे स्वयं कुछ नहीं करते, वेद कहता है। तो भगवान ने अपना अंश प्रकट किया प्रथम पुरुष के रूप में। तो प्रथम पुरुष ने क्या किया, ये बलराम हैं प्रथम पुरुष। वेद कह रहा है इन्होंने (प्रथम पुरुष) संकल्प किया, सोचा, प्रकृति की ओर देखा, दो काम किया- सोचा और देखा। प्रकृति माने माया, बहिरंग माया। ये बहिरंग माया भी दो प्रकार की होती है- एक जीव माया और दूसरी गुण माया। एक माया जो आप लोगों पर हावी है और एक माया जो सृष्टि करती है, तो गुण माया जो कि सृष्टि करने वाली है, उसकी और देखा बलराम ने अर्थात् प्रथम पुरुष ने अर्थात् महाविष्णु ने। और जितने जीव थे भगवान के महोदर में लीन महाप्रलय में, उन सब जीवों को संकल्प से प्रकट किया प्रकृति में और फिर अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड का क्रमशः प्राकट्य हुआ। बस प्रथम पुरुष का काम समाप्त।
अब प्रथम पुरुष ने द्वितीय पुरुष प्रकट किया, तो प्रथम पुरुष तो कारणार्णवशायी हैं और द्वितीय पुरुष गर्भोदशायी है। इन्होंने( द्वितीय पुरुष ने) क्या किया- अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो गए- द्वितीय पुरुष, और आधे ब्रह्माण्ड को अपने संकल्प के जल से भर दिया और अपने-आप से तीसरा पुरुष प्रकट किया- ये हैं क्षीरोदशायी (विष्णु)। इन्होंने (तृतीय पुरुष ने) क्या किया- ये प्रत्येक जीव के अन्तःकरण (heart) में प्रविष्ट हो गए। और प्रत्येक जीव के अनंतानंत जन्मों के प्रत्येक क्षण (every moment) के प्रत्येक संकल्प के हिसाब को लेकर के तदनुसार जीव में जीवत्व बुद्धि में ज्ञान शक्ति, मन में चिंतन शक्ति, इन्द्रियों में तत-तत कर्म करने की शक्ति- ये सब तृतीय पुरुष (क्षीरोदशायी) ने प्रदान किया। तो ब्रह्मा- विष्णु- शंकर के जनक गर्भोदशायी, और इनके जनक कारणार्णवशायी ( महाविष्णु) - इतने भगवान तो ऐसे हैं जो work करते हैं और श्री कृष्ण कुछ नहीं करते। कोई work नही है श्री कृष्ण का। इनका काम तो केवल एक है, क्या? जीवों का उद्धार और प्रेमदान करना। ये दो काम- माया की निवृति कराना और प्रेमदान करना। तो माया की निवृति और प्रेमदान, ये सारे भगवान करते हैं- क्योंकि उपरोक्त सारे भगवान श्री कृष्ण के ही स्वरूप् हैं, इनके स्वांश हैं, और विभिन्नांश हम लोग हैं। स्वांश में उनके परिकर भी हैं- ललिता-विशाखा आदि, ये भी स्वांश हैं। ये सब भगवद् स्वरूप् हैं। और कुछ नित्य सिद्ध महापुरुष होते हैं- वो भी भगवान के परिकर हैं, लेकिन वो जीव हैं, स्वांश नहीं। जीव् यानी हम लोग तटस्था शक्ति के अंश हैं और स्वांश भगवान के डायरेक्ट अंश हैं- उनके अभिन्न स्वरूप् हैं, इतना बड़ा अंतर है। सदा से जो माया से मुक्त थे, ऐसे अनादि सिद्ध महापुरुष भगवान की सेवा करते हैं, लेकिन वो जीव हैं, उनको नित्य- सिद्ध महापुरुष कहते हैं। और शेष मायाबद्ध जीव हम लोग हैं ही। तो अनंत कोटि ब्रह्माण्ड नायक महाविष्णु ये प्रथम पुरुष हैं- इनको बलराम कहते हैं। द्वितीय पुरुष गर्भोदशायी- इनको प्रद्युम्न कहते हैं तथा तृतीय पुरुष क्षीरोदशायी- इनको अनिरुद्ध कहते हैं। लेकिन ये सब भगवान ही हैं। मैने बताया था न राम नवमी को- अपने ही स्वरूप् को अंश रूप में प्रकट कर दिया। ये सब जितने भी भगवान हैं ये सब स्वरूप शक्ति को गवर्न (govern) करते हैं। भगवान् की एक पर्सनल पावर (personal power) है, उसका नाम है- स्वरूप शक्ति। उस स्वरूप शक्ति को गवर्न (govern) करते हैं ये सब के सब- ब्रह्मा- विष्णु- शंकर, और गर्भोदशायी, क्षीरोदशायी, महाविष्णु ये सब भगवान हैं। अर्थात् इन सबमें परिपूर्ण शक्तियाँ हैं छोटा-बड़ा नहीं कहना। काम अलग-अलग हैं। तो इन सब भगवानो का कार्य है- सृष्टि संबंधी, और श्री कृष्ण ने केवल संकल्प करके प्रथम पुरुष (महाविष्णु) को प्रकट कर दिया और उनकी छुट्टी (उनका काम खत्म)। अब उनके अंश सब काम कर रहे हैं।
तो श्री कृष्ण क्या करते हैं? श्री कृष्ण अपने भक्तों के साथ नित्य-नवायमान लीलाएँ करते हैं गोलोक में। उनका एक ही वर्क (work) है- आनंद देना और आनंद लेना। भक्तों को आनंद देना और भक्तों से आनंद लेना, और इन दोनों में भी भक्तों से आनंद लेना बहुत उच्च-कोटि (high level) का है, और भगवान का जो अपना आनंद है, वह इसके आगे निम्न कोटि का है, उसे स्वरूपानंद कहते हैं। अपना आनंद भगवान को जो मिलता है, वो छोटा है। छोटा का मतलब लिमिटेड (limited) नहीं, वो रस- वैलक्षण्य की दृष्टि से हम कह रहे हैं उसे छोटा। और जो भक्तों से आनंद मिलता है वह मानसानंद कहलाता है, उसमे विशेष मधुरता हो जाती है। इतनी मधुरता हो जाती है कि जब अपना आनंद भगवान लेते हैं, तो समस्त शक्तियाँ उनके पास रहती हैं- ऐश्वर्य शक्ति भी, माधुर्य शक्ति भी। और जब भक्तों के सामने भगवान जाते हैं, तो ऐश्वर्य शक्ति समाप्त हो जाती है। केवल माधुर्य- माधुर्य रह जाता है। यानी भगवान क्रीत दास बन जाते हैं। ये तो भक्त और भगवान की बात मैंने बताई। ये जो भगवान आनंद देते हैं और लेते हैं, इस प्रेमानंद का जो खजांची है जिसके पास ये पूरा माल-टाल है, चाभी है तिजोरी की, वो है- °राधा- तत्त्व°। यानी किशोरी जी से लिया और भक्तों को दिया। - - - ह्लादिनी शक्तेरो परम सार तार प्रेम नाम- - - और प्रेमेरो परम सार महाभाव जानी सेइ महाभाव रूपी राधा ठकुरानी। आनंद में भी मधुरता की- मधुरता की- मधुरता की जो चरम सीमा है- वह राधा है। आनंद तो बहुत छोटी-सी चीज़ है। आनंद अभी मिला नहीं आप लोगोँ को, जब मिलेगा तब समझियेगा आनंद क्या होता है!
आनंद सबसे नीचे क्लास का होता है परमहंसो का, ब्रह्मानंद कहते हैं उसको, अनन्त आनंद होता है वह। उससे ऊँचा आनंद होता है योगियों का, वो परमात्मानंद कहलाता है। उससे ऊँचा आनंद होता है शांत भाव के उपासक भक्तों का(वैकुण्ठ का)। और उससे भी ऊँचा दास्य भाव का, उससे भी ऊँचा सख्य भाव का, उससे भी ऊँचा वात्सल्य भाव का, उससे भी ऊँचा माधुर्य भाव का रस होता है। और माधुर्य भाव में भी तीन क्लास होते हैं- (1)सकाम (2) सकाम- निष्काम मिक्चर और (3) केवल निष्काम।
सकाम प्रेम कुब्जा आदि का, सकाम- निष्काम मिक्चर रुक्मणी आदि का और निष्काम ब्रज गोपियों का प्रेम है। निष्काम प्रेम माने जिसमे कोई कामना ना हो। देखो ब्रह्मानंदि को तो मोक्ष की कामना है। कोई कहता है, हे श्री कृष्ण दर्शन दो, ये भी कामना है। क्यों दर्शन दो, ऐसा क्यों कहते है तुम्हारे सर्वेण्ट (servent) हैं।
उनकी जब इच्छा हो, तब दर्शन दें, हम आज्ञा देने वाले कौन होते हैं। हमारी केवल एक ही मंशा होनी चाहिए- श्री कृष्ण की सेवा करना, यही हमारा लक्ष्य है और उस सेवा से हमको आनंद मिले, ना-ना ये मत मानना। अगर आनंद का उपभोग करने लगे आप, तो फिर सेवा नहीं कर सकते आप।
एक भक्त श्री कृष्ण को पंखा कर रहा था और पंखा करते-करते आनंद के आँसू आ गए, हाथ रुक गया, होश आया- अरे! ये मैं आनंद लेने लगा, ऐसा गधा हूँ मैं कि अपने प्राण-वल्लभ की सेवा छोड़ आनंद लेने लगा, स्वार्थी हूँ मैं तो।
बस! सुन लीजिये, अभी वहाँ की कल्पना भी नहीं कर सकते आप। तो ऐसा प्रेम है गोपियों का जो समर्था रति का प्रेम होता है, लेकिन वो गोपियाँ भी महाभाव तक जाती हैं बस! ये अंतिम स्थिति है। इसके आगे एक और क्लास है- जहाँ श्री कृष्ण भी नहीं जा सकते। - मादनाख्य-महाभाव- वहाँ केवल किशोरी जी की सीट है, राधा तत्त्व है। वहीं से सप्लाई होता है वो, ठाकुर जी के पास आता है, भिखारी बनकर इसीलिए ठाकुर जी किशोरी जी की उपासना करते हैं। इसीलिए सबसे पहले राधा शब्द बोला जाता हैं, नंबर दो पर है श्री कृष्ण। ब्रह्मवैवर्त पुराण कहता है- पहले राधा का उच्चारण करना जीवों, उसके बाद श्री कृष्ण का। श्री कृष्ण राधा तत्व के अंडर में हैं और श्री कृष्ण के अंडर में महाविष्णु, और गर्भोदशायी और क्षीरोदशायी, सब उनके अंडर में है। लेकिन हैं सब ये स्वरूप शक्ति के मालिक।
तो राधा तत्त्व वो है जिसकी उपासना स्वयं श्री कृष्ण करते हैं, जिन श्री कृष्ण की उपासना महाविष्णु आदि करते हैं, जिनके अंडर में अनंत कोटि ब्रह्माण्ड हैं। तो उस राधा तत्त्व के विषय में कोई शब्दों की गति नहीं, जिसके बारे में वेद (राधोपनिषद ने कहा) भी ठीक से नहीं जानते, वहाँ है वह राधा तत्त्व।

--- बोलिये लाड़ली लाल की जय।

"विकर्म"

                   

विकर्म उसे कहते हैं जिसमें श्रुति - स्मृति - युक्त कर्म भी न करे एवं ईश्वर - भक्ति भी न करे । इसमें उन नास्तिकों का समावेश होता है जो केवल भौतिकवादी हैं, जिन्हें ईश्वर या ईश्वरीय महापुरुषों से घोर घृणा है । उन विकर्मियों के विकर्म का परिणाम नरकादि यातनाएँ हैं । उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति भी नहीं होती एवं ईश्वर - प्राप्ति भी नहीं होती । जब तक जीवित रहते हैं, इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होने के कारण, उच्छृङ्खलतावश मनमाने कर्म करते हैं । मरने के पश्चात् उन्हें आसुरी योनियों में पटक देते हैं अतएव विकर्म तो कर्म से भी निन्दनिय है । साधारणतया इसी विकर्म को पाप कर्म कहा जाता है एवं कर्म को पुण्य कर्म कहा जाता है ।
वस्तुतः पुण्यकर्म एवं पापकर्म दोनों ही  बन्धनकारक हैं । वेद कहता है, पुण्य से स्वर्ग मिलता है, पाप से नरक मिलता है एवं दोनो के संयोग से मृत्युलोकीय देह मिलता है । इतना ही अन्तर समझ लीजिये कि स्वर्ग सोने की जंजीरो की बेडियाँ है और कुछ दिनों में पुनः चौरासी लाख योनियों की बेडियाँ पड जायेंगी और नरक लोहे की बेडियाँ है । इन स्वर्ग - नरकादि लोकों में केवल कर्मफल भोगना पडता है, कर्म करने का अधिकार नहीं है । अतएव ये दोनों त्याज्य हैं ।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

" अकर्म"



अकर्म उसे कहते हैं जिसमें अन्त:करण से तो ईश्वर की भक्ति की जाय किन्तु शरीर से श्रुति - स्मृति - विहित कर्म भी किये जायें । इसी अकर्म या कर्मयोग का उपदेश गीता में अर्जुन को दिया गया है । मैंने बताया था कि अर्जुन युद्ध करेगा तो स्वर्ग या पृथ्वी मिलेगी, युद्ध न करेगा, तो विकर्म हो जायगा, अतएव नरक मिलेगा । अतएव भगवान कहते हैं कि "तू युद्ध न कर", यह भी न कर, अन्यथा विकर्म हो जायगा और "युद्ध कर" यह भी न कर, अन्यथा कर्म हो जायगा । तू "अकर्म" कर - "तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्धय च" निरन्तर मन मुझ में लगाकर कर्म कर । तात्पर्य यह कि मन से ईश्वर में अनुराग हो एवं शरीर से शास्त्रोक्त कर्म भी हो, वही अकर्म या कर्मयोग कहलायेगा । इसमें ईश्वर भक्ति का फल तो ईश्वर - प्राप्ति मिलेगा, जिससे माया - निवृत्ति एवं परमानन्द - प्राप्ति का लक्ष्य  हल हो जायगा और कर्म का फल कुछ न मिलेगा क्योंकि केवल उस कर्म का फल मिला करता है, जिस कर्म में मन का लगाव रहता है । जब मन का लगाव भगवान में रहेगा तो स्वभावतः मन कर्म में न रहेगा । तब कर्म के फल के पाने का या बन्धन होने का प्रश्न ही उपस्तिथ न होगा । अस्तु, अकर्म या कर्मयोग वन्दनीय मार्ग है ।


जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

"कर्मसन्यास"



कर्मसन्यास उसे कहते हैं जिसमें ईश्वर - भक्ति तो कर्मयोगी की भाँति ही हो किन्तु वेदादि - प्रतिपादित कर्म न हो । ऐसा कर्मसंन्यासी भक्तियोग के फल के अनुसार ईश्वर - प्राप्ति का लक्ष्य पूरा कर लेगा और चूँकि कर्म करेगा ही नहीं, अतएव उसके फल भोगने का अथवा न भोगने का प्रश्न ही नहीं उठता ।
इस प्रकार कर्मयोगी की भाँति यह कर्मसंन्यासी भी शास्त्रों, वेदों एवं आप्त महापुरुषों द्धारा वन्दनीय है ।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

कर्मयोगी एवं कर्मसंन्यासी दोनों ही को जब एक ही फल


कर्मयोगी एवं कर्मसंन्यासी दोनों ही को जब एक ही फल की प्राप्ति होती है अर्थात दोनों ही ईश्वर - भक्ति करते हैं अतएव दोनों ही ईश्वर - प्राप्ति के परिणाम को प्राप्त करते हैं तो फिर कर्मयोगी का कर्म करने का प्रयास व्यर्थ ही है ।
जब उसका कोई फल ही नहीं मिलता तो कर्म का भार क्यों वहन किया जाय ?
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए उत्तर देते हैं कि -
अर्जुन ! कर्मयोगी एवं कर्मसंन्यासी दोनों ही कृतार्थ होते हैं किन्तु फिर भी कर्मयोग का मार्ग कर्मसंन्यास से श्रेष्ठ है । वह श्रेष्ठता क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान कहते हैं कि -
अर्जुन संसार का यह नियम सा है कि वह बडों का अनुकरण करता है, बडे ही छोटे के लिये मार्ग प्रशस्त करते हैं । यद्यपि अर्जुन ! तू जानता है कि मेरा कौन सा प्रयोजन अवशिष्ट है जिसके हेतु मैं कुछ कर्म करूँ, मैं तो पूर्णकाम हूँ, फिर भी देख मैं भी कर्म करता हूँ । कारण यह है कि यदि मैं कर्म न करूँ तो लोग मेरा ही अनुकरण करेंगे, जिसके परिणाम - स्वरूप खतरे में पड जायेंगे । अतएव मैं लोक - हिताय कर्म करता हूँ ताकि अनुकरणकर्ता लोग उससे लाभ उठायें इसलिये मैं कर्मयोगी को श्रेष्ठ मानता हूँ । इसलिये तुझसे भी कह रहा हूँ कि तू कर्मयोगी बनकर कर्म कर ।
आपको शंका हो शक्ति है कि कर्मयोगी का अनुकरण करने वाला जैसे ईश्वर - प्राप्ति करेगा वैसे ही कर्मसंन्यासी की नकल करने वाला भी तो ईश्वर - प्राप्ति ही करेगा, तो उसमें हानी या खतरे की क्या बात है ? बात यह है कि अनुकरण करने वाला सदा बहिरंग नकल ही करता है, अन्तरंग नहीं करता । अब सोचिये, यदि कर्मयोगी का अनुकरणकर्ता बहिरंग अनुकरण करेगा तो कर्मी बनेगा, अन्तरंग अनुकरण अर्थात ईश्वर - भक्ति का अनुकरण न करेगा, किन्तु यदि कर्मसंन्यासी का अनुकरण कोई करेगा तो उसके बहिरंग का अनुकरण अर्थात कर्म न करने का अनुकरण तो कर लेगा किन्तु अन्तरंग ईश्वर - भक्ति का अनुकरण न करेगा । परिणाम यह होगा कि ईश्वर - भक्ति एवं कर्म दोनों ही से रहित होकर विकर्मी बन जायगा ।

क्रमशः .............................


जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

कर्मयोगी एवं कर्मसंन्यासी


........... आप कह सकते कि अच्छा, यदि हम यह भी मान लें तो भी कर्मयोगी का नकलची कर्मी बना एवं कर्मसंन्यासी का नकलची विकर्मी बना । तो इसमें अन्तर क्या है ? कर्मी को स्वर्ग मिलेगा वह भी अन्त में दु:खमय है । हाँ बात तो साधारण बुद्धि से ठीक सी है किन्तु फिर भी इतना विचारणीय है कि विकर्मी से कर्मी श्रेष्ठ है क्योंकि वह उच्छृङ्खल नहीं रहेगा । जैसे ही उसे कोई तत्वज्ञ मिल जायगा और समझा देगा कि तू ऐसे ही कर्म किये जा किन्तु इन कर्मों को ईश्वरार्पित करते हुए मन का लगाव ईश्वर में किये जा तो उस कर्म का भी फल न बनेगा अर्थात यह कर्मयोग बन जायगा । किन्तु विकर्मी को यदि कोई तत्वज्ञ मिल भी जायगा तो उच्छृङ्खल होने का कारण एवं शास्त्र - वेद पर आस्था न होने के कारण वह प्रथम यही स्वीकार न करेगा कि शास्त्र - वेद सत्य हैं एवं अवश्य माननीय हैं और यदि कदाचित स्वीकार भी करेगा तो चिरन्तन उच्छृङ्खलता के अभ्यास के कारण ईश्वर - भक्ति आदि में प्रवृत्ति दु:सम्भव ही है । इसके अतिरिक्त लौकिक, सामाजिक व्यवस्था भी कर्म के द्धारा यथोचित चलती रहेगी, जब कि विकर्मी द्धारा लोक में क्रान्ति ही की संभावना रहेगी । यह कर्मयोग एवं कर्मसंन्यास के अनुकरण का अन्तर है ।
अब आप समझ गये होंगे कि ईश्वर भक्ति युक्त कर्म ही वन्दनीय है, शेष कर्म निन्दनीय हैं, फिर भी विकर्म से कर्म अच्छा है । एक बात और भी प्रमुखरुपेण विचारणीय है, वह यह कि जैसे कर्मी को वेदविहित विधि के थोडे उल्लंघन से भी दण्ड मिलता है, वैसे कर्मयोगी को दण्ड मिलने का प्रश्न नहीं है अर्थात साधक कर्मयोगी यदि कुछ थोडी भी विधि का पालन करता है तो भी वह श्रेष्ठ बनकर लाभ पहुँचाता है -
पुनः जब परिपक्व कर्मयोगी बन जाता है, तब तो कर्मफल भोगने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है । अतएव शास्त्रों, वेदों एवं अनान्य आप्त - ग्रन्थों ने जो कर्म - धर्म का खंडन किया है, वह एक मात्र उन्हीं कर्मों के विषय में है जो ईश्वर को पृथक करके, केवल कर्म के द्धारा ही कर्मबन्धनों को समाप्त करने की योजना बनाते हैं । किन्तु, ईश्वरभक्तियुक्त कर्म तो परम वन्दनीय हैं । उनसे अपना तो लाभ पूर्णतया होता ही है, साथ - साथ अनुकरणकर्ता का भी लाभ होता है ।


जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

ध्यानकरना है, ध्यान l


                 ये ध्यान का काम कौन करता है ? आँख, कान, नाक, त्वचा, रसना ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ध्यान नहीं कर सकती l आँख देखेने का काम कराती है, कान सुनने का, नासिका सूँघने का, रसना रस लेने का, त्वचा स्पर्श करने का l ध्यान करने का काम कौन करता है ? मन, अंतःकरण, चित्त अनेक नाम हैं उसके l तो ध्यान करना चाहिये भगवान् का, उसी का नाम, भक्ति उपासना, पूजा, पाठ जो कुछ शब्द बोलो l वो सब मन को करना है, इन्द्रियों को नहीं l तो भगवान् का ध्यान करना है, बस एक बात l दूसरी कोई बात न सुनु, न पढ़ो, न सोचो, न करो l ध्यान करना है और अगर कोई और बात पढ़ो, सुनो, करो, तो ध्यान नम्बर एक, बाद में और सब कुछ जैसे कीर्तन, भगवान् का नाम, रूप, गुण, लीला धाम ये गाते हैं l ये रसना का काम है बोलना l लेकिन नम्बर एक ध्यान, फिर गान l यानी इन्द्रियों को अगर साथ लेते हो तो कोई एतराज नहीं है, लेकीन अगर मन साथ में नहीं है तो ज़ीरो में गुणा हो जायेगा l ज़ीरो गुणा ज़ीरो बराबर ज़ीरो, ज़ीरो गुणा लाख बराबर ज़ीरो, ज़ीरो गुणा करोड़ बराबर ज़ीरो l इसलिये रूपध्यान ही साधना है, उपासना है, भक्ति है l

                     ---- जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

विनम्रता में छुपा जीवन की सफलता रहस्य



कुरुक्षेत्र में भीष्म पितामह शरशैय्या पर पड़े हुए थे। कौरव व पांडव समूह के अनेक लोग उनके चारों ओर खड़े थे। भीष्म पितामह ने धीमे स्वर में कहा, अब मृत्यु का वरण करना चाहता हूं। मेरे पास कुछ ही समय शेष है। यह सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर उनके पास बैठते हुए बोले, पितामह आपके मार्गदर्शन से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला। आज जब आपका अंतिम समय है तो मै आपसे निवेदन करना चाहता हूं कि आप हमे ऐसी कोई उपयोगी शिक्षा दें जो आगे जाकर हमारे काम आए। भीष्म पितामह ने कहा, आज मै तुम्हें नदी की एक छोटी कहानी सुनाता हूं। जिसमें जीवन का सार छिपा है। एक दिन समुद्र ने नदी से प्रश्न किया, तुम बड़े बड़े पेड़ों को अपने प्रवाह में बहा ले आती हो पर क्या कारण है कि नन्हीं घासों, कोमल बेलों को तुम अपने साथ नहीं ला पाती। समुद्र की बात सुनकर नदी मुस्कुराती हुई बोली- जब जब मेरे पानी का बहाव आता है तब-तब नरम बेलें, घास के तिनके व नरम पौधे झुक जाते है। वृक्ष अपनी कठोरता के कारण झुकने को तैयार नहीं होते। वे अंहकार के कारण सीधे खड़े रहते है और तो जानते ही है कि विनम्रता के आगे हमेशा अंहकार परास्त हो जाता है। नदी के जवाब से समुद्र संतुष्ट हो गया। यह कहानी सुनाकर भीष्मपितामह बोले, शायद आप सभी इस कहानी में छिपा हुआ सार समझ गए होंगे। व्यक्ति को हमेशा विनम्र होना चाहिए और विनम्र रहते हुए ही जीवन में आगे बढना चाहिए।

जय जय श्री राधे

🌷सर्वश्रेष्ठ हितैषी .....सद्गुरू देव !🌷


"सदगुरु महिमा कहन को, मन बहुत लुभाया ।
मुख में जिह्वा एक ही, तातैं पछताया ।।"
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किसी भी साधक का सर्वश्रेष्ठ हितैषी उसका सद्गुरु ही होता है ।  सद्गुरु से बढकर किसी का भी कल्याण चाहने वाला अन्य कोई नहीं होता । सद्गुरु का सम्बन्ध शाश्वत होता है । वे न सिर्फ अपने शिष्य को भगवद् प्राप्ति का उपाय बताते हैं बल्कि उसके साथ साथ साधना भी करते हैं, और उसकी भावी विपदाओं और सांसारिक समस्याओं से रक्षा भी करते हैं । गुरु को समर्पित की हुई साधना में कोई त्रुटी भी रह जाए तो सद्गुरु उसमें शोधन कर देते हैं ।
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किसी भी साधक को अपनी साधना का सिर्फ 25 प्रतिशत ही पूर्ण निष्ठा से करना होता है । 25 प्रतिशत सद्गुरु करता है । बाकि 50 प्रतिशत जगन्माता पद्माकी असीम करुणा से उसे फल मिल जाता है । पर स्वयं के भाग का 25 प्रतिशत तो हर साधक को शत प्रतिशत करना पड़ता है ।
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वास्तविक आध्यात्मिक जीवन को पाने के लिए हर क्षण गुरु प्रदत्त साधना के सहारे जीना आवश्यक है । जीवन की विपरीतम परिस्थितियों में जहाँ कहीं कोई आशा की किरण दिखाई न दे, और चारों ओर अंधकार ही अंधकार हो, वहाँ एकमात्र सद्गुरु ही हैं जो साथ नहीं छोड़ते । बाँकि सारी दुनिया साथ छोड़ सकती है, पर सद्गुरु महाराज कभी हमारा साथ नहीं छोड़ते । हम ही उन्हें भुला सकते हैं पर वे नहीं । उनसे मित्रता बनाकर रखो उनका साथ शाश्वत है । वे हमारे आगे के भी सभी जन्मों में साथ रहेंगे ।
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अपनी सारी पीडाएं, सारे दु:ख, सारे कष्ट उन्हें सौंप दो । उन्हें मत भूलो, वे भी हमें नहीं भूलेंगे । निरंतर उनका स्मरण करो । हमारे सुख-दुःख सभी में वे हमारे साथ रहेंगे । अपने ह्रदय का समस्त प्रेम उन्हें बिना किसी शर्त के दो ।
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'गु' शब्द का अर्थ है ..... अन्धकार, और 'रू' का अर्थ है दूर करने वाला ।
जो अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करते हैं वे ही गुरु हैं। शिष्य को गुरु का ध्यान अपने सहस्त्रार में निरंतर करना चाहिये । गुरु ही वास्तव में तीर्थ और देवता हैं क्योंकि वे भेदबुद्धि के विनाशक हैं।
"संतन ह़ी में पाईये, राम मिलन को घाट।
सहजै ही खुल जात है, सुंदर ह्रदय कपाट ।।"
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श्री गुरवे नमः, श्री परम गुरवे नमः, श्री परात्पर गुरवे नम:, श्री परमेष्टि गुरवे नमः, श्री जगत गुरवे नमः, श्री  आत्म गुरवे नमः, श्री विश्व गुरवे नमः ! ॐ गुरु ! जय गुरु !

जय जय श्री राधे ।                         

श्रीमहाराज जी द्वारा एक साधक को उसके प्रश्न का उत्तर--



बेटा-बेटी नाती-पोते के विवाह में लाखो-करोड़ो की धनराशि में आप लोग प्रसन्नतापूर्वक आग लगा देते है(समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिऐ), हास्पीटलो में लाखो खर्च करते है (नाशवान शरीर में आसक्ति के कारण), कोठी-बंगले-मकान-दुकान आदि में करोड़ो स्वाहा कर देते है (दिखावे में आकर या इससे सुख मिलेगा ऐसे अज्ञान के कारण), जीवन भर की पूंजी जोड़कर संतान के लिऐ छोड़कर मर जाते है (उनको अपना मानकर जबकि जीते-जी भी यह पूर्णरूप से असत्य सिद्ध होते हुऐ हजारो बार देख चुके है)।
लेकिन अगर गुरु/संत कह दे कि ज़रा 2-4 लाख की धनराशि तुमको इस सेवा (मंदिर/अस्पताल/प्रवचन आदि में ) में लगानी है या इतना सेवा लाकर हमको दो आदि; तब नापिऐ आप अपनी भगवत्शरणागति/गुरु-शरणागति की सच्चाई जिसकी बड़ी-बड़ी डींगे आप दुनिया के सामने स्वयम् को परम हरिभक्त घोषित करने के लिऐ मारते नही थकते और सोचो कि तब कितने एक से एक बहाने आते है आपकी दो कौड़ी की मायिक खोपड़ी में कि गुरु जी से ये कह दे तो बच जाये या ये कहके बच जाऐ, ये जानते हुऐ कि गुरु जी अंतर्यामी है और जो कह रहे है वो केवल हमारे कल्याण के लिऐ कह रहे है ।
खैर!! हम आपसे बस इतना ही कहना चाहते है कि इन सब पैमानो के हिसाब से स्वयम् की अवस्था तथा उन्नति या अवनति का हिसाब लगाते रहिऐ ताकि आप कम से कम खुद को तो धोखा ना दे (क्योकि भगवान/गुरु को तो चाहकर भी आप धोखा दे नही सकते) कि हम तो परम भगवद्भक्त है या गुरु-शरणागत है या हम में तो अब कोई दोष बचा ही नही या हम तो बस अब पूर्ण ही हो चुके है आदि आदि ।
बड़ी सीधी सी बात है लगाओ हिसाब कि साल भर में कितना तन-मन-धन संसार में लगाया और कितना हरि-गुरु में; आप स्वयम् ही अपनी सच्चाई जान जाओगे, और फिर उसको सुधारने का भरकस प्रयास करो अगर वास्तव में भगवदीय क्षेत्र में कुछ चाहते हो तो ।
जय श्री राधे।

प्रारब्ध क्या होता है?



भगवान् हमारे अनंत पुण्य व अनंत पापों में से थोडा-थोडा लेकर हमारे किसी एक जन्म का प्रारब्ध तैयार करते हैं और मानव जीवन के रूप में हमें एक अवसर देते हैं ताकि हम अपने आनंद प्राप्ति के परम चरम लक्ष्य को पा लें।

प्रारब्ध सबको भोगना पड़ता है।

भगवद् प्राप्ति के बाद जब कोई जीव महापुरुष बन जाता है,
तब भगवान् उसके तमाम पिछले जन्मों के एवं उस जन्म के भी समस्त पाप-पुण्यों तो भस्म कर देते हैं, लेकिन वे उसके उस जीवन के शेष बचे हुए प्रारब्ध में कोई छेड़छाड़ नहीं करते।
इसका अभिप्राय यह है कि भगवान् को पा चुके मुक्त आत्मा संतों/भक्तों को भी अपना उस जन्म का पूरा प्रारब्ध भोगना ही पड़ता है।
उसमें इतना अंतर अवश्य आ जाता है कि अब वह नित्य आनंद में लीन रहने से किसी सुख-दुःख की फ़ीलिंग नहीं करता। लेकिन फिर भी एक्टिंग में उसे सब भोगना पड़ता है।

किसी के प्रारब्ध को मिटाना भगवान् के कानून में नहीं है।

वे लोग बहुत भोले हैं, जो यह समझते हैं कि अमुक देवी जी, अमुक बाबा जी अपनी कृपा से मेरे कष्ट को दूर कर देंगे। या मुझे धन, वैभव, पुत्र आदि दे देंगे।

जो प्रारब्ध में लिखा होगा, वह नित्य भगवान् को गालियाँ देने से भी अवश्य मिलेगा।
जो प्रारब्ध में नहीं लिखा होगा, वह दिन-रात पूजा पाठ करने से भी न मिलेगा।

भगवान् की भक्ति करने से संसारी सामान नहीं मिला करता, जीव के प्रारब्ध जन्य दुःख दूर नहीं होते, बल्कि भक्ति से तो स्वयं भगवान् की ही प्राप्ति हुआ करती है।

यह बात अलग है कि कोई मूर्ख अपनी भक्ति से भगवान् को पा लेने पर भी वरदान के रूप में उनसे उन्हीं को न माँगकर संसार ही माँग बैठे।

यहाँ यह बात भी विचारणीय है कि जिसको भगवान् की प्राप्ति हो चुकी, उसके लिए प्रारब्ध के सुख-दुःख खिलवाड़ मात्र रह जाते हैं।

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प्रार्थना



आपकी जितनी आयु शेष है, यदि उसका एक-एक श्वास आपने भगवान् को सौंप दिया तो सारे पाप-तापो से मुक्त होकर आप इसी जन्म में भगवान को पाकर अनन्त जीवन की साध पूरी कर सकते हैं। आशा है,आप मेरी प्रार्थना पर ध्यान देंगे।🏻

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय l ( गीता १२.८ )



ध्यानकरना है, ध्यान l
ये ध्यान का काम कौन करता है ? आँख, कान, नाक, त्वचा, रसना ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ध्यान नहीं कर सकती l आँख देखेने का काम कराती है, कान सुनने का, नासिका सूँघने का, रसना रस लेने का, त्वचा स्पर्श करने का l ध्यान करने का काम कौन करता है ? मन, अंतःकरण, चित्त अनेक नाम हैं उसके l तो ध्यान करना चाहिये भगवान् का, उसी का नाम, भक्ति उपासना, पूजा, पाठ जो कुछ शब्द बोलो l वो सब मन को करना है, इन्द्रियों को नहीं l तो भगवान् का ध्यान करना है, बस एक बात l दूसरी कोई बात न सुनु, न पढ़ो, न सोचो, न करो l ध्यान करना है और अगर कोई और बात पढ़ो, सुनो, करो, तो ध्यान नम्बर एक, बाद में और सब कुछ जैसे कीर्तन, भगवान् का नाम, रूप, गुण, लीला धाम ये गाते हैं l ये रसना का काम है बोलना l लेकिन नम्बर एक ध्यान, फिर गान l यानी इन्द्रियों को अगर साथ लेते हो तो कोई एतराज नहीं है, लेकीन अगर मन साथ में नहीं है तो ज़ीरो में गुणा हो जायेगा l ज़ीरो गुणा ज़ीरो बराबर ज़ीरो, ज़ीरो गुणा लाख बराबर ज़ीरो, ज़ीरो गुणा करोड़ बराबर ज़ीरो l इसलिये रूपध्यान ही साधना है, उपासना है, भक्ति है l

---- जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

"ईश्वरोपासना ही सर्वप्रमुख"




ईश्वरोपासना रहित, केवल ब्रम्हचर्य रहने मात्र से मुक्ति होनी होती तो विश्व के सब नपुंसक तर गये होते । यदि संतान होने से मुक्ति होनी होती तो कुत्ते, बिल्ली, सुअर सबसे पहले तरते । यदि वानप्रस्थी या सन्यासी के व्याज मात्र से मुक्ति होनी होती तो शेर, चीते, भालू परम त्यागी बनवासी सर्वप्रथम तरते ............!!!!!!!!!!!!!

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

"कर्म"



कर्म का अभिप्राय उससे है जिसमें व्यक्ति श्रुति - स्मृति प्रतिपादित विधिवत कर्म का पालन करे किन्तु ईश्वर - भक्ति न करे । ऐसे कर्म में प्रमुख विचारणीय  बात यह है कि श्रुति - स्मृति की विधि में थोडा भी गडबड न हो, अन्यथा -
यदि एक वैदिक स्वर की भी त्रुटि रह जायगी तो कर्मकर्ता को लाभ के बजाय हानी हो जायगी । एक राक्षस ने ऋषियों को पकड कर बरबस एक यज्ञ करवाया । उसमें मंत्र "इन्द्रशत्रुर्विवर्धस्य" रखा गया, जिसका अर्थ था कि इन्द्र का शत्रु अर्थात राक्षस बढे । किन्तु, अक्षर वही रखते हुए भी ऋषियों ने एक स्वर बदल दिया । उस राक्षस को वैदिक स्वरों का ज्ञान नहीं था अतएव वह इस चातुरी को नहीं समझ सका
 यज्ञ सम्पन्न हुआ । भगवान ने भी मंत्रानुसार फल देने का वरदान दिया । पश्चात् राक्षस ने इन्द्र पर आक्रमण कर दिया, परिणामस्वरूप राक्षस मारा गया । मरते समय उसने कहा कि यह ईश्वर के समदर्शित्व पर कलंक है कि उसने वरदान देकर भी पूरा नहीं किया । ईश्वर ने आकाशवाणी द्धारा इस रहस्य का उदघाटन किया कि "इन्द्रशत्रुर्विवर्धस्व", इस मंत्र में जो स्वर लगाया था उसका अर्थ यही था कि इन्द्र की शक्ति बढे, अतएव इन्द्र विजयी हो गया यह विधिहीन कर्म का फल है और यदि विधियुक्त कर्म सम्पन्न हो गया तो उसका फल स्वर्ग है, जो नश्वर है । अतएव शास्त्रोक्त विधिवत् कर्म की निन्दा सी पाई जाती है ।

जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

अनन्त नाम रूपाय

    
भगवान् का न कोई रूप होता है, न कोई नाम होता है l तुम जैसा मान लो, वैसे ही तुमको मिल जायेंगे l ‘क’ बोलो ‘ख’ बोलोl देखो ब्रजवासियों ने कभी श्रीकृष्ण नहीं कहा, लाला, अपनी भाषा में बेटा बोल दो l बस बेटा बेटा l हरे बेटा हरे बेटा बेटा बेटा हरे हारेl इससे कोई मतलब नहींl नाम का महत्व नहीं है, नामी का महत्व है यानी नाम में नामी भरा है l ये बुद्धि में भरो, तब लाभ मिलेगाl मन जहाँ रहेगा, मन का अटैचमेन्ट जहाँ होगा, उसी की उपासना मानी जायगीl तुमने कहा- राधे राधे, लक्ष्य क्या है तुम्हारा राधे बोलने में ? हमारी नौकरानि का नाम है, हमारी मम्मी का नाम है, बीबी का नाम है l हमारी बहिन का नाम है राधे l तो राधे राधे दिन रात बोलो ऑसू बहाओ, बेहोश हो जाओ, वही राधे माँ मिलेग, वही राधे बीबी मिलेगी, वही राधे बहिन मिलेगीl वही राधे नौकरानी मिलेगी l वो राधा तत्व पर्सनेलिटी का स्वप्न भी नहीं मिल सकता l जहाँ मन का अटैचमेन्ट होगा, उसी पर्सनेलिटी का लाभ मिलेगा l
तो इसलिये भगवान् का नाम ले रहे हो कीर्तन कर रहे हो, ये बात तब साबित होगी जब तुम्हारा यह विश्वास सेन्ट परसेन्ट दृढ़ हो कि इस नाम में भगवान् का निवास है l फिर कोई नाम लोl राम कहो, कृष्ण कहो, गधा कहो, मन में आये जो कहो l कोई शर्त नहीं भगवान् का l

   ----- जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज